अकेली नहीं हैं आप || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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अकेली नहीं हैं आप || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: सादर प्रणाम, आचार्य जी। मुझे बहुत खुशी हो रही है कि मैं आपको पर्सनली (निजी रूप से) ऐसे सामने पहली बार देख रही हूँ और मैं बहुत खुश हूँ कि मैं यहाँ आ पायी।

आचार्य जी, मैंने आपकी एक विडियो में सुना कि सबसे निचले स्तर का जो मन होता है, वह किसी से कनेक्ट नहीं करता, अकेला रहना पसंद करता है और यह सोचता है कि – अगर आपका कुछ दुख है तो आई कांट हेल्प (मैं आपकी मदद नहीं कर सकती)! लेकिन मैं पिछले पाँच साल से अकेली ही रहती हूँ। मैं जॉब करती हूँ और ज़्यादा किसी से कनेक्ट (जुड़ाव) नहीं करती हूँ – ना कोई फ्रेंड है, और रिश्तेदारों से भी मैंने मिलना-जुलना बंद ही कर दिया है करीब-करीब। और मेरा जो इनर-सेल्फ़ (आंतरिक व्यक्तित्व) होता है, वह मैं किसी से व्यक्त ही नहीं करती हूँ। मेरा घर भी कैसे चलता है, किसी को इसके बारे में कुछ पता नहीं है। और मेरा सब ठीक ही चलता है – ऐसा मुझे लगता है। तो मैं अकेले में रहती हूँ और वैसे भौतिक तौर पर भी कोई कमी नहीं है, सब सही है मेरे पास। लेकिन मैं सोचती हूँ कि क्या यह जीवन सही जी रही हूँ, क्या मेरा मन इतने निचले स्तर का हो गया है?

क्योंकि मैं किसी से जुड़ती नहीं हूँ तो उनकी समस्याओं में भी मदद करने की कुछ बात ही नहीं होती है और मेरी समस्या मैं ख़ुद ही या तो झेल लेती हूँ, सह लेती हूँ या वह अपनेआप डिसौल्व (भंग) हो जाती है। और अभी तो समस्याएँ आतीं भी कम हैं क्योंकि ना मैं किसी में जाती हूँ, ना मुझ में कोई आता है ऐसे। तो क्या मेरी यह स्थिति सही है या नहीं, पता नहीं मुझे। और ऐसा नहीं है कि उदास रहती हूँ या दुखी रहती हूँ, अकेले भी रहती हूँ तो इस अकेलेपन में मज़ा भी आ जाता है, शांति भी महसूस करती हूँ लेकिन क्या यह सही तरीके की शांति है या बस डिस्कनेक्टेड (अलगाव की भावना) ही हूँ?

आचार्य प्रशांत: मैं कुछ मूल सिद्धांत कह सकता हूँ, उसके बाद जो निर्णय है, मिलना है, जुलना है या किससे मिलना है, यह तो आप ही तय करेंगे। देखिए, मूल रूप से इसमें कोई बुराई या ग़लती नहीं हो गई अगर आप एकाकी रूप से संतुष्ट हों तो। यह किसी निचली चेतना वगैरह का लक्षण नहीं है – मुझे नहीं लगता मैंने कभी भी ऐसा बोला होगा।

आप अगर अपने में संतुष्ट हैं, आप अगर इतनी सामर्थ्य रखती हैं कि अपने दुख, अपनी समस्याएँ स्वयं ही झेल भी लेती हैं, सुलझा भी लेती हैं, तो इसमें ग़लती क्या हो गई? कुछ भी नहीं। ठीक है, यह अच्छी बात है।

बाहर निकलना, अपनी तकलीफ़ का शोर मचाना या यूँ छोटे मुद्दों पर जाकर के किसी से मदद माँगना, यह कोई बड़ी अच्छी बात तो हो नहीं गई। यह तो आंतरिक कमज़ोरी का ही सबूत होता है।

प्र: तो जैसे लोग कहते हैं ऐसे आइसोलेटेड (पृथक) रहना, वी आर सोशल एनिमल्स (हम सामाजिक प्राणी हैं), मतलब मुझे यह एक...

आचार्य: नहीं नहीं नहीं, यह तो सोशल एनिमल यह सब तो... सारा अध्यात्म आपको यह समझाने के लिए है कि आप एनिमल नहीं हो, आप सोशल एनिमल कहाँ से हो गए?

प्र: मेरे एक सहकर्मी ने कि कहा मुझसे, ‘हम एक सोशल एनिमल हैं और आप ऐसा रहकर अपनी कमज़ोरियों को छुपाना चाहती हो ताकि वह किसी को ना दिखें। तो यह आपकी एक रणनीति है क्या?’

