अनूठे तांत्रिक की अजब कहानी || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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अनूठे तांत्रिक की अजब कहानी || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मैं एक देवी मंदिर का मुख्य पुजारी हूँ, थोड़ी ज्योतिषी कर लेता हूँ। और लोग भूत, चुड़ैल और वशीकरण के लिए आते हैं मेरे पास में। हालाँकि मुझे पता है कि वो सब झूठ ही है लेकिन उनको समझा ही नहीं पाता हूँ। वो जिस हालात में आते हैं और जिस प्रकार से बोलते हैं, तो उनको समझा ही नहीं सकते। तो फिर उनके तल पर जाकर के ही उनका उपाय करना पड़ता है।

अगर नहीं करेंगे तो फिर वो और किसी बाबा के पास चले जाएँगे। कम-से-कम मैं इतनी तो संवेदना रखता हूँ कि उनका अहित नहीं हो, और कुछ उपाय करके उनको उस परेशानी से निकालने का प्रयास करता हूँ।

उनके तल पर अंधविश्वास में जाकर के अंधविश्वास को मिटा सकते हैं। क्योंकि ये समझ में आता है कि ज्ञान होगा तो ही वो उस परेशानी से निकल पाएँगे, नहीं तो वो निकल नहीं सकते। और अभी उनको बताते हैं कि ऐसा करो, ऐसा करो तो वो कुछ समझते ही नहीं, उनको तो उनकी कामना ही पूरी करनी है। तो कुछ ऐसे उपाय, मनोवैज्ञानिक उपाय हम दे सकते हैं जिससे कि वो ज्ञान की ओर बढ़ें?

आचार्य प्रशांत: अभी जब वो आपके पास आते हैं ये सब भूत-प्रेत, चुड़ैल वग़ैरा का लेकर के, तो आपने कहा कि आप उनको अंधविश्वास के ही तल पर कुछ काट दे देते हो। कैसे?

प्र: जैसे कि अभी परसों का ही केस (मामला) है, एक महिला को कहीं और दिखाकर के लाये होंगे, तो उसको गर्म-गर्म चिमटे से मारा हुआ है, हमने देखा। अब पता तो था कि भूत-चुड़ैल तो होते ही नहीं हैं — पंद्रह साल हो गये इन चीज़ों में मुझे — पर अब डॉक्टर के पास जाने का बोलेंगे तो उनको पता है कि नहीं, इसको भूत-चुड़ैल ही हैं। अगर मैं कहूँगा, ‘डॉक्टर के पास जाओ’, तो वो बोलेंगे, ‘आपको कुछ नहीं पता, छोड़ो! दो-चार मारो सोटे इसको, निकलेगा। इसको प्रताड़ित करो, मारो डंडे-ही-डंडे, मारोगे तो भूत निकलेगा।’

अब उसको इतना मारा हुआ है और मुझे पता है कि भूत-चुड़ैल है ही नहीं तो उसको मारना क्या है। वो डॉक्टर से ही सुधरने वाला है। तो फिर उस हालात में मैं ये करता हूँ कि उसके ऊपर से कुछ भी नींबू वग़ैरा करके बता देता हूँ कि हाँ, भूत निकल गया और उस समय जो गड़बड़ हो रही है, वो डॉक्टर से अच्छा हो जाएगा। तो कुछ वहीं के मनोचिकित्सक हैं, उनका पता है मुझे कि ये सुधार देंगे तो मैं उनके पास भेज देता हूँ। तो वो अच्छे हो जाते हैं।

आचार्य: सबसे पहले तो मैं आपके साहस की दाद देता हूँ। आपको पता है कि ये सब चार कैमरों से रिकॉर्ड हो रहा है। (श्रोतागण हँसते है)

प्र: आप ही के कारण है।

आचार्य: धन्यवाद। आप गीता कोर्स से जुड़े हुए हैं?

प्र: जी।

आचार्य: समझ गया था। ये टेढ़ा है थोड़ा सा प्रश्न और इसमें बिलकुल रस्सी पर चलने वाली बात है। आप कह रहे हैं कि जो अंधविश्वास से ग्रस्त होकर के आया है, उसको अंधविश्वास के ही रास्ते अंधविश्वास से मुक्त कराना है।

देखिए, विधियाँ तो लगानी ही पड़ती हैं, लेकिन बड़ी सतर्कता रखनी पड़ती है कि कहीं जो विधि है, जो साधन है, वो साध्य के विरुद्ध न चला जाए। जो आप तरीक़ा ले रहे हैं, कहीं वो तरीक़ा ही ऐसा न बन जाए कि आपको मंज़िल तक पहुँचने से रोक दे।

रास्ते तो लेने ही पड़ते हैं, अगर कहीं पहुँचना है तो आप रास्ते लोगे, पर वो रास्ता मंज़िल तक ले जा रहा है कि नहीं, इसका विचार करना पड़ता है। हालाँकि आप जिस स्थिति पर हैं, मैं थोड़ा-थोड़ा समझ पा रहा हूँ और उससे मैं संवेदना भी रख पा रहा हूँ कि आप पुजारी हैं तो लोग आपके पास ये सब मामले भी लेकर आ जाते हैं।

प्र: प्रतिदिन तीस से पैंतीस मामले आते हैं।

आचार्य: प्रतिदिन तीस से पैंतीस! आप तो सेलिब्रिटी बन सकते हैं।

प्र: एक केस मैं आपको बताना चाहूँगा जो बहुत ज़रूरी है जवान लड़के-लड़कियों का। अभी तीन-चार दिन पहले का है, एक लड़की ने एनआइटी पास कर लिया, और एक आइआइटी की तैयारी कर रही है। अब दोनों का कम-से-कम तीन-चार साल से अफ़ेयर (प्रेम प्रसंग) था। दोनों अलग-अलग केस हैं। अब वो लड़के बिलकुल ड्रग एडिक्ट (नशे के आदी) हैं। पढ़ाई-लिखाई उनकी कुछ नहीं, ग्रेजुएशन (स्नातक) भी पूरा नहीं किया उन्होंने और वो लड़कियाँ उन दोनों लड़कों के पीछे बहुत पागल हो रही हैं।

