ऐसे देखो अपनी हस्ती का सच

Acharya Prashant

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ऐसे देखो अपनी हस्ती का सच
कह रहे हैं कि ये तुमने जो तमाम तरह की कहानियाँ गढ़ ली हैं, ये कहानियाँ तुम्हारे अंजन का ही विस्तार हैं, निरंजन की कोई कथा नहीं हो सकती। सारी समस्या तब होती है जब धर्म में कथाएँ घुस जाती हैं। जितनी तुमने किस्से बाज़ियाँ और कहानियाँ ये खड़ी की हैं, इन्होंने ही तुम्हारे धर्म को चौपट कर दिया है। श्रीराम को निरंजन ही रहने दो, श्रीकृष्ण को भी निरंजन ही रहने दो। जैसे ही तुमने गोपी संग गोविंद बना दिया, वैसे ही मामला अंजन का हो गया। गोविंद को गोविंद रहने दो, गोपियाँ मत लेकर के आओ। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: तो आगे कह रहे हैं,

अंजन ब्रह्मा, शंकर, इंद्र अंजन गोपी संग गोविंद

तुम अंजन को ही इतना श्रेष्ठ बना देते हो, अंजन कैसे टूटेगा? अंजन बस विस्तार लेता जाता है पूरे जीवन में, टूटता नहीं है।

क्या कहना चाह रहे हैं? जो बात वो कहना चाह रहे हैं, वो कमज़ोर दिल लोगों के लिए नहीं है। वो कह रहे हैं, ‘तुमने जिनको भी उच्च, श्रेष्ठ, दैवीय, पूजनीय, आराध्य बना दिया है, वो सब बस तुम्हारे अंजन की ही प्रतिकृति हैं।‘ “अंजन ब्रह्मा, शंकर, इंद्र, अंजन गोपी संग गोविंद।” अंजन ही हैं ये सब। तुम अपने ही अंजन को न जाने कितनी छवियाँ दे डालते हो इसीलिए तुम्हारा अंजन टूटता नहीं। जिस चीज़ को तुमने एक बहुत सुंदर, मधुर छवि दे दी और तुम खुद ही उस छवि से मोह में बँध गए, उस छवि को तुम स्वयं तोड़ोगे क्या कभी? तो बस हो गया। अंजन बस विस्तार लेता जाता है।

जो निरंजन है, जो न्यारा है उससे हम अछूते रहे-रहे मर जाते हैं। जीवन समाप्त हो जाता है।

समझ में आ रही है बात?

अ-उ-म् ये तो रहता है। मौन, तुरीय, आत्मा, सत्य, आकाश, इसमें हमारा कभी प्रवेश नहीं हो पाता, अंजन ही विस्तार लेता जाता है। जैसे पैदा हुए थे, वैसे ही मर जाते हैं। बस आकार बढ़ जाता है। इतने से पैदा हुए थे, मर रहे हैं छः फुट के होकर। आकार बढ़ गया है, हैं बिल्कुल वही। एकदम भी कुछ नहीं बदला।

नाल लगी हुई है, उससे पोषण मिल रहा है। ज़्यादातर लोगों की क्या यही ख्वाहिश नहीं होती? हाथ-पाँव भी न चलाना पड़े। बच्चा होता है, उसको हाथ-पाँव भी हिलाना पड़ता है क्या? कुछ नहीं करना पड़ता। नाल लगी हुई है, खाना आ रहा है। ज़्यादातर लोग बहुत खुश रहते हैं, बाप का पैसा हो और मौज मार लें। सरकारी नौकरी वही तो है, कि नाल लगी हुई है, आ रहा है। कुछ नहीं करना पड़ रहा है, पड़े हुए हैं बस।

