ऐसा ध्यान करना व्यर्थ जाएगा

Acharya Prashant

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ऐसा ध्यान करना व्यर्थ जाएगा

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप अपनी किताब में कहते हैं कि ध्यान की विधियों से कुछ नहीं होगा, लेकिन क्या कुछ देर बैठ कर अपने विचारों को देखना सही नहीं है? क्या इससे कुछ पलों का चैन नहीं मिलेगा?

आचार्य प्रशांत: सटीक उदाहरण नहीं दे रहा हूँ पर इशारा समझना। चुपचाप बैठकर अपने विचारों को देखने की कोशिश वैसी ही है जैसे कोई ठहर कर अपनी दौड़ को देखने की कोशिश करे। अगर तुम्हें अपनी दौड़ को देखना है तो कब देखोगे? जब तुम ठहरे हुए हो या जब तुम दौड़ रहे हो? जब दौड़ रहे हो।

तुम कहते हो कि मैं ध्यान के लिए बैठ गया। अब तुम अपने उस रूप को देख ही नहीं पाओगे जो दौड़ रहा होता है। क्योंकि अब तो तुमने अपने-आप पर ही एक आचरण लाद दिया है न? तुमने अपने-आप को घोषित कर दिया है कि फिलहाल मैं क्या कर रहा हूँ? फ़िलहाल तो मैं ठहरा हुआ हूँ, फ़िलहाल तो मैं ध्यान कर रहा हूँ और इस वक़्त मुझे इधर-उधर के सत्य विरुद्ध, धर्म विरुद्ध, शील विरुद्ध विचार आने नहीं देने हैं। तो जैसे ही तुम ध्यान करने बैठे, तुम जो हो वो कहीं जाकर छुप जाता है। मर नहीं जाता, विलुप्त नहीं हो जाता लेकिन छुप ज़रूर जाता है।

तो जिसे तुम ध्यान कहते हो, उस वक़्त तुम जिसे देखोगे भी वो तुम नहीं होओगे। वो तुम्हारा एक परिष्कृत, कृत्रिम रूप से परिष्कृत संस्करण होगा। अपने-आप को देखना हो तो तब देखो न जब तुम जी रहे हो। और जीने से मेरा अर्थ है वैसे जीना जैसे तुम अधिकांश समय जीते ही हो।

कोई कहे कि मुझमें भक्ति कितनी है ये सिर्फ़ उस वक़्त देखो जब मैं मंदिर में खड़ा हूँ नमित होकर के, तो इस देखने के परिणाम सही आएँगे या झूठे? अगर ये पता ही करना है कि धार्मिकता कितनी है तुममें और सत्यनिष्ठा कितनी है तुममें तो तुम्हें तब देखा जाए जब तुम तय करके मंदिर में आकर खड़े हो गए हो कि साहब आधा घंटा मंदिर में गुज़ारना है या दिन के बाकी साढ़े-तेईस घंटों में देखा जाए?

प्र: बाकी तेईस घण्टों में।

आचार्य: जब तुम ध्यान के लिए बैठते हो तब तुम क्या देख पाओगे विचारों को! विचार ही बदल गए। तुम कह रहे हो, ‘मैं ध्यान के लिए बैठकर अपने विचारों को देखना चाहता हूँ।’ जैसे ही तुम ध्यान के लिए बैठे, तुमने विचारों से क्या कह दिया? ‘मैं अभी ध्यान कर रहा हूँ। तो अभी विचार आएँ भी तो कौन से आएँ? मर्यादा अनुकूल आएँ, शुद्ध विचार आएँ।’ अब तुमने देख लिए और तुम्हें क्या दिखाई दिया? ‘मैं तो बहुत साफ़ हूँ, मैं तो बहुत शुद्ध हूँ।’

बात समझ में आ रही है?

ध्यान में बैठना वैसे ही है कि घर में मेहमान आ रहे हैं तो सारा कचरा ले जाकर के पीछे वाले कमरे में डाल दो। मेहमान तो दो घंटे में चले जाएँगे, कचरा फिर वहीं आ जाएगा जहाँ उसे होना है। मेहमानों ने क्या देखा?

प्र: साफ़ घर।

आचार्य: तुम भी ध्यान में वैसे ही देखते हो अपने-आप को। जैसे मेहमान तुम्हारा घर देखते हैं, 'कृत्रिम रूप से साफ़', वैसे ही तुम अपने-आप को ध्यान में देखते हो, कृत्रिम रूप से साफ़। तुम्हें अपने काम की, अपनी वासना की, अपने भय की, अपने क्रोध की गहराई का कब पता चलेगा? जब तुम ध्यान में रत हो या जब तुम लालच में, तृष्णा में, धोखे में, भय और भ्रम में रत हो? कब पता चलेगा?

