अपनी जेल के भीतर हम बिल्कुल स्वतंत्र हैं, जैसे खूँटे से बँधा पशु आज़ाद है || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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अपनी जेल के भीतर हम बिल्कुल स्वतंत्र हैं, जैसे खूँटे से बँधा पशु आज़ाद है || आचार्य प्रशांत (2023)

आचार्य प्रशांत: आप स्वतंत्र हो ये आपको पता ही कैसे चलेगा?

श्रोतागण: ज्ञान से।

आचार्य: आपका दिल कितना स्वतंत्र है बीमारी से, उसके लिए एक चीज़ कराते हैं, उसको बोलते हैं ‘*स्ट्रेस ईसीजी*’। स्ट्रेस आता है तभी तो पता चलता है कि हाल क्या है। आप कुछ स्ट्रेस ही नहीं ला रहे हो जीवन में, तो आपको पता क्या चलेगा आपका हाल क्या है। बहुत सारे लोग सिर्फ़ इसलिए मरते हैं क्योंकि उनकी ज़िंदगी में कोई स्ट्रेसफुल फिजिकल एक्टिविटी ( तनावपूर्ण शारीरिक गतिविधियाँ) होती ही नहीं है, तो उनको भीतरी बीमारियाँ लगी होती हैं। वो एकदम लास्ट स्टेज (अंतिम चरण) तक पहुँच जाती हैं। लेकिन आप अपने शरीर से काम ही बस दस प्रतिशत कैपेसिटी का ले रहे हो, तो अगर बीमारी ने आपकी अस्सी प्रतिशत भी कैपेसिटी खा ली है, तो आपका शरीर तो काम करता रहेगा और आपको पता नहीं चलेगा। आप बात समझ रहे हो?

लेकिन जो अपने शरीर से अस्सी प्रतिशत काम ले रहा हो, उसको बीमारी का तुरंत पता चल जाता है। नहीं तो हो सकता है आपको फेफड़ों का कैंसर हो और आपको बिलकुल अंत में आगे पता चले, क्योंकि साँस तो आपकी चल रही थी। साँस रुकनी तब शुरू हुई जब फेफड़ा पूरा जा चुका था। लेकिन अगर आप रोज़ सुबह दौड़ते थे पाँच किलोमीटर, तो फेफड़े का कैंसर तुरंत पकड़ में आ जाएगा। एकदम शुरू पकड़ में आ जाएगा क्योंकि दौड़ने में बाधा देने लगेगा।

आप कितने स्वतंत्र, स्वस्थ हो — स्वतंत्र से मैं यहाँ पर स्वास्थ्य को स्वस्थ होने को समानार्थी ले रहा हूँ — आप कितने स्वतंत्र हो पता तो तब चलेगा न जब आप बेड़ियों को चुनौती दोगे। जो चुनौती नहीं दे रहा है उसे पता क्या! मैंने एक बार कहा था, ‘अपनी मर्जी से चल रहे हो तो रुककर दिखाओ।’ आपके चलने में स्वतंत्रता कितनी है अभी पता चल जाएगा, रुककर दिखा दीजिए।

कुछ ज़रा अलग तो करो, ज़िंदगी में कुछ लेकर तो आओ जिसमें कुछ प्रयोग हो, परीक्षण हो, बात को घिसा जाए। नहीं तो अपनेआप को ये भ्रम दिए रहना कि हम तो स्वतंत्र हैं, बहुत आसान है। जेल में कैदी है, वो भी अगर जेल के सब नियमों का पालन कर रहा है तो स्वतंत्र ही तो है! कौन उसको रोकने-टोकने आता है? बल्कि अच्छे व्यवहार के लिए बहुत कैदियों को तो प्रशंसा मिल जाती है।

