प्रश्नकर्ता: हेलो आचार्य जी, मैं गूगल लंडन में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ। तो हम लोग एंड्रॉइड प्लेटफॉर्म के लिए मीडिया प्लेबैक एंड एडिटिंग की लाइब्रेरी पर वर्क करते हैं। तो हमारी जो लाइब्रेरी है, वह बहुत सारी ऐप्स में यूज़ होती है, जैसे यूट्यूब, इन्स्टाग्राम, फोटोज़। आई ऐम नॉट श्योर कि हमारी गीता ऐप में यूज़ होती है या नहीं।
तो मेरा क्वेश्चन ये है कि जैसे हम जो काम कर रहे हैं, वो एक तरह से बहुत अच्छे मिशन में यूज़ हो रहा है, जैसे कुछ एजुकेशनल वीडियोज़ हो या गीता सेशन की वीडियोज़ हो। और ऑन द अदर हैंड, वही सेम टेक्नोलॉजी ऐसी चीजों में भी यूज़ हो रही है, जो लोगों को माइंडलेस स्क्रॉलिंग में डाल रही है। मतलब, उसी टेक्नोलॉजी का सही यूज़ भी हो रहा है और नेगेटिव यूज़ भी है। तो ऐसे केसेस में क्या हमें उसके इंपैक्टस की परवाह करनी चाहिए? या फिर, ऐज़ डूअर्स, हम कुछ कर सकते हैं उस चीज़ को लेकर? या फिर ये हमारे कंट्रोल में नहीं है, तो इसके बारे में नहीं सोचना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: बहुत नैरो आपने उसको बना दिया। आपकी टेक्नोलॉजी का जो भी लोग यूज़ करते हैं, वे आपकी कंपनी को पैसा देते हैं, ना?
प्रश्नकर्ता: मतलब, एक्ज़ैक्टली हमारा जो काम है, उसके लिए तो नहीं, बट इनडायरेक्टली हाँ। जैसे...
आचार्य प्रशांत: मैं बोल भी दूँ कि आपकी टेक्नोलॉजी वो लोग ना यूज़ करें, तो आपकी कंपनी कैसे चलेगी? आपकी कंपनी उस टेक्नोलॉजी को बना ही इसीलिए रही है ताकि हर तरीक़े का उसका इस्तेमाल हो। जब हर तरीक़े का इस्तेमाल होगा, तभी तो गूगल को पैसा मिलेगा, ना?
प्रश्नकर्ता: बट जैसे जो टेक्नोलॉजी में एडवांसमेंट होते हैं, वो कहीं न कहीं एक तरह से अच्छा भी है। तो चलो, गूगल को अगर हम साइड में रखें, अगर कोई इंडिविजुअल कुछ नया बनाने का सोचे—जस्ट फॉर एन एग्जांपल—उसके भी नेगेटिव इंपैक्ट हो सकते हैं, तो मतलब...
आचार्य प्रशांत: देखिए, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होता है, ज़ीरो सम। हर चीज़ के नेगेटिव इंपैक्ट ऐसा नहीं है कि एक बराबर हो सकते हैं। कहीं पर टेन इज़ टू नाइनटी (१०:९०) होता है, कहीं पर नाइनटी इज़ टू टेन (९०:१०) होता है। दुनिया तो प्रोबेबिलिस्टिक ही है, पर प्रोबेबिलिटीज दे वेरी ग्रेटली, वन डज़ हैव होल्ड ऑन द प्रोबेबिलिटीज।
गीता ऐप है, हो सकता है इसका कोई नेगेटिव इस्तेमाल होता हो, हो सकता है कुछ लोग करते भी हों, पर उसकी संभावना हमने कम कर दी है काफ़ी। दूसरी ओर, कोई एस्ट्रो ऐप है, हो सकता है उसका कोई पॉजिटिव इस्तेमाल भी होता हो, पर उसकी संभावना बहुत-बहुत कम है।
