यथा देहोऽहं पुरुषोऽहं ब्राह्मणोऽहं शूद्रोऽहमस्मीति दृढनिश्चयस्तथा नाहं ब्राह्मण: न शूद्र: न पुरुष:। किन्तु असंगः सच्चिदानन्दस्वरूप प्रकाशरूपः सर्वान्तर्यामी चिदाकाशरूपोऽस्मीति दृढनिश्चयरूपः अपरोक्षज्ञानवान् जीवन्मुक्तः॥
जिस तरह हम देह हैं, हम पुरुष हैं, हम ब्राह्मण हैं, हम शूद्र हैं, इस प्रकार का दृढ़ निश्चय होता है, वैसा ही दृढ़ निश्चय हम ब्राह्मण नहीं हैं, शूद्र नहीं हैं, पुरुष नहीं है, अपितु हम असंग, सच्चिदानंदस्वरूप, प्रकाशरूप, सर्व अंतर्यामी, चिदाकाशरूप हैं, इस प्रकार के दृढ़ निश्चयरुप अपरोक्ष ज्ञान से युक्त होता है, वह जीवनमुक्त है।
—तत्वबोध, श्लोक ३६.१
प्रश्नकर्ता: तत्वबोध में आदि शंकराचार्य जी अपरोक्ष ज्ञान की बात को जीवनमुक्त होने का आधार बता रहे हैं। कृपया इस दृढ़ निश्चय और अपरोक्ष ज्ञान के बारे में समझाएँ।
आचार्य प्रशांत: धारणाएँ तो मन रखता ही है। एक धारणा है कि, "मैं अमुक आयु का हूँ, अमुक लिंग का हूँ, अमुक वर्ण का हूँ", उसको अगर हटाना है तो कोई दूसरी धारणा चाहिए। साधारणतया दूसरी धारणा पहली धारणा की ही श्रेणी की, पहली धारणा के ही आयाम की, पहली धारणा जैसी ही होती है। वह पहली धारणा से भिन्न हो सकती है, विपरीत हो सकती है, परंतु होती साधारण धारणा के तल पर ही है।
तो इसीलिए इतना कहना काफ़ी नहीं होगा कि, "मैं किसी वर्ण का नहीं हूँ, ना ब्राह्मण हूँ, ना शूद्र हूँ, मैं किसी आयु का नहीं हूँ, मैं किसी लिंग का नहीं हूँ, मैं किसी कोटि का नहीं हूँ।" नकार की भाषा भर से काम नहीं चलेगा; मन को कुछ पकड़ने के लिए सार्थक विधायक चाहिए। पर हमने कहा कि मन को कुछ विधायक देने में ख़तरे भी होते हैं। ख़तरे ये होते हैं कि पकड़ने की आदत थी, पकड़ी हुई वस्तु छूट गई, पकड़ने को दूसरी वस्तु मिल गई; वस्तु तो छूटी, आदत नहीं छूटी, पकड़ने की आदत ज्यों-की-त्यों विद्यमान रही।
इसीलिए जब बात आई व्यक्ति के पहचान की, ‘कोहम्?’ प्रश्न के उत्तर की, तो झूठे उत्तरों से मुक्ति देने के लिए एक विशेष उत्तर का निर्माण किया गया। यह विशेष उत्तर ऐसा है जो झूठी धारणाओं को तो काट देता है और स्वयं कोई नई धारणा नहीं बन जाता। पहले से आपने जो पहचान बना रखी है, उसको तो मिटा देता है और स्वयं कोई नई पहचान नहीं बन जाता।
क्या है उत्तर?
शंकराचार्य कह रहे हैं, “हम असंग हैं।” यह नहीं कह रहे हैं कि, "हम कुछ नहीं हैं।" याद रखना, अगर कह दिया कि हम कुछ नहीं हैं, तो मन तड़प जाएगा और तड़प करके वह ‘कुछ नहीं’ को ही कोई वस्तु, कोई विषय, कोई कल्पना, कोई छवि बना लेगा, तो ‘कुछ नहीं’ इत्यादि कहने से लाभ नहीं। मन बड़ा चंचल और बड़ा उर्वर है, वो तत्काल कुछ-न-कुछ पैदा कर लेता है। तो कहा, “हम असंग हैं।” ठीक, मन को पकड़ने के लिए कुछ मिल गया। पहले मन कह रहा था, “हम अमुक व्यक्ति हैं”, अब मन को समझा दिया गया कि “नहीं, तुम असंग हो।”
मन ने कहा, “ठीक, कुछ तो मिला पकड़ने को, और आप हमें बता रहे हैं कि हम असंग हैं तो कुछ अच्छा बता रहे होंगे। हम स्वीकार कर लेते हैं। हम तब तक स्वीकार करते चलेंगे, जब तक आप हमारे हाथ में पकड़ने के लिए कुछ रखते चलें। आपने अभी क्या रख दिया हमारे हाथ में? कि हम असंग हैं।”
मन संतुष्ट हुआ। अब कह तो दिया गया कि 'हम असंग हैं', मन ने पकड़ भी लिया कि असंग हैं, पर यह 'असंग होना' ऐसी बात है जो पकड़ में आ ही नहीं सकती, क्योंकि जो असंग है, उसके साथ कुछ नहीं, उसके बाद दूसरा कोई नहीं।
जब उसके अलावा दूसरा कोई नहीं, तो उसे पकड़ने वाला भी कौन है? उसका अर्थ करने वाला भी कौन है? उसका नाम लेवा भी कौन है? जो असंग है, वह अनंत भी होगा। जो अनंत है, उसकी कल्पना भी कैसे की जाए? यह एक अति विराट समस्या खड़ी हो जाती है मन के सामने। मन को कह दिया कि तुम असंग हो, और असंग का ओर ना छोर; मन फँस गया। यह वो समस्या है जो मन का समाधान बन जाती है। बात मज़ेदार है न?