जेल का कैदी भी बहुत स्वतंत्र अपनेआप को मान सकता है अगर वो सबकुछ वही करे जो जेल वाले चाहते हैं। आपको कैसे पता आप स्वतंत्र हो, कभी कुछ नियम-कायदे तोड़कर तो दिखाओ। जब तोड़ने लगोगे बेटा, तो पता चलेगा कि ये तो स्वतंत्रता कहीं थी ही नहीं। हम उतने ही स्वतंत्र हैं जितना खूँटे से बँधी हुई गाय। अपने दायरे के भीतर वो पूरी स्वतंत्र है, ‘यहाँ आ जाओ, देखो, आप ये लो, आप यहाँ बैठो’ — ये है उसकी चार दीवारी गाय की। और गाय पूछने आई, ‘फ़्रीडम? ,’ तो गाय को बोला गया, ‘फ़्रीडम का मतलब है आप यहाँ भी बैठ सकते हो, आप यहाँ बैठ सकते हो, आप यहाँ भी बैठ सकते हो, आप यहाँ भी।’ इसलिए शब्द होता है बियॉन्ड। गाय पूछी, *’केन आइ गो बियॉन्ड दिस?*’ (क्या में इसके पार जा सकती हूँ), एक पड़ा पट से! ‘इसके भीतर तो पूरी स्वतंत्रता है, ये करो, कि ये करो, कि ये करो, कि ये करो।’ अरे, ये-ये-ये (मेज़ पर सांकेतिक सीमाएँ बनाकर बाहरी सीमा की ओर इशारा), इनको कभी चुनौती देकर देखो तो पता चलेगा कि मामला कितना स्वतंत्र है — विशेषकर महिलाओं के लिए मैं हेनरिक इब्सन का ‘ए डॉल्स हाउस’ इसलिए बोलता हूँ पढ़ने को।

जब तक आप अपने दायरे के भीतर हैं, आप ऐसे ही रहोगे जैसे आप, ‘वाह-वाह-वाह! बहुत बढ़िया! आज़ाद भी हैं और एप्पल ऑफ़ एवरी बडीज़ आइ (सबकी आँखों का तारा), बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया!’ जिस दिन थोड़ा वो चौखट को लाँघने की कोशिश करो तो पता चलेगा कि कितनी स्वतंत्रता है। चिड़िया भी पिंजड़े के भीतर पर फड़फड़ाने के लिए स्वतंत्र होती है भाई। बियॉन्ड , ये शब्द बियॉन्ड — अतीत, आगे; सबसे सुंदर शब्द है ये बियॉन्ड।

कुछ दिखे, पूछो, ’व्हाट्स?’ (इससे आगे क्या है?) इसी से प्यार होना चाहिए — कुछ सामने आए, जितना अच्छा हो वो, उससे पूछो, ‘इससे और अच्छा क्या है?’ यही आत्मा की तलाश है। आत्मा की तलाश का मतलब ही होता है जो सामने है उस पर नहीं अटकना है। पूछो, ‘इससे और अच्छा क्या है? दिस इज़ गुड, नाउ व्हाट लाइज बियॉन्ड दिस।’ फिर से बोल रहा हूँ, अध्यात्म का हमारे सामने जो संस्करण लाया गया है न, वो बड़ा दूषित है। कुछ बातें जो हमें बोल दी जाती हैं, उदाहरण के लिए, ’एक्सेप्ट व्हाट इज़’ (जो भी है उसे स्वीकार करो)। ये सब अध्यात्म के बिलकुल विपरीत बातें हैं।

अध्यात्म का तो मतलब ही होता है कि नेवर-नेवर एक्सेप्ट (कभी भी स्वीकारो मत)। क्योंकि जो है वो तो आपको पता है न, आपकी ही दूषित अवस्था की छाया मात्र है। आपने उसको अगर स्वीकार कर लिया तो माने अपनी दूषित हालत को स्वीकार कर लिया, नहीं, निरंतर नकार। नकार हो ही नहीं सकता अगर जो सामने है, जैसी अपनी स्थिति है उसको ही स्वीकार कर लिया तो। ऋषि सब स्वीकार कर लेते तो “नेति-नेति” कौन करने आता! फिर तो कहते, ‘जो है वही ठीक है,’ “नेति-नेति”, काटना काहे के लिए है।

’एक्सेप्ट थिंग्स ऐज़ दे आर’ (जो जैसा है वैसा ठीक है), ‘लव मी ऐज़ आइ एम (मैं जैसा हूँ ठीक हूँ), नहीं, एकदम नहीं। पर वो सब मुहावरे चलन में हैं इसकी वजह है, वो सुविधा देते हैं। वो तामसिक हैं, वो आपको सहूलियत देते हैं कि जहाँ पड़े हो वहीं पड़े रहो। सूअर के लिए बहुत अच्छा है न , ’एक्सेप्ट थिंग्स ऐज़ दे आर’? सूअर कीचड़ में पड़ा हुआ है, अब उसको बोलोगे, ‘सफ़ाई कर,’ तो कितनी मेहनत करे बेचारा! तो वो कहीं से गया और आध्यात्मिक सूत्र सीखकर आया है, क्या? ’एक्सेप्ट लाइफ़ ऐज़ इट इज़’ (जीवन जैसा है वैसा ठीक है)। और लाइफ़ ऐज़ इट इज़ , बढ़िया एकदम टॉप का गटर!

