अपनी ज़िंदगी की असलियत जाननी है? || (2020)

Acharya Prashant

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अपनी ज़िंदगी की असलियत जाननी है? || (2020)

प्रश्नकर्ता: आप कहते हैं कि जीवन में मुक्ति, आनंद और चैन आए उससे पहले बंधनों का, दुःख और बेचैनी का अनुभव अनिवार्य है, पर मेरे जीवन में तो कोई ख़ास दुःख या बेचैनी दिखती नहीं मुझे। तो मैं बेईमान हूँ क्या या सचमुच दुःख है ही नहीं?

आचार्य प्रशांत: समझते हैं। देखो बहुत बड़ी तादाद होती है ऐसे लोगों की जो अपनी ज़िंदगी से लगभग संतुष्ट होते हैं। ‘लगभग’ शब्द पर ग़ौर करना, उन्हें अपनी ज़िंदगी से शिकायतें तो रहती हैं। ऐसे कम ही लोग मिलेंगे जिन्हें ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं, कोई अप्रसन्नता नहीं लेकिन उनकी शिकायतें बड़ी मद्धम होती हैं, बड़ी गुनगुनी सी। उबलती, खौलती, दहकती, लपट देती शिकायतें नहीं होती उनके पास। तो वो खींझते रहते हैं, चिढ़ते रहते हैं पर उनकी खींझ, उनकी चिढ़ कभी भी क्रांति या विद्रोह नहीं बनती।

ये शब्द ही अलग-अलग आयामों के हैं, है न? कहाँ खींझ और चिढ़ जो हम ज़्यादातर लोगों में देखते हैं और कहाँ विद्रोह और क्रांति। तो इसलिए मैं कह रहा हूँ कि अधिकांश लोग अपनी ज़िंदगी से थोड़ा बहुत गिला-शिकवा रखते हुए भी लगभग संतुष्ट होते हैं। उनसे अगर कहा जाए कि, "भाई तुम बीच-बीच में असंतुष्टि दिखा देते हो, अपनी किस्मत को कोसने लग जाते हो, तुम अपनी ज़िंदगी वाकई बदलना चाहते हो क्या?" तो कहेंगे — "हाँ साहब, ये समस्या है, वो समस्या है, ऐसा ठीक नहीं चल रहा है, ये गड़बड़ है, परेशान रहता हूँ, ज़िंदगी बदलनी है।"

और ज़िंदगी को बदलने के लिए जो श्रम लगना है जैसे ही उसकी आप बात करेंगे या ज़िंदगी को बदलने में जो मूल्य, कीमत लगनी है जैसे ही उसकी बात करेंगे वैसे ही ये जनाब कदम पीछे खींच लेंगे। क्योंकि जैसा हम कह रहे थे कि इनके पास बस गुनगुनी सी खींझ है, ऐसी ज्वाला नहीं जो इनकी शिकायतों को और शिकायतों पर ही आधारित, शिकायतों से ही गुथे हुए इनके पूरवर्ती जीवन को पूरी तरह भश्मीभूत कर दे।

वो नहीं है इनके पास, तो ये लगभग संतुष्ट की श्रेणी में है, इनका जीवन जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहेगा। जैसे कि कोई गाड़ी जो खटर-पटर आवाज़ तो बहुत करती हो लेकिन उस खटर-पटर आवाज़ के साथ ही वो सड़क पर चली जा रही हो, चली जा रही हो और बहुत लंबे समय से चले जा रही हो।

