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अंगप्रदर्शन: ये सदियों पुराना खेल है || आचार्य प्रशांत (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मेरा प्रश्न है हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को लेकर। मैं फ़िल्मों के लिए बहुत रुचिकर रही हूँ, इसलिए मैं उनकी जीवन शैली को भी बहुत ग़ौर से देखती आ रही हूँ। अभी हाल ही में पिछले साल एक अभिनेत्री ने विवाह किया हॉलीवुड के एक सिंगर से और वो वहाँ चली गई है, बस गई है, मैं नाम नहीं ले सकती।

आचार्य प्रशांत: ले लीजिए, क्या होगा?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: प्रियंका चोपड़ा की बात कर रही हूँ मैं। तो अभी उन्होंने ग्रैमी अवॉर्ड्स (पुरस्कारों) में एक ऐसा परिधान पहना जो मैंने अपनी मम्मी को दिखाया जब न्यूसपेपर में या इंटरनेट से, तो मेरी मम्मी कहती हैं कि, "मत दिखा, मैं नहीं देख सकती ये!" मतलब ऊपर से, आगे से, पूरा आँचल खुला हुआ, तो बचा ही क्या? तो अब ऐसे लग रहा है कि वो भी उतार दो।

अब मैं इसके ऊपर एक और बात बोलूँगी। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में भी जो इतनी अभिनेत्रियाँ हैं, मैं उनको देखती हूँ कि ये छोटे-छोटे शहरों से, राज्यों से अपना पात्र उठा लेती हैं, और वहाँ पर मूवी के समय तो ये वैसे परिधान पहनती हैं। और जब मूवी ख़त्म हो जाती है, तब इंटरव्यूज़ में देखिए या इनके साधारण जीवन को देखें तो ये कभी भी भारतीय परिधान को कोई महत्त्व नहीं देते।

तो ये इतना ज़्यादा अपने परिधानों को लेकर भी अपमान क्यों है? ये क्यों छोड़ रहीं हैं, क्यों त्याग रहीं हैं? इस कारण से हमारी पीढ़ी भी अब भारतीय पहनावे को छोड़ती जा रही है क्योंकि वो अनुसरण तो मीडिया का ही करती है न। तो इन लोगों को देखती हूँ तो ऐसा लगता है कि आम सड़कों में ऐसे कपड़े हम पहन नहीं सकते, और पहनने की ज़रूरत क्यों है? क्यों दिखाना है अपने-आप को इस तरह से? तो हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री ने हमारे पूरे भारत को बहुत बुरे तरीके से प्रभावित कर दिया है, और आने वाली पीढ़ी तो, मुझे लग रहा है, बिलकुल सत्यानाश कर रही है। आप बताइए इस पर।

आचार्य: देखिए, ये बात इससे थोड़ी ज़्यादा व्यापक है। पहली बात तो ऐसा सिर्फ़ हिंदी में नहीं होता, ऐसा दुनियाभर में होता है। दूसरी बात, बात फ़िल्म इंडस्ट्री की नहीं है, बात सीधे-सीधे कामोत्तेजना की है। एक युवा स्त्री अगर अपने शरीर का प्रदर्शन कर रही है तो लोग आकर्षित होते हैं। बात बस इतनी-सी है।

दूसरी बात, बात ठीक जैसा हमने कहा कि हिंदी की नहीं है, दुनिया भर की है। आप किसी भी और फ़िल्म इंडस्ट्री में चले जाइए। आप फ्रांस चले जाइए, आप हॉलीवुड चले जाइए, आप कोरिया वगैरह में देख लीजिए, वहाँ भी अभिनेत्रियाँ यही करती हैं। और अभिनेता भी अगर अपना जिस्म बनाते हैं, तो वो भी टॉपलेस वगैरह हो करके अपनी तस्वीरें दिखाते हैं।

उसकी वजह तो साफ़ है, कि वो चीज़ इंद्रियों को आकर्षक लगती है। जवान आदमी एक जवान जिस्म को देखता है तो आकर्षित होता है, उत्तेजित होता है, उससे उनकी बिक्री बढ़ती है। वो तो सीधे-सीधे बाज़ार का नियम-कायदा है। और ये बात जैसे भारत में सीमित नहीं है, ठीक उसी तरह से यह बात सिर्फ़ इस समय में सीमित नहीं है। भारतीय, ये जो रजत पटल होता है, जिसको सिल्वर स्क्रीन बोलते हैं, उस पर जो सबसे लंबा चुंबन हुआ है, वो आज से ८० साल पहले का है। ये काम कोई आज नहीं शुरू हो गया।