और कैसी होती है ज़िंदगी, ऐज़ इट इज़ कैसी है ज़िंदगी? टॉप का गटर है और क्या है! लेकिन ये आधुनिक अध्यात्म यही है पूरा — एक्सेप्टेंस (स्वीकार), अनकंडीशनल एक्सेप्टेंस (बेशर्त स्वीकार), अनकंडीशनल लव (बेशर्त प्रेम)। अनकंडीशनल लव माने क्या? कि वहाँ पर मल में सुअर पड़ा है उसको जाकर बेशर्त प्रेम करने लगूँ और फिर कहूँ कि मुझे सत्य से भी प्रेम है? तो सत्य और सूअर तो एक ही हो गए फिर। या तो सत्य से कर लो प्रेम, या गू में लोटते सुअर से कर लो, दोनों से एक ही साँस में एक बराबर तो प्रेम नहीं कर पाओगे, कि कर लोगे? तो ये क्या होता है, अनकंडीशनल लव क्या होता है? कंडीशन तो होनी चाहिए; बहुत सस्ता प्रेम होगा जो शर्तें नहीं रखता। वो प्रेम नहीं है, वो कुर्सी है, कोई भी आकर बैठ जाए; शर्तें होनी चाहिए न? शामियाने की कुर्सी और सिंहासन में अंतर होता है। सिंहासन शर्त रखता है, ‘मुझ पर सिर्फ़ राजा बैठेगा।’ और प्लेटफार्म की कुर्सी, रेलवे प्लेटफार्म , वो कोई शर्त नहीं रखती। शर्त तो होनी चाहिए, नहीं तो राजा फिर कभी जीवन में आएगा भी नहीं आपके।

राजा सिंहासन पर ही मिलता है न, प्लेटफार्म वाली कुर्सी पर तो मिलता भी नहीं। जो शर्त नहीं रखेगा, उसको फिर वही मिलेगा जनरल प्लेटफार्म , कोई भी आकर बैठता रहेगा। थोड़ा जीवन में न ठसक होनी चाहिए, एक्सक्लूसिविटी , एक शान! ऐरी-गैरी चीज़ों को भाव नहीं देना, ऐरे-गैरों को मुँह नहीं लगाना। ‘तू क्यों है ऐरा-गैरा? मैं तेरा अपमान नहीं कर रहा हूँ, मैं तुझे प्रेरणा दे रहा हूँ, क्योंकि मुझे पता है तू भी वही संभावना रखता है जो किसी ऊँचे-से-ऊँचे व्यक्ति में है। तू अपनी संभावना क्यों नहीं साकार कर रहा? और जिस दिन तक तू अपनी संभावना नहीं साकार करता, मैं तुझे नहीं स्वीकार करता। शर्त रखने का मतलब ये नहीं है कि मैं किसी को नीचा घोषित कर रहा हूँ, शर्त रखने का मतलब ये है कि मैं उसे बता रहा हूँ कि तू जो हो सकता है, तू उससे बहुत नीचे चल रहा है। मैं चाहता हूँ तू ऊपर उठे, इसलिए शर्त रख रहा हूँ।’

कुछ भी नहीं है, दूसरे को बेशर्त स्वीकार करने से पहले, चाहे अपनी स्थितियों को बेशर्त स्वीकार करने में हमारा स्वार्थ है, क्या? उसको बोलेंगे कि तू बदल, तो हमें भी तो बदलना पड़ेगा। न तू बदल, न मैं बदलूँ; तू वहाँ लोट, मैं यहाँ लोटूँ।’ दोनों ने एक दूसरे को अनकंडीशनली एक्सेप्ट कर रखा है। प्रेम अगर होगा न सचमुच, तो वो एक चुनौती की तरह होता है, एक ललकार की तरह होता है, लोरी की तरह नहीं होता। हमारा प्रेम नशीली लोरी होता है, कोई जग रहा हो उसको भी सुला दे। और बड़े हम खुश होते हैं कि ये देखो, क्या मीठी लोरी है, एकदम सो जाते हैं हम!