तो र्सिफ़ यह कहना कि "देखो, इस चीज़ का भी नेगेटिव हो सकता है और इस चीज़ का भी नेगेटिव हो सकता है और इस चीज़ का भी पॉजिटिव हो सकता है और इसका पॉजिटिव हो सकता है"—ऐसे इक्वेट कर देना बिल्कुल गलत है, क्योंकि प्रोबेबिलिटीज में बहुत अंतर है न।
नियत में बहुत अंतर है। गीता ऐप बनाई ही एक नियत से गई है, और आप लोग जो प्लेटफॉर्म वगैरह बनाते हो, वो बनाए ही एक दूसरी नियत से जाते हैं।
तो फिर, जो ओनर है कंपनी का, सब कुछ उस पर निर्भर करता है। वह करने क्या निकला है? वह जो करने निकला होगा, सारे प्रोडक्ट्स उसके वही काम कर रहे होंगे, उसी उद्देश्य से तो सारे प्रोडक्ट्स बनाएगा, है ना? और काम दोनों किए जा सकते हैं। खुशखबरी यह है कि दोनों काम लगभग एक बराबर ही कठिन होते हैं।
प्रश्नकर्ता: दोनों काम मतलब, आप किसकी बात कर रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: मतलब, गीता ऐप बनाना और दूसरी ओर ऐसी ऐप बनाना जो मौज कराती है बिल्कुल। कैसे होते हैं, बता देता हूँ। ऐसे आप जा रहे हैं, ऐसे दो रास्ते कटते हैं। ठीक है? (हाथ से इशारा कर समझाते हुए।)
ये रास्ता दस फीट चौड़ा है, और ये जो रास्ता है, ये सकरा है, ये एक फीट ही चौड़ा है। ठीक है, ना? अब आप वहाँ खड़े होकर के कहोगे कि "ये दस फीट चौड़ा है, तो मैं इस पर चल दूँ, ये तो ज़्यादा आसानी पड़ेगी, और ये एक फीट ही चौड़ा है, ये सकरा-सा रास्ता है, इस पर तकलीफ़ होगी।"
ऐसा होता नहीं है। मालूम है क्या होता है? जो आप सोच रहे हो, वही दस और लोग सोच रहे हैं, क्योंकि दस और लोग भी आपके ही जैसे हैं। तो जो चौड़ा रास्ता है, दस फीट वाला, उस पर दस लोग चल देंगे तो ले-दे के सबको कितना मिला?
श्रोतागण एक फीट।
आचार्य प्रशांत: और कोई एक होगा दस में से, जो एक फीट वाले पर चलेगा, उसको भी कितना मिला?
श्रोतागण एक फीट।
आचार्य प्रशांत: तो यह भी कहना कि "अच्छा काम अनिवार्यतः रूप से बहुत मुश्किल होता है," यह पूरी तरह सही बात नहीं है। जो काम आसान होते हैं, क्योंकि वो आसान होते हैं, इसीलिए हर कोई उन्हीं की तरफ़ चल पड़ता है ना? और फिर मुश्किल हो जाते हैं, क्योंकि हर कोई वही कर रहा होता है। हर कोई वही कर रहा है आसान है, सबको आसान लग रहा है ना; वही-वही करते हैं।
फाइनेंस की भाषा में इसको कहते हैं कि "आर्बिट्राज बहुत शॉर्ट लिव्ड होता है।" माने, कहीं आपको कुछ ऐसा दिखाई दे रहा है दुनिया में, अपॉर्च्युनिटी, जाके बस इसको लपक लो, लॉटरी लग गई है—तो वो एक बहुत शॉर्ट लिव्ड अपॉर्च्युनिटी होगी क्योंकि जो आपको दिखाई दे रहा है, वो सबको दिखाई दे रहा है। और सब लपकने पहुँच जाएँगे, तो सबको कितना-कितना मिलेगा? कुछ नहीं। कुछ नहीं मिला। उतना तो दूसरे रास्ते पर चल के भी मिल जाता है। बात समझ रहे हैं आप?
प्रश्नकर्ता: आप जो भी बता रहे हैं, उसको मैं रिलेट नहीं कर पा रही हूँ मेरे क्वेश्चन से। तो आप किस डायरेक्शन में...?