यह विराट समस्या मन के लिए अंतिम समाधान बन जाती है। मन कह रहा है, “हम असंग हैं, हम असंग हैं, हम असंग है”, और यह कहते-कहते हम ही मिट गए। “मैं असंग हूँ”, यह कहते-कहते 'मैं' का ही लोप हो गया। एक ख़ास तरह की पहचान दे दी गई मन को; साधारणतया जो पहचानें दी जाती हैं, वो 'मैं' की भावना को और प्रबल कर देती हैं, यह जो विशिष्ट पहचान दी गई, इसने 'मैं' को मिटा ही डाला।
जैसे कि तुम काग़ज़ पर कुछ घिसो; साधारण पहचानें ऐसी होती हैं जैसे तुम काग़ज़ पर कलम घिसो, कड़िया घिसो, मिट्टी घिसो, गंदगी घिसो, और यह नई ख़ास पहचान ऐसी है कि जैसे तुम काग़ज़ पर इरेज़र घिसो। वह कुछ नया तो नहीं ही लिखेगा, जो कुछ पुराना लिखा हुआ है, उसे भी मिटा देगा। जैसे तुम कपड़े पर साबुन घिसो। साबुन के अलावा कपड़े पर कुछ भी घिसोगे, तो कपड़े का क्या होगा? मैला ही होगा। पर एक ख़ास चीज़ होती है दुनिया में जिसको कपड़े पर घिसोगे तो कपड़ा और दागदार नहीं हो जाएगा, बल्कि पहले जितने दाग़ लगे हुए हैं, उनसे मुक्ति मिल जाएगी।
‘असंगोऽहम्’, यह ऐसी ही पहचान है। इसी तरह से पहचान है कि “मैं प्रकाशरूप हूँ, मैं सच्चिदानंदस्वरूप हूँ, मैं चिदाकाशरूप हूँ।” मैं चिदाकाशरूप हूँ, तो मैं अनंत हो गया, आकाश, सर्वव्यापक। अनंत हो गया मैं, तो पराया किसको बोलूँ? अनंत हो गया मैं, तो कैसे कहूँ कि मैं कौन और संसार कहाँ? और यह विधि बड़ी सफल विधि रही है। इस विधि की जगह अगर आपने यह कहना शुरू कर दिया कि, "मैं कुछ नहीं हूँ", तो आपको कठिनाई और हार मिलेगी, क्योंकि मन कुछ नहीं होना स्वीकार नहीं करता; मन को कुछ चाहिए।
आप बहुत ज़िद करोगे कि “नहीं, तू सीख इस बात को कि तू कुछ नहीं है”, तो मन कहेगा, “ठीक है! मैं कुछ नहीं हूँ।” और कुछ नहीं, यह (रूमाल दिखाते हुए) , इसका नाम ‘कुछ नहीं’ रख देगा। वह ‘कुछ नहीं’ को ही विषय बना लेगा।
तो जिन्होंने मानव मन को समझा, जो मानस के मर्मज्ञ थे, उन्होंने यह सलाह दी ही नहीं कि तुम ऐसी मान्यता करो कि तुम शून्य हो। उन्होंने कहा, शून्य आदि अपने-आपको मानना संभव ही नहीं है। कोई बिरला होगा जिसमें इतना आंतरिक अनुशासन होगा कि वह अपने-आपको शून्य मान सके। ज़्यादा सफल विधि तो यही है, तुम कहो कि, "अनंत हूँ, विराट हूँ, असंग हूँ, अद्वैत हूँ।"
अब आपने पूछा कि, “दृढ़ निश्चयस्वरूप अपरोक्ष ज्ञान की बात क्या है?”