आपने कहा था न एक वीडियो में कि अंदर कुछ है जो फ़र्टिलाइज़ होने के लिए तड़प रहा है, उसको मैं मेरी भाषा में बोलता हूँ कि जवानी चढ़ रही है। तो अब वो लड़के उनके कोई क़ाबिल नहीं हैं, फिर भी उन लड़कों ने उन लड़कियों को छोड़ दिया और दूसरी गर्लफ्रेंड रख ली। अब वो लड़कियाँ उन दोनों के पीछे पागल हो रही हैं, एक ने नस काट ली और उसको सात टांके आये, दूसरी ने फंदा लगाने की कोशिश की।

अब हमारे पास में वो दोनों आयी हैं माँ-बाप से छुपकर कि आप ऐसा कुछ वशीकरण करो इनके ऊपर कि वो दूसरी छूट जाए और ये मेरे पास फिर आ जाए। अब मैं इस पर समझाने जाऊँगा, उनको कुछ समझना नहीं। गीता जी बोलूँगा, उनको कुछ समझना नहीं। अब उस हालात से निकालना है तो मैं ऐसे में जो हल करता हूँ, वो मैं बताऊँ आपको? (श्रोतागण हँसते हैं)

आचार्य: बता दीजिए भई, बहुतों के काम आ जाएगा (हँसते हुए)!

प्र: ये पक्का है कि वशीकरण कुछ नहीं, मैं कुछ नहीं करता। मुझे ये पता है कि थोड़ा सा अगर इनको अंतराल देंगे, तो ये किसी और को पकड़ लेंगी। क्योंकि अभी तो ये इनके पूरे दिमाग में बसा हुआ है और ये संसार इनका बन चुका है। तो मैं बोलता हूँ कि हाँ, ठीक है! हम कुछ यज्ञ-हवन करेंगे — मेरे मंदिर के पास में शमशान भी है तो मैं बहुत प्रसिद्ध हूँ कि मैं तांत्रिक-बाबा हूँ (जानते हुए कि ये मूर्खता भरी बात है तो हँसते हुए)।

तो मैंने कहा, हम यज्ञ-हवन करेंगे तो ये हो जाएगा। तो पूछा उन्होंने कि कितने दिन में होगा? मैंने कहा, इक्यावन दिन तो लगेंगे। इक्यावन दिन में मैं उनको कुछ प्रक्रिया दे देता हूँ कि तुमको सोमवार के दिन उज्जैन जाना पड़ेगा अपनी सहेलियों के साथ, फिर ओंकारेश्वर जाना पड़ेगा अपनी सहेलियों के साथ, और पाँच सहेलियों को कम-से-कम लेकर के जाना है और वहाँ पर तुमको ऐसे दीपदान करना है जैसे माता पार्वती ने भगवान शंकर को पाने के लिए किया था। ऐसा तुमको करना पड़ेगा।

और इस बीच में तुमको उस लड़के को ब्लॉक (स्वयं से बाधित) करके रखना है, और अपना अच्छा-अच्छा स्टेटस डालना है। वो लड़के को ऐसे दिखाना है कि तू जा भाड़ में, तेरे पीछे मैं मर नहीं रही। और जगह उनको मैं बता देता हूँ कि ऐसे करो, ऐसे करो, सहेलियों के साथ जाओ, माँ-बाप के साथ, अपने भाई-बहनों के साथ घूमो।

तो उस समय वो सोच उनके दिमाग से हट जाती है, वो अपनी सहेलियों के साथ में, सबके साथ में, वहाँ पास में नर्मदा नदी है, वहाँ पिकनिक जैसा हो जाता है तो उनका मन बहल जाता है। ऐसे करके मैं उनको डेढ़-दो महीने तक घुमाता रहता हूँ कि यहाँ ऐसा कर लो, यहाँ ऐसा कर लो। इसी के बीच में अभी आपके भी ऐसे कुछ सॉल्यूशन कोर्सेज़ के बारे में पता चला।

तो इक्यावन दिन में, दो महीनों में ऐसा कुछ हो जाता है कि उसको वो भूल जाती हैं और दूसरा बॉयफ्रेंड रख लेती हैं। तो मेरी मानसिकता सिर्फ़ इतनी-सी होती है कि जो ये हाथ की नस काट रही हैं, फंदे लगा रही हैं, तो वो बच जाए और ये ख़ुश हो जाए। हालाँकि उनको ज्ञान देने जाएँगे तो वो नहीं चाहिए उनको, लेकिन मेरा प्रश्न आपसे इसी के लिए है कि ऐसा मैं क्या करूँ जिससे कि वो ज्ञान की तरफ़ जाएँ? क्योंकि ये ज्ञान अगर मन में आ जाएगा तो उनको आगे बढ़ने में आसानी होगी।

आचार्य: विधियाँ तो लगानी ही पड़ेंगी। पर विधियाँ ऐसा लगता है कि माया की काट होती हैं, पर विधियों में भी ख़ूब माया होती है। बहुत सतर्क रहना होता है विधियाँ लगाने के काम में। आप अगर भगवद्गीता को ही देखेंगे तो वहाँ भी श्रीकृष्ण मात्र ज्ञान ही नहीं दे रहे हैं, वो भी विधियाँ लगा रहे हैं।

जब वो देखते हैं कि अर्जुन अपनी जो क्षत्रिय पहचान है, उसको लेकर के बहुत संवेदनशील है तो ऐसा वो कई बार करते हैं गीता में कि अर्जुन से कहते हैं कि तुम क्षत्रिय होते हुए भी इतनी कायरता का प्रदर्शन क्यों कर रहे हो? अब वास्तव में कायरता का प्रदर्शन तो किसी को भी नहीं करना चाहिए, क्षत्रिय हो चाहे न हो। लेकिन फिर भी अर्जुन को विशेष तौर पर याद दिलाते हैं कि देखो, तुम क्षत्रिय वर्ण से हो।

