प्रश्नकर्ता: दो गृहस्थों की ओर से प्रश्न है, दोनों शिविर में ही मौजूद हैं। एक सज्जन पूछ रहे हैं, ‘गृहस्थ जीवन से मुक्ति कैसे प्राप्त हो?’
दूसरे सज्जन हैं, उनका प्रश्न है — सामाजिक दायित्वों की एक बहुत बड़ी श्रृंखला है जो मुझे सतत विचलित करके रखती है। मैं इन सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करने के साथ-साथ जो आपसे सुनता हूँ, उसको जीवन में कैसे उतार सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत गृहस्थ जीवन से मुक्ति का कौन पूछ रहे हैं? माने क्या?
प्र: गृहस्थ रहते हुए भी, सभी कामों में लिप्त रहते हुए भी हम ये चाहते हैं कि उसमें निर्लिप्तता का भाव रहे।
आचार्य क्यों चाहते हैं?
प्र: क्योंकि जब उन्मुक्त होते हैं, तो इसमें जो आनंद मिलता है और जो इसकी मस्ती होती है वो एक अलग ही आनंद देते हैं। मैं उसी आनंद में रह करके गृहस्थ जीवन-यापन करना चाहता हूँ।
आचार्य बाधा क्या है?
प्र: वो आनंद और वो मस्ती सतत नहीं रह पा रहे।
आचार्य क्यों?
प्र: आचार्य जी, इसका उत्तर मेरे पास नहीं है।
आचार्य तो आध्यात्मिक आनंद सतत नहीं रह पा रहा है इसके लिए गृहस्थी को क्यों दोष दे रहे हैं? इसमें गृहस्थी बीच में कहाँ से आ गयी? आपका प्रश्न तो इतना सा है कि आध्यात्मिक आनंद मिलता है आपको, आप कह रहे हैं बीच-बीच में मिलता है, फिर कह रहे हैं टूट जाता है।
इसमें गृहस्थी का क्या योगदान है? गृहस्थी के कारण टूट जाता है?
प्र: यही नहीं समझ में आता।
आचार्य जब नहीं समझ में आता तो गृहस्थी पर दोष क्यों लगाया? शक़ है गृहस्थी पर कि इसी के कारण टूट रहा है?
प्र: नहीं आचार्य जी, दोनों को साथ में लेकर चलना चाहते हैं।
आचार्य अरे बाबा! आपका जो मुद्दा है वो ये है न कि आपको सतत आध्यात्मिक आनंद में रहना है?
प्र: जी।
आचार्य: उसमें आप ये क्यों नहीं पूछ रहे हैं कि सतत आध्यात्मिक आनंद में कैसे रहें, आचार्य जी, गाड़ी चलाते वक़्त भी या नहाते वक़्त भी? आप गाड़ी चलाने को या नहाने को तो आनंद के सातत्य के मार्ग में बाधा की तरह नहीं लाये मेरे सामने; नहीं लाये न।
क्या आपका प्रश्न ये था कि आचार्य जी गाड़ी चलाते हुए, ट्रैफ़िक में लिप्त रहते हुए भी आनंदित कैसे रहें? इन्होंने ऐसा प्रश्न पूछा क्या? ये तो नहीं पूछा।
प्रश्न क्या है — कि गृहस्थ रहते हुए भी आध्यात्मिक आनंद का सातत्य कैसे बनाएँ? तो उस प्रश्न की भाषा और भाव ही बता रहे हैं कि आध्यात्मिक आनंद के रास्ते में आप बाधा किसको समझ रहे हैं — गृहस्थी को। क्यों समझ रहे हैं, बताइए न पहले।
किसी भी काम को ढंग से करने की कला को ही अध्यात्म कहते हैं। घर को भी ठीक से चलाने की कला का नाम अध्यात्म है। कह रहे बड़े आध्यात्मिक हो गये; बड़े आध्यात्मिक हो गये लेकिन न घर चलाते हैं, न दुनिया में कोई काम करते हैं — न गाड़ी चलाते हैं, न बाज़ार चलाते हैं, न दुकान चलाते हैं। दुनियादारी का कुछ नहीं चलाते तो फिर ये अध्यात्म किस काम का है भाई!