नहा-धो कर ध्यान करने बैठे हो। इस वक़्त तुम्हें अपना वो रूप थोड़े ही दिखाई देगा जो बाज़ार में होता है या बिस्तर पर होता है। अभी तो धूप जल रही है, स्नान किया हुआ है, भोर की किरणें हैं, विधिवत आसन है, मंत्रोच्चार भी हो सकता है, सामने देव प्रतिमा भी हो सकती हैं। अभी विचार आएगा भी तो कैसा आएगा? "ॐ शांति, शांति, शांति। सब ठीक है।"

कैमरे में एक होता है 'स्पोर्ट्स मोड '। वो होता ही इसीलिए है कि जब गतिविधि हो रही हो, तो उसको पकड़ ले। 'खट-खट-खट-खट'। तब पता चलेगा न कि क्या कर रहे थे। ऐसा थोड़े ही कि ये केशव (एक श्रोता) रैकेट लेकर खड़ा हो गया और ये इसने ऐसे बना लिया है कि बस मार ही रहा है। और फिर तुमने इसकी फ़ोटो ले ली। तुमने कहा, ‘देखो हमने देखा।’ ये तुमने क्या देखा?

ये तो तुमने उसे पहले खड़ा किया और फिर देखा। तुमने तथ्य थोड़े ही देखा, तुमने वही देखा जो तुम देखना चाहते थे। तुम्हीं ने पहले उसे खड़ा किया, क्योंकि तुम्हारा कैमरा स्पोर्ट्स मोड पर है ही नहीं। वास्तविक स्पोर्ट्स जब चल रहे हों और तुम्हारा कैमरा ना हो स्पोर्ट्स मोड पर, एक्शन मोड पर और तुम फ़ोटो खींचो तो वो कैसी आएगी? धुँधली आएगी, ब्लर्ड आएगी। चूँकि तुम्हारा कैमरा ग़लत मोड में लगा हुआ है तो तुम उसकी भरपाई कैसे करते हो?

प्र: वैसी स्थिति बना करके।

आचार्य: हाँ, कि केशव खड़ा हो जा, अब ऐसे बन। अब जैसा तुमने उसे बनाया, वैसा वो बन गया। फिर कहते हो, ‘हमने देखा।’ अरे, तुमने क्या देखा? जो तुमने बनाया वही तुमने देखा। तुमने नया क्या देखा? वास्तविक क्या देखा? ध्यान का मतलब होता है कि अब सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बदलाव को, त्वरित-से-त्वरित बदलाव को, बिजली सी कौंधती घटनाओं को भी मन पकड़ लेता है। स्पोर्ट्स मोड का यही मतलब होता है।

जल्दी से हाथ चल रहा है तो भी प्रत्येक बदलाव को पकड़ लूँगा। सब देख लूँगा क्या हुआ। इसी को ध्यान कहते हैं। ध्यान है मन के कैमरे का स्पोर्ट्स मोड में होना। बहुत तेज़ कुछ बदल रहा है उसमें भी प्रत्येक क्षण, प्रत्येक स्थिति को अलग-अलग देख लेना। (हाथों की अलग-अलग मुद्रा बनाते हुए) यहाँ पर क्लिक किया तो हाथ यूँ आएगा। और यहाँ पर क्लिक किया तो हाथ यूँ आएगा। ऐसा नहीं है कि पूरा एक स्वीप आ गया और वो भी धुंधला, ब्लर्ड , ना।

पर अहंकार को फ़ोटो तो चाहिए साफ़, और लगाना नहीं है ध्यान। अब फ़ोटो तो बिलकुल साफ़ चाहिए, बिलकुल ठहरी हुई और ध्यान लगाना नहीं है, स्पोर्ट्स मोड लगाना नहीं है। तो अहंकार क्या बेईमान तिकड़म लगाता है? ‘केशव, रैकेट लेकर खड़ा हो जाना। और ये भ्रम दे कि तू खेल रहा है और हमारे पास स्पोर्ट्स मोड है।’ तो ध्यान की विधियाँ यहीं हैं। क्या? (हाथ से रैकेट की मुद्रा बनाते हुए) ये ध्यान की विधि है। अब ये ध्यान की विधि है।

वो खेल रहा ही नहीं है और तुम कह रहे हो कि वो खेल रहा है और हमने देख भी लिया कि खेल रहा है। खेलते आदमी को देखना है तो कब देखोगे, जब वो पोज (मुद्रा) दे रहा है या जब वो खेल रहा है?