आचार्य प्रशांत: आप जो क्वेश्चन पूछ रहे हो ना, वो जो आपकी कंपनी का और आपके काम का मैक्रो बेसिस है, उससे बिल्कुल डिसोसिएटेड है। आप कह रहे हो कि आपके प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल हर तरीक़े के लोग, कंपनियाँ और ऐप्स कर लेते हैं—तो क्या करें? मैं आपसे कह रहा हूँ कि आपका प्लेटफॉर्म बनाया ही इसीलिए गया है कि उसका सब इस्तेमाल करें नहीं तो यह प्लेटफॉर्म एग्ज़िस्ट ही नहीं करेगा। फिर आपकी सैलरी भी नहीं आ पाएगी।
हम क्या चाहते हैं कि मेरी सभी सुख-सुविधाएँ वैसी ही चलती रहें। मैं एक बहुत अच्छे ब्रांड में काम कर रहा हूँ, मुझे उस ब्रांड का भी पूरा जो एडवांटेज है, वो मिलता रहे और साथ ही, जो मोरल पैंग्स होते हैं, वो भी बंद हो जाएँ।
वो आपका बड़ा ब्रांड, बड़ा ब्रांड है ही इसीलिए, क्योंकि निन्यानवे प्रतिशत काम उससे गलीज़ ही होते हैं। जिस दिन वो ब्रांड ऐसा हो गया कि "भाई, सब यहाँ से साफ़-सुथरे, शुद्ध काम ही करे जाएँगे," तो रेवेन्यू आनी बंद हो जाएगी। रेवेन्यू आनी बंद हो गई, तो जॉब भी नहीं बचेगी ना।
तो यह एक बहुत हाइपोथेटिकल और सेल्फ-कॉन्ट्राडिक्ट्री क्वेश्चन है—"कैसे हम काम यही करते रहें और जितनी भी उसकी पर्क्स- प्रिविलेजेस हैं, वो लेते भी रहें, और साथ ही साथ मोरल गिल्ट भी न हो;" कि "भाई, हमारे प्लेटफॉर्म पर तो एडिक्टिव ऐप्स भी होस्ट होती हैं, उन्हीं से तो पैसा आता है।"
तो जब आपको अगर राइट साइड ऑफ मोरालिटी पर रहना हो, तो फिर इस पूरे सिस्टम को ही क्विट करके अपने लिए छोटा, अलग रास्ता बनाना पड़ता है। या फिर, आपको पाखंडी हो जाना पड़ेगा। आपको यह कहना पड़ेगा कि, "हाँ, बिल्कुल, हमारे प्लेटफॉर्म से बहुत सारी ऐप्स हैं जो एडिक्टिव हो जाती हैं, तो एक एनजीओ है, डी-एडिक्शन वाला, मैं उसको हर महीने इतना कंट्रीब्यूट कर देती हूँ।" या कि आपकी कंपनी कह दे कि, "हमारे यहाँ से जितनी भी ऐप्स हैं, वह सब के सब अपने में यह फीचर डालेंगीं कि उनके यूज़र्स एडिक्ट ना होने पाए, तो इस तरीक़े से हम अपने आप को ये बोल देंगे कि, "देखो, हम अच्छे लोग हैं।"
जैसे सिगरेट कंपनी बोल सकती है, ना कि, "हमने लगा दिया तो है इस पर वैधानिक चेतावनी—सिगरेट पीने से कैंसर होता है। हम अच्छे लोग हैं, देखो, हमने तो बता दिया था, वह आदमी ही बेवकूफ़ है, तब भी वो खरीद रहा है।"
तो मतलब, दोनों चीज़ें एक साथ नहीं मिल सकतीं। ये दुनिया की टॉप कंपनी, या जिसको आप फैंग (FAANG) बोलते हैं, उसका नाम भी मिल जाए, ब्रांड भी मिल जाए, और उसकी पक्स प्रिविलेजेस भी मिल जाएँ, और साथ ही यह भी हो जाए कि हम तो बिल्कुल साफ़ काम कर रहे हैं?