प्रेम वो जो सोते हुए को उठा दे; क्या ललकार मारी, उठ गए बिलकुल! अब आया न ज़िंदगी में प्रेम, पर ऐसा प्रेम बड़ा मुश्किल है, चाहिए किसको! सो रहे थे बिस्तर से गिर पड़े, ललकार मार दी; ललकार उधर से, चीत्कार इधर से। लोरी वाला ठीक रहता है, “तुम गाओ मैं सो जाऊँ, सुख सपनों में खो जाऊँ!” कुछ आ रही है बात समझ में? या फ़ालतू ही महान लोगों का उत्सव मनाना है बिना खुद महान बने? ये कौनसा उत्सव है जिसमें हम बैठ जाते हैं भेड़-बकरी, चींटी-चींटे की तरह और कहते हैं, ‘बस वो लोग महान थे’? उन्हें कितना बुरा लगता होगा, ‘तुम मुझे महान बोल रहे हो, तुम क्या हो? जबकि तुम हो बिलकुल वही सकते हो जो हम हुए, फिर तुम क्यों ऐसे बने बैठे हो?’

जब जीवन को चुनौती दिए बिना स्वयं को स्वतंत्र मान लिया जाता है, तो वो अध्यात्म नहीं, पलायन कहलाता है। पलायन में आप भोग नहीं रहे होते हो, क्योंकि भोगने की आपकी औकात ही नहीं है। और अध्यात्म में आपमें पूरी क्षमता होती है, जीवन की हर चुनौती से संघर्ष को आप तैयार हो। आप जीते हो, आप जीतते हो और जीतने के बाद कहते हो, ‘नहीं भोगना।’ दोनों चीज़ों में बहुत अंतर है न? एक इसलिए नहीं भोग रहा क्योंकि उसके भोगने की कभी बारी ही नहीं आई और एक इसलिए नहीं भोग रहा क्योंकि उसे भोगने की ज़रूरत नहीं है।

एक नहीं भोग रहा क्योंकि भोगने की पात्रता नहीं है, योग्यता नहीं है और दूसरा नहीं भोग रहा क्योंकि उसे भोगने की ज़रूरत नहीं है। वो कह रहा है, ‘बाहर छ: फुट की चीज़ है, भीतर साढ़े छ: फुट की चीज़ है, काहे को भोगूँ!’ और अध्यात्म ने बहुत आकर्षित किया है ऐसों को (जिनमें भोगने कि पात्रता नहीं होती)। वो बड़े खुश होते है, कहते हैं, ‘यहाँ पर त्याग वगैरह की बात होती है, यहाँ तो जिनके पास होता भी है उनका भी छुड़वा दिया जाता है। हमारे लिए सुविधा है, हमारे पास तो कुछ है ही नहीं, तो ये जगह हमारी है। सत्संग वगैरह में चलो, बैठते हैं’; ऐसे नहीं।

विजेताओं का क्षेत्र है, अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं, तब गीता है। ये थोड़े ही है कि वहाँ इधर-उधर के दो प्यादे खड़े हुए हैं सिर पर उल्टा कटोरा डालकर, एकदम ऐसे मरियल — एक पैंतीस किलो, एक पैंतालीस किलो का — उनमें आपस में कभी गीता उठेगी? और इतनी देर ये लोग बात कर रहे थे श्रीकृष्ण-अर्जुन, उतनी देर प्यादों ने भी कोई चुप तो बैठे नहीं होंगे। इतनी देर में हम यहाँ बात कर रहे हैं, उतनी देर में वहाँ पर गॉसिप शुरू हो गई है पीछे। प्यादों का काम ही यही है — गीता चल भी रही है, उनका अपना चलता है रामायण, कुछ और। वो कर भी रहे होंगे बात तो क्या कर रहे होंगे? छोटी बात।

