उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥
‘उठो, जागो, वरिष्ठ पुरुषों को पाकर उनसे बोध प्राप्त करो। छुरी की तीक्ष्ण धार पर चलकर उसे पार करने के समान दुर्गम है यह पथ – ऐसा ऋषिगण कहते हैं।‘
~ कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, श्लोक १४
आचार्य प्रशांत: ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’, कठोपनिषद् से है। ‘उठो, जागो, और योग्य, श्रेष्ठ जनों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो!’ ये वेदान्त की सीख भी है, और इसी में वेदान्त का उपाय और विधि भी वर्णित है। दोनों चीज़ें चाहिए होंगी; तुम्हारा उठना, तुम्हारा जागना, ये एक चीज़ – ये तुम्हारे अंदर की घटना है; ये पहली बात है। और दूसरा, श्रेष्ठ लोगों के पास जाकर के बैठना। जो कि साधारण तल पर देखें तो तुमसे बाहर की घटना है।
दोनों में से अगर एक भी अनुपस्थित है तो बात बनेगी नहीं। आप उठ गए, आप जग गए, लेकिन जिनसे सीखा जा सकता है, उनके पास बैठने की आपकी कमना नहीं, चेष्टा नहीं, इरादा नहीं, तो आपकी अपनी निजी यात्रा बहुत दूर तक नहीं जा पाएगी।
कारण स्पष्ट है। मनुष्य जिस प्रकार प्राकृतिक तौर पर निर्मित है; उसकी अपनी व्यवस्था ऐसी है ही नहीं कि उसे मुक्ति की ओर भेज दे। बहुत-बहुत कठिन है अंतःप्रेरित होकर ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ते रहना। इतिहास में हमें जितने भी बुद्धजनों का पता चलता है, उन्होंने सबने ही कभी-न-कभी, किसी-न-किसी रूप में अपने से बाहर की किसी ज्ञानवान सत्ता के सामने सर झुकाया था, लाभ प्राप्त करा था।
बुद्ध जंगलों में दस-बारह साल भटके। और क्या कर रहे थे? जितने भी उनको योग्य, ज्ञानी, पंडित सूझ सकते थे, सबके पास गए, सबसे पूछा, सबसे सीखा। कहीं भी प्यास बुझी नहीं तो एक-के-बाद-एक आगे बढ़ते गए। हम नहीं कह सकते कि किसी एक गुरु से ही उनको ज्ञान प्राप्त हो गया। लेकिन जिनकी भी उन्होंने संगति करी, जिनसे भी प्रश्न पूछे, उनसे पूछे बिना भी शायद ज्ञान प्राप्त न हो पाता।
जो इतने सौभाग्यशाली नहीं रहे कि किसी जीवित, चैतन्य, शरीरी गुरु से सीख पाएँ, उन्होंने ग्रंथों से सीखा। लेकिन सीखने के लिए अपने से बाहर के किसी प्रकाश स्रोत की आवश्यकता तो पड़ती ही है। हो सकता है कोई करोड़ों में एक, जिसको बिलकुल किसी बाहरी मदद की ज़रूरत न पड़े; पर ऐसा थोड़ा मुश्किल है।
वैदिक परंपरा, गुरु के पास बैठकर बात करने की, प्रश्न करने की, और सीखने की रही है। यही श्लोक आगे कहता है कि ज्ञान का रास्ता उतना ही कठिन है जितना छुरे की धार पर चलना। इससे भी हमें पता चलता है कि क्यों बहुत कम लोग होंगे जो सच्चाई के स्रोत के निकट जाकर के कुछ पूछने और सीखने की चेष्टा करेंगे।
क्योंकि हम पैदा ही होते हैं अपने भीतर बहुत सारी कालिमा लिए हुए। जब आप बैठते हो प्रकाश स्रोत के समक्ष, तो कालिमा को चोट लगती है – प्रकाशित होना माने मिटना। अंधकार क्यों चाहेगा मिटना? अंधकार का प्रकाश में परिवर्तित होना तो मृत्यु जैसा हो गया न।