अब समझ में आ रहा है कि हमें ये चीज़ें इतनी क्यों पसंद हैं, मुफ़्तखोरी? क्योंकि वो हमने गर्भ में की हुई है। उसके लिए कुछ नहीं करना होता। बस अपना सिर नीचे को करना होता है। टाँग ऊपर है, सिर नीचे है; इतना कर लो, जगत में मुफ़्त का मिलता है खाने को। सिर झुकाने को तैयार हो जाओ। वो गर्भ में जो होता है, उसका सिर किधर को होता है? आकाश की ओर होता है क्या? नीचे की ओर। बस उसको सब मुफ़्त में मिलता है। वो जो पैदा भी होता है, बोलता है, ‘बड़ा बढ़िया था अंजन। इसी अंजन का विस्तार दे दो भाई।‘ जैसे गर्भ में मस्त अपना खाने को मिल रहा था, कुछ नहीं करना। कहाँ जाना है? माँ देखेगी। कैसे कमाना है? माँ देखेगी। हँसना, सोना, सब माँ देखेगी। जब वो गर्भ में पड़ा हुआ है, उसे अपनी साफ़-सफ़ाई भी करनी पड़ रही है क्या? माँ देखेगी।

(संस्था के एक सदस्य को सम्बोधित करते हुए) अभी मेरे कमरे में आए। अच्छे उद्देश्य के लिए आए। चार चीज़ें इधर-उधर रख गए न? टेबल देखो! याद करो, कहाँ छोड़कर गए हो? कहाँ रखी थी छोटी वाली टेबल, उसको कहाँ रख दिया? क्योंकि गर्भ में जो शिशु होता है, वो कोई सफ़ाई नहीं करता। सोचो, अगर उसके शरीर में चीज़ जा रही है, तो शौच वगैरह का कौन प्रबंध कर रहा है? माँ। हम गर्भ से बाहर ही नहीं आए, ‘मैं गंदगी फैला जाऊँगा, आगे का काम माँ देखेगी।’

अब माँ ज़रूरी थोड़े ही है स्त्री हो, पुरुष भी माँ हो सकता है। तो न शादी न ब्याह; पच्चीसों के पापा भी नहीं, मम्मी बनकर घूम रहे हैं! कोई दिन नहीं होता कि मेरे कमरे में घुसे और दस चीज़ें इधर-से-उधर करके न चले जाएँ। वो अभी भी वैसा ही है। उसको अभी भी मैं ही ठीक करूँगा।

समझ में आ रही है बात?

तुम उसकी सोचो, वो जो पेट में है। खाना भी नहीं खाना। ये भी नहीं कि उसका खाना किसी और ने दे दिया। दे भी नहीं दिया, खाना बिल्कुल एक यंत्रवत तरीके से उसमें पहुँच रहा है। मस्त पड़ा हुआ है, मुँह भी नहीं चलाना उसको। साँस लेता है? साँस भी नहीं लेनी है। यही मौज तो हमको चाहिए। इसीलिए फिर हमसे न ज्ञानयोग सधता, न कर्मयोग सधता। “अंजन माँगे सब विस्तार।” हमारी पूरी ज़िंदगी बस उसी अंजन, उसी कालिमा का विस्तार बन जाती है।

समझ रहे हो बात को?

और ये भी समझ रहे हो कि क्यों हमारी ये बड़ी भावना रहती है कि बाहर से कोई भगवान आएगा और हमारे लिए सबकुछ कर जाएगा। सारे सूत्र गर्भ में छुपे हुए हैं। क्योंकि जब आप पेट में होते हो या पैदा होने के भी छः महीने, साल भर बाद तक एक भगवान होता है आपके जीवन में। कौन? माँ। उसने सब कुछ कर दिया न। तो वो फिर आग्रह, वो भावना, वो इच्छा जीवन भर बनी रहती है। कोई और आए, सब कुछ कर जाए। टट्टी भी कर दी, तो वो भी हम अपनी खुद न साफ़ करें, कोई और आकर साफ़ कर जाए।

