प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसा कि आपने बताया कि गोवा में मई के महीने से बारिश शुरू हो जाती है लेकिन अभी जून महीने के अन्त तक यहाँ बारिश शुरू नहीं हुई है। तो मैं अपने जन्म स्थान में आयी हूँ जो कि कर्नाटक में है। मैंने वहाँ देखा कि बारिश की कमी और कुएँ में जल स्तर के न होने से लोग परेशान हैं।
इस समस्या के बीच तीन-चार जगहों पर मैंने लोगों में एक अहंकार देखा कि सरकार की ओर से नियम न होने पर भी बोलवेल का इस्तेमाल कर रहे हैं। भूजल के स्तर का कम होना ही कारण है कुएँ में पानी के न होने का लेकिन लोग नहीं समझ रहे और पृथ्वी का इस तरह बलात्कार कर रहे हैं। उन्हें सरकारी नियम के विरुद्ध अनुमति कैसे मिल जाती है?
आचार्य: लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र में नेता ही जनता है तो किससे परमिशन (सहमति) लेनी है? ख़ुद से ही तो लेनी है। (श्रोतागण हँसते हुए)
वो जो नेता है उसको वहाँ किसने खड़ा करा? वो आपकी ही छाया है यही तो वेदान्त है न, वो नेता नेता नहीं है आप जो हो वही नेता है क्योंकि अपने ही तो चुना है तो अगर नेता कुछ कर रहा है तो नेता कर ही नहीं रहा कौन कर रहा है? आप कर रहे हो। नेता क्या करेगा? नेता कुछ अच्छा कर देगा तो आप उसको गिरा दोगे नीचे। कोई नेता सचमुच अच्छे निर्णय लेने लगे लग जाए तो आपको दो दिन नहीं लगेगा सरकार पलटने में।
जो पूरी अभी आप जो कुछ भी होता हुआ देख रहे हो वह सीधे-सीधे अध्यात्म का अभाव है और उसका कोई और उपचार नहीं अध्यात्म के अलावा। जब इंसान के पास राम नहीं होते तो वो प्रकृति में खुशी तलाशता है और प्रकृति में खुशी तलाशने का मतलब है प्रकृति की बर्बादी। इतनी सी बात है कुल हमको भोगना है और ज़्यादा और ज़्यादा भोगना है और हम भोग के सब तरीकों में एक तरीका ये भी रखते हैं संतान! हमें बहुत सारी संतानें पैदा करनी है और हम ये नहीं समझते कि आप जो संतानें पैदा कर रहे हो वो एक व्यक्ति नहीं है, आगे वो भी और अभी पैदा करेगा वो आपने एक नहीं, कम-से-कम सात-आठ सौ लोग पैदा कर दिये हैं।
और वो सात-आठ सौ लोग भी एक हाइटेंड लेवल ऑफ़ कंजम्प्शन (खपत का उच्च स्तर) चाहते हैं। आप भोग के उस स्तर से सहमत हो क्या जो उन्नीस-सौ-सत्तर में था? हमें ज़्यादा भोगना है न और ज़्यादा और ज़्यादा भोगना है। तो पहले तो पर कैपिटा कंज़प्शन हमें बहुत हाई चाहिए, दूसरे हमें नम्बर ऑफ़ कंज़्यूमर्स भी बढ़ाने हैं तो क्या होगा?