आप जिन अभिनेत्री की बात कर रही हैं, वो कोई पहली थोड़े ही हैं जिन्होंने कपड़े पहने होंगे अंग-प्रदर्शन करते हुए। आप पीछे चले जाइए, ३०–चालीस साल, इकतालिस साल, तो आप ज़ीनत अमान को ले लें, आप मंदाकिनी को ले लें। तो निर्वस्त्रता तो पहले भी बहुत थी, कोई आज ही नहीं आ गई है। क्योंकि पुरुष के हाथ में पैसा है; दुनिया का अधिकांश पैसा पुरुष के हाथ में है, ९७% वेल्थ दुनिया की पुरुष के हाथ में है। तो पुरुष से पैसे निकलवाने के लिए स्त्री देह दिखाती है, बात ख़त्म।

भारत में भी होता है, विदेशों में भी होता है। आज भी हो रहा है, पहले भी हो रहा था। ये तो इतना-सा ही है बस। वो शरीर दिखाती है, लोग फ़िल्म देखने चले जाते हैं, पैसा मिल जाता है। यह एक पीआर स्ट्रैटिजी (जनसंपर्क रणनीति) है, और कुछ नहीं।

ये काम पशुओं में भी होता है। मोर नाच रहा है, मोर क्या कर रहा है? मोर अपना शरीर ही तो दिखा रहा है, और पूरा नंगा ही तो है। वहाँ उल्टा है, वहाँ मोर नाचता है, मोरनी आकर्षित हो जाती है। ये जो आप पक्षियों का इतना कलरव सुनते हैं सुबह-सुबह, वो सिर्फ़ इसलिए थोड़े ही है कि भोर हो गई है, अब खाना-पानी मिलेगा, मज़ा आएगा। आधी आवाज़ें जो आप दिन भर पक्षियों की सुनते हैं, वो सब क्या हैं? वो नर मादा को आकर्षित कर रहा है, मादा नर को आकर्षित कर रही है, बुलावे भेजे जा रहे हैं। मेंढ़क जो टर्रा रहा है, वो क्या लग रहा है, पगलाए हुए है, टर्र-टर्र?

(श्रीतागण हँसते हैं)

वो क्या कर रहा है मेंढ़क? वो साथी खोज रहा है कि ‘टर्र-टर्र कहाँ हो, टर्र-टर्र कहाँ हो?’ अब साथी बुलाने के लिए अगर नंगा होना पड़े – वहाँ तो साथी के लिए होता है क्योंकि वहाँ रुपया-पैसा चलता नहीं। तो उनको सुख संभोग में है बस। उनके लिए सुख बस यही है कि एक साथी मिल जाए। मनुष्य को सुख पैसे में है। तो यहाँ पर फिर पैसे वगैरह के लिए भी अंग-प्रदर्शन खूब किया जाता है, शरीर दिखाया जाता है जम करके। ये हमेशा से हो रहा है; आज की बात नहीं है, हमेशा से हो रहा है।

इसका तो यही है कि जिनको दिखाया जा रहा है, उनको बात समझ में आ जाए कि इस चीज़ को बहुत तूल नहीं देना है। दिखाने वाले ने दिखा दिया, ठीक है, हमको पगला नहीं जाना है। खासतौर पर जब किसी की कोई फ़िल्म वगैरह रिलीज़ होने वाली होती है, तब तो वो बिलकुल ही, एकदम ही उघाड़-उघाड़ कर छा जाते हैं चारों तरफ़ कि, ‘आओ-आओ जल्दी से आओ, तीन-सौ का टिकट।’

आप तीन-सौ रुपया खर्चोगे नहीं न अगर वो उघाड़ेंगे नहीं तो, क्योंकि ना कहानी में दम है, ना उस पूरी पटकथा में कोई संदेश है, ना अभिनय में गहराई है, ना निर्देशन में बारीकी है। तो आप पिक्चर देखने जाओगे किसलिए? दो चीज़ें उसमें होती हैं – ऐनिमेशन और नंगापन। ऐनिमेशन ऐसी चीज़ है कि वो सामान्य है, कॉमन है, वो हर कोई कर लेता है। तो फिर नंगापन खूब करते हैं, खूब करते हैं, ‘देखो-देखो, आओ-आओ-आओ-आओ! ये देखना है? आ जाओ, आ जाओ और दिखाएँगे, और दिखाएँगे, अंदर आओ, पैसा दो, देखो, पैसा दो, देखो।‘ ये सदा का खेल है, सदा चलता रहेगा। आप नहीं रोक पाओगे इसको।

देखिए भई, जिस आदमी को समझ नहीं – आदमी से मेरा मतलब है मनुष्य – जिसको समझ नहीं है, वो जीवन में ना मुक्ति माँगता है, ना आनंद माँगता है। वो क्या माँगता है? वो सुख माँगता है। सुख मिलता है पैसे से और पैसा पाने के लिए अगर जिस्म बेचना पड़े तो व्यक्ति कहता है ‘बुराई क्या है इसमें? भई, सुख चाहिए, मौज करनी है और मौज अगर इसी बात से होती है कि जिस्म बेच दो उसके पैसे मिल जाएँगे तो मौज क्यों ना करें? जिस्म क्यों ना बेचें?’

