आचार्य प्रशांत : पूँछा है (किसी प्रश्नकर्ता का प्रश्न पढ़ते हुए), 'आचार्य जी आप जनसंख्या नियन्त्रण की बात करते हैं लेकिन एलोन मस्क (अमेरिकन उद्योगपति) जैसे कुछ बड़े नाम खुलेआम कह रहे हैं कि आबादी और बढ़ाओ, वरना पॉपुलेशन डिक्लाइन (जनसंख्या में गिरावट) आ जाएगा। एलोन मस्क ने सात बच्चे पैदा कर दिये हैं और अब दुनिया को सिखा रहे हैं कि चलो, मंगल ग्रह पर बस जाते हैं।'
जाकर के आंकड़े देख लो। दुनिया के सामने इस समय जो सबसे बड़ी समस्या है, उस पर वैज्ञानिक और विशेषज्ञ क्या कह रहे हैं, ये देख लो। व्यापारियों की बात क्यों सुनने लग गये तुम इन मुद्दों पर? आठ अरब की जनसंख्या है अभी विश्व की और ग्यारह-बारह अरब से पहले वो स्टेबलाइज़ (स्थिर) होने की नहीं है। और यहाँ कहा जा रहा है कि बच्चे पैदा करो। एलोन मस्क कह रहे हैं नहीं तो दुनिया की आबादी घट जाएगी। और व्यक्तिगत उदाहरण पेश कर रहे हैं, सात पैदा करके कि देखो, मैंने अपने हिस्से का काम कर दिया, बहुत मेहनत करी है (अपनी पीठ थपथपाते हुए)। ऐसे ही तुम सब भी अपने-अपने हिस्से की मेहनत करो और सात-सात...।
बेटा, ये सात इसलिए हैं क्योंकि वो सात अफ़ोर्ड (वहन) कर सकते हैं और कोई बात नहीं है। और ये जो दुनिया के एकदम अमीर लोग हैं उनमें अभी ये चलन ही बना हुआ है। जेफ बेज़ोस (अमेरिकन उद्योगपति) के मैं समझता हूँ चार बच्चे हैं, रिचर्ड बेनसन (ब्रिटिश संगीतकार) के भी तीन या चार हैं।
पश्चिमी देशों में जो जनसंख्या वृद्धि की दर बहुत कम हो गयी है या कहीं-कहीं पर तो नेगेटिव (ऋणात्मक) भी हो गयी है, उसकी वजह यह नहीं है कि उन्हें पृथ्वी का इतना खयाल है कि वो बच्चे नहीं पैदा कर रहे। हाँ, बात ये है कि अनएफ़ोर्डेबल (पहुँच से बाहर) है, बहुत महँगा हो गया है। तो जिनके पास पैसा है, वो कह रहे हैं देखो, जैसे मैं सात महल रख सकता हूँ, सात बीवियाँ रख सकता हूँ, मैं अफ़ोर्ड कर सकता हूँ न। तो मैं सात बच्चे भी रख सकता हूँ। तुम थोड़ी अफ़ोर्ड कर सकते हो गरीब लोगों? वो अपने देश के गरीब लोगों की बात कर रहे हैं। फिर जो बहुत गरीब देश हो जाते हैं वहाँ वो अफ़ोर्ड वगैरह का खयाल ही नहीं करते। वो कहते हैं, ‘अजी हटाओ, जितने बच्चे उसके दूने हाथ’। जितने बच्चे होंगे, मुँह तो उतने ही होंगे। अगर मान लो जैसे कोई बहुत गरीब देश है अफ्रीका का उसको ले लो, तो कहते हैं सात बच्चे होंगे तो मुँह तो सात ही होंगे, हाथ चौदह होंगे। तो कमाने वाले चौदह हाथ भी तो आगये। ये उनका तर्क रहता है। मूर्खतापूर्ण तर्क है, पर ये गरीब देशों का तर्क रहता है, बहुत सारे बच्चे पैदा करने के लिए। और जो एकदम अमीर हो गये उनका तर्क ये रहता है, हमारे पास पैसा है, हम बच्चे क्यों न पैदा करें? जब हमारी हर चीज़ सामान्य लोगों से ज़्यादा है तो हमारे बच्चे भी ज़्यादा होंगे।