फिर तो अध्यात्म वो कुंजी हो गयी जिसका प्रयोग करके आप कोई ताला खोल ही नहीं रहे। जबकि अध्यात्म है किसलिए? कि जीवन में जितनी गाँठें हैं, उनको आप खोल पायें।
कोई ऐसा नहीं है जिसे ज़िंदगी बख़्श देगी कोई भी काम करने से, कुछ-न-कुछ आपको करना होगा, बल्कि बहुत कुछ है जो आपको करना ही होगा। गृहस्थी में लिप्त नहीं होगे तो कुछ और करोगे।
बहुत लोग हैं जिन्हें, उदाहरण के लिए, नेता बनना है, राजनीति करनी है या कुछ और काम करने हैं। या कुछ और काम नहीं करने हैं तो भी उन्होंने कहा, ‘नहीं, गृहस्थी नहीं चाहिए।’ तो उनका समय फिर गृहस्थी में नहीं जाता तो इसका मतलब क्या ये है कि उनका समय कहीं नहीं जाता? वो और किन्हीं कामों में फिर पूरे तरीक़े से लगे हुए हैं, जूझे हुए हैं, है न!
तो अध्यात्म का मतलब ये नहीं है कि कोई काम करना ही नहीं है। कोई काम करना ही नहीं है अगर, तो अध्यात्म सीख कर लाभ क्या हुआ तुमको? अध्यात्म इसलिए है ताकि घर भी चलाना जानो; घर का वास्तविक अर्थ समझो। असली घर क्या है — ये जानो और गृहस्थ हो पाओ।
अध्यात्म का अर्थ है कि पता हो कि गृहस्थ होने में और आत्मस्थ होने में कोई विशेष अंतर नहीं है। और जो आत्मस्थ हुए बिना गृहस्थ है वो अपने घर का सत्यानाश ही करेगा।
आप पूछते हैं कि गृहस्थी के साथ-साथ अध्यात्म कैसे चला लें? मुझे ताज्जुब होता है कि अध्यात्म के बिना आप कैसे गृहस्थी चला लेते हो!
आपको इन दोनों को साथ चलाना मुश्किल मालूम पड़ता है। आपका प्रश्न ही यही रहता है कि अध्यात्म के साथ गृहस्थी कैसे चलेगी। और मेरा प्रश्न होता है कि अध्यात्म के बिना गृहस्थी कैसे चलेगी।
और जब गृहस्थी बिना अध्यात्म के चलती है तो वैसी ही होती है जैसी हमारी गृहस्थियाँ होती हैं। सिर-फुटौवल चल रहा है, गाली-गलौज, जूतम-पैजार, इसका मुँह नोच लिया, उसकी पैंट फाड़ दी, उसको घर से निकाल दिया, किसी को दरवाज़े के अंदर बंद कर दिया, किसी के लिए दरवाज़ा ही नहीं खोला, घर के भीतर दीवार खड़ी कर दी — उधर तुम रहो, इधर हम रहेंगे।
गृहस्थी वाले मुक़द्दमे अदालतों से हटा दो अगर तो अदालतों का तीन-चौथाई बोझ कम हो जाए, ऐसी हमारी गृहस्थियाँ हैं। और क्यों हैं ऐसी हमारी गृहस्थियाँ? क्योंकि बिना अध्यात्म की हैं। और जहाँ मुक़द्दमे नहीं भी हो रहे होते, वहाँ घरों के अन्दर हाल क्या होता है, छुपी हुई, दबी हुई अन्दर की बात क्या होती है, उससे तो आप परिचित ही हैं न, जानते ही हैं।
बच्चे यूँही थोड़े ही बर्बाद निकलते हैं, बच्चे यूँही थोड़े ही मनोरोगी हो जाते हैं, बच्चे यूँही थोड़े ही सिगरेट, शराब, ड्रग्स की ओर चल देते हैं। पति को पत्नी पर शक़ है, पत्नी को पति पर शक़ है; सास लगी है बहू को काटने में, बहू लगी है सास पर भांजी मारने में। और इसको हम कहते हैं ये हमारी आम गृहस्थी है। अगर इसे आम गृहस्थी कहते हैं तो नर्क किसको कहते हैं?