या तो हमारे पास कोई और मूल्यवान चीज़ होती। अब कुछ और मूल्यवान है नहीं न। बहुत उच्च स्तर की फ़िल्में भी तो हो सकती हैं, और बनी भी हैं। पर उतनी ऊँची और अच्छी फ़िल्म बनाने की हमारी हैसियत ही नहीं है। तो फिर हमारी फ़िल्म कैसे चलेगी? हमारी फ़िल्म एक ही तरीक़े से चल सकती है, कुछ भी ओछा, भद्दा, मार-पिटाई, फालतू की बात, कोई सनसनी फैला दो। कुछ ऊटपटांग कर दो या फिर ये कर दो – जिस्म का प्रदर्शन। तो इस तरह से खेल चल रहा है। और देखिए, ये खेल कोई ऐसा नहीं है कि सिनेमा की स्क्रीन पर ही चल रहा है। ये खेल तो घर-घर में चल रहा है, या नहीं चल रहा है? नहीं चल रहा है क्या?

अगर हम अपनी बच्चियों को, अपनी लड़कियों को सही शिक्षा नहीं देंगे, अध्यात्म की ओर उनका दिमाग नहीं खोलेंगे, तो उनके लिए तो फिर बहुत आसान एक रास्ता है न, क्या? ‘भले ही मेरे पास कोई ज्ञान नहीं, कोई चरित्र नहीं, कोई विकास नहीं। भले ही मैं किसी लायक नहीं, पर एक चीज़ तो है मेरे पास, जो अपने-आप आ गई है, जिसके लिए मुझे कोई श्रम नहीं करना पड़ा, मैं जवान हो गई हूँ।’

मैं महिलाओं से कह रहा हूँ क्योंकि प्रश्न महिलाओं को ले करके है। आप कुछ ना करें जीवन में, कुछ सीखा नहीं, कुछ जाना नहीं, कोई मेहनत नहीं करी, लेकिन जवान तो आप फिर भी हो जानी हैं। और जवान होते ही आपके पास कुछ ऐसा आ जाता है जिसकी बाज़ार में कीमत है। (व्यंग करते हुए) तो मज़े आ गए! और कितनी ही लड़कियाँ हैं, महिलाएँ हैं जो इस बात के पूरे मज़े लूटती हैं। लूटती हैं या नहीं लूटती हैं? फ़िल्म इंडस्ट्री में भी ९९% वही महिलाएँ तो जाती हैं जो दिखने में आकर्षक हैं। तो उनको इसी बात के मज़े अपने लूटने हैं, वहाँ पहुँच गईं।

ये जो अधिकांश अभिनेत्रियाँ हैं आजकल, क्या ये वाकई बहुत अच्छी अदाकारा हैं? क्या इनकी अभिनय क्षमता बहुत ऊँची है? ये किस कारण से टॉप (ऊपर) पर बैठी हुई हैं? शरीर ही तो है, और क्या है? कुछ अपवाद होंगे, कुछ अच्छी अभिनेत्रियाँ भी होंगी, लेकिन अधिकांश का तो यही है कि वो आइटम नंबर...

और ये चीज़, फिर मैं कह रहा हूँ, सिनेमा में ही नहीं हो रही, घर-घर में भी हो रही है। खूबसूरत पत्नी आ जाए, लड़का बावला हो जाता है। अब मजाल है कि वो, दोस्त-यार तो छोड़ दो, माँ-बाप की भी सुन ले। वो कमरे से ही बाहर नहीं निकलता। पूरे मोहल्ले में मज़ाक बन जाता है कि वो ‘भाईसाहब अब दिन में अट्ठारह घंटे कमरे में रहते हैं, अंदर से कुंडी बंद रहती है जब से शादी हुई है। तीन महीने हो गए, दो बार बाहर आए हैं।‘

तो ये क्या है? वही तो है। और पत्नी जी भले ही किसी काम की ना हों, अक्ल से भैंस। कुछ नहीं, लेकिन फिर भी वो सोने-चांदी में खेलेंगी, हीरे-जवाहरात मैं तोली जाएँगी। शरीर है।

ये बहुत पुराना खेल है। ये खेल आदिकाल से पशु भी खेलते आ रहे हैं। जिन्हें बचना हो, वो बच लें। विशेषकर महिलाओं से मेरा आग्रह है कि इस खेल में नहीं फँसें और बच्चियों को सही परवरिश दें। बहुत आवश्यक है कि एक छोटी लड़की को बचपन से ही बार-बार समझाया जाए कि देह को बहुत महत्त्व मत देना। देह नहीं है तुम्हारी सबसे बड़ी पूंजी। ज्ञान का, गुण का, कौशल का, चरित्र का, बल का विकास करो। शरीर की सुंदरता और शरीर को आकर्षक बनाने में ही मत लगी रहो। ये बात बचपन से ही बच्चियों के दिमाग में डालनी ज़रूरी है, लड़की-लड़के दोनों के।

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