प्र: खेल रहा है।

आचार्य: ध्यान की विधियों में तुम खेलते ही नहीं। तुम पोज दे रहे हो। क्योंकि तुमने पहले ही कह रखा है कि खेलना बंद करो भाई। ये तो ध्यान का वक़्त है। खलते तुम कहाँ हो? खलते तुम सड़क पर हो, खेलते तुम दफ़्तर में हो, खेलते तुम संसार में हो। खेल रुकवा कर कहते हो, ‘अब हम खेल देखने जा रहे हैं।’ ऐसी है तुम्हारी ध्यान की विधि। खेल को रुकवा दिया। ‘नहीं साहब, अभी धंधा-पानी बिलकुल बंद करिए, सारे ग्राहकों को लौटा दीजिए, अभी ध्यान का वक़्त है। खेल बंद हो। अब ध्यान करेंगे और खेल देखेंगे।’

कौनसा खेल देखोगे? खेल तो तुमने ज़बरदस्ती रोक दिया। अब देखने को क्या बचा? “जब जग विच बजी बधाई, तब देख तमाशा जाई।” तमाशा कब देखोगे? जब तमाशा हो रहा हो। तमाशा रोक कर थोड़े ही तमाशा देखोगे। ध्यान की विधियाँ और क्या करती हैं? ‘सारा तमाशा रोक दो। अभी हम पन्द्रह दिन के लिए ध्यान केंद्र जा रहे हैं। वीज़ा लेकर के भारत आए हैं। सारा तमाशा रोककर के। अब तमाशा देखेंगे।’ कैसे? कैसे?

जब तमाशा हो रहा हो तब आँखें खोलो। इसका नाम है ध्यान। फिर उसी को गालिब कह गए हैं, “बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।” जब देखोगे तमाशा तो कहोगे कि दुनिया मेरे लिए बच्चों का खेल है, 'बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल', बच्चों का खेल। अगर देख लोगे तमाशा। नहीं देखा तो फिर लगेगा बड़ी गंभीर बात है। बच्चों का खेल बच्चों का खेल रुकवाकर नहीं देखा जाता।

'अब यहाँ कोई नहीं खेलेगा रे! आओ अब खेल देखें।' अब वहाँ सिर्फ़ सन्नाटा है, वो भी झूठा। ये सत्य वाला मौन नहीं है, ये श्मशान वाला मौन है।

प्र२: मेडिटेशन लोग करते हैं और बोलते हैं कि उन्हें बहुत अच्छा इनर पीस (आंतरिक शांति) मिल गया या...

आचार्य: वो इनर पीस बस वही है कि तुम एक घटिया ज़िन्दगी जी रहे हो और तुमने कुछ देर के लिए उस ज़िन्दगी को स्थगित कर दिया। स्थगित इसीलिए किया कि थोड़ी देर में उसे पुनः वापस बुला लो। तो ये शांति थोड़े ही है। जो शांति थोड़ी ही देर में अशांति में परिणीत हो जानी हो वो शांति है क्या? जो शांति इस अफ़सोस, इस निराशा, इस हार के साथ शुरू होती हो कि बस थोड़ी देर की है, वो शांति है क्या? जिस ध्यान से तुम उठ जाओ, जो ध्यान तुम लगाते ही टूटने के लिए हो वो ध्यान है क्या?

ध्यान तो वो कि लगा तो लगा, अब टूट नहीं सकता। ऐसा ध्यान तो तुम्हें और दुःख देकर जाएगा न? पल दो पल का चैन, उसके बाद जैसे भूखे के आगे थाली रख दो और उसे खाने ना दो। सूँघ भर सकता है। जैसे कोई विरह में हो और तुम उसके आगे उसकी प्रियतमा की फ़ोटो लटका दो। फ़ोटो भर देख सकता है, मिल नहीं सकता। वो तो बेचारा और झुलसेगा।

जिस जीवन से त्रस्त होकर के ध्यान लगाते हो, उस जीवन से ही आज़ाद क्यों नहीं हो जाते? ध्यान लगा लगा कर तो तुम उसी जीवन को बनाए रखते हो, उसकी बेहतरी के नाम पर। तुम कहते हो कि जीवन चले इसी चौखट के भीतर। कैनवास (चित्रफलक) यही रहे, चित्र ज़रा बदल दिया जाए किसी तरीक़े से। कितना बदलाव कर लोगे? जब पहले ही तुमने फ्रेमवर्क , चौखट तय कर दी है तो भीतर का तुमने बदला भी तो क्या बदल दिया! सीमाएँ तो वहीं हैं न।