तो ये विधि ही तो है कि उनको पता है कि अर्जुन की अपने क्षत्रियत्व में और वर्णाश्रम धर्म में बड़ी आस्था है और ये आस्था अर्जुन ने पहले ही अध्याय में स्पष्ट कर दी है। तो कहते हैं, ‘चलो, जो तुम्हारी मानसिकता है और जिस तरह के मत और विश्वास तुम रखते हो, मैं उन्हीं का उपयोग करके तुमको मुक्ति की तरफ़ ले जाऊँगा।’ लेकिन आप उसमें जो अनुपात है उस पर ग़ौर करिएगा।

श्रीमद्भगवद्गीता में विधियों का उपयोग है तो ज़रूर, पर एक सीमा से आगे नहीं है। वो सीमा पहचाननी बहुत ज़रूरी है। नहीं तो क्या होता है डेट द मींस डिस्ट्रॉय द एंड्स (कि साधन साध्य को नष्ट कर देते हैं)। और ये किसी सूत्र, फॉर्मूले वग़ैरा से निर्धारित नहीं करा जा सकता कि किस सीमा तक विधि लगानी है और किस सीमा के बाद विधि नहीं लगानी है। क्योंकि जानने वालों ने कहा है कि हर तरह की विधि उपयोगी तो होती है लेकिन साथ-ही-साथ एक चालाकी होती है, एक तरह से झूठ होती है। क्योंकि विधि उस पर लगायी जा रही है न जो स्वयं झूठ है। विधि उस पर ही तो लगायी जा रही है जो स्वयं एक झूठी आस्था को पकड़कर बैठा है। और आप जो विधि लगाते हो, उसकी आस्था के अनुसार ही लगाते हो।

उदाहरण के लिए किसी की भूत-प्रेत में आस्था है तो आप कहते हो कि हाँ, भूत-प्रेत होते हैं और मैं ऐसे करके उतार दूँगा। तो विधि में भी तो झूठ आ ही गया न, क्योंकि विधि एक झूठ पर आश्रित है। लेकिन विधि उपयोगी भी होती है। तो विधि लगाना आवश्यक भी होता है और विधि लगाने वाले को अतिशय सतर्कता भी दिखानी पड़ती है क्योंकि विधि लगाते-लगाते बात कब हाथ से निकल जाएगी, पता नहीं चलेगा।

भारत में ये ख़ूब हुआ है। भारत को मुक्ति से इतना प्रेम रहा है कि हमने सैकड़ों विधियाँ ईजाद करी। मैं जहाँ से देख रहा हूँ, मेरे लिए वो सब विधियाँ बस प्रमाण हैं हमारे प्रेम का। हम बोल रहे थे, ऐसे नहीं तो ऐसे ही सही, ऐसे नहीं तो ऐसे सही।

अरे! चलो तुम ऐसे कर लो, तुम योग से कर लो। किसी को ध्यान के लिए सत्तर तरह की विधियाँ बता दीं। ऐसे ध्यान कर लो, ऐसे ध्यान कर लो। जाओ, एक जल स्त्रोत के पास बैठ जाओ। अब जल स्त्रोत के पास बैठना भी एक विधि हो गयी। और किसी को ये विधि है कि जाकर के जो एकदम बंजर पहाड़ी हो, जहाँ पर एक हरा पत्ता न हो, वहाँ एकांत ध्यान करो, उसके लिए ये विधि हो गयी। किसी को विधि बता दी कि कीर्तन हो रहा हो, वहाँ पर तुमको भगवत प्राप्ति होगी। और किसी को बता दिया — न, न, न! एकदम एकांत रमण करो और मौन रखना, वैसे होगा।

अब ये सब क्या है? ये सब लोगों की भिन्नताओं का आईना है, दर्पण है। लोग चूँकि अलग-अलग होते हैं और हमारे ऋषि, मनीषि सब बड़े आतुर थे कि लोग कैसे भी हों, उनमें कितने भी भेद हों, उनको लेकर तो जाना ही है मुक्ति की ओर, तो उन्होंने इतने तरीक़े की विधियाँ बना दीं।

आप कह रहे थे कि आपको तांत्रिक नाम से जाना जाता है। तंत्र की तो पूरी व्यवस्था ही क्या है — विधि मात्र है तंत्र। आप किसी से कहेंगे कि अच्छा, तंत्र का मुझे दर्शन बताओ तो समस्या आ जानी है। क्योंकि दर्शन के नाम पर तंत्र में बहुत थोड़ा है (हँसते हुए)। आपने कभी तंत्र दर्शन सुना है क्या? दर्शन है, उसका भी अपना एक दर्शन है लेकिन वहाँ दर्शन के नाम पर बहुत थोड़ा है। तंत्र कुल मिला-जुलाकर के विधि है।

और आपको हैरत होगी ये जानकर के कि लगभग यही बात योग के बारे में भी कही जा सकती है। योग का अपना दर्शन है, निसंदेह! मैं नहीं कह रहा हूँ कि योगदर्शन जैसा कुछ नहीं होता, पर योग भी वास्तव में विधियों की ही एक व्यवस्था है। एक सिस्टम है कि ये रही विधि, इसको करोगे, इससे लाभ हो जाता है। क्योंकि ज़्यादातर लोग समझने के आतुर तो होते ही नहीं हैं, तो उनको तरीक़ा बता दो।

अब उसमें भी आपके पास हठयोग है और पतंजलि योग है — राजयोग। उसमें जो हठयोग है, वो तो पूरा ही विधि है बस। ऐसे कर लो, फिर ऐसे कर लो, इतने तरह के आसन होते हैं, ये मुद्रा होती हैं, फिर ये होता है, ये करना होता है ऐसे, इतने तरीक़े से सफ़ाई करनी होती है ऐसे, इतने प्रकार के प्राणायाम होते हैं, ऐसे, ऐसे, ऐसे।