दृढ़ निश्चय इसलिए करना पड़ता है क्योंकि पुरानी धारणाएँ जल्दी से हटती नहीं। जितनी दृढ़ निश्चय से तुमने इस बात को पकड़ रखा था कि तुम सुरेश या रमेश हो, उतने ही दृढ़ निश्चय से तुम्हें इस धारणा को पकड़ना पड़ता है कि तुम कैवल्य मात्र हो, आत्मा मात्र हो, विशुद्ध चैतन्य मात्र हो। बल्कि पहले जितना निश्चय था, उससे तनिक ज़्यादा ही निश्चय चाहिए। यह बात हुई दृढ़ निश्चय की।
फिर कहा, ‘अपरोक्ष ज्ञान’। अपरोक्ष शब्द सुंदर है, सटीक है, गूढ़ है। समझेंगे। प्रत्यक्ष माने तो वह जो सामने हो। अब सामने आमतौर पर हम उसी चीज़ को मानते हैं जो इंद्रियों के सामने हो, है न? शब्द ही देखो कैसा है, प्रत्यक्ष − 'प्रति' 'अक्ष', आँखों के सामने, और जो छुपा हुआ हो, उसको हम कह देते हैं, आँखों के सामने नहीं है, परोक्ष, वहाँ भी अक्ष बैठे हुए हैं। तो जो सामने है और जो छुपा हुआ है, दोनों का निर्धारण कौन कर रहा है? अक्ष, आँखें।
शंकराचार्य कह रहे हैं, “बच्चे! कुछ ऐसा भी है जो छुपा तो नहीं है, पर आँखों से दिखाई भी नहीं देगा।” अगर वह छुपा होता, तो हम उसको क्या बोलते? परोक्ष। वह छुपा नहीं है, इसलिए हम उसको बोल रहे हैं ‘अपरोक्ष’। अगर वह छुपा होता, तो हम कहते छुपा ही हुआ है, परोक्ष बोल देते, पर परोक्ष तो है नहीं। परोक्ष नहीं है, छुपा नहीं है, तो हम उसको बोल रहे हैं अपरोक्ष। अपरोक्ष कहने से तात्पर्य है कि सामने है, उपलब्ध है, सम्मुख है।
आप कहेंगे, “अरे भाई! अगर यही कहना था अपरोक्ष नहीं है तो सीधे कह देते प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष क्यों नहीं कहा, प्रत्यक्ष कहने की जगह पर अपरोक्ष क्यों कह रहे हैं?” प्रत्यक्ष इसलिए नहीं कहा क्योंकि इसके (आँखों के) सामने थोड़े ही है। सामने तो है, पर अक्ष के सामने नहीं है, तो इसीलिए प्रत्यक्ष नहीं कहेंगे। सामने है, पर इंद्रियगत रूप से सामने नहीं है, तो इसीलिए नहीं कहेंगे प्रत्यक्ष; हम कहेंगे अपरोक्ष।
अपरोक्ष का मतलब हुआ प्रत्यक्ष से भी ज़्यादा सामने। प्रत्यक्ष तो जो है, उसमें और तुममें दूरी है, द्वैत है। तुम यहाँ हो (शरीर की ओर इशारा करते हुए) , आँखें यहाँ हैं (शरीर की ओर इशारा करते हुए) और जो दृष्टव्य वस्तु है, वह यहाँ (सामने की ओर इशारा करते हुए) है। तभी तो आँखों से देख पा रहे हो न। आँखों के भी कुछ बहुत क़रीब आ जाए, तो दिखाई पड़ेगा क्या?
तो प्रत्यक्ष वस्तु और विषयी में, प्रत्यक्ष दृश्य और दृष्टा में सदा एक दूरी होगी ही होगी। और संपर्क, नाता सीधा भी नहीं होगा; जो हो रहा है, वह आँखों के माध्यम से हो रहा है। बीच में कोई माध्यम बैठा हुआ है, माध्यम का क्या नाम है? अक्ष। तो जब कुछ प्रत्यक्ष होता है तो वह तो फिर भी तुमसे थोड़ा तो दूर होता ही है न, जब कुछ अपरोक्ष रूप से सामने होता है तो वह तुमसे बिलकुल ही नज़दीक होता है, एकदम ही सटा हुआ।
सत्य का स्पर्श इसीलिए अपरोक्ष होता है। सत्य का अनुभव प्रत्यक्ष नहीं होता, अपरोक्ष होता है। आदि शंकराचार्य ने अपने उत्कृष्टतम ग्रंथ को नाम दिया ‘अपरोक्षानुभूति’। पास तो है, पर आँखों के पास नहीं है; पास तो है, देह के पास नहीं है। देह और आँखें तो दूरी के माध्यम और दूरी के कारण हैं। वो पास तो है, पर कुछ इस तरीक़े से कि हम और वह बिना किसी माध्यम के जुड़े हुए हैं। अब हुआ अद्वैत सत्य।
द्वैत में होती हैं धारणाएँ, द्वैत में होती हैं सारी परिकल्पनाएँ, द्वैत में होते हैं आभास, और सत्य होता है अद्वैत। द्वैत में तुम्हें जब भी कुछ पता चलेगा, किसी माध्यम से पता चलेगा – किताब ने बता दिया, आँखों ने बता दिया, अनुभव ने बता दिया, दुनिया ने बता दिया, मित्रों ने बता दिया, सुन आए। अद्वैत ज्ञान बिना किसी माध्यम के स्फुरित होता है। रमण महर्षि बार-बार स्फूर्णा की बात करते थे, यह शब्द उनको बहुत प्रिय था। जो अनायास, अकारण उठ आए, जन्म ले ले सो स्फूर्णा।