और पिछले सत्र में किसी ने पूछा था कि प्रकृति तो बर्बाद होती नहीं, बात बिलकुल सही थी। आप प्रकृति को अधिक-से-अधिक थोड़ा बदल रहे हो, बर्बाद तो आप हो रहे हो दिक्क़त मुझे इसमें ये आती है कि गेहूँ के साथ घुन पिस रहा है। इंसान की मूर्खता और बत्तमिज़ी का खमियाजा पेड़-पौधे, नन्हें पशु, ये भुगत रहे हैं। अगर सिर्फ़ हमारी प्रजाति विलुप्त हो रही होती तो शायद ठीक भी था। इस प्रजाति के साथ होना भी यही चाहिए कि ये विनष्ट हो जाए।
लेकिन गेहूँ के साथ घुन पिस रहा है और इस चक्कर में हमारी ही प्रजाति के वो लोग जिन्होंने कोई अपराध नहीं करा है, वो भी बर्बाद हो रहे हैं। मुझे एक ऑटोइम्यून डिसऑर्डर है जो माहौल से भड़कता है और गर्मियाँ होती है जैसे ही सबकुछ प्रदूषण से भरने लगता है नवंबर के महीने में या फिर जब गर्मी होती है अप्रैल-मई के बाद से, मुझे काफ़ी तकलीफ़ शुरू हो जाती है और उसका मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ, मैंने कुछ भी नहीं करा है।
प्र: वही। वो लोग बोरवेल लेकर बाक़ी का जो कुएँ में जल ही नहीं रहेगा वो लोग किधर जाएँगे, वो सोचेंगे ही नहीं।
आचार्य: तो दूसरों का सोचने लग जाए वो स्वयं से मुक्त हो गया न। और जो जितना स्वयं से ही बँधा हुआ है वो दूसरे की कैसे सोच पाएगा? जिसमें अभी अज्ञान घना है वो किसी के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता। जो आत्म विचार नहीं करे, जिसका आत्मज्ञान शून्य है वो सबके लिए हिंसा का, दुर्भाग्य का कारण बनेगा।
ऐसे लोगों से बचिएगा जो आपको बहुत खुश-खुश दिखाई दे रहे हों, सफल दिखाई दे रहे हो जिनको आप हैप्पी गो लकी बोलते हैं या इस तरह के; जिनको कुछ आता जाता नहीं, अध्यात्म से बिलकुल खाली है लेकिन फिर भी जिनके चेहरे पर एक चमक है और हस खेल रहे हैं और सफल भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसे देखें हैं न? उनके सामने आप राम की बात करो तो आपको ही अटपटा सा लगता है।
आपको लगता है, ‘ये बन्दा तो एकदम मस्त है,मगन है कुछ नहीं है अभी चिकन फ्राई चबाएगा और एकदम खुश होगा और उसकी सेहत भी अच्छी है, चेहरा कैसा चमक रहा है, सांसारिक रूप से भी ठीक-ठाक ही है, बुद्धि भी इसकी शार्प (तेज़) है, दिमाग़ चलता है इसका।’ ऐसे लोग होते हैं न? ये बहुत ख़तरनाक लोग होते हैं बचिएगा इनसे क्योंकि यही लोग विज्ञापन होते हैं। राम से खाली जीवन जीने का विज्ञापन होते हैं ये लोग। इन्हीं को देखकर न जाने कितने और बच्चों को लगता है कि जीवन में राम नहीं है तो भी क्या हो गया।
लेकिन हमारी कुछ शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि बचपन में याद करिएगा आपकी क्लास में ऐसे लोग रहे होंगे तो वही क्लास के हीरो हो जाते थे। हो जाते थे कि नहीं? क्लास के हीरो पढ़ने-लिखने वाले बच्चे कम ही होते हैं, जिनको हम बोलते थे, ’क्लास की जान है’, ये कौन होते थे बच्चे? जो एकदम बेकार लेकिन टीचर की बातों पर जोक मार दिया पीछे से, सब हँस रहे, ‘हा हा हा…।’ प्रैंक्स खेल दिये। इनको हम कहते थे, ‘ये है क्लास की जान।’ यही वे है जिन्होंने आज पृथ्वी तबाह कर दी है।
आत्मज्ञान से शून्य लेकिन दिखने में बहुत आकर्षक, ये गड़बड़ होते हैं। इनसे ही बचना है और कुछ ऐसा खेल है प्रकृति का कि दिखने में ज़्यादा आकर्षक होते ही वही है जो आत्मज्ञान से खाली होते हैं, जो विचार से शून्य लोग होते हैं वो ज़्यादा आकर्षक दिखते हैं, पता नहीं। और जिसमें थोड़ी अन्तर्दृष्टि आ गयी, जो अपनी ओर देखने लगता है, थोड़ा विचारी हो जाता है वो बहुत आकर्षक नहीं रह जाता या वो कम लोगों के लिए आकर्षक रह जाता है।
तो ज़्यादातर रोल मॉडल (आदर्श) बनते हैं वो कैसे होते हैं? वो गड़बड़ लोग होते हैं जो रोल मॉडल बनते हैं। सारी दिक्क़त इसी की आती है। जिनको हम मूल्य दे देते हैं, जिनको बहुत बड़ी जगह दे देते हैं, जो एकदम हमारे सिर के ऊपर चढ़कर छा जाते हैं वो सब गड़बड़ लोग ही होते हैं। या सौ में से निन्यानवे गड़बड़ होते हैं ऐसे कह लो। और ये काम दो साल, चार साल की उम्र से शुरू हो जाता है, अन्त तक चलता है।