अब कोई पूछने आता है कि इतने बच्चे क्यों पैदा कर दिये तो मुँह छुपाने के लिए कुछ तो तर्क देना है न। तो उन्होंने तर्क ये दिया कि दुनिया की आबादी कम होने की आशंका है तो इसलिए हम बहुत सारे पैदा कर रहे हैं। एक के बाद एक, तीन-चार बीवियाँ करी हैं, सात-आठ बच्चे करे हैं ताकि दुनिया की आबादी कहीं कम न हो जाए।
और मैं कह रहा हूँ कि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों से जाकर पूँछो तो तुमको बताएँगे कि पृथ्वी अब नहीं उठा सकती एक भी अतिरिक्त आदमी का बोझ। जितने हो उतने ही बहुत ज़्यादा हो, इससे भी बहुत-बहुत कम होने चाहिए।
लोग कहते हैं, ‘आबादी ज़्यादा है पर आचार्य जी अभी भी जंगल इतने सारे हैं और खाली जगहें बहुत सारी हैं।’ बाबा, आबादी ज़्यादा इससे नहीं मानी जाती कि लोगों को खड़े होने को या बैठने को जगह है या नहीं है। बात संसाधनों की होती है। मैं कहीं पर पढ़ रहा था, कोई कह रहा था, नहीं-नहीं अर्थ (पृथ्वी) ओवर पापुलेटेड (अत्यधिक आबादी) तो है ही नहीं क्योंकि जो पूरा लैंडमास (भूमि द्रव्यमान) है उसका मुश्किल से पाँच प्रतिशत अभी भी पापुलेटेड (आबादी ग्रस्त) है, बाकी तो पचानवे प्रतिशत अभी खाली ही है न, तो ओवर पापुलेटेड कैसे हो गयी? ये पढ़े लिखे लोग इतनी मूर्खता के तर्क देते हैं।
बात रिसोर्सेज (संसाधन) की होती है, संसाधनों की होती है। ये आठसौ करोड़ लोग जितने संसाधन माँग रहे हैं, रिसोर्सेज माँग रहे हैं, बिजली माँग रहे हैं, पानी माँग रहे हैं, खाना माँग रहे हैं, वो पृथ्वी के पास उपलब्ध नहीं है। इसलिए अर्थ (पृथ्वी) ओवर पापुलेटेड मानी जाती है। और है।
और इस वक्त दुनिया की जो बड़ी से बड़ी बीमारियाँ हैं, चाहे वो बायो डायवर्सिटी लॉस (जैव विविधता की हानि) हो, चाहे क्लाइमेट कैटोस्ट्रोफी (जलवायु आपदा) हो, उसका वास्तविक समाधान सिर्फ़ एक है। जनसंख्या नियन्त्रण, पॉपुलेशन कंट्रोल। उसकी जगह इस तरह के महानुभाव एकदम उल्टी गंगा बहा रहे हैं। वो कह रहे हैं कि और बच्चे पैदा करो और पृथ्वी पर लगा दी है आग। अब जाकर के मार्स (मंगल ग्रह) पर बैठ रहे हैं और दद्दा को बताए जा रहे हैं कि देखो, पृथ्वी हमने खा ली, बिलकुल बर्बाद कर दी। जैसे केला खाकर के छिलका फेंक दिया जाता है, वैसे हमने पृथ्वी फेक दिया। अब चलो, मंगल को कोलोनाइज (उपनिवेश) करते हैं।
तुमने पृथ्वी बर्बाद न करी होती तो मार्स (मंगल) को कोलोनाइज करने की ज़रूरत पड़ती क्या? लेकिन तुम इसमें बड़ी शेखी बघार रहे हो। तुम कह रहे हो, देखा! हम मंगल पर जा करके ह्यूमन कॉलोनी (मानव बस्ती), एक स्टेशन बसा करके आए हैं। यह ऐसी सी बात है जैसे कोई अपने घर में आग लगा करके, अपनी शेखी बघारे कि वो देखो मैंने उधर दूर के एक जंगल में जाकर के तम्बू गाड़ दिया है। क्या तम्बू है! चार बम्बू, उसके ऊपर तम्बू । वैसे ही वो अपने चार रॉकेट लेकर घूम रहे हैं। देखो, क्या रॉकेट लॉन्च (प्रक्षेपण) किया है। अरे, उसकी ज़रूरत क्यों पड़ रही है, क्योंकि तुमने अपने घर में आग लगा दी है, पृथ्वी में आग लगा दी है। और ऐसी बातें कर-कर के कि बच्चे और पैदा करो, ये करो वो करो।