अब कोई पूछे कि प्राणायाम के पीछे का दर्शन बताओ, तो कोई क्या बताएगा? वो ये बता देंगे कि प्राणायाम से लाभ क्या होते हैं। कोई आपको ये तो बता देगा कि लाभ क्या होते हैं पर उसके पीछे का दर्शन, तो क्या दर्शन? कुछ नहीं। कोई पूछे आसन का दर्शन? आसन का लाभ बता दिया जाएगा पर आप किसी से पूछें, शवासन, मयूरासन, इनका मुझे बताओ तुम दर्शन, तो दर्शन तो…।

तो ये सब क्यों? क्योंकि बहुत सारे ऐसे लोग हुए जो समझ सकते ही नहीं थे या जिनकी समझने में रूचि नहीं थी। जैसे भी कहना चाहें। तो उनके लिए फिर भाँति-भाँति की विधियाँ विकसित करी गयीं। ये नहीं कर दिया गया कि अच्छा तुम जाओ, जब तुम्हें समझ में नहीं आता तो तुम हटो। ये रहे उपनिषद्, या तो इन्हें समझ लो और नहीं समझ सकते तो हटो, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। नहीं।

जो मांस खाते हैं उनके लिए भी तंत्र में विधि बना दी गयी। मांस, मदिरा, मैथुन — ये सब विधियों में सम्मिलित कर लिये गए क्योंकि छोड़ने वाले तो ये हैं नहीं। इनसे तुम बोल दो कि ये इन सब दोषों को छोड़ दें — ये मकार कहलाते हैं — तो ये छोड़ने वाले तो हैं नहीं। तो एक काम करो, इन्हीं को साधन बना लो। ठीक है? लेकिन उसके फिर दुष्प्रभाव भी हमें देखने को मिले। मिले हैं कि नहीं मिले हैं?

ये थोड़ी हुआ है कि लोग तंत्र साधना करते हैं फिर मुक्ति के लिए। आज देशभर में ऐसी दुकानें एकदम फैली हुई हैं, फल-फूल रही हैं जहाँ तंत्र के नाम पर आपको बस सेक्स के लिए आमंत्रित किया जाता है। वो ऐसे ऊपर से दर्शा देंगी कि देखो ऐसे-ऐसे होता है, तो इससे आपको जो है मुक्ति मिल जाएगी या आप किसी ऊपरी चक्र में प्रवेश कर जाओगे कुंडलिनी के। ऐसे बोलेंगे पर ले-देकर के लोग वहाँ इसलिए जाते हैं कि पता है उनको कि यहाँ पर शारीरिक सुख मिलेगा।

विधियों के साथ ये एक झंझट रहता है। विधि आपने किसी को उसके अनुसार बना के दी है न, माने उसके लालच के अनुसार बनाकर दी है। आप चूहेदानी लेते हो, उसमें आप लटका देते हो रोटी, सब्ज़ी, पनीर, कुछ लटका देते हो। आप कहते हो कि ये विधि है। विधि ऐसी होती है कि चूहा इसलिए तो नहीं चूहादानी में प्रवेश करेगा कि उसको संसार से मुक्ति चाहिए; कि संसार कुछ नहीं है, ये द्वैत का झंझट है, तो चलो चूहेदानी में चलते हैं। ऐसे तो नहीं करेगा वो प्रवेश। तो उसको आप क्या ललचाते हो? रोटी दिखाकर के।

उसमें जो पूरी चूहेदानी है, उसकी व्यवस्था बहुत अच्छी होनी चाहिए। नहीं तो चूहे भी तो अपनी विकासवादी यात्रा पर हैं न। चूहा भी कोई हल्का-फुल्का जीव नहीं होता है, वो ऐसा भी कर लेता है कि अंदर घुसेगा, रोटी निकालेगा और चंपत हो जाएगा। वो भी तो सीखते हैं। तो ये होता है न फिर।

मन सब विधियों का दुरुपयोग करना भी जानता है, और विधियों का दुरुपयोग बहुत होता है। इसलिए फिर कृष्णमूर्ति जैसे विचारक आते हैं जो कहते हैं, “कोई विधि नहीं, कोई विधि नहीं।’ क्योंकि जो भी आपको विधि दी जाएगी, आप उसको खा जाओगे, आप उसका दुरुपयोग करना शुरु कर दोगे। लेकिन हम ये भी जानते हैं कि विधि से लाभ हुआ भी है। हम ये नहीं कह सकते कि उससे किसी को लाभ नहीं होता। तो बड़ी उसमें जागरूकता, बड़ी संवेदनशीलता रखनी पड़ती है।

जो विधि दे सके, उसको कहा गया गुरु। देयर हैज़ टू बी मास्टरली एक्सपर्टीज़ (विशेषज्ञ वाली निपुणता होनी चाहिए) कि आपको ठीक-ठीक पता हो कि आपने उन लड़कियों को इक्यावन दिन की साधना बता दी, कि साधना में ये है कि उनको ब्लॉक करो, अच्छे-अच्छे स्टेटस लगाओ, जाओ मंदिरों में ये करके आओ, दीप दान करके आओ — ये सब आपने बता दिया। अब ये आपने बड़ी ज़िम्मेदारी का काम ले लिया।

अब आपको पता करना पड़ेगा कि वो इसी बहाने कुछ और तो नहीं जाकर फँस रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वो जो आत्महत्या वग़ैरा करना चाहती थीं, वो बस टल गयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वो जो दूसरा लड़का पकड़ लेगीं, वो पिछले लड़के से भी बदतर होगा। पिछला वाला नशेड़ी था, ये वाला कहीं अपराधी हो तो!