आचार्य: यह तो वैसी-सी बात है कि कोविड हुआ है तो जाकर सब से गले मिलो, वरना तुम अपनी कमज़ोरियाँ छुपा रहे हो। ये कोई...?

भई, आप शहर में ही रहती होंगी। आप कह रही हैं कॉरपोरेट में जॉब करती हैं, तो आप जाती होंगी वहाँ पर। आपके पास फ़ाइल्स भी आती होंगी या आप मेल भी करती होंगी, मेमो (ज्ञापन) भी लिखती होंगी, कोई क्लाइंट (ग्राहक) होगा, कोई बॉस होगा, कोई सबोर्डिनेट (अधीनस्थ) – तो समाज से जितनी ज़रूरत है, आप उतना ताल्लुक़ रख तो रहीं हैं। आप जंगल-वासी थोड़े ही हो गईं हैं? आप बाज़ार जाती होंगी, आप चीज़ें खरीदती होंगी, आपके हाथ में माइक है, आपने कपड़े पहन रखे हैं, यह सब मानवनिर्मित व्यवस्था से ही तो आ रहे हैं। तो ऐसा थोड़े ही है कि आपने दुनियादारी से बिलकुल ही संपर्क तोड़ लिया है?

प्र: ईमानदारी से पैसे कमाने के लिए मुझे जो-जो करना पड़ता है, मैं करती हूँ। जॉब के लिए जो क्लाइंट रिलेशन (ग्राहक सम्बंध) हों, या मेरे ऑफिस में...

आचार्य: तो उतना ही चाहिए होता है। जाकर के दूसरे के आचार में मसाला बनना ज़रूरी थोड़े ही होता है। और अभी आप यहाँ पर बैठे हुए हैं, यह भवन भी तो एक सामाजिक स्थिति ही है। आप यहाँ बैठी हुई हैं, यह एक समाज है। यह २००-२५० लोगों का एक समाज ही है। उस समाज के सामने आप अपनी बात बोल तो रहीं हैं।

प्र: जी, बस अभी आपके वीडियो एक साल से सुन रही हूँ और यह पहली बार ही है जो मैं इतने सारे लोगों के बीच में आयी हूँ, नहीं तो मैंने पिछले पाँच सालों में कोई शादी या फंक्शन कुछ भी अटेंड नहीं किया है। हालाँकि मैं अकेले घूमने जाती रहती हूँ, जैसे मैं वृंदावन जाती हूँ। साल में एक बार कार्तिक में जाना, एक हफ़्ते रहना, पर वह भी अकेले ही होता है। वहाँ जो प्रभु जी लोग होते हैं, उन्हीं से ही मिलती हूँ। मेरा मैटेरियल वर्ल्ड (भौतिक संसार) से इतना अलगाव हो गया है कि पैसे के लिए अगर मेरा काम नहीं है तो मैं उनसे नहीं जुड़ूँगी, और इसके चलते मैंने सारे रिश्ते भी बंद ही कर दिए करीब-करीब। यहाँ तक कि मैंने अपनी माँ और भाई-बहन से भी महीने में बस एक बार ही बात होती है, वो भी बस ‘हो न, ठीक से हो न’, बस।

आचार्य: ठीक-ठीक, देखिए इसमें अपने-आप में कुछ ग़लत नहीं है, सबसे पहले तो यह। एक व्यक्ति जो स्वयं में संतुष्ट है, परनिर्भर नहीं है, मानसिक रूप से और आर्थिक रूप से भी दूसरों पर, वह व्यक्ति ज़्यादा बेहतर संभावना रखता है आंतरिक तरक्क़ी की भी। तो अगर कोई आपसे बोल रहा है कि आप कुछ ग़लत कर रहीं हैं, सिर्फ़ इसलिए कि आप सामाजिक मौकों पर बहुत नहीं जाती हैं या मिलती-जुलती नहीं हैं तो ऐसी कोई बात नहीं है। यह मेरे उत्तर का पहला भाग हुआ।

अब दूसरे भाग पर आते हैं। दूसरा भाग यह है कि अगर वाकई आंतरिक उन्नति होती है न तो उससे फिर प्रेम और करुणा भी जागृत होते हैं। अब दूसरों से सम्बन्ध पुनः निर्मित होता है और एक अलग गुणवत्ता का होता है। आमतौर पर सब सामाजिक पशु ही हैं, सोशल एनिमल।

प्र: और जैसे आपने कहा...