नर्क आपको क्या लगता है कोई बहुत सनसनीखेज़ जगह है जहाँ बहुत बड़े विशाल कड़ाहों में तेल उबल रहा है? नहीं, नर्क एक आम घर है जहाँ एक आम छोटी सी कड़ाही में तेल उबल रहा है। अभी उसमें तेल उबल रहा है, थोड़ी देर में उसमें सब्ज़ी पकेगी, छौंका लगेगा, बघार की गंध घर में फैलेगी। उसी को थोड़ा और महिमामंडित करके नर्क के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया।
नर्क कोई बहुत ज़बरदस्त, भयानक, सनसनीखेज़ जगह नहीं होती। ये जो हमारा आम जीवन है न, इसी को नर्क कहते हैं। और ये नर्क इसलिए है क्योंकि हम बड़ा घबराते हैं आध्यात्मिक तौर पर जीने से। हमें बता दिया गया है कि गृहस्थी और अध्यात्म साथ-साथ नहीं चलते, तो बड़ा भीतर ख़ौफ़ रहता है।
यहाँ ही आपमें से कुछ लोग या कई लोग बैठे हैं, मुझे बताया गया है, जो अपने घरों में बता कर नहीं आये हैं कि कहाँ जा रहे हैं। माँ को पता चल जाए कि लड़का आध्यात्मिक शिविर में गया है तो फिर तो जो तेल खौलेगा, उसकी पूछिए ही मत! बाप को पता चल जाए कि बेटी अध्यात्म की ओर बढ़ी है, वो कहेगा, ‘उड़ी चिड़िया!’
और पतियों के लिए इससे तो ज़्यादा कोई भयानक बात हो ही नहीं सकती कि पत्नी अब सच की ओर मुड़ने लगी है। पत्नियों का तो कहना ही क्या! दो-चार बार तो यहाँ शिविर चल रहा होता, वो बाहर गेट पर धरना प्रदर्शन कर रही हैं, सिर फोड़ रही हैं, कि हाय-हाय, मेरा घर उजड़ गयो, चुन्नू का पप्पा भग गयो।
तुम्हारा घर उजड़ गया या उजड़ा हुआ ही था? बोलो। पर ये बात अहंकार को बड़ी ठेस देती है कि अधिकांशतः हमारे घर उजड़े हुए ही हैं। ऊपर-ऊपर से उनको किसी तरीक़े से बाँध कर रखा हुआ है। खूब पट्टी-वट्टी कस रखी है, पट्टी ज़रा खोल दो तो सब तो चूरा-चूरा एकदम बिखर जाएगा।
और पट्टी जानते हो कौनसी होती है?
कभी लालच की पट्टी होती है, कभी प्रतिष्ठा की पट्टी होती है। लालच की पट्टी ये होती है कि पति कहता है, ‘पत्नी को निकाल दिया तो देह की माँग की पूर्ति कैसे होगी?’ पत्नी कहती है, ‘पति को छोड़ दिया तो मेरा आर्थिक गुज़ारा कैसे चलेगा?’ बच्चे कहते हैं कि अगर बाप को छोड़ दिया तो पैसा किससे माँगेंगे।
कभी प्रतिष्ठा की बात होती है कि मामला तो पता है कि पूरा नर्क है पर अगर छोड़ दिया तो हमारे धंधे में बात फैल जाएगी और अपने धंधे में हम बड़े प्रतिष्ठित आदमी हैं, हमारा तो काम ही हमारी प्रतिष्ठा पर चलता है। वहाँ अगर लोगों को पता चल गया कि इनके तो घर में ही आग लगी हुई है तो धंधा ही चौपट हो जाना है। तो इन सब पट्टियों से हमने किसी तरीक़े से अपनी उजड़ी हालत को ढँक रखा है, बाँध रखा है, नहीं तो मामला तो उजड़ा हुआ है ही।
और आवश्यक नहीं है कि मामला उजड़ा हुआ रहे, मामला उजड़ा हुआ इसलिए है क्योंकि हम अपने घरों को अध्यात्म से दूर रखते हैं। अध्यात्म का मतलब समझते हो क्या होता है? अध्यात्म का मतलब होता है मन को जानो, माया को जानो, छल को जानो, झूठ और धोखे को जानो। सत्य तो कोई जानने की वस्तु होती नहीं न। सत्य तो जाना जा नहीं सकता न।
अध्यात्म का इतना ही मतलब होता है कि हर चीज़ जो रंगीन है, ख़ूबसूरत है या बदसूरत है और इस कारण महत्वपूर्ण लग रही है, उसके यथार्थ को उद्घाटित कर दो, खोल दो बिलकुल। बेवकूफ़ मत बने रहो भाई, इसी चीज़ का नाम अध्यात्म है। ख़ुद को धोखे में मत रखो, इस चीज़ का नाम अध्यात्म है।