तो फिर हम वही करते रहते हैं। हम जीवन भर गंदगी फैलाते हैं। और एक माँ है जो आकर पीछे से साफ़ करती रहती है। हाँ! भाषा हम थोड़ी सी अपनी सौम्य में कर लेते हैं तो हम ये नहीं कहते हैं कि टट्टी फैला दी, फिर हम कहते हैं रायता फैला दिया। कल से फैला हुआ है न संस्था में! ये वही चल रहा है। वो भी गर्भ से ही बाहर नहीं आ पा रहे। वो छोटू ही हैं अभी। फैला दो, खूब फैला दो। उसके बाद माँ आएगी और रायता साफ़ करेगी। तब तक खूब फैलाओ, जितना फैला सकते हो।

छोटे बच्चे की किसी ने परिभाषा दी है, आप लोग कम्युनिटी पर लिखिएगा — ’जस्ट द ऐलिमेंटरी कैनाल विद नो रिस्पाॅन्सिबिलिटी एट आइदर एंड’ (मात्र एक आहार नाल जिसका किसी भी सिरे पर कोई उत्तरदायित्व नहीं होता)।

ऐलिमेंटरी कैनाल किसको बोलते हैं? ये जो यहाँ से (मुँह से) शुरू होता है और गुदाद्वार पर खत्म होता है, फ़्रॉम द माउथ टिल द ऐनस। बोल रहे हैं, ‘एक छोटा बच्चा कुछ भी नहीं होता, सिर्फ़ एलिमेंटरी कैनाल होता है।‘ कोई चेतना नहीं होती उसके पास। यहाँ से लेकर गुदाद्वार तक, बस वो यही होता है विद नो रिस्पाॅन्सिबिलिटी एट आइदर एंड। न तो वो अपने खाने की रिस्पाॅन्सिबिलिटी रखता, न हगने की। रिस्पाॅन्सिबिलिटी उसकी किसी चीज़ की नहीं है। और ज़्यादातर लोगों के लिए यही एक ड्रीम लाइफ़ है। है कि नहीं, बोलो? “अंजन माँगे सब विस्तार।”

कोई ही कोई होता है जो माँ के गर्भ से सचमुच बाहर आ पाता है। उसी को फिर कहते हैं मुक्त पुरुष। मुक्ति वास्तव में गर्भ से ही मुक्ति है। नहीं तो बाकी सब गर्भ में ही पैदा होते हैं और गर्भ में ही मर जाते हैं।

समझ में आ रही है बात ये?

कृपया इंतज़ार करें, आप अभी प्रतीक्षा में हैं। आप कतार में हैं। आप अभी पैदा नहीं हुए हैं। मम्मी घूम रही हैं। पूछ रहे हैं, ‘कौन-सा महीना चल रहा है?’ उन्होंने गणित लगाया, बोलीं, ‘चालीस गुणा बारह।’ बोलीं, ‘करीब पाँच-सौवाँ महीना चल रहा है। वो पैदा ही होने को नहीं मान रहा। मुझसे पूछो न, पाँच-सौ महीने हो गए, वो पैदा नहीं होना चाहता अभी।’ कह रहा है, ‘बाहर काहे को आएँ अभी? यहीं इतनी मौज है। हम पागल हैं कि बाहर आएँगे! मौजा-ही-मौजा है भीतर। कुछ नहीं करना।’ टैक्स देना है भीतर? नहीं देना। कुछ नहीं करना। बढ़िया अपना एक कैप्टिव स्विमिंग पूल है, प्लंज पूल (तैरने का तालाब) और उसमें दिन-रात तैरता है। मौज है!

आ रही है बात समझ में?

अंजन माँगे सब विस्तार

कौन नहीं खुश हो जाता उसको मुफ़्त के पैसे मिल जाएँ तो! जो मुफ़्त का पैसा पाकर खुश होने की जगह उदासीन हो जाए, उसको मुक्त पुरुष बोलते हैं। जिसको मुफ़्त का जीवन, परतंत्रता का जीवन, पराश्रित जीवन थप्पड़ की तरह लगे, उसको मुक्त पुरुष बोलते हैं।

‘क्या हुआ? तबियत क्यों खराब है?’

‘ज़्यादा खा लिए।’

‘क्यों?’

‘कल पार्टी में गए थे।’

‘तो?’