आचार्य: सुनिए पहले, सुनिए पहले।

आमतौर पर सब सामाजिक पशु ही हैं और वह सामाजिक हैं ताकि अपना अकेलापन कम कर सकें, अपनी कमज़ोरियाँ दूसरों की बैसाखियों पर टांग सकें। बड़े रोगी कारणों से हम सामाजिक होते हैं। किसी पर्यटन स्थल पर जाओ तो वहाँ पर लोग मिलेंगे जो पूछेंगे कि क्राउड (भीड़) किधर है, क्राउड किधर है, और जिधर क्राउड होगा, वह वहीं जाकर के घुस जाएँगे। यह रोग है, यह पागलपन है, एकदम पागलपन है।

दो जगहें हैं जहाँ पर भारत खूब जाता है, खासतौर पर उत्तर भारत – एक नैनीताल, एक मसूरी। और मुझे बड़ा मज़ा आता है। नैनीताल में झील के एक तरफ़ है मॉल रोड, और दूसरी तरफ़ है जिसको बोलते हैं 'ठंडी सड़क'। और दोनों बिलकुल एक बराबर हैं क्योंकि झील के एक तरफ़ एक है, एक तरफ़ एक है। मैं ठंडी सड़क पर घूमता हूँ, वहाँ पर एक आदमी नहीं होता कभी!

ठंडी सड़क देखी है किसी ने? (सभी से पूछते हुए)

झील है न नैनीताल में, उसके एक तरफ़ जो है उसे बोलते हैं?

श्रोतागण: मॉल रोड।

आचार्य: और दूसरी तरफ़ है वो ठंडी सड़क है। वहाँ एक आदमी नहीं होता, बताओ क्यों नहीं होता? क्योंकि वहाँ दुकानें नहीं हैं।

लोगों को भीड़ चाहिए। अब इस तरह की सामाजिकता निश्चित रूप से रोगी है। यह विक्षिप्तता है कि आप पर्वतीय जगह पर भी आए हो तो आप क्या कर रहे हो? भीड़ खोज रहे हो। जहाँ भीड़ है, वहाँ हम हैं।

वैसे ही आप मसूरी चले जाओ तो वहाँ पर मॉल रोड है और उसके पीछे है कैमल बैक रोड। (सभी से पूछते हुए) कोई है मसूरी से, या गया है? मॉल रोड पर भीड़ इतनी होती है कि आप कदम नहीं रख सकते। सब जा-जाकर भुट्टे खा रहे होते हैं और कैमल बैक रोड खाली पड़ी होती है। वहाँ कोई नहीं है, जबकि वहाँ से जो नज़ारा है वह और ज़्यादा खूबसूरत है, बहुत सुंदर सड़क है, वहाँ कोई नहीं जाता। अब अगर यह हमारी सामाजिकता का पैमाना है तो यह बड़ी पागल सामाजिकता है। यहाँ पर आप दूसरे से मिल रहे हो तो दूसरे को तकलीफ़ ही दे रहे हो मिलकर के।

फिर आती है आंतरिक रूप से परिपूर्ण व्यक्ति की सामाजिकता, वह अलग होती है। वह व्यक्ति भी समाज में घुलता-मिलता है, पर वह समाज में घुलता-मिलता है भीतर से परिपूर्ण होकर के। वो दूसरे से इसलिए नहीं मिल रहा कि दूसरे को अपनी बैसाखी बना लेगा, वह दूसरे से इसलिए नहीं मिल रहा है कि दूसरे को भी अपनी बीमारी लगा देगा, वह दूसरे से इसलिए नहीं मिल रहा कि दूसरे का शिकार कर लेगा, दूसरे से इसलिए नहीं मिल रहा कि अपने भीतर एक बड़ा-भारी छेद है तो वो दूसरे को ला करके उस छेद को भरने की कोशिश करेगा।

अब वह दूसरे से मिल रहा है क्योंकि उसको प्रेम बाँटना है। अब वह दूसरे पर आश्रित नहीं है। अब जब वो दूसरे से मिलता है तो यह रोगी और रोगी का मिलन नहीं होता, यह चिकित्सक और रोगी का मिलन होता है।

तो आपने जो बात कही, उसके पहले भाग में मैंने कहा कि इसमें कोई बुराई नहीं है अगर कोई व्यक्ति सामान्य तरीके की सामाजिकता से अपने-आपको अलग कर लेता है। यह बल्कि स्वस्थ और शुभ लक्षण भी हो सकता है। लेकिन अगर वाकई आपने आंतरिक स्वास्थ्य-लाभ किया है, तो फिर एक बिंदु ऐसा ज़रूर आता है जब आप समाज में वापस लौट कर जाते हैं।

बुद्ध निकले थे न समाज से बाहर? और फिर बारह साल बाद क्या किया? समाज में वापस लौट करके गए। और कृष्ण तो कभी समाज से निकले ही नहीं। वह लगे रहे समाज में, लगातार रहे। समाज में क्या रहे, वह तो युद्धक्षेत्र में भी बीचों-बीच थे लड़ाई के। वह कभी निकले ही नहीं।