किसी को विधि देना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है। और उसको ऐसे कह देते हैं शास्त्रों में कि अगर आपने किसी को अपने नीचे लेकर के उसको अपने द्वारा प्रदत्त विधि के माध्यम से मुक्ति की ओर भेजा है, तो उसका अब जो भी हाल होना है वो आपके ऊपर आना है। उसका कर्मफल अब उसका नहीं रहेगा, उसका कर्मफल आपका हो जाएगा। तो ये इतना ख़तरे का काम होता है। आपको इसमें बहुत जागरूक रहना होगा।

अपनी ओर से आप जो कर रहे हैं, अगर आपकी नियत साफ़ है तो वो बात प्रशंसनीय है कि आप चाहते हैं कि उनको धीरे-धीरे करके इन सब बातों से मुक्त करायें।

मैं चाहूँगा कि जैसे आप उनको विधियों के तौर पर इसी क्षेत्र के अंदर की ही बातें बता देते हैं न, वैसे ही विधि के तौर पर फिर ये भी बताएँ कि अच्छा जाओ, ये एक छोटा-सा वीडियो है, इसको देख लेना। या इस किताब को तुम पूरा नहीं पढ़ सकते तो इसका बस ये वाला जो अध्याय है वो पढ़ लो। इस तरह की बात आपने कोशिश करके देखी है? ये सफल नहीं हो पाती, नहीं हो पाती?

प्र: नहीं।

आचार्य: दिल टूट गया मेरा। (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: महीने-दो-महीने में एक समागम रखते हैं हम जिसमें मैं एक जल रख देता हूँ और बोलता हूँ, इस जल को जो पिएगा उसके सब भूत-चुड़ैल, तंत्र हट जाएँगे। उसको पीने के लिए क़रीब ढाई-हज़ार लोग आते हैं और मैंने बहुत हिम्मत करके पिछले महीने आपका ज़िक्र उनमें किया कि यूट्यूब पर एक आचार्य प्रशांत जी हैं, वो गीता जी बहुत अच्छी समझा रहे हैं। अभी तक मेरे देखे कोई इतनी अच्छी गीता नहीं समझा रहा। तो तुम लोग इतनी बेफ़ालतू की चीज़ें देखते हो तो थोड़ा उसको देखो। तो उन ढाई-हज़ार लोगों में से मात्र चार लोगों ने देखा (आचार्य जी लंबी साँस लेते हैं)। और उन्होंने भी अभी मना कर दिया। बोले, ‘डेढ़-डेढ़ घंटे के वीडियो हम नहीं देखेंगे।’ उनको समझाना बहुत मुश्किल है।

एक केस और बता दूँ सर, अभी पिछले हफ़्ते लेकर के आये थे अपनी बहू को और उनकी बहू को कुछ प्रेत लगे हुए थे और उनको ये था कि वो रात में उठती है और कैंची लेकर के अपनी सास के और पति के, सबके कपड़े फाड़ देती है और डंडा लेकर मारने लग जाती है। अब उनको हमारे पास लेकर आए और उनको पहले से ही बहुत मारा हुआ था। हमने उनको देखा और इतना समझ में आया कि इनको ऐसा कुछ भी नहीं है। सबको बाहर किया हमने और कहा कि क्यों कर रही हो नाटक? सीधे-सीधे बताओ, किसलिए ये नाटक है?

बोली, ‘मेरी दो साल पहले शादी हुई है, अभी तीन महीने पहले बेटी हुई है। बेटी हो गयी है इसलिए ये सब मिलकर मुझे परेशान करते हैं। रात में बारह बजे सोने को मिलता है, सुबह साढ़े-चार बजे उठ जाओ; दिनभर सोने को नहीं मिलता, पति दारु पीकर आ जाता है और सब लोग गाली-गलौज कर रहे हैं कि बेटी पैदा हो गयी। वाशिंग मशीन मेरे दहेज में मिली है तो उसमें मेरे को कपड़े नहीं धोने देते, उसमें गेहूँ भर दिये हैं और बोले हाथ से कपड़े धो। अब मैं भूत-चुड़ैल का नाटक करके दो-तीन घंटे बेहोश होकर सो लेती हूँ।’

अब इसका उपाय हमने ये दिया कि सबको बुलाया और मैंने कहा कि इसको सूर्य की पत्नी 'छाया देवी' आती हैं, कोई भूत-चुड़ैल नहीं है। और अगर दिन उगने के पहले इसको सोते हुए उठाया तो ये ऐसी ही हो जाएगी। और इसके पास में दारु पीकर कोई नहीं जा सकता, नहीं तो ये तुम्हारे यहाँ सबको बर्बाद कर देगी। वो सारे के सारे डरे, अब उसको सोने भी दे रहे हैं अच्छे से और वो पति ने दारु पीना भी बंद कर दिया।

आचार्य: तालियाँ बजा देंगे सब इस पर (श्रोतागण ताली बजाते हैं)! पता नहीं ये तो।

प्र: आपने जैसे बताया कि बहुत ज़िम्मेदारी है विधि देना, तो मैं पता नहीं क्यों इसका भार ले नहीं पाता हूँ कि हाँ, ज़िम्मेदारी है कि क्या है। मेरा इतना स्पष्ट है कि मैं कोई अपने लिए मार्केटिंग या ऐसा कुछ करता नहीं, जिसको आना है आ जाए, मैं मंदिर में बैठा हूँ। मैं पाँच से छः घंटे ही रोज़ दूँगा। इसके बीच में तीस लोग आयें, पैंतीस लोग आयें, चालीस लोग आ जायें।

वो लोग समस्या रखेंगे और मुझे पता है कि ऐसा कुछ नहीं होता लेकिन वो जिस प्रकार से रो रहे हैं और वो समस्या दिख रही है तो उसको हल कर दूँ उस समय के लिए। क्योंकि वो लड़कियाँ तो यूँ भी अगर वो लड़का मिल जाता तो भी उनका जीवन ख़राब था। लेकिन अभी कम-से-कम उसको छोड़ देंगी तो दो-तीन महीने के अंदर ये भी तो हो सकता है कि कोई अच्छा लड़का मिल जाए। या वो अपने खालीपन को किसी अच्छे लड़के के साथ में भर लें। और वो पाँच-छः घंटे देकर के बाक़ी का समय मैं अच्छे से अपने ध्यान-साधना-पूजा में लगाता हूँ।

आचार्य: ये सब बातें जो आप कह रहे हैं, ये आपके पास आने वाले लोग सुनेंगे तो उससे आपको ख़तरा नहीं होगा?