तुम अपना काम छोड़ने को थोड़े ही राज़ी हो जाते हो। तुम कहते हो, ‘काम यही करूँ पर ज़रा तनाव कम रहे, गुस्सा कम आए।’ इसीलिए तो लोग जाते है आध्यात्मिकता की तरफ़ कि जीवन में तनाव बहुत है। अब जीवन में तनाव बहुत है। दोनों में से क्या छोड़ना आसान लगता है? तनाव। जीवन नहीं छोड़ेंगे। तुम ये नहीं देख पाते हो कि जबतक जीवन वही रहेगा तो तनाव पुनः लौट कर आएगा।

और तुम्हारी माँग क्या है? ‘ज़िन्दगी तो वैसे ही चले, देखो तनाव ना आए।’ सारे घटिया काम करें, सारे सत्य विरुद्ध काम करें और उन कामों की सजा भी ना मिले। तनाव और क्या होता है? सजा ही तो होता है तनाव। तुम ग़लत जीवन जी रहे हो उसकी सज़ा है तनाव। तुम्हारी माँग क्या है? ‘जीवन तो वैसे ही चले। उसकी जो सज़ा मिलती है तनाव के रूप में, वो ना मिले।’

तो तनाव हटाने का क्या तरीक़ा है? ‘चलो ध्यान लगाएँ!’ इसीलिए तो कॉर्पोरेशन्स (निगमों) में बाकायदा ध्यान की कक्षाएँ चलती हैं। बड़ी कंपनियाँ बड़ा प्रोत्साहित करती हैं, 'ध्याना, योगा'। इससे बढ़िया रहता है। भेड़ें एक दूसरे का ऊन नहीं चरतीं। भेड़ें बड़े सुव्यवस्थित तरीक़े से अपना-अपना काम करती रहती हैं ताकि उनका ऊन सिर्फ़ मालिक चर सके। गुलामों में अव्यवस्था नहीं फैलती। सब गुलाम बड़े संतुलित, व्यवस्थित रूप से काम करते हैं 'ध्याना' और 'योगा' करके। और उसको वो बोलते हैं, ‘देखो, जीवन में शांति आ गई।’

बहुत तो गुरु लोग घूम रहे हैं। गुरु, सदगुरु उनका काम ही यही है वो कॉरपोरेशन्स में जाकर 'योगा' फैला रहे हैं ताकि बेहतर ग़ुलाम निकलें जिनकी उत्पादकता, प्रोडक्टिविटी और अच्छी रहे। वो बताते ही हैं, ‘*योगा इज़ ए मस्ट फॉर एम्पलाई प्रोडक्टिविटी*’ (कर्मचारी उत्पादकता के लिए योग आवश्यक है)।

ये तो तुमने ग़ज़ब कर दिया! मन का आत्मा से मिलन हो रहा है ताकि, अरे कॉरपोरेट प्रोडक्टिविटी (निगमित उत्पादकता) बढ़े। वो भी तुम अपने लिए कर रहे होते तो अलग बात थी। वो सब कुछ तुम लाला जी की मोटी औलादों की खातिर कर रहे हो। '*योगा फॉर बाबाभैया*।'

बाबा लोग जानते हो न कौन होते हैं? अरे, ऋषिकेश वाले बाबा लोग नहीं। मालिकों के बेटों को बाबा कहते हैं, बाबा। सन्नी बाबा और राजा बाबा, संजू बाबा, राहुल बाबा। ये सब बाबा लोग हैं। ब्लू-ब्लडेड (नीला-खून) बाबा, बी थ्री बहुत कुछ हो रहा है न?

ऐसा मत उपयोग करो 'ध्याना' और 'योगा' का। ध्यान को ध्यान और योग को योग रहने दो। योग का अर्थ होता है तुम मिटे। योग इसलिए नहीं होता कि तुम्हारे बने रहने के लिए योग का इस्तेमाल किया जाए। योग शब्द वास्तव में बहुत सटीक नहीं है क्योंकि योग से तो ऐसा लगता है जैसे जुड़े।

योग का अर्थ ये नहीं होता कि दो थे जो जुड़ गए। योग का अर्थ होता है एक ही पहले भी था, एक ही अंत में भी रहा। जो ये बीच में कोई और पैदा हो गया था, जो अपने-आप को सच समझने लगा था वो मिट गया। योग का अर्थ वास्तव में जुड़ना नहीं, मिटना है। जुड़ने के लिए तो दो होने चाहिए। दो तो कभी थे ही नहीं, एक ही था।