‘मुफ़्त का था।’

ये अभी पैदा नहीं हुए हैं। और ये कहानी क्या सिर्फ़ झुन्नूलाल की है? जहाँ पर सत्तर तरीके की चीज़ें उपलब्ध हों मुफ़्त खाने के लिए, बुफे लगा हुआ हो वहाँ ओवरइटिंग करते हो कि नहीं करते हो? ‘ये भी है, ये भी है, ये भी है।’ अच्छा, जितना खा लिया क्योंकि मुफ़्त का था, मुफ़्त का न होता तो क्या उतना ही खाते?

तो बस ये गर्भ का मामला चल रहा है अभी। पैदा नहीं हुए हो। रिश्वतखोरी क्या है? यही है। वो कोई व्यवस्थात्मक समस्या नहीं है। वो कोई सामाजिक समस्या भी नहीं है। वो वास्तव में मनोवैज्ञानिक समस्या भी नहीं है। वो एक आध्यात्मिक समस्या है। उस व्यक्ति को अध्यात्म की ज़रूरत है। जब तक नहीं मिलेगा तब तक यही कहेगा, ‘मुझे कुछ करना न पड़े। और इधर से, उधर से खूब सारी गड्डियाँ मिलती रहें।’ मुनाफ़ाखोरी, चोरबाज़ारी, ये सब क्या हैं?

सारा जो देहभाव है, वो क्या है? मैं देह हूँ। और जब आप देह हो तो दूसरी देह से रिश्ता निश्चित रूप से कैसा होगा? शोषण का। ये जो छोटा बालक होता है, इसमें कोई चेतना तो होती नहीं। जब चेतना नहीं तो प्रेम भी नहीं हो सकता। तो छोटे बच्चे हिंसक भी होते हैं। बस ये है कि कोई ताकत नहीं है, तो उनकी हिंसा बहुत रंग नहीं दिखा पाती। नहीं तो हिंसक भी होते हैं।

माँ दिन भर मेहनत करके सोई हो, मान लो माँ काम करती है, कुछ करती है। ये सोचेगा क्या कि माँ ने दिन भर मेहनत की है? वो रात में दो बजे उसको जगा देगा, ‘मुझे दूध चाहिए।’ फिर तीन बजे जगा देगा कि मैंने नैपी गीली कर दी है। फिर चार बजे जगा देगा, अब दूध पिया था तो पॉटी कर दी है। ये हिंसा नहीं है? ‘मेरा स्वार्थ है न! मुझे दूध चाहिए, तो तुम जगो।’ ये तो अच्छी सी बात है कि उसके पास मसूड़े होते हैं पर दाँत नहीं होता, नहीं तो माँ के शरीर को क्षति भी पहुँचाएगा। ये विकासवाद ने, प्रकृति ने व्यवस्था अच्छी की है कि उसको मसूड़े दिये जाते हैं, दाँत नहीं दिया जाता। नहीं तो सोचो, दूध की वो जितनी ललक में रहता है, माँ के शरीर से तो खून निकाल देगा वो, ये हिंसा है।

वही हिंसा आगे चलकर के पूरा जीवन बन जाती है। लोग कहते हैं कि दाँत अभी उसे इसीलिए नहीं चाहिए क्योंकि अभी वो सॉलिड फ़ूड नहीं लेता, बात थोड़ी सी और भी है। दाँत अभी उसके होने भी नहीं चाहिए, नहीं तो माँ के लिए बड़ा बुरा हो जाएगा। हिंसा!