प्र: न! क्योंकि मैं ख़ुद ही अपने बारे में ये सब चीज़ें बोल देता हूँ, मंदिर में सार्वजनिक रूप से बोल लेता हूँ। और ये सब चीज़ें बोलने के बावजूद भी वो आ जाते हैं।

आचार्य: विचार करना पड़ेगा इस पर। जहाँ से मैं देखता हूँ, वहाँ से तो मुझे ये लगता है कि जो सीधी-साफ़ बात है उसको कुछ भी कोशिश करके एकदम साफ़-शुद्ध तरीक़े से पहुँचा ही दो लोगों तक। हाँ, उसमें देर लग सकती है पर कोशिश ये करनी चाहिए कि बात वही पहुँचे जो एकदम शुद्ध हो, साफ़ हो, उसमें कोई मिलावट न हो।

लेकिन आप जो अनुभव बता रहे हैं, मैं उसका भी सम्मान कर रहा हूँ। मैं ये भी देख रहा हूँ कि अगर कोई इस क्षण में एकदम ही अंधविश्वास से और इन बातों से ग्रस्त है तो अगर उसको दो-तीन महीने की किसी तरीक़े से राहत दे सकें तो वो भी ज़रूरी है। तो शायद इन दोनों बातों को साथ लेकर चलना होगा।

जब आपने इतनी बड़ी जिम्मेदारी ले ही ली है कि आप कहते हो कि आपके पास जो लोग आ रहे हैं, आप उनको उनकी तकलीफ़ से छुटकारा देना चाहते हो, तो एक कदम और आगे बढ़ाइए, उनको फिर सिर्फ़ तात्कालिक तौर पर — तात्कालिक मतलब एमिडिएट तौर पर — राहत मत दीजिए। वो दे दीजिए लेकिन रुकिए मत उस तात्कालिक राहत पर, उससे थोड़ा और आगे जाइए। थोड़ा और आगे जाना बहुत मुश्किल है, मुझे पता है, क्योंकि वही कोशिश मैं कर रहा हूँ और मुझे पता है कि उसमें सफलता आसानी से मिलती नहीं है।

तो चाहे वो बहू हो, चाहे वो लड़कियाँ हों, कुछ करके उनको अध्यात्म की ओर लाया जा सके, वो बहुत ज़रूरी होगा। नहीं तो जो आफ़त उनके ऊपर है, मुझे आशंका ये है कि वो आफ़त आप दो-तीन महीने के लिए टाल दोगे पर वो उन पर लौटकर आएगी। अगर उसको दोबारा बेटी हो गयी, फिर? बताइए। अभी तो वो फिर भी उसको बख़्श देते हैं, बस मार-पीटकर छोड़ देते हैं, उसने तीन बेटियाँ और पैदा कर दीं तो फिर उसको छोड़ेंगे क्या?

तो दर्द की दवाई की अपनी एक जगह होती है, और इलाज की दवाई की अपनी एक जगह होती है। दर्द की दवा आप दे रहे हैं और सफलता के साथ दे रहे हैं; बहुत अच्छी बात है। लेकिन जो वास्तविक दवाई है, उसकी और भी उनको ले जाने का पूरा प्रयास करें। नहीं तो दर्द की दवा के भरोसे कितनी देर तक काम चलेगा! आपको तो शायद पता भी न चले कि उस बहू की हत्या हो गयी। है न? वो तो आये होंगे किसी दूर के गाँव से, आपको तो शायद ख़बर भी नहीं लगेगी कि आपने जिसकी मदद करी थी, वो अब इस दुनिया में ही नहीं है।

इसी तरह वो लड़कियाँ कहाँ जाकर के किस चक्कर में फँस रही हैं — देखिए, उनके भीतर कुछ तो बहुत ऊटपटांग होगा न। आपने कहा, वो एनआइटी की हैं, तो माने पढ़ी-लिखी हैं और उसके बाद वो ये सब दंद-फंद कर रही हैं। तो माने कुछ बहुत ज़बरदस्त कचरा अपने भीतर वो रखकर बैठी हुई हैं। मतलब इट्स नॉट सिंकिंग इन (ये हज़म नहीं हो रहा) कि एनआइटी की लड़की वशीकरण मंत्र मांगने आयी है लड़के को फँसाने के लिए। थोड़ा समय लगेगा ये चीज़ सोखने में।

तो वो कुछ-न-कुछ और गड़बड़ करने वाली है आगे। तो दो-तीन महीने के लिए आपने उसको बचा लिया, बहुत अच्छा करा। क्या हम उसको पूरी ज़िन्दगी के लिए नहीं बचा सकते? अब ये सवाल होना चाहिए कि ठीक है, अभी वो शायद आत्महत्या ही कर लेती — नस-वस काट रही थी, टांके लग गये थे — अभी के लिए बचा लिया, आगे कैसे बचाना है? इंसान होने के नाते हमारी वो भी तो ज़िम्मेदारी है न। आगे के लिए भी तो बचाना है। नहीं तो पता नहीं क्या . . .