अभी हो क्या रहा है? अपनी लेविश लाइफ़स्टाइल (भव्य जीवन शैली) दिखा कर तुम सबको कह रहे हो कि इतना कंज़म्शन (उपभोग) करो, जितना हम करते हैं। और अपने सात बच्चे दिखाकर तुम लोगों से कह रहे हो कि इतने बच्चे पैदा करो, जितने हम करते हैं।
इन दोनों बातों को बिलकुल ध्यान से समझिए। वो कह रहे हैं कि परकैपिटा कंज़म्शन (प्रति व्यक्ति खपत) कितना करो? जितना मैं करता हूँ। मेरी लाइफ स्टाइल (जीवनशैली देखो), मेरा मेंशन (हवेली) देखो, मेरी गाड़ियाँ देखो, मेरे यार्ड (प्रांगण) देखो। ये सब मेरी चीज़ें देखो, ये सब चीज़ें रखकर के सामने आप क्या उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हो कि आप भी इस लेवल (स्तर) का कंज़म्शन करो। और मेरे सात बच्चे हैं तो तुम सात बच्चे ...। अब ये देखो कि इस तर का कंज़म्शन पर कैपिटा , इस तरह का भोग, उपभोग...। और उसको तुम गुणा करो, इस तरह की आबादी से जिसमें सात-सात बच्चे पैदा किए जा रहे हैं। तुम्हें क्या मिल रहा है? तुम्हें ट्रेजेडी (त्रासदी) मिल रही है।
समझ में आ रही है बात।
वो कह रहे हैं कि पहले तो लोग ज़्यादा हों, जैसे मैंने इतने सारे लोग पैदा कर दिये और जो लोग हों, वो मेरी ही तरह एक लेविश लाइफ स्टाइल जियें, जैसे मैं कंज़म्शन करता हूँ। क्योंकि लेविश लाइफ़स्टाइल का और तो कोई मतलब ही नहीं होता, कंज़म्शन। तो जितना मैं कंज़म्शन करता हूँ, तुम सब गरीब लोगों देखो, तुम भी उतना ही कंज़म्शन करो।
मैं एक आदर्श प्रस्तुत कर रहा हूँ, मैं एक रोल मॉडल हूँ, मैं एग्ज़ाम्प्ल (उदाहरण) सेट कर रहा हूँ और मेरी तरह सात-सात बच्चे हों। अब तुम बताओ, इसके बाद ये पृथ्वी बचेगी? कोई और रास्ता रहेगा ही नहीं इसके अलावा कि जाओ वहाँ मार्स (मंगल ग्रह) पर जाओ, वीनस (शुक्र ग्रह) पर जाओ, जूपिटर (बृहस्पति ग्रह) पर जाओ, किसी और गैलेक्सी (आकाश गंगा) में जाओ, मर जाओ। गरीबों के लिए तो यही रहेगा कि मर जाओ। कितने लोग जाएँगे वहाँ पर। अभी ये मेरे खयाल से ब्रांसन (रिचर्ड ब्रांसन, एक उद्योगपति) ही थे न, जो फिर से बोल रहे थे कि मैं स्पेस (अन्तरिक्ष) की यात्रा करके आया हूँ। स्पेस (अन्तरिक्ष) की कोई नहीं यात्रा थी, वो एटमॉस्फियर (वायुमंडल) से ज़रा सा बाहर निकले, ऐसे छूकर आगये, बोले स्पेस (अन्तरिक्ष) घूम आए।
कितने लोग अफ़ोर्ड (वहन) कर सकते हैं वो चीज़। तो ये अगर कभी होगा भी कि चाँद पर या मार्स (मंगल) पर ह्यूमन कॉलोनी (मानव बस्ती) बनेगी तो उसमें कौन जाकर के रहने वाला है। सिर्फ़ और सिर्फ़ जो सबसे अमीर लोग हैं, अमीर में भी बिलियनर्स (अरबपति), मल्टी बिलियनर्स (बहु अरबपति)। और गरीबों को यहाँ क्लाइमेट कैटास्ट्रोफ़ी (जलवायु आपदा) में तपता और मरता छोड़ जाना। ये तैयारियाँ चल रही हैं। और ये आज के जवान लोगों के आदर्श हैं, रोल मॉडल (आदर्श) हैं। बात करते हैं लोग, अरे अरे अरे...। ऐसे लोगों को रोल मॉडल बना रखा है।
