Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
अंतर्मुखी माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
6 मिनट
27 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अंतर्मुखी होना माने क्या और वो क्यों ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत: ये बहुत गहरा शब्द नहीं है। अध्यात्म की दृष्टि से अंतर्मुखी-बहिर्मुखी सब एक हैं। आमतौर पर आप बहिर्मुखी उसे बोल देते हो जो संसार से ज़्यादा वास्ता रखता है। और जो अपने में ही ज़्यादा सीमित रहता है, उसको आप बोल देते हो अंतर्मुखी। पर अध्यात्म के देखे तो जो बाहर लिप्त है, वो भी लिप्त है और जो अपने ही विचारों और भावनाओं में लिप्त है, वो भी लिप्त है; दोनों में कोई अंतर नहीं।

अंतर्मुखी होना कोई विशेष बात नहीं है, आत्मज्ञानी होना बिलकुल दूसरी बात है। अंतर्मुखी एक है और अंतर्ज्ञानी बिलकुल दूसरा है। अंतर्ज्ञानी का मतलब है कि जो जान गया कि अंदर-बाहर एक है। जो अंतर्मुखी है वो तो अभी यही मान रहा है कि अंदर कोई दूसरी दुनिया होगी और बाहर कोई दूसरी दुनिया है, हम बाहर की दुनिया छोड़कर भीतर की दुनिया में आये हैं। तो अंतर्मुखी होना तो अभी द्वैत का ग्रास ही बने रहने जैसा है।

एक घर है, कोई घर के बाहर ढूँढ रहा है, कोई घर के भीतर ढूँढ रहा है और जिस चीज़ को ढूँढा जा रहा है, वो न घर के बाहर होती है, न घर के भीतर होती है; वो तब होती है जब तुम्हें दीवारों की व्यर्थता समझ में आ जाए।

भीतर माने क्या? मन, और कुछ नहीं। तुमने यही तो भेद करा है न कि बाहर संसार है और भीतर मन है। तो ये जो भीतर है, जो तुम्हारी ही परिभाषा के अनुसार मन है, उसको जान लो, वो अंतर्गमन हुआ। वो कैसे काम करता है? वो क्या चाहता है? क्या उसके ढर्रे हैं? क्या उसके इरादे हैं? क्या उसकी मान्यताएँ हैं? उसको समझ लो, ये अंतर्गमन है।

प्र१: आचार्य जी, आत्मज्ञान कैसे अलग है?

आचार्य: आत्मज्ञान का मतलब है जानना कि अंदर-बाहर एक है। और जो अंतर्मुखी है और जो बहिर्मुखी है, दोनों की मान्यता क्या है? कि अंदर-बाहर अलग-अलग हैं। तो अंतर्मुखी-बहिर्मुखी एक हैं, उनमें कोई बहुत भेद नहीं है।

प्र२: आचार्य जी, अक्सर जब हम आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ते हैं तो उनमें ज़िक्र होता है कि सब मिला ही हुआ है, सब पाया ही हुआ है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर वह जीवन में क्यों नहीं उतरता?

आचार्य: दो बातें हैं उसमें। जब पाया ही हुआ है, तो जब भी इच्छा उठे किसी चीज़ की ऐसी कि तुम्हें रूह तक कँपा दे तो अपनेआप को याद दिलाओ—इतना भी ज़रूरी कुछ भी नहीं क्योंकि जो ज़रूरी है वो तो पाया ही हुआ है। ये पहली बात।

दूसरी बात, याद दिलाने पर भी जब इच्छा या लहर या डर हटे नहीं, हावी ही रहे, तो फिर कहो कि भले ही पाया हुआ है लेकिन उस पाये हुए को दोबारा पाना होगा। अपनी ही दौलत पुन: कमानी होगी। बैंक में पैसे पड़े हैं पर न हमें बैंक याद है, न शाखा याद है, न खाता याद है, तो सुमिरन करना होगा।