इतनी सारी तो आत्महत्याएँ होती हैं। आइआइटी मद्रास कैंपस में इसी साल की चौथी आत्महत्या हुई है। वो लड़का-लड़की के चक्कर में नहीं हुई है शायद, वो पढ़ाई के तनाव में और नौकरी न लगने के दबाव में हुई है। लेकिन इस आयु वर्ग में ये तो ख़ूब चल रहा है कि अठारह साल, बीस साल, चौबीस साल के हो और फंदा लगा लिया। कैसे, बचाना कैसे है? आगे कैसे ले जाना है? उस पर थोड़ा विचार करिए।

मुझे मालूम है उसका कोई हमें सरलता से समाधान नहीं मिल सकता लेकिन समाधान निकालना भी ज़रूरी है। और जब चीज़ आवश्यक हो, गंभीर हो तो उसके लिए जो कुछ भी करना पड़े, आदमी करेगा न। तो कैसे उन तक हम ले जाएँ गीता को, कैसे ले जाएँ जो अध्यात्म की बहुत साधारण बातें हैं। कैसे हम उनको ऐसा कर दें कि उनमें कबीर साहब के प्रति एक आकर्षण जग जाए और वो दोहे गुनगुनाना शुरू कर दें।

क्योंकि दोहे जो हैं न, वो कूल भी होते हैं बहुत, एकदम कूल होते हैं। और कूलनेस इस पीढ़ी को बहुत प्यारी है। और उनमें ज़बरदस्त तरीक़े से जो विस्डम है, बोध है, वो एकदम संक्षिप्त रहता है। कंडेंस्ड मास ऑफ विस्डम होता है एक दोहा। दोहा इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि श्लोक इन्हें नहीं समझ में आने वाला, संस्कृत में है। वही श्लोक जब दोहा बन जाता है तो समझ में आ जाता है। तो कैसे हम इनमें दोहों का एक कल्चर (संस्कृति) शुरू कर पायें, कैसे हम इनमें गीता का कल्चर शुरू कर पायें, ये भी हमको सोचना होगा।

आप जिस स्थिति में हो, देखो, आप बहुत शोषण भी कर सकते हो, आप मनमर्ज़ी से उनका शोषण कर सकते हैं। और अभी मेरे ख़याल में आया था कि आपके पास इतने लोग आते हैं, हज़ारों की भीड़ लगती है तो आप बहुत आसानी से एक सेलिब्रिटी बन सकते हैं।

आज के समय में यही होता है। आप भोले-भाले लोगों को इकट्ठा करो, उनको कुछ उल्टा-पुल्टा बताओ — ग्रामीण ज़्यादातर लोग होते हैं, उनमें से बहुत सारे पढ़े-लिखे भी नहीं हैं और उनके बीच में हीरो बन जाना, मसीहा बन जाना, या सिद्ध पुरुष बन जाना बहुत आसान होता है। आप वो रास्ता नहीं ले रहे हैं, निश्चित रूप से आपकी प्रशंसा होनी चाहिए। लेकिन उनको और आगे भी ले जाना पड़ेगा। नहीं तो उनको आप एक बार बचा दोगे, बार-बार नहीं बचा पाओगे। एक बार बचाना अच्छा है पर पर्याप्त नहीं है।

ठीक है?

तो इस पर लगातार विचार करते रहिए और प्रयोग करते रहिए कि कैसे ये जो धार्मिक लोग हैं, इनको सच्चे धर्म की ओर ले जाया जाए। क्योंकि ये मंदिर में आ रहे हैं, माने धर्म के प्रति सम्मान तो रखते ही हैं। तो वो हमारे लिए एक फ़ायदे की बात है कि ये लोग जो मंदिर में आते हैं, ये धर्म के प्रति सम्मान तो रखते ही हैं, नहीं तो मंदिर क्यों आते। तो क्या मंदिर वास्तविक धर्म का केंद्र बन सकता है?

ये चुनौती है एक, आज के युग की, कि क्या हम मंदिरों का — जो कि अधिकांशत: अब अंधविश्वास और पाखंड के केंद्र बनते जा रहे हैं — वास्तविक धार्मिक पुनरुद्धार कर सकते हैं? क्या हम मंदिरों को सचमुच धर्म और बोध का और वास्तविक भक्ति का केंद्र बना सकते हैं?

तो आप प्रयोग करके देखिए। आप जिस मंदिर में हैं, आप वहीं से शुरुआत करके देखिए कि जो लोग आ रहे हैं, आप कहें कि आओ बैठो, एक घंटे तुम्हें कुछ समझाऊँगा। और आप इस तरीक़े से समझाएँ कि उनकी रुचि भी बनी रहे। आप उन लोगों को जानते हैं। शायद वो लोग मेरे समझाने से नहीं समझेंगे। आपने कोशिश भी करी, ढाई-हज़ार में से चार लोगों ने मेरा वीडियो देखा और वो चार भी आगे नहीं देखे। तो माने मैं तो उन पर सफल नहीं हो सकता। लेकिन आप उनकी नस पकड़ चुके हैं, आप उनकी नब्ज़ जानते हैं। तो आप देखिए कि आप किस भाषा में, किस शैली में उनसे बात कर सकते हैं।

आप उनके प्रतीकों का, उनके मुहावरों का, उनके विश्वासों का सहारा लीजिए। आपने कुछ देवी-देवताओं के नाम लिए — मैं उनसे परिचित नहीं हूँ — क्या आप उन्हीं देवी-देवताओं का सहारा लेकर के उनको बता सकते हैं कि वो सब देवी-देवता अंततः मनुष्य को सत्य की ओर ले जाना चाहते हैं? तो अगर आप देवी की पूजा करते हो तो सच्ची भक्ति ये होगी कि आप सच्चाई की तरफ़ बढ़ो। और सच्चाई क्या चीज़ है, इसको आप अपने शब्दों में बता दें उनको।

गीता कोर्स में तो आप हैं ही, तो मैं जो बात कह रहा हूँ वो आप तक पहुँच ही रही है। तो उसी बात को आप जो उस जगह की स्थानीय, लोकल, रीजनल भाषा है, और जो स्थानीय मुहावरा है, उसमें आप उन लोगों को बता पायें। ठीक है?