“अंजन माँगे सब विस्तार।”

और फिर यही सबकुछ जो तमाम तरह की हमारी परनिर्भरताएँ होती हैं, इनको ही हम दैवीयता का नाम दे देते हैं। एक भगवान जी हैं, वो हमारी रक्षा करेंगे। तो फिर “अंजन ब्रह्मा, शंकर, इंद्र, अंजन गोपी संग गोविंद।” ये भगवान जी हमारी रक्षा करेंगे। आशय बस ये है कि मुझे खुद कुछ नहीं करना पड़ेगा। तो मुझे अपना स्वरूप न जानना पड़े, इसके लिए मैं बोल दूँगा, ‘मैं तो वो हूँ जिसे ब्रह्मा ने रचा था।‘ बस। मैं जितने-जितने काम करता हूँ अपने, उनको मैं अपने अवतारों की लीलाएँ बता दूँगा। क्योंकि वो काम मेरे हैं और मैं अपने काम को कैसे कह दूँ कि निकृष्ट हैं, तो मैं उन्हीं कामों को थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर कह दूँगा कि मेरे अवतारों ने भी तो यही काम किए हैं।

फिर पूछा जाए कि तुम ये काम क्यों कर रहे हो, तो मैं दलील दूँगा क्योंकि मेरे अवतारों ने भी किए हैं। अरे! तुम्हारे अवतारों से भी तुमने ही कराए हैं। पूछो, ‘माँस क्यों खाते हो?’ बोले, ‘हमारे पुराने महापुरुष भी खाते थे इसीलिए खाएँगे।‘

समझ में आ रही है बात?

हम अपने ही अहंकार को दैवीयता की छवि देकर खड़ा कर देते हैं। अब बताओ अहंकार टूटेगा कैसे?

तो कबीर साहब एक तरफ़ श्रीराम को रख रहे हैं और एक तरफ़ ब्रह्मा, इंद्र ये सब रखकर के कह रहे हैं कि अंतर समझो। बात ये नहीं है कि वो कह रहे हैं कि एक देवता या एक अवतार दूसरे से श्रेष्ठ हैं, कि श्रीराम श्रीकृष्ण से श्रेष्ठ हैं। नहीं, ये नहीं कह रहे हैं, वो कुछ और कह रहे हैं। वो कह रहे हैं कि जो देवत्व निरंजन का प्रतिनिधि हो, वो तो प्यारा है और न्यारा है। लेकिन जो देवत्व तुम्हारे अंजन की ही प्रतिछवि हो, उससे बचना।

इसीलिए उन्होंने कहा, ‘राम भी चार होते हैं।’ उन्होंने कहा कि उस राम के पास जाना जो निरंजन हैं। वो नाम जो तुम्हारी ही छाया है, जो तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब है, वो तुम्हें बहुत विशेष लाभ नहीं दे पाएँगे, ये रोचक बात है न? ऐसा नहीं है कि आप सब जिन नामों को आराध्य मानते हैं, संत उन सब नामों को खारिज किये दे रहे हैं। नहीं, नहीं, सब नामों को कहाँ खारिज कर रहे हैं! वो तो स्वयं कह रहे हैं, “राम निरंजन न्यारा रे।”

लेकिन कह रहे हैं कि ये तुमने जो तमाम तरह की कहानियाँ गढ़ ली हैं, ये कहानियाँ तुम्हारे अंजन का ही विस्तार हैं, निरंजन की कोई कथा नहीं हो सकती। सारी समस्या तब होती है जब धर्म में कथाएँ घुस जाती हैं। जितनी तुमने किस्से बाज़ियाँ और कहानियाँ ये खड़ी की हैं, इन्होंने ही तुम्हारे धर्म को चौपट कर दिया है। श्रीराम को निरंजन ही रहने दो, श्रीकृष्ण को भी निरंजन ही रहने दो। जैसे ही तुमने गोपी संग गोविंद बना दिया, वैसे ही मामला अंजन का हो गया। गोविंद को गोविंद रहने दो, गोपियाँ मत लेकर के आओ। मैं नहीं कह रहा हूँ, नाराज़ मत हो जाइएगा, संत-शिरोमणि कह रहे हैं।

समझ में आ रही है बात?

यूँही यहाँ पर नहीं जोड़ दिया है गोपी, कोई वजह है। भारत के अधिकांश लोग श्रीकृष्ण को गीता से नहीं, गोपी से जानते हैं। ये बहुत भारी समस्या हो गई है। उनसे बोलो जैसे ही श्रीकृष्ण, वो गोपी का नाम लेना शुरू कर देंगे। और अब तो और फैल रहा है — ‘गोपी, गोपी।’ और समझाने वाले तब से समझा रहे हैं कि ये अंजन है भाई! गोविंद के साथ गोपी को जोड़ देना, ये अंजन वाली बात है। बचो, गलत है।

समझ में आ रही है बात?

चार श्रीराम हैं। आप चौथे श्रीराम का वरण करें। श्रीकृष्ण भी कई हैं, आप गीता के श्रीकृष्ण का वरण करें। गोपी के श्रीकृष्ण को कथा में ही रहने दें। गर्भ का तिलिस्म टूटे, अंजन की ज़ंजीरें टूटें, उसके लिए बहुत ज़रूरी है कि अंजन को आपने जो सुंदर, अलंकृत, दैवीय, शोभनीय, पूजनीय नाम दे दिए हैं, उन नामों से आपका मन थोड़ा हटे। जब तक आप अंजन की ही पूजा करते रहोगे अपने मंदिरों में, तब तक आप निरंजन राम को कैसे पूजोगे?

हम क्या कर रहे हैं? हम अपने देवताओं की कथाएँ बनाएँगे। उनमें उनके बड़े-बड़े महल होंगे सोने के। सच बताना, सोने का महल क्या सचमुच किसी मुक्त चेतना को चाहिए होगा? सोने का महल किसको चाहिए होता है? हमें चाहिए होता है। हमने अपने लालच को अपने देवताओं की कथा बना दिया। बनाया कि नहीं बनाया?

और हम बताएँगे, ‘बहुत सुंदर पत्नी है उनकी।‘ ये बहुत सुंदर पत्नी किसको चाहिए होती है? किसी मुक्त चेतना को तो चाहिए नहीं। किसी साधारण पुरुष को चाहिए होती है। लेकिन वो सब बातें आपने उठाकर के दैवीयता पर भी आरोपित कर दीं। अंजन को ही आपने जैसे निरंजन का नाम दे दिया। अब बताओ, राम निरंजन न्यारा रे, कैसे पाओगे?

और जाइए न आप उन सब कहानियों में, उन सब कहानियों में आप वही सब कुछ पाएँगे जो आपके जीवन में है, बस थोड़ा और विस्तृत। तो बताइए आपको कैसा लाभ होगा? कोई दुश्मन हो जाए उससे बदला आप भी लेते हो। आपकी कहानियों में भी बदले लिए जा रहे हैं। आज कोई फ़िल्म बनती है, उसको एडल्ट सर्टिफ़िकेट मिल जाता है अगर उसमें रक्तपात बहुत हो। होता है न?

पर हमने अपनी देवता की कहानियाँ भी कैसी बनाई हैं? और हमने माने बस हिन्दू नहीं, ये पूरी दुनिया में हुआ है, सब धर्मों में हुआ है कि जिसमें जो मॉन्स्टर है, असुर है या राक्षस है या बुरा आदमी है, शैतान का प्रतिनिधि है, उसको देखा है कैसे टुकड़े-टुकड़े करके मारा जाता है? उसमें और एनिमल मूवी में अंतर क्या हुआ, बताओ?

और यहाँ पर जब रक्तपात होता है, तो हम कहते हैं, ‘छी-छी, सो बार्बरिक (इतना क्रूर)।’ बोलते हो कि नहीं? सच ग्राफ़िक ब्लडशैड (ऐसा चित्रात्मक रक्तपात)! बोलते हो कि नहीं? पर हमारी तो सारी दैवीय कहानियों में ऐसी ही ब्लडशैड हैं। पहले एक हाथ काटा, उस हाथ से खून की नदियाँ बहीं। फिर ये काटा, फिर वो काटा। है कि नहीं है?