ये गाड़ी ना तो अपनी खटपट छोड़ेगी, ना इसके पुर्जों से जो चूँ-चाँ हो रही है वो खत्म होगी और ना ही इसका मालिक इस गाड़ी को सड़क से उतारेगा। उसका इस गाड़ी को छोड़ने का कोई इरादा नहीं है, हालाँकि वो इस गाड़ी में बैठे-बैठे चिढ़ता बहुत रहता है, शिकायतें बहुत करता रहता है कि, "अरे! ये देखो, कभी टायर पंचर हो गया, कभी इंजन गर्म हो गया, कभी धुँआ ज़्यादा फेंक रही है", कभी कुछ-कभी कुछ। ये वो सब शिकायतें करता रहेगा पर इस गाड़ी को ना तो पूरी तरह सुधारने की कीमत उसे अदा करनी है और ना ही इस गाड़ी से आगे बढ़कर कुछ और पाने का उसका कोई इरादा ही है। ये गाड़ी चलती रहेगी।

अधिकांश लोगों की ज़िंदगियाँ ऐसी होती हैं, उनकी गाड़ियाँ चलती रहती हैं जैसा कि आपने प्रश्न में कहा कि, "मेरे जीवन में कोई खास दुःख या बेचैनी नहीं दिखती मुझे।" ये हाल अधिकांश लोगों का है — खास दुःख या बेचैनी नहीं दिखती मुझे। दुःख है, बेचैनी है, खास नहीं प्रतीत होते वो। वो बस इतने हैं कि उनके साथ जिया जा सकता है। वो इतने हैं कि जीवन उनके साथ अब आदतन समायोजित हो गया है। वो (दुःख) हैं पर इतने नहीं हैं कि दम घोंट दे। वो हैं पर इतने नहीं हैं कि प्राण उनसे मुक्ति के लिए छटपटाने लग जाए।

तो हम उनको साथ लिए-लिए भी जी लेंगे जैसे कि कोई पुरानी बीमारी हो जिसके साथ सह-अस्तित्व की आपने आदत बना ली हो, समझौता कर लिया हो। ऐसा होता है ज़्यादातर लोगों का जीवन। इसीलिए ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगी में कभी कोई अध्यात्मिक क्रांति होने नहीं पाती।

अब क्या करें? अब एक तो तरीका ये है कि आपका जो निजी जीवन चल रहा है जिसको आप कह रहे हैं कि, "करीब-करीब ठीक चल रहा है, कोई ख़ास दुःख, अफसोस वगैरह नहीं है मुझे", आपके ऊपर कोई आपदा ही टूट पड़े।

अब क्यों हो ऐसा? अध्यात्म में कोई किसी के दुर्भाग्य की कामना क्यों करे? पर अक्सर आध्यात्मिक जागरण इस जगह से शुरू होता है कि आपकी ठीक-ठाक ज़िंदगी चली जा रही थी, जैसा आपने लिखा ‘लगभग’ संतुष्ट, तो आपकी ठीक-ठाक सी ज़िंदगी चली जा रही थी, अचानक उस ज़िंदगी में कुछ अनहोनी घट गई। और वो जो फिर अनहोनी घटना होती है वो आपके जीवन को एक नई, साफ, ज़्यादा ईमानदार दृष्टि से देखने को मजबूर कर देती है। आपको विवश कर देती है कि आप वो प्रश्न पूछें जो आपने पहले कभी पूछे नहीं थे। वो प्रश्न कभी उठते भी थे तो या तो बेईमानी के चलते या आलस्य के चलते आपने उनको दबा दिया था। ये पहला मार्ग हुआ अनहोनी का, दुर्भाग्य का, आपदा का, कुसंयोग का। ये मार्ग ज़्यादातर लोगों पर आता नहीं है, ना ही आए तो बेहतर है, है न?

और जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा है विज्ञान, तकनीक, आधुनिक चिकित्सा, अर्थव्यवस्था ये सब सुनिश्चित करे दे रहे हैं कि आकस्मिक आपदाएँ तो अब लोगों पर कम-से-कम ही आती हैं। कुछ हो भी जाए तो उसके पीछे कोई-न-कोई आपने सामाजिक या आर्थिक सहारा वगैरह खड़ा कर रखा होता है जैसे इंश्योरेंस (बीमा)।

पहले बीमारियाँ लग जाती थीं और बीमारियाँ इतनी कठिन और दुर्निवार होती थीं कि अच्छे-अच्छों की अक्ल ठिकाने ले आ दें। अब बीमारियाँ या तो लगेंगे नहीं क्योंकि टीकाकरण हो जाता है, दवाइयाँ हैं या कभी बीमारी लग भी गई तो अस्पताल बड़े हैं, चिकित्सा शास्त्र ने प्रगति कर ली है, आप ठीक हो जाते हैं।

तो वो जो प्राकृतिक तरीका था आपको झझोड़ कर जगा देने का, आप पर एक विपत्ति ले आ देने का, वो प्राकृतिक तरीका चला गया। और उन सब चीज़ों की तो बात ही नहीं कर सकते कि भाई आप किसान हैं और बारिश नहीं हुई तो आप पर आपदा आ गई या आप किसी जंगल से चले जा रहे हैं जंगली जानवर ने आप पर आक्रमण कर दिया।

वो सब चीज़ें तो अब होने से रहीं। थोड़ी बहुत अगर होती भी हैं तो जैसे-जैसे साल बीतते जा रहे हैं आगे एकदम नहीं होंगी। तो वो सब अनहोनियाँ घटित ज़रा कम ही होती हैं। दुनिया भर में आदमी की औसत आय भी बढ़ती जा रही है और औसत आयु भी। आज दुनिया का औसत आदमी जितना कमाता है उतना कभी नहीं कमाता था, और आज दुनिया के औसत आदमी की जितनी आयु रहती है, जितनी उम्र तक वो जीता है उतना वो कभी नहीं जीता था। तो हम अनहोनी के जिस मार्ग की बात कर रहे हैं वो मार्ग तो अवरुद्ध हुआ।

तो अब फिर क्या तरीका बचता है अपनी ‘लगभग’ ठीक-ठाक चल रही ज़िंदगी में अचानक उठ बैठने का? दो रास्ते बचते हैं उनकी बात करेंगे।

एक रास्ता तो समझ लीजिए कि हुआ डाकू रत्नाकर का। उसका क्या रास्ता है? उसकी ज़िंदगी भी बढ़िया चल रही थी। रत्नाकर डाकू पता है कौन था? इनको बाद में हम जानते हैं, किसके नाम से? वाल्मीकि के नाम से।

बढ़िया चल रही थी ज़िंदगी। जंगल पर उसका एकछत्र राज्य था। आते-जातों को लूटता था और बड़ा डाकू था भाई! देश थर्राता था उससे। कहा जाता है कि सिपाही भी उसके इलाके से गुज़रने से कतराते थे, ऐसा तो वो डाकू था। बढ़िया उसकी ज़िंदगी चल रही थी ठीक वैसे जैसे कि आज के अधिकांश लोग दावा करेंगे कि हमारी ज़िंदगी कैसी चल रही है। ठीक-ठाक चल रही है। कुछ छोटे-मोटे कष्ट, असुविधाएँ उसको भी रहे होंगे कि, "भाई जंगल से गुज़रता हूँ मच्छर काट लेते हैं या कि अर्थव्यवस्था में मंदी चल रही है आजकल सेठों ने जंगल से गुज़रना ज़रा कम कर दिया है। गुज़रते भी हैं तो उनके पास दो चार सिक्के निकलते हैं बस।" तो इस तरह की छोटी-मोटी दो-चार तकलीफें वो भी कह देता होगा पर कुल मिला-जुला करके ठाठ थे। जैसे आजकल होते हैं लोगों के।

"कैसा चल रहा है साहब?"

"बढ़िया, मस्त!"