एक अच्छी कार बना देना एक बात होती है और एक अच्छी ज़िंदगी जीना बिलकुल दूसरी बात होती है। ये बात आपको समझ में क्यों नहीं आ रही? टेस्ला (कार का मॉडल) की टेक्नोलॉजी (तकनीक) सीख लीजिए बहुत अच्छी बात है। बढ़िया इलेक्ट्रिक (विद्युत) कार है, बहुत अच्छी बात है। आप देख लीजिए कैसे चलती है, कैसे बनती है, बाकी सब बढ़िया देख लीजिए। लेकिन उस आदमी को आप एक जीवन में पथ प्रदर्शक की तरह देखने लगें कि ये तो गुरु है, जैसे ये करता है वैसे मैं भी करूगाँ, तो ये बहुत बेवकूफ़ी की बात हो गयी न।
और आप क्यों उसको देखने लग जाते हो गुरु की तरह? क्योंकि आपके भीतर लालच है कि आ हा हा। जैसे इसके पास बिलियंस (अरब) हैं, काश मेरे पास भी हों। दुनिया का सबसे अमीर आदमी है। वो दुनिया का सबसे अमीर आदमी है इसलिए जो कुछ भी करेगा, आप उसकी नकल करने की कोशिश करते हो। उसे भगवान ही बना लेते हो अपना। उसने तीन शादियाँ करी हैं, मैं भी करूँगा। सात बच्चे करे हैं, मैं भी करूगाँ। उसे कुछ भी पसन्द हो सकता है, तुम सब कुछ करोगे? अगर उसे मगरमच्छ खाना पसन्द है, तो तुम भी खाओगे?
प्रश्नकर्ता : आचार्य जी, आप की सारी बातें सुनी, पहले भी सुनी हैं ये, बुक्स भी बहुत पढ़ीं, काफ़ी टाइम (समय) से पढ़ रहा हूँ। तो मेरे जीवन में तथ्य ये है कि जब ऐसे लोग सामने आ जाते हैं न, कहीं न कहीं आप इन्फीरियर फ़ील (हीनभाव) करते हो। जैसे मैं एक उदाहरण देता हूँ। मेरे एक कज़िन (चचेरा भाई) हैं, वो एक वकील हैं। तो जब एक फैमिली फंक्शन में आए तो उनके पास अच्छा खासा पोर्श (महंगा कार मॉडल) गाड़ी है। मुझे पता है गलत तरीके से कमाया है, इतने कम समय में नहीं कमा सकते, बाकी कुछ पुश्तैनी भी है। तो लगके सारे लोग उनके आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं, उनका अच्छा लाइफस्टाइल देखकर। आपने एलोन मस्क की बात की, इतना तो नहीं पता। फिर भी हमारे आस-पास देखें तो, इस तरह के जो भोगवादी किस्म के लोग होते हैं, इनके आगे... ये बात सही है आपकी सारी बात मन को जँचती है कि ये गलत है, फिर भी कहीं अन्दर जो जानवर बैठा है, वो इन्फीरियर (हीन) फील करता है कि काश! ये सब एक बार चाहे दिखाने के लिए कि दुनिया मिल जाए तो क्या है, एक बार हो तो।
आचार्य: इसका कोई इलाज़ नहीं है न। अगर तुम जानवर ही हो तो इसका कोई इलाज़ नहीं है। इसका इलाज़ तो सिर्फ़ तभी है, जब ऊँची चेतना के इंसान बन पाओ। और उसके लिए तुमको आना होगा वेदान्त की ओर, उपनिषदों की ओर और कोई तरीका नहीं है। वरना ये जो बात है चकाचौंध में फसने की, हीन भावना में फसने की, ईर्ष्या में फसने की, ये सब तो एक छोटे बच्चे में भी होती है।
तुम्हारे घर में एक बच्चा हो छोटा दो तीन साल का, उसका छोटा भाई बहन पैदा हो जाए। अभी तक बच्चे को जो ध्यान मिलता था जो मोह-ममता मिलती थी, वो उसके छोटे भाई को मिलनी शुरू हो जाए। जो बड़ा बच्चा है, वो दो-तीन साल का है, छोटा अभी नया-नया पैदा हो गया है। तो जो बड़ा वाला है इसको बड़ी ईर्ष्या हो जाती है।
