आनंद सफलता की कुंजी है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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आनंद सफलता की कुंजी है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

श्रोता : सर, ऐसा कहा जाता है कि कठिन परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। क्या केवल कठिन परिश्रम ही सफ़लता की कुंजी है?

वक्ता : हिमांशु का सवाल है कि हमें आज तक यही सिखाया गया है कि श्रम सफलता की कुंजी है। हिमांशु जिन्होंने भी ये बोला वो बड़े बेवक़ूफ़ लोग थे। और दुनिया में बेवकूफों की कमी नहीं है । श्रम से कोई कामयाबी नहीं मिलती ।

मैं जब छोटा था, सातवीं-आठवीं में था, तो मैं भी अपनी कॉपी में ये ही लिखता था। बड़ा समय लगा ये समझने में कि कितनी झूठी बात है ये। एक नया सूत्र देता हूँ, इसको पकड़ लो। समझोगे तो पकड़ ही लोगे। आनंद ही सफलता की कुंजी है। तुम तब तक किसी काम में सफल नहीं हो सकते जब तक तुम उसे करने में आनंद न महसूस करो। जिस काम को करने में तुम्हें गहरा आनंद मिलता है, उसमें सफलता पीछे-पीछे चली ही आएगी। तब तुम्हें श्रम करना नहीं पड़ेगा कि श्रम कर रहे है, अपने आप हो जाएगा। और तुम कहोगे कि श्रम किया ही नहीं, हम तो खेल रहे थे।

खेलने जाते हो मैदान में, कभी कहते हो कि श्रम किया? और दिन भर कॉलेज में कुछ न कर रहे हो, तो भी बड़ी थकान हो जाती है। करते कुछ नहीं हो मटरगश्ती के अलावा। श्रम किया नहीं जाता। तुमसे ज्यादा परिश्रमी तो ये गधे होते हैं। इनसे ज्यादा श्रम तो तुम कभी नहीं कर पाओगे । उससे ज्यादा श्रम कभी कर पाओगे? नहीं कर पाओगे। तो फिर वो तो बड़ा कामयाब है तुम्हारी नज़रों में। वैसा ही जीवन हो जाए। घूम रहे हैं धूप में, सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं। ये बड़े पागल लोग हैं जिन्होंने इस तरह की बातें कीं हैं कि परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। जिंदगी बोझ नहीं है, जिंदगी अभिशाप नहीं है। जिंदगी इसलिए नहीं है कि गधे की तरह श्रम किया जाए ।

जीवन उत्सव है, आनंद है। पर वो तभी है जब उसे पूरे तरीके से जिया जाए, उसमें प्रवेश किया जाए। और उस प्रवेश का ही नाम है ध्यान। पूरे तरीके से होना। जब खेल रहे हो तो पूरे तरीके से खेलो, परिश्रम बिल्कुल नहीं लगेगा। जब पढ़ रहे हो तो किताब से प्रेम ही रहे, श्रम बिल्कुल नहीं लगेगा।फिर रात भर सवाल लगाते रहोगे और पता भी नहीं चलेगा कि सुबह कब हो गयी, और कहोगे कि बड़ा मज़ा आया। परिश्रम नहीं कहोगे। काम तो हो रहा होगा पर तुम्हें लगेगा ही नहीं कि ये श्रम है। ये समझ में आ रही है बात ?

श्रोता : जी सर।

वक्ता : कभी ऐसा अनुभव किया है?

श्रोता : जी सर।

वक्ता : इतना रस आया, इतना आनंद आया कि पता ही नहीं चला कि रात कब बीत गयी। और जिसके साथ ये होने लगे, क्या उसे परीक्षा में प्रथम आने के लिए परिश्रम करना पड़ेगा? जिसे पढ़ाई से प्रेम हो गया, क्या उसे परिश्रम करना पड़ेगा? तुम कविता की बात कर रहे थे, क्या एक कवि परिश्रम करता है कविता लिखने में? ये उसका आनंद होता है। भीतर कुछ है बस, जो बाहर आ जाता है । श्रम करता बहुत है, याद रखना। पर वो श्रम अपने आप हो रहा है। कोई ज़ोर नहीं लगाना पड़ता। आ रही है बात समझ में? और इसका नाम होता है प्रेम। जीवन प्रेम में जीयो। सुन रहे हो? बैठे हुए हो तो परिपूर्ण रहो, इस क्षण से पूरा-पूरा प्रेम रहे। पढ़ रहे हो एक किताब तो एक प्रेमपूर्ण नाता रहे।

जहाँ कहीं भी हो, जीवन में एक शिकायत ना रहे, अपेक्षा न रहे। अपेक्षा में या शिकायत में प्रेम नहीं होता। बस जीवन का संग रहे। जीवन के साथ एक गहरा सम्पर्क रहे। जो भी हो रहा है, बस उस में उपस्थित रहना। हम हैं, जीवन के साथ हैं, कटे – कटे नहीं, जीवन से दूर-दूर नहीं कि मेरे साथ तो बुरा हो गया, मैं रूठा हुआ हूँ जिंदगी से।

रूठा -रूठा जीवन किसी को भी कुछ नहीं देगा। मत करो परिश्रम, अपने आप हो जाएगा।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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