तो वैसे ही उसका भी मस्त चल रहा था।

अब ये जो मस्त चलती ज़िंदगी थी, इसमें अचानक अवरोध आया बल्कि ये कहिए कि उसने अवरोध को आमंत्रित किया। तो ये एक तरीका है कि तुम अपनी मस्त चलती ज़िंदगी में एक अवरोध को आमंत्रित ही कर लो।

कैसे आमंत्रित किया? कहते हैं कि एक दिन कोई जंगल से एक साधु गुज़र रहे थे। कोई कहता है नारद ही गुज़र रहे थे। तो ये जो साधु महाराज गुज़र रहे थे, इनको लूटने के लिए भी डाकू खड़ा हो गया। तो वो हँसने लग गए। बोले – “मेरे पास है क्या? जो कुछ है ले लो तुम, पर ये बता दो कि ये जो तुम कर रहे हो ये किसके लिए कर रहे हो?” बोला – “अपने लिए कर रहा हूँ।” बोले – “तुम तो सामने खड़े हुए हो, मुझे लगता नहीं कि ज़्यादा तुम भोग वगैरह सकते हो। सही-सही बताओ किसके लिए कर रहे हो?” तो बोलता है – “परिवार है, पत्नी है; कुछ अपने लिए करते हैं, कुछ उनके लिए करते हैं।”

साधु ने कहा – “बढ़िया है, जो कर रहे हो, करे चलो। बस एक काम करना, घर जाना और अपने परिवार से पूछ कर आना कि ये सब जो तुम कर रहे हो जब इसका अंजाम मिलेगा, कर्मफल मिलेगा, एक नर्क में सड़ोगे तुम तो क्या घर वाले भी तुम्हारा साथ देंगे?”

तो कुपित हो गया रत्नाकर। बोला – “सब साथ देंगे, क्यों नहीं देंगे? जो करता हूँ उन्हीं के लिए करता हूँ। गर्दन काटता हूँ, उन्हीं के लिए काटता हूँ। पाप है, उन्हीं के लिए करे हैं। सब साथ देंगे मेरा।” साधु लगा हँसने, बोला – “सब साथ देंगे तो बढ़िया बात है। तुम्हारा खड्ग मेरी गर्दन, उड़ा देना। इतनों की तुमने हत्या की है मेरी भी कर देना और मैं यही प्रतीक्षा करूँगा। साधु डरता नहीं, भागता नहीं। तुम घर जाओ और पूछ कर आओ। अगर घर वाले कहते हैं कि जैसे उन्होंने कर्म को भोगने में तुम्हारा साथ दिया है वैसे ही कर्मफल को भोगने में तुम्हारा साथ देंगे, तो फिर तुम्हारी तलवार और मेरी गर्दन, मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगा।”

रत्नाकर घर जाता है, सामने पत्नी। वो सवाल वो पत्नी से कर लेता है जो कभी करा ही नहीं था, खुशहाल चल रही थी ज़िंदगी। जब ज़िंदगी खुशहाल चल रही होती है तो उसमें बहुत सवाल-जवाब किए नहीं जाते। भाई जब सब कुछ अच्छा ही चल रहा है तो जाँच-पड़ताल क्या करनी! जब सब अच्छा चल रहा होता है तो कौन परतें उधेड़-उधेड़कर देखे कि नीचे क्या है। गाड़ी बढ़िया चल रही है न, कौन फिर उसका हिस्सा-दर-हिस्सा खोले, सब कलपुर्ज़े जाँचे। गाड़ी की भी जाँच-पड़ताल आप तब करते हैं जब उसमें कोई आपको कमी, दिक्कत, तकलीफ पता चलती है। शरीर की जाँच भी तभी कराते हैं जब कोई बीमारी आती है, नहीं तो कौन जाता है स्वस्थ शरीर की जाँच कराने।

तो जो महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं जीवन के वो हम कभी पूछते नहीं। रत्नाकर ने भी अपनी पत्नी से कभी भी जो महत्वपूर्ण प्रश्न है वो पूछा नहीं था। दुनिया भर की इधर-उधर की छोटी-मोटी व्यर्थ बातें पति-पत्नी आपस में खूब करते रहते हैं। जो असली सवाल है, वो हो सकता है कि बीस साल, चालीस साल आप अपने पति या पत्नी के साथ रह रहे हो और आपने वो सवाल कभी पूछा ही ना हो।