साफ़ काम करोगे, तो फोर्ब्स ५०० में थोड़ी आ जाओगे? उसके लिए तो कुछ घटिया काम ही करना पड़ता है। और बड़ी कंपनीज़ में इस तरह के पाखंड का बड़ा चलन होता है। पहले तो खुद सीएसआर (CSR) करेंगी—"हम इतना पॉल्यूशन करते हैं।" अब मेज़र पॉल्यूशन तो डाटा केंद्रों से होता है, और एआई के आने के बाद तो उसकी कोई इंतिहा नहीं है। तो, "हम पॉल्यूशन करते हैं, तो हम इतने पेड़ लगवा देते हैं हर साल।" या कि, "हमारे एंप्लॉईज़ हैं, वे महीने में एक दिन, दो घंटे निकालकर जाकर फलानि जगह में पेड़ों में पानी डालते हैं।"
और फिर उसका बड़ा ज़बरदस्त फोटो सेशन होता है, और दुनिया भर में उसको बीम किया जाता है। उसको बीम करने का जो पॉल्यूशन है, वो अलग है। बट देन एवरी बडी फील्स गुड अबाउट इट। सी, वी आर नॉट जस्ट हाई अर्निंग प्रोफेशनल्स वी आर आल्सो रिस्पांसिबल सिटीज़नस। सी, लुक एट द प्रूफ ऑफ़ आवर रिस्पांसिबिलिटी।
हमने पेड़ लगाए हैं! हमने एक एनजीओ को अपना ज़ीरो पॉइंट ज़ीरो वन परसेंट (०.०१%) कंट्रीब्यूट किया है! हमने ये किया है! "वी आर सो रिस्पांसिबल।" ऐसे नहीं होता है, बेटा। "कांट हैव योर केक एंड ईट इट टू।"
यह बहुत सही चीज़ रहेगी—जिन्होंने पृथ्वी को तबाह करा है, वही पूजे भी जाने वाले हैं। क्योंकि वही मून और मार्स को कॉलोनाइज करेंगे और ह्यूमैनिटी के सेवियर कहलाएँगे।
"यह पृथ्वी तो बर्बाद ही हो गई थी, क्लाइमेट चेंज से सब कुछ खत्म ही हो गया था; फिर इन लोगों ने देखो, विशाल रॉकेट्स के थ्रू करीब दस हज़ार लोगों को दूसरे ग्रह पर पहुँचाया, उसकी सीडिंग कराई, और फिर वहाँ पर ह्यूमैनिटी दोबारा से आगे पहुँची!"
पूरे दस हज़ार; हज़ार करोड़ में से दस हज़ार! वो दस हज़ार कौन होंगे, समझते हैं ना? जो टॉप एक्सप्लोइटर्स हैं। और फिर ये इनको कहा जाएगा कि ये देखो ये हैं; जैसे हम कहते हैं ना कि अपनी मिथ में कि महाराज भगीरथ गंगा को लेकर आए, वैसे ही महाराज जो भी उनके नाम होंगे, वो लेकर; देखो, एक प्लेन में बैठा कर, जैसे नोहा’ज़ आर्क चलती हैं, वैसे नोहा’ज़ रॉकेट चलेगा! उसके थ्रू वहाँ पर मार्स में पहुँचे। और देखो, इस तरह से ह्यूमैनिटी बची!"
और कोई ये याद नहीं रखने वाला कि इन्हीं लोगों ने सबसे पहले पृथ्वी बर्बाद करी थी। और कोई यह याद नहीं रखने वाला कि पृथ्वी की करोड़ों प्रजातियों में से बस एक बचाई गई और बाकी सब मार डाली गईं।
आपका सवाल लगभग वैसा ही है कि जैसे कोई कार मैन्युफैक्चरिंग कंपनी से हो और बोले—"हम क्या करें? कुछ लोग हमारी कार का इस्तेमाल करके गलत डेस्टिनेशन की ओर जाते हैं। कुछ लोग नहीं जाते! निन्यानवे प्रतिशत लोग जाते हैं!
