प्रश्नकर्ता: मन दूसरों से मान की अपेक्षा रखता है, लेकिन अपमान होता है तो बुरा तो लग ही जाता है।
आचार्य प्रशांत: जानते हो ये मान-अपमान क्या चीज़ है? पूरी तरह प्राकृतिक है बस, और कुछ नहीं है। और हमने कहा था प्रकृति बस दो-चार चीज़ें ही चाहती है, क्या? खाओ-पियो, मौज मनाओ, शरीर फुलाओ और प्रजनन करो। प्रकृति बस इतना चाहती है, उसको इतना दे दो वो सन्तुष्ट रहेगी। अब तुम देखो कि इस मान-अपमान चीज़ का सम्बन्ध किससे है। इसका सम्बन्ध कुछ नहीं, बस इन्हीं आदिम-पाश्विक वृत्तियों से है। अच्छा ज़रा देखना, किसी मंच पर जिसके लिए तालियाँ बज रही होंगी, बड़ा जिसका मान बढ़ाया जा रहा होगा, उसे मान के साथ-साथ और क्या दिया जा रहा होगा?
कुछ तोहफ़ा, कुछ भेंट, कुछ पुरस्कार, एक सॅाल डाल दी गले में, एक चेक थमा दिया। देख रहे हो मान किस चीज़ के साथ जुड़ा हुआ है। धन के साथ, और धन का क्या इस्तेमाल होता है? कोई भौतिक चीज़ ख़रीद ली, कुछ खाना-पीना आ गया। तो वास्तव में हमें मान नहीं चाहिए। जब हमारा मान छिनता है तो हम परेशान इसलिए हो जाते हैं क्योंकि मान का छिनना इस बात की सूचना होती है कि अब खान-पान भी छिनने वाला है।
तुम किन्हीं के यहाँ गए हो और उन्होंने तुम्हें देखकर पलक-पाँवड़े बिछा दिए, ‘अरे! आइए-आइए जोशी जी’ और बिलकुल तुम्हें देखकर के गीले हुए जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं तो इतना समझ लो कि भोजन बहुत बढ़िया मिलने वाला है। मान के साथ खान-पान। और अब उन्हीं के यहाँ रुक गए तुम, और पाँच दिन बीत चुके हैं, और जिनके यहाँ रुके हो वो तुमसे ज़रा अब रूखे तरीक़े से बात करने लगे हैं तो साथ-ही-साथ ये देख लेना कि खाने में दलिया बनेगा बल्कि कई बार मेहमानों को संकेत देने का कि साहब विदा हों, तरीक़ा ही यही है कि आज तो रोटी और तुरई बनी है।
मेहमान में समझदारी होती है तो जान जाता है कि ये अब जाने का संकेत है। मान के साथ? खान-पान। पुराने ज़माने में जो पंडित होते थे, वो जाएँ, पूजा-पाठ यज्ञ-वज्ञ कराएँ और उसके बाद उनकी एक चीज़ पक्की होती थी, क्या? पूड़ी और कद्दू की सब्ज़ी। और उसके बाद जब वो वहाँ से चलें, जजमान के यहाँ से उठकर के तो क्या उनको दिया जाता था? कुछ पैसा दिया जाता था, कुछ वस्त्र दिए जाते थे और खाने का और भी सामान दिया जाता था—‘लो जी, लड्डू भी ले जाओ’ और फिर ब्राह्मण देवता के चरणस्पर्श किये जाते थे।
ये देख रहे हो मान का सम्बन्ध सीधे-सीधे किससे है? खान-पान से। और खान-पान इतना ही नहीं होता कि जो तुमने मुँह से खा लिया। ये तुम शरीर में खा रहे हो ये भी तो खान-पान ही है न, ये खान-पान नहीं है? हम इसलिए इतना परेशान हो जाते हैं जब कोई हमारा अपमान करता है। पुरानी, जंगली वृत्तियाँ उठती हैं और संकेत देने लग जाती हैं मस्तिष्क को कि अब खाने को नहीं मिलेगा, खाने को नहीं मिलेगा, तुम तुरन्त परेशान हो जाते हो, ये कितनी अजीब बात है।