अध्यात्म भी बड़े योद्धाओं के लिए होता है। बड़ी लड़ाई उठाइए, तब जाकर के आप गीता को दिल से महसूस कर पाएँगे। ज़िंदगी में उतनी बड़ी अगर कोई लड़ाई नहीं है जितनी अर्जुन के सामने है, तो गीता आपको किसी दूसरे की बात लगेगी, किसी दूसरे के संदर्भ में किसी दूसरे से कही गई बात। फिर लगेगा ही नहीं कि ये मेरी तो ज़िंदगी है और बात मुझसे ही तो कही जा रही है। समझ रहे हो? हटेगा।

श्रोता: हम भूल कर बैठते हैं संतों को, कबीर साहब जैसे संतों को देखकर के भूल कर बैठते हैं।

आचार्य: असल में आप देखते नहीं हो न, आपके सामने कुछ चित्र रख दिए जाते हैं। समाज ने संतों का चित्रण अपनी सुविधा और अपने स्वार्थ के हिसाब से करा है। आप किसी दुकान में जाइएगा जहाँ मालिक सिक्ख हो। वहाँ निश्चित रूप से गुरु नानक साहब का वहाँ पर चित्र लगा होगा। और ये बहुत अच्छी बात है, पर आप उसमें देखिएगा कि आशीर्वाद की मुद्रा में उनका हाथ कैसे दिखाया है। उनका हाथ एकदम सुकोमल दिखाया है, जबकि नानक साहब ने ज़िंदगी भर क्या करा था?

यात्राएँ करी थीं; और यात्राओं से वापस आते थे तो क्या करते थे? खेती करते थे। किसान के हाथ देखे हैं कैसे होते है? लेकिन अगर हमने दिखा दिया कि ये आदमी कितना कर्मठ था, कितना जुझारू था, कितना मेहनती था, तो फिर हमें भी (मेहनत करनी पड़ेगी)। तो हम उनका हाथ ऐसे दिखाते हैं जैसे बच्चे का कोमल, सुकोमल हाथ हो। आज दिवाली है, राम-सीता की आप पुरानी प्रतिमाएँ देखिएगा या चित्र देखिएगा, वो ऐसे खड़े होते हैं जैसे — जिन्होंने चौदह साल जंगल में गुज़ारे हों उनकी खाल कैसी हो जाएगी? उनका पूरा शरीर कैसा होगा? पर आप देखिए चित्रण कैसा करते हैं!

हमें कभी ये बताया ही नहीं जाता कि अध्यात्म का मतलब ही संघर्ष है। वहाँ ऐसा दिखाया जाता है जैसे ये लोग तो आराम कर रहे थे। अरे भाई, चौदह साल जंगल में, कितनी जगह तो चेहरे पर निशान पड़ गए होंगे, स्कार्स। वही जो सूरमा का पदक होते हैं, वो कभी दिखाए गए आज तक? रंग गोरा रह जाएगा? और क्या गोरा-गोरा रंग दिखा देते हैं! कपड़े ऐसे दिखाते हैं कि बस अभी-अभी जाकर के मॉल से निकालकर के पहने हैं। जो जंगल में भटक रहे हों उनके वस्त्र कैसे होंगे? कभी दिखाए गए? तो हमें पता नहीं चलने पाता न कि अध्यात्म का मतलब ही संघर्ष होता है।

आपको दिखाया जाता है कि देखिए, सीता जी कैसे संघर्ष कर रही हैं, तो महिलाओं में भी कुछ संघर्ष का भाव आता। आपको सीताजी का संघर्ष कभी दिखाया ही नहीं जाता, आपको दिखाया जाता है वो सुकोमल बस खड़ी है आशीर्वाद देने भर को। उनके तो चेहरे पर गर्जना है, ऐसे थोड़े कि उन्होंने तिनका दिखा दिया होगा तो रावण पीछे हट गया, रावण तिनके से तो नहीं पीछे हटने वाला था। उनका तेज़ कुछ ऐसा था कि थर्रा गया था रावण, पीछे हटा था। जो असली बात हुई होगी वो तो समझो। कुछ बात रही होगी न कि इतने दिन वहाँ पर रहीं और रावण हाथ नहीं लगाने पाया। चौदह वर्ष की वनवासिनी स्त्री हैं, उन्होंने तेज़ अपना जाग्रत करा है। वो तेज़ हमें कभी दिखाया जाता है?