तो आध्यात्मिक आदमी को अंतत: तो बाँटना ही पड़ता है, और किसको बाँटोगे अगर समाज में किसी से मिल ही नहीं रहे तो? हाँ, यह हो सकता है कि आप बाँटने के कुछ नए तरीके निकाल लें। उदाहरण के लिए आपने मुझे कहा, ‘किसी से नहीं मिलना पर मैं किताब लिखूँगा और वह किताब समाज में पहुँच जाएगी, तो मेरा संदेश पहुँच जाएगा।‘ इस तरह की कोई विधि अगर आप निकाल लें तो अलग बात है।

पर यह बात पक्की है कि जो जानेगा, जो समझेगा, उसमें यह भाव भी उठेगा कि 'जो जाना है, समझा है, उसको मैं वितरित करूँ, सबको दूँ।' तो एकांत की अवस्था अच्छी है, पर एकांत की अवस्था अनंत समय तक नहीं चल सकती।

स्वास्थ्य का, आंतरिक रूप से स्वस्थ होने का, निरामय होने का यह लक्षण ही होता है कि 'पाया है तो बाँटोगे'। इसको हम कहते थे, ‘पाओ...’ क्या कहते थे? पाओ और गाओ!

अगर पाया है तो गाओगे।

दिक्क़त तब होती है जब कोई ऐसा गाने लग जाता है जिसने पाया नहीं है। वह फिर गर्दभ राग होता है। पाया कुछ नहीं है, गाने की प्रबल उत्कंठा है, गाये जाए। ज़्यादातर लोग जो गाते हैं वो वही होते हैं जिन्होंने पाया कुछ नहीं है। तो उनके लिए फिर यह सलाह होती है कि, ‘बेटा गाओ मत, एकांत में जाओ! चुपचाप रहो, मौन में रहो। एकांत में पहले अपने-आप को भीतर से निर्मित करो! और जब निर्मित कर लो अपने-आप को’ – वह कोई बहुत छोटी घटना नहीं होती, उसमें बहुत साल लगते हैं। बारह साल तो सिद्धार्थ गौतम को लग गए थे, तो सोचिए आपको कितने साल लगेंगे! पहले अपने-आपको आंतरिक रूप से सुदृढ़ करो, मज़बूत करो, पाओ! और फिर समाज में वापस आओ और गाओ!

कई बार ऐसा भी होता है कि पाने और गाने की प्रक्रिया साथ-साथ भी चलती रहती है। तो भी ठीक है, चलो कि पाते भी जा रहे हैं और गाते भी जा रहे हैं। पर यह नहीं होना चाहिए कि पाया कुछ नहीं है और अहंकार को गाने में बड़ा मज़ा आता है। वह नहीं होना चाहिए।

स्पष्ट हो रही है ये बात?

मुझे नहीं लगता कोई आत्मज्ञानी ऐसा हो सकता है जो कहे, ‘मुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं, मैं तो जा रहा हूँ। मैं अपने एकांत में रहूँगा और समाधि का सुख भोग लूँगा।‘ यह अगर कोई करता है तो मेरी दृष्टि में आत्मज्ञानी नहीं है वह। लेकिन मेरी इस बात का यह अर्थ नहीं है कि आप जिस हालत में हैं उसी हालत में जा करके दूसरों को ज्ञान बाँटना शुरू कर दें।

हमारे हाथ बहुत मैले हैं। इन मैले हाथों से दूसरों को नहीं छुआ जाता। दूसरों को छूने से पहले क्या करना पड़ता है? अपने मैले हाथ साफ़ करने पड़ते हैं न? इन मैले हाथों को साफ़ करने में कई साल लग जाते हैं। तो इतनी आतुरता में मत रहिए कि जल्दी से जाकर दूसरों को गले लगा दें, छू दें, कुछ कर दें, नहीं-नहीं।

पहले आत्मस्नान करिए। पहले ज़रा ख़ुद सफ़ाई कर लीजिए, फिर दूसरे को छुईएगा। नहीं तो पाप हो जाएगा कि दूसरे को छुआ, दूसरे घर में घुस गए, दूसरे को सलाह दे डाली, बिलकुल सामाजिक कार्यकर्ता बन गए या गुरुजी ही बन गए, प्रवचन दे डाले, भाषण दे डाले – और इस पूरी प्रक्रिया में क्या किया? जिसको छुआ, जिससे बात करी, सबका सर्वनाश कर दिया। ऐसा नहीं करना है।

तो अब आप किस जगह पर खड़ी हैं, वह आपको तय करना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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