ये तो हम मां के पेट से लेकर पैदा होते हैं ये वृत्तियाँ। इसलिए तो फिर ये जो गर्भ से शिशु पैदा होता है, जो पशु जो पैदा होता है, शिशु माने पशु। वो जो पैदा होता है, उसको इंसान बनाने के लिए जीवन शिक्षा की ज़रूरत होती है। वो जीवन शिक्षा अगर तुम्हें नहीं मिली है सही किताबों से, सही लोगों से, सही संगति से तुम्हारा वास्ता नहीं रहा है तो जानवर ही रह आओगे। और फिर इस तरह के लोग तुम पर हावी रहेंगे कोई पैसा दिखाकर, कोई ताकत दिखाकर। तुम उनके आगे ज़लील सा अनुभव करते रहोगे।
प्र: आचार्य जी, उपनिषद् भी पढ़ते हैं, वो बात भी ठीक लगती है, समझ आती है। पर ये बात, तथ्य भी नकार नहीं सकते कि उनके पास है।
आचार्य: मत नकारो। मेरी बला से। नहीं नकार सकते तो मत नकारो, इसमें क्या करूँ मैं। उपनिषद् भी ठीक लगते हैं। उपनिषद्स टू आर राइट। और क्या उनके अलावा सही लगता है? एब्सोल्यूट (पूर्ण) को एब्सोल्यूटली (पूर्णतया) ट्रू (सत्य) मानना होता है, ऑलसो ट्रू (यह भी सत्य) नहीं मानना होता। 'नहीं आपकी बात भी ठीक है, पर उनकी बात भी ठीक है', तो तुम उधर ही चले जाओ।
प्र: आचार्य जी आपने अभी एलोन मस्क पर बात की है, तो इसमें एक तर्क यह भी आता है कि एलोन मस्क इनकेस (यदि) अगर अर्थ (पृथ्वी) पर मास एक्सटिंग्शन (सामूहिक विनाश) होता है तो वो तो हमें बचा ही रहा है।
आचार्य: मास एक्सटिंग्शन (सामूहिक विनाश) नेचुरल (प्राकृतिक) तरीके से होने की क्या संभावना है? 0.0000001 प्रतिशत, और जो काम करे जा रहे हैं इंसानों के द्वारा, इन धनपतियों के प्रभाव में, उसके कारण मास एक्सटिंग्शन होने की क्या संभावना है? सौ प्रतिशत, तो बचाया जा रहा है या जलाया जा रहा है तुमको। ये कैसा सवाल है? मास एक्सटिंग्शन अपने आप बिल्कुल हो सकता है, कल को कोई एस्टोरॉयड (उल्का पिंड) आकर के पृथ्वी पर टकरा जाए, पूरी मानव जाति खत्म हो जाएगी। लेकिन उसकी संभावना क्या है? वन इन अ मिलियन (दस लाख में एक)। और इंसान जिस तरीके से जी रहा है और कंज़म्शन (उपभोग) कर रहा है और बच्चे पैदा कर रहा है, उसके कारण मास एक्सटिंग्शन की क्या संभावना है? सौ प्रतिशत, और वो भी सौ-दोसौ साल के अन्दर ही अन्दर, ज़्यादा बोल रहा हूँ हो सकता है। हो सकता है कि दस-बीस-पचास साल के अन्दर-अन्दर। तो ये क्या तर्क है कि मास एक्सटिंग्शन से हमको बचाया जा रहा है।
ये ऐसी सी बात है कि कोई अभी तुम्हारा गला रेत दे और कोई पूछे क्यों मार दिया इसको? बोले, ‘मारा थोड़ी है, ये अस्सी की उम्र में मरने वाला था, मैंने उस मौत से इसको बचा दिया है। अब ये अस्सी की उम्र में नहीं मरेगा न’। हां, ये बात तो सही है, अब ये अस्सी की उम्र में नहीं मरेगा। ‘मैंने इस पर एहसान किया कि नहीं किया कि इसको अस्सी की उम्र में जो मौत होती उससे बचा दिया’। ये कौनसा तर्क है?