और अगर हमने यह बंदिश लगा दी कि "कार का इस्तेमाल सिर्फ़ सही मंज़िल के लिए किया जाएगा," तो आपकी कारें बिकनी बंद हो जाएँगी। ना बिकेगी कार, ना रहेगा सवाल! कैसे पूछोगे सवाल? ये कार की फैक्ट्री भी तभी तक है, और कार की बिक्री भी तभी तक है, और एंप्लॉई की जॉब भी तभी तक है, जब तक कारों का बेहूदा इस्तेमाल हो रहा है।
कोक अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए बार-बार क्या करता है? "अरे, नींबू पानी नहीं, हर चीज़ के साथ कोक पिओ!" कैडबरी अपनी मिठाई बेचने के लिए क्या कहता है? "कुछ मीठा हो जाए!" या, "कुछ हो जाए!" तो मिठाई नहीं, हलवाई वाली मिठाई नहीं आप ये चॉकलेट खाइए! वो तो चाहते हैं कि उनके प्रोडक्ट का हर दिशा में इस्तेमाल हो।
अगर उनके प्रोडक्ट का, चाहे कोई प्रोडक्ट हो, टेक प्रोडक्ट हो, चाहे कन्फेक्शनरी प्रोडक्ट हो, किसी भी प्रोडक्ट का अगर सिर्फ़ सही इस्तेमाल होने लगे तो उस प्रोडक्ट की नाइनटी नाइन परसेंट सेल्स खत्म हो जाएँगीं। सोचो आप सिर्फ़ वाजिब कारण से अगर गूगल करो, तो गूगल की ऐड रेवेन्यू कितनी बचेगी? बोलो! गूगल तो ऐड रेवेन्यू पर चलता है और आप कहो, "नहीं, मैं तो बस सत् सर्च करूँगा; सत सर्च समझ रहे हो ना? हाउ टू लिव राइटली, व्हाट इज द ट्रू मीनिंग ऑफ लव, व्हाट इज द राइट वर्क टू डू इन लाइफ़; सिर्फ़ ये सर्चस करूँगा मैं। नाइनटी नाइन परसेंट सर्च खत्म; जब सर्च खत्म तो ऐड रेवेन्यू खत्म। ऐड रेवेन्यू खत्म, तो जॉब खत्म। जॉब खत्म, तो सवाल भी खत्म!
आप शायद इस बात को समझते नहीं कि कंपनी चलाने के लिए प्रोडक्ट से पहले कंज्यूमर तैयार करना पड़ता है। ये आधी कहानी है जब आप बोलते हो कि "वी आर डेवलपिंग अ प्रोडक्ट; नो यू आर डेवलपिंग अ कंज्यूमर ऐंड द कंज्यूमर इज आर्टिफिशियल; इट हैज बीन आर्टिफिशियल इंप्लांटेड इनटू हिम दैट ही नीड्स टू कंज्यूम। वो जो कंज्यूमर है, वो पूरा मैन मेड है, कंपनी मेड है। बहुत सारी टोबैको कंपनीज़ हैं जिनके कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूशंस है या उनकी फंडिंग करती हैं। उनका बड़ा नाम होता है, कैंसर रिसर्च में इस टोबैको कंपनी ने इतना ज़बरदस्त कंट्रीब्यूशन किया है; इज़्ज़त भी मिल जाती है, सच में मिल जाती है, पदक भी मिल जाते हैं।
जिनके एमिशन से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, जब कहीं बाढ़ आती है तो वहाँ पर जाकर फ्लड रिलीफ़ एफर्ट्स में कुछ कंट्रीब्यूट कर आते हैं और इतनी तालियाँ मिलती हैं कि पूछो मत। "फाइव हंड्रेड थाउज़ंड (५००,०००) डॉलर हमने दे दिए हैं इंडिया में फ्लड आई थी उस रिलीफ़ वर्क में!" आप ये नहीं बताओगे कि "इंडिया में फ्लड आई ही इसीलिए है क्योंकि सबसे पहले आपने वहाँ से फाइव मिलियन डॉलर का मुनाफा उठाया, एट द कॉस्ट ऑफ द क्लाइमेट।"
पहले तो मुनाफ़ा उठा लिया, उससे फ़ायदा फिर जब फ्लड आ गई, तो उसमें जाकर मुनाफ़े का वन परसेंट दे आए और उससे क्या मिल गया? बहुत सारी तालियाँ और चैरिटी का सर्टिफिकेट और दूना फ़ायदा!
पहले मुनाफ़ा बनाओ, और फिर चैरिटेबल होने का नाम कमाओ! और हम कह भी देते हैं, "ही इज़ सच अ बिग फिलांथ्रोपिस्ट!"