प्रश्न: हम अखंड (इंडिविजुअल) क्यों बनें ? हम निजता क्यों साधें ?
वक्ता: क्योंकि तुम ‘बन’ नहीं सकते अखंड (इंडिविजुअल)| वो तुम हो| कोई नहीं कह रहा तुमसे कि ‘बनो’ अखंड
(इंडिविजुअल)| बैठो|
श्रोता १: जो व्यक्ति अखंड (इंडिविजुअल) देखा जाता है, उसके आसपास का माहौल अच्छा नहीं रहता है| और दूसरा, वो दूसरों को भी दुःख पहुंचाता है|
वक्ता: नहीं, नहीं ये सब तुमने छवियां बना रखी हैं| बैठो| कह रहे हैं कि अखंड (इंडिविजुअल) क्यों बनें| तुम कह रहे हो कि जो अखंड(इंडिविजुअल) होता है, उसके आसपास का माहौल अच्छा नहीं रहता, वो दूसरों को चोट पहुंचाता है| तो क्या बेहतर ये नहीं है कि हम में कुछ कमी ही बनी रहे?
ये बात भी तो तुम्हारी समझ से ही निकल रही है ना? अखंड (इंडिविजुअल) वो, जो समझता है| जो ठीक-ठीक जानता है, उसी को तो अखंड(इंडिविजुअल) कहते हैं ना? और व्यक्ति वो, जो समझता कुछ नहीं है, बस मशीन की तरह करे जाता है| तुम्हारा स्वभाव नहीं है मशीन होना| तुम्हारा स्वभाव है, समझ में जीना| इसी कारण मैंने शुरू में ही कहा कि तुम अखंड(इंडिविजुअल) ‘बन’ नहीं सकते, तुम अखंड (इंडिविजुअल) हो| ‘बनने’ का सवाल ही नहीं पैदा होता| जहां तक बनने की बात है, बन तुम ‘व्यक्ति’ सकते हो, और वो तुम बनते ही रहते हो| तुम्हारी पूरी कोशिश रहती है कि हम एक व्यक्तित्व पहन लें| व्यक्तित्व माने मुखौटा| पर निजता (इन्दिविजुअलिटी) बनाई नहीं जा सकती|
दूसरी बात तुमने कही कि अखंड(इंडिविजुअल) के आसपास का माहौल अच्छा नहीं रहता| वो दूसरों को चोट पहुंचाता है| तुमने फिर जाना ही नहीं है| तुमने जाना ही नहीं है, तुम कुछ को कुछ माने बैठे हो| आज के सत्र की शुरुआत हुई थी ये कहने से कि हर शब्द के दो अर्थ होते हैं| मैं जानता हूं कि तुम इस बात से कांप जाते हो कि किसी को चोट पहुंचानी पड़ेगी| खास तौर पर, अगर वो व्यक्ति तुम्हारे करीब हो| पर चोटें दो किस्म की होती हैं| कबीर का ही एक दोहा है कि;
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट|
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ||
एक चोट वो होती है जो तुम्हें, तुम्हारे जैसा होने में मदद करती है| एक चोट वो होती है, जो तुम्हारी गन्दगी को साफ़ कर देती है| और एक दूसरी चोट होती है, जो सिर्फ तुम्हारे अहंकार को बढ़ाती है| वो चोट, पीड़ा कहलाती है| जो जगा हुआ आदमी है, वो इस दूसरी किस्म की चोट नहीं देता| उसको मालूम है कि पीड़ा देकर कुछ नहीं मिल जाना है| पर वो पहले किस्म की चोट ज़रुर देगा| जहां, ‘अंतर हाथ सहार दे’ हो| जैसे अंदर से सहारा, और बाहर से चोट| जो अखंड(इंडिविजुअल) है, जो अविभाज्य व्यक्ति है, जिसने अपनी निजता को पाया है| वो कोई हिंसक आदमी थोड़े ही है कि चोटी पहुंचाता फिरे| ये उसका एजेंडा थोड़े ही है कि इसको घायल करूंगा, और उसको चोट पहुंचाऊंगा| वो चोट अगर पहुंचाता भी है, तो करूणावश| जैसे चिकित्सक सर्जरी करता है, शरीर काटता है, पर तुम्हारे भले के लिये| ये चोट हिंसक नहीं है| इस चोट में हित है सामने वाले का, गहरे से गहरा हित है| परम हित है| इससे पीछे मत हटो| लेकिन ये सब चोट पहुंचाना, ना पहुंचाना, ये सवाल पैदा तो तब होते हैं, जब पहले तुम स्वयं अपनी निजता(इंडिविजुअलिटी) को पाओ|
तुमने ये सवाल तो पूछा ही नहीं कि क्या मैं अखंड (इंडिविजुअल) हूँ| तुमने आपत्ति पहले खड़ी कर दी है कि अखंड (इंडिविजुअल) व्यक्ति के आसपास, अविभाज्य व्यक्ति के आसपास का माहौल ख़राब रहता है, तो मुझे होना ही नहीं है| तुम बिना अखंड (इंडिविजुअल) हुए, अखंड (इंडिविजुअल) को जान गए?
तो तुमसे दो बातें कह रहा हूं| पहला कि अखंड हो कर देखो| और दूसरा कि जब होओगे तब यही जानोगे कि करुणा में भी चोट दी जाती है, कि प्रेम में भी चोट दी जाती है| वो चोट, तोड़ती नहीं है, वो चोट जोड़ती है|
-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।