दो बातें बोली मैंने, पहली से ही अगर काम बन जाए तो बढ़िया। जीवन पर जब भी कुछ हावी हो रहा हो, तत्काल उससे मुक्त हो जाओ। तत्काल कैसे मुक्त हो जाओ? उस बोध में पुन: स्थापित होकर के कि जो असली है और क़ीमती है, वो तो न छिन सकता है, न मिट सकता है, तो मैं इतनी परेशान किसलिए हूँ? अगर इतने से ही काम बन जाए, परेशानी हट जाए तो बहुत अच्छा। तुम शांत हो गये, बात ख़त्म।

पर इतने से अगर न मिटे तो समझ लेना कि इच्छा और वृत्ति तुमको अब बहुत पकड़ चुके हैं। वो बात-भर करने से मान नहीं रहे हैं, हट नहीं रहे हैं। बात हमने उनको अभी-अभी बतायी। क्या बात बतायी? कि भाई तुम क्यों परेशान हो रहे हो, जो पाने लायक चीज़ है, वो पायी हुई है। अभी-अभी उनको हमने समझाया, पर वो मान नहीं रहे।

फिर साधना करनी पड़ेगी, फिर पुनः अर्जित करना पड़ेगा। फिर ईमानदारी की बात ये होगी कि तुम अपनेआप को बोलो कि हम ऐसे अभागे हैं कि पाकर भी वंचित हैं। “पानी में मीन प्यासी”—हाल है हमारा। पाया हुआ है लेकिन मिला नहीं हुआ है। ”वाटर-वाटर एवरीव्हेयर बट नॉट ए ड्रॉप टू ड्रिंक।” (हर जगह पानी-पानी है, पर पीने को एक बूँद नहीं।) है तो, पर न जाने क्या माया है कि हमारे लिए नहीं है।

लाखों तारे आसमान में, एक मगर ढूँढे न मिला।

हैं लाखों, ढूँढ रहे हैं तो एक नहीं मिल रहा। अब साधना करनी पड़ेगी। साधना में दोनों बातें, हमने कहा था—ऊब भी और आस भी। ऊब इस बात से कि ये परेशानी बहुत हो गयी और आस इस बात की कि निश्चित रूप से कुछ है जो मेरा ही है और खोया नहीं जा सकता; जब खोया नहीं जा सकता तो मिल ही जाएगा। तो ये साधना व्यर्थ तो जानी ही नहीं है, भले इसमें कितनी दिक़्क़त आये, तकलीफ़ आये।

समझ में आ रही है बात?

इस भरोसे पर मत रह जाना कि खोया तो जा ही नहीं सकता। तुम्हारी जेब में पड़ा हो माल, तुम कर लो नशा, अब कुछ सुध नहीं। अब माल है तुम्हारे पास? तो ये बात आख़िरी सत्य ज़रूर है, पारमार्थिक है, बहुत ऊँची है कि सत्य अपरिछिन्न है, कि सत्य तुमसे अनन्य है, तुम अलग नहीं हो सकते; ये बात बहुत ऊँची है। बात तो बहुत ऊँची है पर तुम कहाँ रह रहे हो? निचाइयों में। और वहाँ वो बात तुम्हारे काम नहीं आएगी। तो वहाँ तो तुमको पाये हुए को ही पुनर्प्राप्त करना पड़ेगा।

ये सुनने में अजीब लग रहा है पर ऐसा ही है। जेब में माल है पर उसी माल को दोबारा अर्जित करना पड़ेगा। कैसे? ऐसे नहीं कि जेब दोबारा भरनी है; नशा उतारना है। जेब तो भरी ही हुई है लेकिन नशे के कारण तुम्हें लग रहा है कि तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो अब ये थोड़े ही करना है कि जेब को दोबारा भरने की कोशिश शुरू कर दी। साधना माने नशा उतारना।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें