अकेलापन

Acharya Prashant

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अकेलापन
हम अकेले होते ही नहीं हैं क्योंकि हमारे दिमाग में घर, दफ़्तर, बाज़ार और अतीत की हजार आवाज़ें बोल रही होती हैं, और वो हमें चैन से जीने नहीं देतीं। अकेलापन आध्यात्म में उच्चतम अवस्था होती है। जब भी लगे कि बहुत सूनापन है, तो देख लो कि क्या है जो आकर्षित कर रहा है, और मिल नहीं रहा। जो तुम्हारे दिमाग को खाली करता हो, साफ़ करता हो, वही कीमती चीज़ है। अगर दिमाग साफ़ है, तो अकेलापन नहीं सताएगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: अकेलापन दूर कैसे करें?

आचार्य प्रशांत: अकेलेपन से कैसे मुकाबला करें? कैसे सामना करें? अकेलापन झूठ है क्योंकि जो अकेला है वो अकेला है नहीं। जो अकेला होता है उसकी तो सारी समस्याएँँ ही खत्म हो जाती हैं। आप कहते हो अकेलापन आपकी बीमारी है। अकेलापन कभी बीमारी नहीं होती। अकेलेपन का तो वास्तविक अर्थ होता है कि दूसरे को लेकर परेशान होना, दूसरे को लेकर प्रभावित होना, दूसरे का व्यर्थ संज्ञान लेना छोड़ दिया। अकेले तो हम कभी होते ही नहीं।

वो अवस्था जिसे आप कहते हो अकेलापन, सूनापन, वास्तव में वो अवस्था होती है जब आप भीड़ से घिरे हुए हो, जब आपके दिमाग में भीड़ का उपद्रव चल रहा है। और ये शब्दों की विडंबना है, शब्दों का झूठ है कि आप अपनी भीड़युक्त अवस्था को अकेलापन बोल देते हो।

अकेलापन उस दशा का नाम है जब आपके दिमाग में पचासों बातें, पचासों लोग, पचासों विचार और प्रभाव उथल-पुथल मचा रहे हों। तब आप कहते हो अकेलापन।

उस अवस्था में अगर कोई दूसरा मिल जाता है तो आप उस दूसरे पर केंद्रित हो जाते हो। उस भीड़ से थोड़ी देर के लिए मुक्त हो जाते हो तो फिर आप कहते हो, ‘देखो! अकेलापन दूर हुआ।’ अकेलापन नहीं दूर हुआ है। भीड़ दूर हो गई है। जो अकेला कह रहा है अपने आप को, वो वास्तव में भीड़ का शिकार है।

अकेलेपन को अब कभी भी समस्या मत बोलना। अकेलापन आध्यात्मिक भाषा में कैवल्य कहलाता है। और वो उच्चतम अवस्था है। उससे अच्छा कुछ नहीं होता। मैं ही मैं हूँं — मौज। हम अकेले नहीं होते, ये समस्या है। हमारे दिमाग में इधर की, उधर की, बाज़ार की, दफ़्तर की, घर की, अतीत की हज़ार आवाज़ें बोल रही होती हैं और वो हमें चैन से जीने नहीं देतीं। उस समस्या का, उस अवस्था का समाधान है अकेलापन।

अकेलापन समस्या नहीं है, समाधान है। जब भी लगे कि बहुत सूनापन है, खालीपन है, अकेलापन है, तो देख लो कि किसकी याद सता रही है? देख लो क्या है जो आकर्षित कर रहा है? वो आकर्षित कर रहा है और मिल नहीं रहा है इसलिए तुम्हें सूनापन लग रहा है। अकेलापन तुम्हें लग ही इसलिए रहा है क्योंकि कुछ है दुकेले जैसा जो खींच रहा है और उसकी प्राप्ति ना होते देखकर के तुम बौराए हुए हो।

दुनिया को ये अनुमति कभी नहीं देनी चाहिए कि वो तुम्हारे दिमाग पर चढ़कर बैठ जाए। पर हम अनुमति तो छोड़िए, आमंत्रण देते हैं। हम लोगों को बुला-बुला कर के अपने ज़हन में बैठाते हैं। और हमारी होशियारी की इंतिेहा ये है कि अगर कोई हमें ऐसा मिल जाए जो हमारे ज़हन को प्रभावों से, उपद्रवों से खाली करता हो तो हम उसे भी अपने ज़हन में बैठा लेते हैं कि जैसे दस शराबियों की महफ़िल जमी हो और एक ग्यारहवां आए और कहे, 'अरे! उठो-उठो! चलो बहुत हो गया, इतनी पी ली।’ और वे दस लोग उसे भी पकड़कर बैठा लें और कहें, ‘अरे! उठ जाएँंगे। पहले तू बैठ तो सही।’

ये हमारी हालत है। ऐसे होते देखा है ना? दस बैठे पी रहे थे, कि ग्यारहवां आया कि “क्या कर रहे हो? इतनी रात बीत गई, इतना पी लिया, चलो उठो।“ 'अरे! उठेंगे, तू तो बैठ।’ ये हमारी हालत है। कोई आए हमारे मन को साफ करने, हम उसको भी मन का कचरा ही बना लेते हैं। हम दुनिया को अनुमति ही नहीं, आमंत्रण देते हैं कि हमारे दिमाग को भ्रष्ट करो, मलिन करो, खराब करो।

इससे पहले कि तुम किसी को भी अपने लिए बहुत कीमती बना लो, किसी कीमती से मतलब कोई व्यक्ति ही नहीं होता। तुम टीवी पर कुछ देख रहे हो, और वहाँं पर कुछ चमका हो तो तुम्हें लगेगा, क्या बात है! क्या बात है! वाह-वाह, ये तो कितनी कीमती चीज़ है। इसके पीछे दौड़ पड़े। इससे पहले कि तुम कुछ भी अपने लिए बहुत कीमती बनाओ, सौ बार पूछो अपने आप से, कि ‘क्या वास्तव में ये उतनी कीमती चीज़ है? क्या वास्तव में इसकी वो हैसियत है जो मैं इसे दे रहा हूँ?’

हैसियत उसकी नहीं है जो तुम्हारे दिमाग पर चढ़कर बैठता हो। हैसियत सिर्फ़ उसकी है जो तुम्हारे दिमाग को खाली करता हो। साफ़ करता हो। सिर्फ़ उसे इज़्ज़त देना।

दिमाग साफ़ है, अकेलापन नहीं सताएगा। अकेलेपन को लक्षण मानो इस बात का कि तुम्हारा मन बड़ा चिपचिपा है। और चिपचिपा है तो वो हर चीज़ को अपने से चिपका लेता है। ये चिपचिपा मन बड़ी गड़बड़ चीज़ है। जैसे कि कोई छत पर गोंद फैला दे और चार घंटे बाद देखने आओगे तो क्या पाओगे? उनमें धूल चिपकी हुई है, कोई कागज़ का टुकड़ा आके चिपक गया, कोई तिनका आ के चिपक गया। अधिकांशतः व्यर्थताएँं ही होंगी जो चिपक गई होंगी। ‘कचरे’।

यही सवाल पूछा करो अपने आप से, कि ‘इस विचार को मन में बैठा के मिल क्या रहा है?’ और विचार वादा करता है कि ये दूँंगा। पूछना, कि ‘जो वादा करता है, तू वो दे रहा है या नहीं दे रहा है? ईमानदारी से पूछना। ‘खेल खत्म।’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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