अब अगर ख़ुद को धोखे में न रखने का नाम अध्यात्म है तो बताओ बिना अध्यात्म की गृहस्थी का क्या लक्षण होगा? उसमें ख़ूब धोखा चल रहा होगा। और चूँकि घरवाले कोई आध्यात्मिक हैं नहीं तो उन्हें पता भी नहीं चल रहा होगा कि यहाँ तो पूरा खेल ही धोखेबाज़ी का है। और धोखा वही नहीं होता जो हम दूसरों को देते हैं; बड़े-से-बड़ा धोखा वो होता है जो हम ख़ुद को देते हैं।
तो बिना अध्यात्म के गृहस्थी ऐसी ही होती है — धोखे का महल! बालू की बुनियाद पर घर बना लिया है, अब वो बात-बात पर कँपता है। उसमें तुम कैसे निष्कंटक सो लोगे? उसमें तुम कैसे बेफ़िक्र आनंद मना लोगे? बताओ। तुम्हें पता है कि बुनियाद ही बालू की है।
अध्यात्म गृहस्थी के ख़िलाफ़ कैसे हो सकता है; अध्यात्म मूर्खता के ख़िलाफ़ होता है भाई! अध्यात्म तो कहता है कि जो तुमसे बिलकुल अनजाने हैं, अपरिचित हैं, जिनका तुमको नाम भी नहीं पता, तुम उनके भी हित के लिए काम करो। तो अध्यात्म ये कैसे बोल देगा कि अपने बीवी-बच्चों का नुक़सान कर दो। बोल सकता है क्या? बोलो।
तो फिर ये क्यों डर लगता है कि आध्यात्मिक हो गये तो घर न टूट जाए? अध्यात्म तो टूटे हुए को जोड़ता है, आप क्यों डर रहे हो कि आपका घर तोड़ देगा? और वो भी तब जबकि आपको पता है अन्दर-ही-अन्दर कि घर तो पहले से ही टूटा हुआ है। ये ग़ज़ब बात हो गयी! टूटी हुई चीज़ टूट न जाए — इस डर से उस चीज़ को दूर रखे हो जो टूटी हुई चीज़ों को जोड़ती है। ये तो ग़ज़ब है!
अगर कभी सौभाग्य हो आपका तो किसी ऐसे घर में जाकर देखिए जहाँ लोग आध्यात्मिक हैं। फिर आपको ये भी पता चल जाएगा कि स्वर्ग किसको कहते हैं।
हमारे रिश्ते कोई रिश्ते होते हैं! आप सब तो समझदार लोग हैं, जानते ही हैं न रिश्ते कैसे बनते हैं, क्या बुनियाद होती है उनकी, क्या ताने-बाने बुने जाते हैं? नहीं जानते क्या? सब वयस्क हैं। उनमें कोई दम होता है? कोई भरोसे की चीज़ है? बात आगे बढ़ेगी? मन में, घर में शांति रहेगी?
आदमी जो ख़ुद को नहीं समझ रहा, वो अपनी पत्नी को कैसे समझ लेगा? और जब समझा नहीं तो नासमझी का ही तो रिश्ता बनाएगा। और जो नासमझी का रिश्ता है, उसका परिणाम ही होगा, उसका लक्षण ही होगा घोर दुख, महानर्क।
जो आदमी ख़ुद को नहीं समझता वो अपने लड़के-बच्चे को क्या समझेगा। समझ लेगा? अपने विषय में सर्वथा अनभिज्ञ, अज्ञानी, और चले हैं लड़के-बच्चों के भविष्य का निर्धारण करने!
‘ये मेरी लड़की है, इसका भविष्य ऐसा होना चाहिए। ये मेरा बेटा है, इसको मैं फ़लानी चीज़ की तरफ़ भेजूँगा।’ और ये साहब वो हैं जिन्हें अपने जीवन में ख़ुद के लिए कभी पता नहीं था कि किधर को जाना चाहिए और कहाँ नहीं जाना चाहिए।
जब अपने लिए कुछ नहीं पता तो अपने घरवालों के लिए कैसे पता चलेगा? बताओ। जिसको अपने ही जन्म का, अपनी ही मृत्यु का कुछ नहीं पता, जो जानता ही नहीं है कि जन्मना माने क्या, जो जानता ही नहीं है कि शरीर और मृत्यु का क्या सम्बन्ध है, वो जब औलादों को जन्म देगा तो बिलकुल अनभिज्ञता में देगा न। और इन औलादों का अब बताओ क्या भविष्य और क्या जीवन होने वाला है? बोलो।
जो न जन्म को जानता है न जीवन को जानता है, जब वो बाप बनता है या जब वो माँ बनती है तो वो अपने बच्चों का क्या पालन-पोषण करेगा, क्या उनको शिक्षा और संस्कार देगा? बताओ तो!