साधु ने उकसा दिया था रत्नाकर को। रत्नाकर को विवश हो करके वो सवाल पूछना पड़ा पत्नी से जो आमतौर पर किसी पति को अपनी पत्नी से पूछना नहीं चाहिए। पर साधु की चाल, साधु होते ही ऐसे हैं। उसने ऐसी जगह पर उंगली रख दी थी कि रत्नाकर मजबूर।

रत्नाकर ने (पत्नी से) कहा – “ये सब जो मैं कर रहा हूँ, दुनिया का गला काटता हूँ, सबको लूटता हूँ, ये तो पक्का है कि नर्क में गिरूँगा, तू चलेगी मेरे साथ?” अब रत्नाकर रत्नाकर ही जैसा और आज उसके पूछने में कुछ धार थी। वो धार धर्म की थी। ईमानदारी से पूछा गया सवाल था। कोई और मौका होता तो पत्नी झूठ बोल भी देती कि, "हाँ प्राणनाथ! तुम्हारे साथ में कैद में भी जाऊँगी। अगर कभी तुम पकड़े गए और मरने के बाद अगर नर्क में सड़े तुम तो मैं नरक में भी जाऊँगी तुम्हारे साथ।" पर आज रत्नाकर ने जिस भाव से पूछा था, जिस तेवर से पूछा था पत्नी समझ गई कि आज झूठ नहीं बोला जा सकता इससे। प्राणनाथ बाद में हैं, प्राणलेवा पहले हैं। हैं तो डाकू ही और आज इनका चेहरा बिलकुल रक्तिम और आँखें खूनी लाल-लाल हो रही हैं, खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।

उसने बोल दिया या कहिए उसके मुँह से निकल गया कि, "नहीं, नर्क-वर्क तो तुम अकेले ही जाना। यहाँ का जो कुछ है वो अपना साथ-साथ है। तुम लूट कर लाते हो, अपन दोनों उसको साथ भोग लेते हैं वो चलेगा लेकिन भई अंजाम वगैरह तुम अकेले ही भुगत लेना।"

रत्नाकर को वो सवाल दोबारा पूछना भी नहीं पड़ा। जैसे उसे कोई अचंभा भी नहीं हुआ। जैसे कि उसे पहले से ही पता था कि यही जवाब सच्चा है और यही जवाब मिलना चाहिए। रत्नाकर फट गया अंदर से उसी समय। उसकी चेतना, उसका विश्व, उसका आंतरिक जगत सब चिथड़े-चिथड़े हो गया कुछ बचा ही नहीं। ये दूसरा तरीका है। मर गया रत्नाकर, वाल्मीकि का जन्म हो गया।

कहते हैं कि जो बार-बार मरा-मरा कहता था, वो राम-राम कहने लग गया। ये दूसरा तरीका है कि तुम्हारी चल रही है सुचारू ज़िंदगी, तुम्हारी चल रही है बड़ी आसान ज़िंदगी, तुम जानबूझकर ख़ुद ही उसमें कुछ व्यवधान पैदा कर लो। जिसे कहते हैं पंगे लेना, कि सब बढ़िया चल रहा है तुमने ख़ुद ही जाकर के कहीं पर उंगली दे दी क्योंकि सब कुछ बढ़िया है नहीं बस लग रहा है कि सब बढ़िया है क्योंकि तुम वो मुद्दे छूना ही नहीं चाहते। तुम वो सवाल उठाना ही नहीं चाहते जहाँ तुमको पता है कि गंदगी छुपी है। जहाँ तुमको पता है कि सच्चाई छुपी है।