तो ऋषि यहाँ पर कह रहे हैं, ‘ज्ञान प्राप्ति का मार्ग छुरे की धार पर चलने जैसा है।‘ सुनने में आसान, आकर्षक, और सुंदर भी लगता है कि जाकर के ज्ञानीजनों के पास बैठ जाओ। पर उनके पास बैठना बड़े कलेजे का काम है; हिम्मत लगती है, चोट लगती है। जैसे कोई छुरा ही कोई भीतरी चीज़ काटे दे रहा हो।
ये बहुत बाद में पता चलता है कि जो भीतरी चीज़ कट रही थी, वो कटने योग्य ही थी। उसके कटने से आपका लाभ ही हुआ है। जिस क्षण ज्ञानी के सामीप्य और शब्दों की चोट पड़ती है, उस क्षण तो ऐसा ही लगता है कि अपने साथ कुछ बुरा हो गया, आहत हो गए। अपने साथ ग़लत कर लिया, उठो! जाओ यहाँ से और कभी वापस मत आओ।
ये सदा की घटना है, क्योंकि मनुष्य जैसा उपनिषदों के काल में था, वैसा ही आज भी है। आज कोई विशेष बुरे दिन नहीं आ गए हैं कि हम कहें कि आज कोई ज्ञान प्राप्त करना नहीं चाहता। औपनिषदिक काल में भी ऐसा ही था। ऋषि यहाँ पर कह रहे हैं न कि सच पर चलना, ज्ञान के रास्ते पर चलना, छुरे की धार पर चलने के बराबर है। और उससे ठीक पहले कहा है कि ‘जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।‘
इतना नहीं आसान! हम कहते हैं, ‘ज्ञानी मिलते नहीं।‘ ज्ञानी को पा लेना आसान है; ज्ञानी के पास बैठना मुश्किल है। कठिनाई इसमें नहीं है कि ज्ञानी उपलब्ध नहीं है। कठिनाई इसमें है कि ज्ञानी के विरुद्ध हमारा अंतरजगत् बड़ा विरोध करता है। और नहीं कोई मिल रहा हो शरीर में ज्ञानवान, तो ग्रंथ तो हैं न? पुस्तकें तो हैं न? आज तो तकनीक का ज़माना है। पुस्तकों के अलावा भी अन्य माध्यमों में ज्ञान उपलब्ध है।
फिर भी लोग जाते नहीं। वजह वही है जो आज से तीन-चार हज़ार साल पहले थी – छुरे की धार बड़ी पैनी है। भीतर कुछ कट जाता है। लेकिन जो तैयार नहीं है वो मार झेलने के लिए, वो फिर अपने आंतरिक अँधेरे में ही सोया पड़ा रहेगा। ऋषियों को यदि कहना पड़ रहा है, ‘उठो, जागो‘, तो इसका अर्थ यही है न कि जिसको संबोधित कर रहे हैं वो सोया पड़ा है।
वो जो सोया पड़ा है, वो हम सबकी आरंभिक अवस्था है। दुर्भाग्य ये कि बहुतों कि वो आरंभिक अवस्था उनके अंत तक चलती है। वो वहीं से शुरु करते हैं अपनी तमसा, अपनी बेहोशी में घोर बेसुध सोए हुए, और उसी नींद में स्वप्नवत उनका जीवन कट जाता है। वो मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अधिकांश लोगों के लिए जीवन बेहोशी से मृत्यु तक की एक बेसुध यात्रा है।
ऋषि यही नहीं होने देना चाहते। जितने भी प्रयत्न हो सकते थे, उन्होंने करे हैं। और जब वो कह रहे हैं कि उठो, जाओ ज्ञानियों के पास, तो इतना पढ़ने भर से आप ज्ञानियों के पास पहुँच गए। क्योंकि ज्ञानी क्या है? ज्ञानी का शरीर नहीं है ज्ञानी, ज्ञानी का वचन है ज्ञानी। ज्ञानी का ज्ञान है ज्ञानी। ज्ञानी की चेतना है ज्ञानी।
सशरीर आज हमारे समक्ष कठ उपनिषद् के ऋषि नहीं हैं। लेकिन उनकी बात हमारे सामने है। वही ज्ञान है, वही उनका सार है, वही मर्म है। तो उपनिषदों के पास जाएँ। जो जानते हैं, उनके पास स्नेहपूर्वक बैठें, और सादर समझें। चोट लगती हो तो उसको साहस के साथ स्वीकार करें। कोई भी चोट मुक्ति की संभावना से ज़्यादा महत्व नहीं रखती। ये सदा स्मरण रहे!