तो हमने अपनी ही रक्त-पिपासा को दैवीयता की कथा बना डाला। छोटा बच्चा वीडियो गेम खेल रहा हो जिसमें वाॅयलेंस (हिंसा) हो, तो हम कहेंगे, ‘अरे! नहीं, इससे इसके दिमाग पर गलत असर पड़ेगा।‘ पर अगर वो धार्मिक कहानियाँ पढ़ रहा है जिनमें बराबर का वॉयलेंस है, तब? बोलो? बात-बात पर किसी का सिर कट रहा है, किसी की टाँगे कट रही हैं, किसी की नाक कट रही है, किसी की जीभ कट रही है, गला कट रहा है ये सब हैं और धार्मिक कहानियों में हैं, तब?

तो इसीलिए संत-शिरोमणि हमें समझा रहे हैं कि हमारा अंजन ही विस्तार ले लेता है।

अंजन ब्रह्मा, शंकर, इंद्र, अंजन गोपी संग गोविंद राम निरंजन न्यारा रे

न्यारा हमारा आराध्य है। “राम ब्रह्म परमारथ रूपा।“ वो राम हमारे हृदय में वास करता है, उस राम से हमें प्रीत है, उसी को नमन है। “निर्गुण-सगुण दोऊ से न्यारा, कहें कबीर सो राम हमारा।“

बात समझ में आ रही है?

धर्म ऊँची-से-ऊँची मुक्ति भी दे सकता है लेकिन धर्म स्वयं बंधन का सबसे बड़ा कारण भी है। और ज़्यादातर लोगों के लिए धर्म मुक्तिप्रद नहीं होता। ज़्यादातर लोगों के लिए धर्म बंधन का ही सबसे बड़ा कारण है। हम इतना अपमान करते हैं दैवीयता का। हम ऐसे कहेंगे, ‘और फिर इसने ऐसा कहा, उसने ऐसा कहा।‘ जो हमारे अवतारी पुरुष होते हैं, महापुरुष होते हैं, जो दैवीयता के हमारे उच्चतम प्रतिमान होते हैं, उनके मुँह से बातें कहलवाते हैं जैसे वो शरीरी हों। तो एक ओर निर्वाण-षटकम् के शिव हैं, या ऋभुगीता के शिव हैं। और दूसरी ओर इतनी जो कहानियाँ चल रही हैं जिसमें से आधी तो किसी पुराण में भी न पाई जाएँ।

आप निर्वाण-षटकम् पढ़ें, वहाँ जब आचार्य शंकर कहते हैं ‘शिवोहम्’, तो क्या कह रहे हैं? ‘मैं वो हूँ जो न पंचभूत, न पंचधातु से संबंध रखता है। जिसकी कोई जाति नहीं है, जिसका कोई आश्रम नहीं है, जिसका कोई वर्ण नहीं है। जब मैं ये सब कुछ भी नहीं हूँ जो सांसारिक सब प्रपंच होता है, जिससे सब मेरा कोई लेना-देना नहीं है, तब मैं कौन हूँ? तब मैं शिव हूँ — शिवोहम्।’

और हमने अपने शंकर भगवान को क्या बना दिया? पूरा संसारी बना दिया। और वहाँ आचार्य शंकर कह रहे हैं, ‘जिनका संसार से ज़रा भी लेना-देना नहीं।’ जिनकी देह हो ही नहीं सकती, वो हैं शिव।‘

और एक-से-एक कहानियाँ चल रही हैं और टीवी सीरियल्स आ रहे हैं। उसमें ऐसा लगता है जैसे कि बस नाम देवताओं का है और अवतारों का है, वरना कहानी घर-घर की। वही काम जो झुन्नूलाल और धनिया कर रहे होते हैं और बीच में नुन्नू कूद रहा होता है, पति-पत्नी और बच्चा। वही काम हम अपने सब देवी-देवताओं को करता दिखा देते हैं, बस थोड़ा विस्तृत रूप में, थोड़ा अलंकृत रूप में। तो बताओ, उससे हमें कोई आध्यात्मिक लाभ कैसे होगा? वो तो वही है न फिर, उनके घर की कहानी जैसे हमारे घर की कहानी।

जो निरंजन है, वही पूजनीय है — “राम निरंजन न्यारा रे।”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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