जानते हो दुनिया में इस वक़्त आठ-सौ करोड़ लोग हैं और दुनिया अभी भी एक हज़ार करोड़ लोगों के खाने का प्रबन्ध करती है। बहुत सारा अन्न फेंक दिया जाता है और एक बड़े अनुपात में अन्न पैदा किया जाता है सिर्फ़ जानवरों को खिलाने के लिए ताकि तुम बाद में उन जानवरों को मारकर खा सको। खाने-पीने की कोई कमी नहीं है वास्तव में। तथ्य ये है कि अब दुनिया में खाने-पीने की कोई कमी नहीं है लेकिन वो जो सिग्नलिंग प्रोसेस (संकेतन प्रक्रिया) है वो अभी भी पन्द्रह लाख वर्ष पुराना ही है भीतर। आदमी आगे आ गया है प्रकृति उसकी अभी लेकिन पुरानी ही है।
भीतर की जो हार्ड-वायरिंग (रूपरेखा) है वो अभी भी पुरानी है। समझो कि हम क्यों परेशान हो जाते हैं जब कोई हमारी बेइज्ज़ती या फ़ज़ीहत करता है। वो जो पुरानी व्यवस्था है वो हमको ये संकेत देती है कि अगर अपमान हुआ तो खाने को भी नहीं मिलेगा, मर जाओगे। तो अपमान का अर्थ इसीलिए मृत्यु बराबर हो जाता है। इसीलिए कुछ होशियार लोगों ने फिर मुहावरे भी ऐसे बना रखे हैं कि हम मौत चुन सकते हैं, बेइज्ज़ती नहीं। वो बिलकुल ठीक कह रहे हैं बस वो क्या ठीक कह रहे हैं उन्हें ख़ुद भी पता नहीं है। वो बिलकुल ठीक कह रहे हैं क्योंकि बेइज्ज़ती का मतलब ही होता है कि अब तुमको भुखमरी शायद मिलने वाली है। ऐसा हुआ करता था कभी। कभी ऐसा हुआ करता था कि जो बेइज्ज़त हुआ अब भूखा मरेगा और वो बात इस मस्तिष्क को अभी भी स्मृति में है तो इसीलिए जैसे बेइज्ज़ती होती है हम बिलकुल परेशान हो जाते हैं। और इसीलिए मान-अपमान के नाम पर इतने युद्ध होते हैं। जो मान-अपमान के नाम पर इतने युद्ध कर रहे हैं उनको पता भी नहीं है कि वो पुरानी, जंगली हार्ड-वायरिंग को इक्कीसवीं शताब्दी में भी इस्तेमाल कर रहे हैं। उनको ये बात समझ में भी नहीं आ रही।
ये सब बातें समझनी हो तो बहुत दूर नहीं जाना है, एक कुत्ते को देख लो। एक घर में कुत्ता होगा, घर में आठ लोग हों लेकिन कुत्ता सबसे ज़्यादा उसी के पाँव में लोटेगा और उसी के सामने दुम हिलाएगा जो उसे रोटी डालता है। और कुत्ता बिलकुल तुम्हारे पीछे-पीछे आता है, देखा है? पीछे-पीछे आएगा। ये वो अपनी ओर से तुमको देखो मान दे रहा है और प्रेम दे रहा है, इससे समझ लो कि हम जो ये मान और प्रेम का खेल खेलते हैं उसकी हक़ीक़त क्या है? उसकी हक़ीक़त बस यही है कि रोटी चलती रहे अपनी। कुत्ते को देखो, साफ़ समझ में आ जाएगा। समझ में आ रही है?