प्र: इसमें आचार्य जी, एक मैट्रिक (मानक) उपलब्ध है इंटरनेट पर कि एक अर्थ ओवरशूट डे होता है, उसमें ये बताया जाता है कि इस वक्त जितना हम इस्तेमाल कर रहे हैं, जितनी हमारी आबादी है, उसके लिए हमें 1.7 टाइम्स ऑफ अर्थ चाहिए (एक दशमलव सात गुना पृथ्वी चाहिए)।
आचार्य: ये 1.7 ग्लोबल एवरेज (वैश्विक औसत) है, 'माइंड यू (याद रखना)'। अगर तुम अमेरिका का लोगे तो शायद दस होगा ये आँकड़ा। बात ये है कि जो ये वेटेड एवरेज (भारित औसत) निकल रहा है, जो 1.7 आ रहा है, तो वो वेटेड एवरेज पॉपुलेशन (जनसंख्या) के ऊपर है। पॉपुलेशन हिन्दुस्तान जैसे देशों की ज़्यादा है और हिन्दुस्तान में अभी अगर सिर्फ़ हिन्दुस्तान का लोगे तो 1.7 नहीं आएगा, वो 0.4-0.5 आएगा। इसलिए ग्लोबल एवरेज जो है, वो अभी फिर भी सिर्फ़ 1.7 है। 1.7 भी 1 से ज़्यादा है, 1 मतलब कि आपको अपने आप को चलाने के लिए एक अर्थ (पृथ्वी) की ज़रूरत पड़ेगी। 1.7 का मतलब है कि आपकी आबादी कुल जितनी है, और जितना कंज़म्शन कर रही है, उसके लिए आपको 1.7 पृथ्वियाँ चाहिए। कहाँ से लाओगे वो? दूसरी पृथ्वी। एक से ऊपर वाली जो है।
अगर एलोन मस्क के देश जाओगे, अमेरिका, तो वहाँ प्रति व्यक्ति जितना उपभोग होता है (पर कैपिटा कंजप्शन), उसके लिए तो 1.7 भी नहीं दस पृथ्वियाँ चाहिए। दस भी शायद कम बोल रहा हूँ, अगर आँकड़े चेक किए जाएँ तो बीस भी निकल सकता है। और बीस भी क्या है? बीस भी अमेरिका की आबादी का एवरेज (औसत) है। अब उसमे भी अगर तुम, बिलियनर्स (अरबपतियों) का कंज़म्शन लोगे, तो वो आंकड़ा बीस से उठ करके बीस हज़ार हो जायेगा।
हर बिलियनेयर (अरबपति) जितना कंज़म्शन कर रहा है, उतना कंज़म्शन अगर पृथ्वी का प्रत्येक व्यक्ति करने लगे तो तुम्हें बीस हज़ार पृथ्वियाँ चाहिए। उतना माल, उतनी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए। लेकिन हर व्यक्ति का आइडियल (आदर्श) यही होता है। क्या? कि मैं भी एक दिन उस बिलियनेयर जैसा हो जाऊँगा और हर व्यक्ति हो गया उसके जैसा, तो बीस हज़ार पृथ्वियाँ चाहिए। ले आओ जहाँ से ला सकते हो। होना ये नही चाहिए कि सबके सब लोग, उनके जितना कंज़म्शन करे। होना ये चाहिए कि उनके कान पकड़ करके उनको नीचे लाना चाहिए कि तुम इतना उपभोग नहीं कर सकते। इतना कंज़म्शन करना अलाउड नहीं है, अनुमति नहीं क्योंकि तुम सिर्फ़ खुद नहीं कर रहे हो कंज़म्शन , तुम दुनिया भर के लिए क्या बन रहे हो, एक उदाहरण बन रहे हो, एक रोल मॉडल बन रहे हो।
प्र: तो आचार्य जी, आपने आखिरी में बताया कि उनके कान पकड़ कर, उनको आपको नीचे लेकर आना चाहिए, लेकिन अभी हो तो यही रहा है कि उनकी ही देखा देखी, हम उनके पीछे-पीछे चल रहे हैं। तो एक जवान आदमी या कोई एक इंडिविजुअल (व्यक्ति) है, वो, मान लो मैं भारत में रहता हूँ, तो मैं क्या कर सकता हूँ कि भाई, मेरा कंज़म्शन कम रहे?
आचार्य: कंज़्यूम करने वाला मन होता है। लोगों का मन ठीक करना पड़ेगा। ये जो यहाँ पर कर रहे हैं इसके लिए सौ बार बोलता हूँ कि दुनिया का सबसे ज़रूरी काम है, आदमी का मन ठीक कर दो, उसका कंज़म्शन अपने आप कम हो जाएगा।
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