तो कैसा होगा वो घर? सोच के ही रोंगटे खड़े हो जाएँ। और बड़े खेद की बात है कि ज़्यादातर घर ऐसे ही होते हैं जहाँ आदमी मन और जीवन के विषय में सर्वथा अज्ञानी है। लेकिन ख़ूब रिश्ते बनाए हुए हैं और अपनी नज़र में उनको निभा भी रहा है।
नतीजा — दुख, दुख, और दुख। ये कोई दो विपरीत चीज़ें नहीं हैं जिनका आप किसी तरीक़े से एक सामंजस्य कराना चाहते हैं। अध्यात्म और गृहस्थी का समन्वय नहीं कराना पड़ता। अध्यात्म आवश्यक है गृहस्थी चलाने के लिए। ख़ुद भी जानिए, ख़ुद भी समझिए और जिनको अपना प्रिय कहते हैं, उन्हें भी जनाइए, उन्हें भी समझाइए।
और अध्यात्म, फिर कह रहा हूँ, न रीति-रिवाज़ का नाम है, न कर्मकाण्ड का नाम है, न परम्परा निभाने का नाम है, न तीर्थ यात्रा करने का नाम है, न पूजन-हवन का नाम है। अध्यात्म है जीवन के प्रति एक सच्ची जिज्ञासा का भाव। ये जिसको हम जीव कहते हैं, वो चीज़ क्या है? ये अध्यात्म का केंद्रीय प्रश्न है। ये जिसको हम जीव कहते हैं, जिसको हम कहते है न व्यक्ति चला आ रहा है, जीव; ये व्यक्ति क्या चीज़ है?
इतनी स्पष्टता आ रही है?
अध्यात्म क्या है? अध्यात्म ये सब नहीं है कि चाँद से पूर्णिमा की रात को कोई विशेष ऊर्जा निकलती है और अगर आप फ़लानी नदी पर फ़लानी जगह खड़े हो जाएँ तो आपके भीतर फिर कुछ ख़ास वाइब्रेशन होंगे।
ये बचकानी, मूर्खता की, अंधविश्वासी बातें, इस तरह की मूर्खताओं का अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। न अध्यात्म का इन सब चीज़ों से कोई सम्बन्ध है कि किस दिशा को मुँह करके कपड़े उतारने चाहिए, संडास जाने के लिए सही समय कौनसा होता है, पानी किस तरह से पीना चाहिए। ये सर्कसबाज़ी है, ये मनोरंजन है।
अध्यात्म का केन्द्रीय प्रश्न क्या है? फिर बताइए ताकि रट जाए एकदम। क्या है?
‘ये जिसको हम जीव कहते हैं, वो चीज क्या है?’ ये जिसको मैं कहती हूँ 'मैं', जिसको कहती हूँ कि डर गयी, वो कौन है? ये बाल क्या है? ये माथा क्या है? ये नाक क्या है? ये सब इंद्रियाँ क्या हैं? मामला क्या है, विचार क्या है? और फिर जब आत्मजिज्ञासा थोड़ी प्रौढ़ होती है, तो फिर पूछती है — आनंद क्या है? प्रेम क्या है? समर्पण क्या है? मुक्ति क्या है?
उतनी दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, अभी तो उन्हीं बातों के बारे में ज़रा ग़ौर करना शुरू करिए जो बिलकुल प्रत्यक्ष हैं, एकदम स्थूल हैं। ‘भूख क्या है? क्रोध क्या है? वासना क्या है? आकर्षण क्या है? नफ़रत क्या है? ये क्या हुआ मुझे जब मैंने बाज़ार की चका-चौंध देखी? ये क्या हुआ मुझे जब मेरे सामने नोटों की गड्डी रख दी गयी?