और तो और छोड़ दीजिए, कभी आप देखिएगा, आप बस ‘कृष्ण-अर्जुन’ लिखकर आप अभी गूगल कर लीजिए इमेज , इमेजेज लिख दीजिए। उसमें अर्जुन ऐसे आते हैं, माने हाथ-वाथ उनके ऐसे मुलायम-मुलायम कि जैसे कोई रसोइया! कि जिसने ज़िंदगी में कभी कड़ाही से ज़्यादा वज़नी कुछ उठाया न हो — और वहाँ उनकी प्रत्यंचा की टंकार! और कृष्ण उनको क्या बोल रहे? ‘महाबाहो’; और महाबाहो के बाहु देखिएगा जो हमारी प्रतिमाएँ रहती हैं उनमें, कैसे रहते है? ये छोटे-छोटे।

हमें ये जानने ही नहीं दिया जाता कि ये मामला मज़बूत लोगों का है, तो हमारी कमज़ोरी को ठिकाना मिल जाता है, हम छुपे रह जाते हैं। सबके चेहरे, ह!ह! (अपने चेहरे पर मोहित होने का संकेत करते हुए), बस यही तो कर रहे थे ज़िंदगी में, तभी तो इतना कुछ कर पाए!

अब बुद्ध बारह साल — जब तक जिए तब तक — भटकते रहे, लेकिन आपको दिखाया क्या जाएगा हमेशा? कि बैठे हुए हैं; और बैठना तो छोड़ दो, लेटे हुए हैं। जैसी विष्णु की शेषनाग वाली मुद्रा दिखाई जाती है, बिलकुल वैसे ही कि बुद्ध भी ऐसे लेटे हुए हैं — अरे! लेटने का कब मौका मिलता था? पर जिन लोगों की ज़िंदगी लेटे-लेटे गुज़र रही है, वो यही देखना चाहते हैं कि बुद्ध भी लेटे हुए थे। कभी बुद्ध का संघर्ष दिखाया? कभी उस आदमी का तड़पता हुआ चेहरा दिखाया? और बुद्ध बहुत तड़पे थे, पर हमें बुद्ध का तड़पता चेहरा कभी दिखाया नहीं जाता; दिखाया जाता है? ये गड़बड़ है न।

हमें तो ये दिखाया जाता है ये तो बस शांति में थे, शांति वाले लोग थे। एक छवि पकड़ ली है — शांत और बस शांत-शांत-शांत! शांत-वांत कुछ नहीं होता, बहुत मेहनत लगती है, जूझना पड़ता है, टूट जाते हो भीतर से, तब जाकर के आत्मा उठती है। इतना नहीं होता है। और वो जो शांति वाली छवि बना ली है उससे सब बहुरूपियों का काम आसान हो गया। उनको पता है कि शांत अपने को दिखा दो तो संत कहला जाओगे, तो सब शांत होकर ऐसे बैठ जाते हैं और लोग जाते हैं, ‘महाराज-महाराज-महाराज!’ शांत और दूसरा? स्थिर।

मेरे पीछे पड़े हुए हैं, बोलते हैं, ‘ये पाँव क्यों हिलाते हैं बात करते वक्त? इससे पता चलता है कि इनका चित्त भी स्थिर नहीं है।’ कभी न पाँच घंटे बैठना, तो पता चलेगा कि क्रैंप्स (मरोड़) आते हैं। पाँव हिलाने पड़ते हैं, नहीं तो पाँव वहीं पर जम जाएँगे, पर तुम झूठी छवियाँ पकड़कर बैठ गए हो। बिना कुछ बोले, बिना कुछ करे भी पाँच घंटे कहीं बैठकर के देख लो कि पूरा शरीर कैसे जाम होता है। शरीर हिलाना पड़ता है ज़बरदस्ती, ताकि चलता रहे। और ये एक दिन की बात नहीं है, जब महीने में पच्चीस दिन बैठना पड़ता है न, तो उसके बाद हड्डियाँ, माँसपेशिया — खासतौर पर अगर इनफ्लेमेट्री डिजीज़ (सूजन संबंधी बीमारी) हो — सब जाम हो जाती हैं। अपर बॉडी (शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा) तो फिर भी चलती है, ये (हाथ) चल रहे हैं, अब पाँव का क्या करें! तो पाँव चलाने भी पड़ते हैं। पर ये बात आपको कोई नहीं बताएगा कि बात करना भी एक संघर्ष है। कोई बताएगा नहीं न, तो आपको तो ये बता दिया गया है कि बस वो पालथी मारकर बैठे हैं, लोटस पोज (कमलासन)! काहे का लोटस!