वो एक नयी और आगे की चुनौती होगी कि गीता टर्नड इन्टू अ वरनेकुलर थिंग (गीता एक लोकभाषा में तब्दील हो गयी)। वहाँ पर मैं शायद कोई ग़लती कर रहा हूँ, भूल कर रहा होऊँगा। अगर आप कह रहे हैं कि कोई मुझे ग्रामीण क्षेत्रों में सुनना नहीं चाह रहा, तो कहीं पर मैं कोई भूल कर रहा होऊँगा; आप लेकिन वहाँ पर सहायक हो सकते हैं।

देखिए, बुद्ध संस्कृत में भी बोल सकते थे, बोले किसमें? प्राकृत में बोले न। जितने संत लोग थे, सबने क्या करा? उस जगह, उस स्थान, उस रीजन (क्षेत्र) की भाषा में बोले वो। तो आपके क्षेत्र की भाषा और मनोस्थिति आप जानते हैं। तो जो आपकी क्षेत्रीय विशेषज्ञता है न, आप उस जगह को, उन लोगों को जितना समझते हैं, उतना मैं नहीं समझता; आप उसका लाभ उठाएँ। ठीक है?

और बहुत ऊँचा काम है ये, इतिहास आपका कृतज्ञ रहेगा अगर आप उन ढाई-हज़ार लोगों को अज्ञान से बाहर ला पाये तो। मंशा लेकिन यही होनी चाहिए कि मुझे उनको बस तात्कालिक राहत नहीं देनी है, तात्कालिक राहत के बाद और भी कुछ देना है। अगर और भी कुछ दे रहे हैं तो तात्कालिक राहत के लिए आप जो भी तरीक़े अपना रहे हैं, उनको अपनाते रहें, फिर कोई दिक़्क़त नहीं है। ठीक है? तो पहले दर्द की दवा और फिर इलाज। दर्द की दवा आप दे ही रहे हैं, इलाज को देने के बारे में विचार करें और प्रयोग करें।

ठीक है?

आचार्य: मैं संतुष्ट हो गया आचार्य जी। और आपने ज़िम्मेदारी दे दी जिसका मुझे आभास ही नहीं था।

आचार्य: और अभी इसमें आपको बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। क्योंकि एक मंदिर में होना, पुजारी होना, ये एक बहुत बड़ा अवसर है। आपको इतने सारे लोग मिल रहे हैं — आपको पता है, ढाई-हज़ार लोग मुझे सुन सकें, मेरी बात ढाई-हज़ार तक पहुँच सके, इसके लिए मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी? सिर्फ़ ढाई-हज़ार तक पहुँचने के लिए, सिर्फ़ ढाई-हज़ार; मिलियंस की बात नहीं कर रहा हूँ। मुझे न जाने कितने साल लगाने पड़े, कितना श्रम करना पड़ा कि काश मैं ढाई-हज़ार लोगों तक अपनी बात पहुँचा पाऊँ। और आपका तो क्या सौभाग्य है कि आप जहाँ बैठे हो, वहाँ आ ही जाते हैं ढाई-हज़ार लोग।

प्र: आप सौभाग्य कह रहे हैं, मैं दुर्भाग्य समझ रहा हूँ। क्योंकि आपके यहाँ पर जितने बैठे हैं, ये एक छलनी लगकर आये हैं, कचरा तो सब नीचे ही गिर गया, और वहाँ तो सब कचरा ही है।

आचार्य: नहीं, कचरा तो क्या कहें, देखिए, हर आदमी में बराबर की संभावना होती है। बस वही है कि किसी को परिवेश ऐसा मिला, माहौल ऐसा मिला कि वो अंधविश्वासी हो गया, ज्ञान उसको कभी मिला नहीं। बाक़ी तो कौन ऊँचा, कौन नीचा। चेतना सबमें होती है, और सबकी चेतना एक ही चीज़ चाहती है। मुक्ति सबको चाहिए, शुद्धि सबको चाहिए। तो वो बेचारे वहाँ पर — न तो उनको ठीक से शिक्षा मिली, और इधर-उधर टीवी का कुछ असर, कुछ पुरानी मान्यताओं का, परम्पराओं का असर — वो अंधविश्वासी हो गये, उनको कचरा हम नहीं बोलेंगे।

तो उनके साथ आपको एक फ़ायदा है, मालूम है क्या? वो लोग सहज विश्वासी होते हैं। ये सब जो यहाँ बैठे हैं, ये सहज विश्वासी नहीं हैं। (श्रोतागण हँसते हैं) ये सब जो यहाँ बैठे हैं, ये सब बहुत तार्किक लोग हैं। इनके साथ मैंने बहुत मेहनत करी है, तब समझे हैं। और अभी मैं कोई उल्टी-पुल्टी दो बात बोल दूँ तो यहाँ बैठे नहीं रहेंगे। लेकिन वो जो आपको ग्रामीण लोग मिलते हैं, वो सहज विश्वासी ही होते हैं, वो भोले लोग होते हैं। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आप भोले लोग नहीं हैं, मैं कुछ और कह रहा हूँ।

तो उनके भोलेपन का नाजायज़ फ़ायदा उठाया है समय ने, समाज ने। लेकिन उसी भोलेपन का सही, सार्थक, सदुपयोग भी करा जा सकता है, वो सुनते हैं। और आप जब मंदिर की ऊँचाई से उनसे बात करेंगे तो वो और ज़्यादा सम्मान से, श्रद्धा से, कान खोलकर के सुनते हैं। इस अवसर का पूरा फ़ायदा उठाएँ। मंदिर को वास्तव में धर्म का, ज्ञान का केन्द्र बनाएँ।

देखिए कैसे करना है — कोशिश करिए कि आपके पास लोग आयें, उनसे कम-से-कम एक घंटा आप तत्व चर्चा कर पायें; उनके जीवन में उतर पायें; उनके सुख-दुख, उनकी ऊँच-नीच, उनके भ्रम, ये जान पायें आप, और फिर उसका समाधान भी कर पायें। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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