गंदगी दिख गयी, मैं अचानक चौंककर एक कदम पीछे क्यों हट गया? एक नाम सुनाई दिया, भीतर से एक तरह की प्रतिक्रिया क्यों उठी? दूसरा नाम सुनाई दिया, दूसरी क्यों प्रतिक्रिया उठी? एक गीत के बोल कान में पड़ते हैं और क्या बदल गया मेरे भीतर?’ ये अध्यात्म है।
बात समझ में आ रही है?
अब बताओ मुझे भाई कि ये अध्यात्म गृहस्थी के लिए घातक कैसे हो गया? कैसे हो गया? हम तो बड़े थर्राए रहते हैं।
चुन्नू की अम्मा रोते हुए पड़ोसन से शिक़ायत कर रही थी। बोली, ‘सब पता चल गया, आज सुन लिए हम।’ वो पूछी, ‘का सुन ली बहिनी?’ बोली, ‘रातभर उसी का नाम ले रहे थे। हम बिलकुल बगल में थे, एकदम ध्यान नहीं दिए। रातभर उसका नाम ले रहे थे। सब राज़ फ़ाश हो गया, पूरी बात खुल गयी।’ वो पूछी, ‘किसका नाम ले रहे थे?’ बोली, ‘राम-राम बोल रहे थे।’
इससे ज़्यादा दुखदायी क्या हो सकता है किसी सुहागन के लिए! पति उसके बगल में बैठकर, लेटकर शय्या पर रातभर क्या बोल रहा था? सोता जा रहा था और बुदबुदाता जा रहा था 'राम-राम'। कहीं के नहीं बचे, बर्बाद हो गये बिलकुल!
इतना ख़ौफ़ क्यों है अध्यात्म से? अध्यात्म तो बस पूछ रहा है कि ख़ौफ़ माने क्या? अध्यात्म तो पूछ रहा है कि डर क्यों जाते हो। डर क्या चीज़ है? विचार किसको कहते हैं? नींद में क्या होता है? जागृति किसको कहते हैं? जिसको तुम कहते हो ‘चेतना’, ये चेतना क्या वस्तु है?
ये सब सवाल तो बढ़िया सवाल हैं न! या भयानक सवाल हैं? ये जिज्ञासा करने में तो एक तरह का मज़ा भी है, रोमांच भी है, कि नहीं है? है न। तो इतना घबरा क्यों जाते हो? और फिर लजाए-लजाए से पूछोगे, ‘आचार्य जी, गृहस्थी के साथ-साथ अध्यात्म हो सकता है क्या?’
ये ऐसी सी बात है कि कोई पूछे, ‘आचार्य जी, वो गाड़ी तो हमारी बहुत अच्छी है पर सड़क पर चल सकती है क्या?’ अरे! सड़क पर नहीं चलेगी तो कहाँ चलेगी, तैराओगे? फुग्गे में बाँध दोगे, उड़ाओगे?
अध्यात्म इसीलिए है कि तुम्हारी गृहस्थी सुचारू रूप से चले। और जो गृहस्थ नहीं हैं, उनका एकाकीपन भी सुचारू रूप से चले। जो जहाँ है वो वहीं पर अपनी उच्चतम संभावना को प्राप्त करे, इसका नाम अध्यात्म है।
जो जहाँ है वो वहीं पर रोशन रहे, जो जिस राह चल रहा है वो उसी राह पर बिना लड़खड़ाए चले, इसी का नाम अध्यात्म है। अब आप शिविर उपरांत अपने-अपने घर जाएँगे। सब अलग-अलग अपने रास्ते से जाएँगे न।
समझ गये न अध्यात्म क्या है?