देखो कि कौन-सी बातें करने से सबसे ज़्यादा घबराते हो और देखो कि कौन सी बातें हैं जो दिन रात किए जाते हो। देखो कि किनके सामने नहीं पड़ते, देखो कि किनसे मुँह चुराते हो। देखो कि कौन से अल्फाज़ तुम्हारी ज़ुबान पर कभी नहीं आते, देखो किनके सामने तुम कभी नहीं आते। बिलकुल समझ जाओगे कि कहाँ तुम्हारी खोट है। बिलकुल समझ जाओगे कि जीवन तुम्हारा उतना भी सुहाना नहीं चल रहा जितना तुमने अपने-आपको समझा रखा है।

तो ये तरीका है डाकू रत्नाकर का तरीका कि अपना जो सुचारू जीवन चल रहा है उसमें ख़ुद ही कोई बाधा खड़ी कर दो। वो जो बाधा होगी, वो जो सीधे-साधे चलते जीवन में अचानक एक अवरोध आ जाएगा, वो तुमको बता देगा कि जैसा तुम्हारा जीवन चल रहा था उसमें कितनी सच्चाई और कितनी ताक़त थी। ताक़त होती तो उस अवरोध को पार कर जाती न ज़िंदगी।

सच्चाई होती तुम्हारी ज़िंदगी में तो तुमने जो सवाल खड़े किए ज़िंदगी तुरंत उनका सहज जवाब दे देती न। पर तुम्हारी ज़िंदगी में ताक़त नहीं थी। तुमने यूँ ही उसके सामने अवरोध खड़ा किया ज़िंदगी रुक गई, थम गई, बिखर गई। और सच्चाई नहीं थी ज़िंदगी में। जहाँ तुमने दो निर्भीक कड़े सवाल पूछे, तुमने पाया कि ज़िंदगी के पास कोई जवाब ही नहीं सवालों का। तो देख लो फिर कि ज़िंदगी वाकई कैसी चल रही है।

और तीसरा तरीका फिर है राजकुमार सिद्धार्थ का। उनकी भी ज़िंदगी बहुत अच्छी चल रही थी। रत्नाकर तो फिर भी डाकू था, उसे तो फिर भी लूटना पड़ता था लोगों को, सिद्धार्थ गौतम का तो कहना क्या! प्रतिभाशाली राजकुमार, अभी उन्होंने कुछ करा नहीं, कुछ कमाया नहीं, कहीं अपनी कोई योग्यता सिद्ध नहीं करी फिर भी दुनिया उनकी वाहवाही कर रही है। उनकी प्रतिभा के डंके बज रहे हैं बाल्यकाल से ही। उनकी शिक्षा का विशेष प्रबंध किया गया, उनके मनोरंजन इत्यादि का विशेष प्रबंध करके रखा गया है।

उनके जीवन में तो वाकई कोई दुःख नहीं था। ज़्यादातर लोग तो फिर भी झूठ बोला करते हैं कि हमारी ज़िंदगी बढ़िया चल रही है, हमारे पास कोई दुःख नहीं। सिद्धार्थ की ज़िंदगी में तो कोई दुःख वाक़ई था ही नहीं। जैसे रुई के फाहे में लपेटकर के परवरिश हुई हो उनकी। दुनिया भर के सब कष्टों से उनके पिता ने उनको बचा कर रखा था। कह रहे हैं कि कुछ भी पता ना लगे इसको। दुःख कहते किसको हैं, दर्द कहते किसको हैं इसका ज़रा भी अनुभव होने ना पाए राजकुमार को। और था भी नहीं।