इसलिए हम इज्ज़त के इतने भूखे होते हैं और जो आदमी जितना ज़्यादा तुम सेंसिटिव पाओ, संवेदनशील पाओ इज्ज़त को लेकर के, समझ लो अभी ये उतना ही ज़्यादा जंगल में जी रहा है। इसको समझ में ही नहीं आ रहा है ये इज्ज़त का खेल क्या है। जिनको समझ में आ गया फिर वो ऋषि-मुनि कहलाते हैं, उनको कहा जाता है अब ये मान-अपमान से ऊपर उठ गए। मान-अपमान से ऊपर उठ गए माने प्रकृति से ऊपर उठ गए क्योंकि प्रकृति बस ये चाहती है कि तुम्हें भोजन मिलता रहे और प्रजनन चलता रहे।
इसीलिए जो व्यक्ति आत्मा पर जीता है, जिस व्यक्ति का एक आन्तरिक मूल्य होता है, वो धीरे-धीरे ये परवाह करना छोड़ देता है कि कौन उसको इज्ज़त दे रहा है और कौन नहीं दे रहा है। बात समझ में आ रही है अब? क्योंकि उसे जीवन में कुछ ऊँचा मिल गया है। उसे बस अब खाने और बच्चा पैदा करने से ही मतलब नहीं रह गया है। उसे कुछ और है, एक ऊँचा लक्ष्य मिल गया है वो उसमें डूब गया है। अब वो नहीं परवाह करेगा कि कौन उसकी स्तुति करता है, कौन निन्दा करता है, वग़ैरह-वग़ैरह। वो कहेगा, ‘छोड़ो।’
अगर आप बात-बात में बुरा मान जाते हों, अगर छोटी-छोटी बातें आपको चोट पहुँचाती हों, आहत हो जाते हों, अगर आप उन लोगों में से हों जो जल्दी से हर्ट हो जाते हैं तो समझ लीजिए कि आप बड़े जंगली हैं। जंगल से बाहर आयें, सभ्यता में स्वागत है आपका। बहुत शहर बन गए, भाषाएँ आ गयी, आदमी ने बड़ी तरक्क़ी कर ली। जंगल से बाहर का माहौल भी थोड़ा आज़माएँ। क्या करेंगे जंगल में रहकर के! ये सब जंगल के खेल हैं, बात आ रही है समझ में?
जल्दी से रोने न लग जाया करो, ‘फ़लाने ने मुझे ऐसा बोल दिया, मुझे बड़ी चोट लग गयी।’ अगली बार जब आओगे बोलने कि फ़लाने ने बोल दिया चोट लग गयी तो मैं कहूँगा, ‘ले खा ले।’ क्योंकि तुम्हारी कुल बात का सार, लब्बोलुबाब तो यही है न कि मेरे अब खाने की दिक्क़त होने वाली है। जो कोई तुम्हारे सामने आये बहुत अपमान का रोना ले करके उसको दो पराठे दिखा दो, बोलो, ‘ले, यही तो चाहिए था तुझे। नहीं मर रहा तू भूखा, चिंता मत कर।’
अब तुम समझोगे कि इसीलिए जो लोग दूसरों पर जितना ज़्यादा आश्रित होते हैं, वो उतना ज़्यादा अपने मान-अपमान के प्रति संवेदनशील होते हैं, वो जल्दी हर्ट होते हैं क्योंकि उनको पता है कि उनके भूखे मरने की नौबत आ जाएगी जिस दिन उनका सम्मान छिना। देखा है ऐसा? जो दूसरों पर जितना आश्रित होगा उसको उतनी जल्दी चोट लग जाती है। इसका सम्बन्ध पेट से है। भाई, रोटी-पानी आपका चल ही उसी दिन तक रहा है जिस दिन दूसरा व्यक्ति आपको मान दे रहा है। मान गया कि खान-पान गया। हो सकता है न भी जाए लेकिन वो पुरानी हार्ड-वायरिंग आपको यही बता रही है कि गया। वास्तव में नहीं जाएगा, कुछ नहीं होगा। कोई इतना दुर्बल नहीं होता कि अगर दूसरे की पनाह से निकल जाए तो भूखा मर जाए, इतना कमज़ोर कोई नहीं होता। लेकिन वो पुरानी वृत्ति, वो अभी भी पुराने सिग्नल (सन्देश) ही दिए जा रही है।
कई लोगों को तो ये बातें ही सुनकर बुरी लग रही होंगी। हम तो किसी भी बात से चोटिल हो जाते हैं। मैं कुछ भी बोलता हूँ तत्काल लोगों के इधर-उधर सोशल मीडिया पर कमेंट आ जाते हैं, ‘क्या है, कड़वा बोल दिया, ये कर दिया। आहत करते हैं, थोड़ा मीठा नहीं बोल सकते।’ मैं मीठा बोलूँगा नहीं, मैं तुम्हें मीठा खिला दूँगा, तुम इसी के लिए मर रहे हो। ‘आओ, बोलो। कितना रसगुल्ला खाना है, खाओ। तुम्हें सम्मान तो चाहिए ही नहीं है,तुम्हें पकवान चाहिए, लो।’