रास्ते तो सबके अलग-अलग होंगे। ज़्यादातर लोगों के रास्ते उनके घरों को ही जा रहे होंगे। अध्यात्म का मतलब है तुम अपने रास्ते को देख तो पाओ। जो भी लोग अपने घर जा रहे होंगे, क्या वो चाहेंगे कि अंधेरे में जाएँ? अंधेरा हो जाता है तो लाइट जला देते हो न गाड़ी की! कि रास्ता पता तो हो। ये पता तो हो कि ज़िंदगी कहाँ को जा रही है, कर क्या रहे हैं। इसका नाम है अध्यात्म।
जो नौकरी कर रहे हैं, उन्हें पता हो कि क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, किसके लिए कर रहे हैं, क्या पा रहे हैं, क्या गँवा रहे हैं। इसका नाम है अध्यात्म। जो पढ़ाई कर रहे हों, उनको पता हो क्यों पढ़ रहे हैं, क्या प्रेरणा है, क्या पाना चाहते हैं, डर क्या है, लालच क्या है। इसका नाम है अध्यात्म।
जो किसी की तरफ़ आकर्षित हो रहे हैं — धन, पद, प्रतिष्ठा, व्यक्ति — उनको पता हो कि ये जो खिंचाव है, ये चीज़ क्या है, कहाँ से उठता है, कहाँ को ले जाएगा। इसका नाम है अध्यात्म। जो कहता है, ‘मैं नास्तिक हूँ, मैं ईश्वर को नहीं मानता’, उसको पता हो कि वो किसको नहीं मान रहा। इसका नाम है अध्यात्म। और जो कहता है, ‘मैं आस्तिक हूँ, मैं ईश्वर को मानता हूँ, मैं मंदिर में पूजा करता हूँ’, उसको पता हो कि मंदिर माने क्या और मूर्ति माने क्या और पूजा माने क्या। इसका नाम है अध्यात्म।
तुम जो भी हो, जहाँ भी हो, तुम्हारा मन प्रकाशित रहे, तुम्हारी आँखें खुली रहें, तुम साफ़ देख पाओ कि तुम्हारा जीवन क्या है। इसका नाम है अध्यात्म।
अब बताइए, बिना अध्यात्म के चलानी है गृहस्थी?
प्र२ आचार्य जी, मेरे मन में जो भी सवाल उठते हैं उनके विषय में एक उत्तर हमेशा मेरे पास उपलब्ध होता है। जब शिविर में आपके समक्ष प्रश्न रखने के लिए कहा गया तो ये अवलोकन किया और पाया कि जो प्रश्न लिखना चाह रहा हूँ, उसका उत्तर मेरे पास पहले से ही मौजूद है, बस एक मंज़ूरी की माँग है कि कोई हो जो मेरे अंदर के उत्तर को प्रमाणित कर दे।
आचार्य जी, क्या ये रवैया सही है? क्या जो उत्तर मैं अपने अन्दर लेकर बैठा हुआ हूँ, वो सही है?
आचार्य तुम्हारी चीज़ है, तुम जानो। हमारा कोई लेना-देना नहीं। सवाल भी आपके, जवाब भी आपके।
मुझसे पूछ रहे हैं, ‘आचार्य जी, क्या मैं सही सोच रहा हूँ?’ और आचार्य जी जो जवाब देंगे वो भी सही है या ग़लत, इसका फैसला कौन करेगा? ख़ुद करेंगे। या तो उसे कह देंगे कि पूरा सही है, चलो गनीमत है। या कह देंगे पूरा ग़लत है। या कि और बड़ा गुल खिला सकते हैं, कहेंगे, ‘जो पाँच बातें बोलीं, इसमें दो सही हैं, तीन ग़लत हैं। ये दो हमको सही लगती हैं, ये हम रख लेंगे, बाक़ी तीन तो . . . बुढ़ा रहे हैं आचार्य जी, धोखा हो जाता है इनको बीच-बीच में, बहक गये थे जवाब देते वक़्त। दो बातें ठीक बोल गये, वो हमने रख ली हैं, वो हमें पहले से ही पता थीं वैसे।’
सवाल से ज़्यादा महत्वपूर्ण है सवाल पूछने वाला। और जवाब से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है जवाब देने वाला। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये जो भीतर बैठा है, वो इतना बेचैन हो कि वो ख़ुद से ही सवाल-जवाब का खेल खेलकर ख़ुद को ही बहलाता रहता है। जैसे अकेलेपन का मारा कोई विक्षिप्त, कोई मनोरोगी जो अपने साथ ही शतरंज खेलता हो।
देख सकते हो? यहाँ सामने शतरंज बिछाता है, इधर से चाल चलता है और फिर उठकर जाता है, उधर से चाल चलता है। जब उधर से चाल चलता है तो इधरवाले को धमकाता है, बोलता है, ‘बचेगा नहीं तू। शह और मात!’ और फिर इधर आता है, बोलता है, ‘तुम ही बड़े होशियार हो! अब हम दिखाते हैं क्या हो सकता है।’
और ये सब खेल-वेल कर फिर धीरे से आचार्य जी से पूछता है, ‘आचार्य जी, हम दोनों में से बेहतर कौन है?’
मुझे अपना सिर फुड़वाना है तुममें और तुममें कोई पक्ष लेकर के! ऐसे ही ठीक है।