और सुनी है आप सभी ने कहानी कि चले जा रहे थे, युवा महोत्सव था और देख रहे हैं एक बीमार आदमी को—नहीं ख़ुद नहीं बीमार थे, एक चला जा रहा है बीमार आदमी। फिर देख रहे हैं एक वृद्ध आदमी को—नहीं ख़ुद नहीं वृद्ध हुए थे, किसी और का बुढ़ापा देख लिया, किसी और का रोग देख लिया और फिर किसी और की मृत देह, लाश देख ली। और समझ गए, बोले कि, "व्यक्ति में समष्टि है। एक व्यक्ति में ही पूरा संसार है। जो पूरी दुनिया की कहानी है वही प्रत्येक व्यक्ति की कहानी है। मैं कैसे कह दूँ अपने-आपको कि मैं सुखी हूँ जब मेरे सामने ये पूरी दुनिया इतनी दुखी है? ज़रूर मुझे सुखी होने का भ्रम हो रहा होगा।"

ये उन लोगों के लिए है जो बहुत जाँच-पड़ताल करके, खोजबीन करके भी अपनी ज़िंदगी में कहीं दुःख नहीं खोज पाते। उनके लिए है राजकुमार सिद्धार्थ का तरीका। तुम कैसे अपने-आपको सुखी बोल सकते हो जब तुम्हारे चारों ओर दुःख-ही-दुःख बिखरा हुआ है? तुम दुनिया से अलग हो क्या? व्यष्टि-समष्टि अलग-अलग तो नहीं हैं न? बस इतना है कि दुनिया का दुःख किसी तरीके से प्रकट हो गया है, बिलकुल साक्षात; तुम्हारा दुःख छुपा हुआ है।

सिद्धार्थ अगर अपने निजी जीवन में दुःख खोजने निकलते तो शायद दो-चार दशक खोजते रह जाते उन्हें दुःख कहीं दिखाई नहीं पड़ता। तो उन्होंने फिर ये परोक्ष तरीका निकाला, निकाला या कह दो कि विधि ने उन्हें भेंट कर दिया। उन्होंने कहा – “अब मुझे अपनी ज़िंदगी में तो कोई दुःख दिखता नहीं पर देखो ज़माने में कितना दुःख है। और ज़माने में इतना दुःख है तो अरे, मैं कैसे सुखी हो गया?”

गाड़ीवान था साथ में, उससे पूछते हैं कि, "वो जा रहा है व्यक्ति, वो रोगी है क्या मुझे भी कभी रोग लगेगा?" गाड़ीवान बोला — “राजकुमार, बोलते हुए मेरी ज़बान काँपती है लेकिन हाँ जीवन में आपको भी कभी-न-कभी रोग लगेगा।” सिद्धार्थ के लिए ये नई बात थी। जैसे उनका पालन-पोषण हुआ था, कदाचित उनको कभी कोई रोग लगा ही नहीं था। फिर बढ़ रहे हैं दिखाई दे रहा है बूढ़ा आदमी, उससे पूछ रहे हैं – “एक दिन मैं भी ऐसे ही कृशकाय, जर्जर वृद्ध हो जाऊँगा?” गाड़ीवान बोला – “राजकुमार, कठिन प्रश्न कर रहे हैं आप लेकिन झूठ नहीं बोल सकता। हाँ, बुढ़ापा आपको भी आएगा। इसी व्यक्ति की तरह आप भी जर्जर हो जाएँगे, पीठ झुक जाएगी, तन काँपेगा, लाठी टेकेंगे, डगमगाएँगे।”

अब प्रतिभाशाली तो थे ही सिद्धार्थ। आगे बढ़े देखा मृत देह, अर्थी सजी हुई थी। इस बार तो उन्होंने गाड़ीवान से पूछा भी नहीं, बोले – “मैं मर गया।” इस बार उन्होंने पूछा भी नहीं कि, "क्या कभी मैं भी मरूँगा? जैसे सामने ही मरा हुआ है?" बोले — "मैं मर गया।" ये तीसरा तरीका है।