सच्चाई खुरदुरी होती है और सच्चाई की खुरदराहट से न हमारी खाल छिल जाएगी, तो हमें सच्चाई एकदम कोमल करके दिखा दी जाती है, क्योंकि हम देखना चाहते हैं वैसे ही। जहाँ देखो तुम अवतारों को वहाँ सफ़ा चट, क्लीन शेव्ड (बिना दाढ़ी वाले) हैं। जंगल में कहाँ से मिलता था उनको उस्तरा? और वो भी रोज़-रोज़ कि एकदम साफ़, सोचकर देखो! पर बुद्धि का तो अध्यात्म में कोई स्थान होता नहीं न! आपको उनकी असली शक्ल दिखा दी जाए तो आप सोचिए सचमुच कैसी होगी? उनके व्यक्तित्व के एक-एक तत्व में उनके संघर्ष की गाथा होगी — चेहरे पर चोटों के निशान, उलझे हुए बाल, बेतरतीब दाढ़ी, फटे हुए वस्त्र, मज़बूत शरीर। और जब ऐसा होता है न, तब आँखों में तेज़ होता है। वो सब हमें दिखाया नहीं जाता, तो हम भी कोमल-कोमल बनकर घूम रहे हैं।

मैं तो कहता हूँ, ‘वो जब खुद बोल रहे हैं , “सब जग जलता देखकर, भया कबीर उदास।” अरे, कभी उनको रोते हुए भी तो दिखा दो न!’ नहीं दिखाते। और वो (कबीर साहब) बहुत रोते थे, मुझे पता है, क्यों नहीं दिखाते उनको रोते हुए? क्योंकि उनकी रोती हुई शक्ल हमारी सुख में डूबी हुई शक्ल पर तमाचा हो जाएगी। वो आदमी रो रहा है और तुम ठहाके मार रहे हो, यही तुम्हारी ज़िंदगी है। तुमसे बर्दाश्त नहीं होगी उनकी रोती हुई शक्ल, तो तुम उनकी शक्ल ऐसे दिखाते हो कि वो तो शांत बैठे हैं बिलकुल; शांत नहीं बैठते, अध्यात्म बहुत रुलाता है।

सच्ची ज़िंदगी जीना माने टूटना, “आग का दरिया है, डूबकर जाना है।” आग का दरिया हो न हो, अपने आँसूओं का दरिया ज़रूर होता है। वो सब कभी नहीं बताया जाता। बोल देंगे, ‘वो तो भगवान थे तो उनके पास दिव्य शक्ति थी, तो उन्होंने एक पल में भस्म कर दिया।’ मेहनत करते हैं, एक पल में कुछ नहीं हो जाता। वो मेहनत हम मानना नहीं चाहते कि की गई, तो हम कह देते हैं, ‘भगवान थे, दिव्य शक्ति थी, एक पल में भस्म कर दिया।’ अगर भस्म किया तो बहुत मेहनत करके किया, दिव्य शक्ति से कुछ नहीं भस्म कर दिया। हम उस मेहनत के तथ्य को बिलकुल अस्वीकार कर देना चाहते हैं। मान लिया उन्होंने मेहनत करी थी, तो हमें भी करनी पड़ेगी न! तो तब ये मान लो कि वो तो बस उन्होंने अभिमन्त्रित बाण चलाया और मार दिया, तो मर गया वो।

हमें हमारे ज्ञानियों का, ऋषियों का कराहता हुआ चेहरा चाहिए, ललकारता हुआ चेहरा चाहिए, टूटता हुआ चेहरा चाहिए। और हम देखना चाहते हैं कि जब सबकुछ टूट रहा हो, तब भी वो कौनसी चीज़ है जो भीतर जुड़ी हुई रहती है। उसी को ‘आत्मा’ कहते है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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