तुम कैसे सुख मना रहे हो और कैसे दावा कर रहे हो कि, "आचार्य जी मेरी ज़िंदगी में तो सब ठीक ही ठीक चल रहा है", जब तुम्हारे चारों ओर मृत्यु बरस रही है? तुम्हें कैसे अपने निजी जीवन में सुख दिखाई दे रहा है भाई? किस सपने में हो? कितना छल रहे हो अपने-आपको? इससे ज़्यादा आश्चर्य की कोई बात हो सकती है कि कोई कहे कि, "मेरी ज़िंदगी में तो कोई तकलीफ नहीं, ज़िंदगी बढ़िया ही चल रही है, मस्त ही चल रही है।" या तो अंधे हो या बेईमान या दोनों या इन दोनों से भी आगे के कुछ।

तो अध्यात्म, मैंने ज़रूर कहा है कि नहीं तुम्हारा शुरू हो सकता जब तक तुम्हें अपने जीवन में दुःख, कष्ट, बेचैनी संताप, अनुभव ना होते हो लेकिन ये दुःख, कष्ट, बेचैनी, संताप कोई दूर की बातें है क्या कि पूछ रहे हो कि, "कहाँ से लाऊँ ये तो मेरी ज़िंदगी में हैं ही नहीं"? भाई पैदा हुए हो न मानुष देह लेकर के, दुःख वहीं से शुरु हो जाता है। अचरज की बात तो ये है कि वो दुःख तुम्हें दिखाई क्यों नहीं दे रहा? जो इंसान पैदा हुआ है वो दुःख-धर्मा ही पैदा हुआ है।

प्रकृति में भोग है, भोक्ता है; सुख है और दुःख है। और जिसको तुम सुख कहते हो वो हमेशा दुःख की आशंका से और दुःख के साए तले काँपता रहता है। कोई मुझे सुखी व्यक्ति दिखा दो जिसे अब सुख की ज़रूरत ना हो। कोई मुझे सुखी व्यक्ति दिखा दो जो अपने सुख को बचाकर ना रखना चाहता हो। कोई मुझे सुखी व्यक्ति दिखा दो जो आशंकित ना हो कि सुख कहीं छिन ना जाए। और अगर सुख के पल में भी तुम्हें यही आशंका है कि ये पल कहीं बीत ना जाए तो तुम सुखी हो कि दुखी?

तो दुःख तो दुःख है ही, सुख भी दुःख ही है। जिसने ये जान लिया उसके बाद वो कैसे ऐसा प्रश्न करेगा कि, "मेरे जीवन में कोई ख़ास दुःख या बेचैनी मुझे दिखती नहीं"? ख़ैर नहीं दिखती तो तुमको दो रास्ते बता दिए — वाल्मीकि का रास्ता और गौतम बुद्ध का रास्ता। दुःख अगर नहीं पता चल रहा तो ज़रा कड़े प्रश्न पूछ लो या तो ख़ुद से या अपने आसपास वालों से जो तुम्हारे सुख के स्रोत हैं। एक ये तरीका है और दूसरा तरीका जो बड़े संवेदनशील लोगों का तरीका होता है। जो बड़े जागृत और प्रतिभाशाली लोगों का तरीका होता है। वो ये है कि तुम दुनिया को देखो और दुनिया के प्रति ज़रा संवेदना रखो, थोड़ी करुणा रखो और कहो, "मैं कैसे सुखी हो गया जब दुनिया इतनी दुखी है?" फिर जान जाओगे कि अभी करने को बहुत काम बाकी है और वो जो काम बाकी है करने को वो अध्यात्म के माध्यम से ही हो सकता है और कोई तरीका है नहीं। दुःख अगर है तो अध्यात्म उस दुःख के निवारण का अभियान है — ये अध्यात्म की परिभाषा है। क्या है अध्यात्म? जीवन दुःख है और दुःख के उस भवसागर के पार जाने के लिए जो नाव लगती है, जो चप्पू चलते हैं, जो नाविक लगता है, बाज़ुओं में जो बल चाहिए और बुद्धि की जो दिशा चाहिए इन सब का सामूहिक नाम अध्यात्म है।

समझ में आ रही है बात?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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