जो दूसरा था वो क्या था? झूठा। तो उस झूठे के मिट जाने को योग कहते हैं। मिटो, बेहतर मत बनो। जो समस्याग्रस्त है उसकी समस्याएँ कम मत करो। जो समस्याग्रस्त है उसको मिटा दो। उसकी समस्याएँ कम करोगे तो वो और बना रहेगा। मदद मत करो उसकी। कोई झूठे ही बीमार बना हो और तुम उसकी मदद करो तो क्या होगा? बीमार बना रहेगा। झूठ की एक ही मदद हो सकती है, क्या? उसे जाने दो।

प्र३: आचार्य जी, जैसे ध्यान का सवाल था। आप बैठ गए नहा धो कर, मोमबत्ती लगाकर। विचारों का खेल तो तब भी चलता है।

आचार्य: बदल दिया न?

प्र३: हाँ, विचारों का खेल थोड़ा बदल दिया लेकिन खेल तो चल ही रहा है न।

आचार्य: अब खेल एक स्वीकृत खेल हो गया। तुम्हें खेल से थोड़े ही दिक्कत होती है। क्या कभी तुम ध्यान में इसलिए बैठते हो कि जीवन में सुख ज़्यादा हो गया? सुख के खेल से तुम्हें आपत्ति है क्या? आपत्ति तुम्हें खेल से नहीं है। आपत्ति तुम्हें प्रतिकूल खेल से है। खेल अनुकूल चल रहा हो तो तुम कहते हो, 'बहुत बढ़िया। जय राम जी की।'

सुख खेल है कि नहीं, या दुःख ही खेल है?

प्र३: मतलब वो अच्छा नहीं लगता है, दुःख वाले।

आचार्य: सुख खेल है कि नहीं? और दुःख भी खेल है। पर सुख के खेल से तुम कभी ऊबते हो, भागते हो? जब जीवन में सुख चल रहा हो तब कहते हो कि अरे, ये तो गड़बड़ हो रही है, ध्यान लगाते हैं, सुख के विचार ज़्यादा हो गए हैं, सुख ही सुख बरस रहा है?

तो खेल तो दोनों हैं पर भूलना मत कि अगर तुमने खेल ही बदल दिया तो तुम्हें आपत्ति होनी भी बंद हो जाएगी। ध्यान के समय भी बिलकुल विचार उठेंगे। पर अब कौनसे विचार उठ रहे हैं? वो जो धर्मोचित हैं, शास्त्रोचित हैं। और ध्यान की कई विधियाँ होती हैं, वो तो तुम्हें पहले ही बता भी देती हैं कि अब क्या सोचो। लो, तो अब वो सोचोगे ही नहीं जो अक्सर सोचते हो। तो फिर देख क्या रहे हो? जो दिखाया जा रहा है वही देख रहे हो। फिर कह रहे हो, ‘ये देखा।’

प्र४: बैठते ही मेरा मन ऑफिस भाग जाता है। मेरी तो वही दुविधा है। कभी ऑफिस की तरफ, कभी ससुराल की तरफ। जब मैं बहुत ध्यान से देखता हूँ तो वह केवल ऑफिस की तरफ भागता है।

आचार्य: तुम एक बहुत मूल बात मन के बारे में नहीं समझ रहे हो। मन में दृश्य और दृष्टा एक होते हैं। ऑब्ज़र्व्ड और ऑब्ज़र्वर एक होते हैं। तुमने ज्यों ही दृष्टा को बदला, दृश्य बदल जाएगा भाई। ज्यों ही तुमने विचारक को एक दूसरी स्थिति दी, विचार बदल जाएँगे। तुम कुछ देख नहीं पाओगे।

ध्यान से पहले तुम कौन थे? वो जो विचारों को नहीं देख रहा। और अब तुमने कहा, ‘आठ बज गए हैं। अब मैं विचारों को देखूँगा।’ तुम बदले कि नहीं बदले? विचारक बदल गया कि नहीं? पहले विचारक कौन था? जो कह रहा था कि, मैं कहीं और रत हूँ, कहीं और मगन हूँ। मैं विचारों को नहीं देखूँगा अभी। और आठ बजते ही तुमने क्या कहा? कि अब मैं विचारों को?

प्र: देखूँगा।

आचार्य: विचारक बदल गया न। अच्छा, विचारक बदल गया और विचारक कह रहा है, ‘मुझे विचारों को देखना है।’ और हम समझा रहे हैं आपको कि विचारक और विचार, दृष्टा और दृश्य एक साथ चलते हैं।

विचारक बदल गया, विचार बदल गए। अब तुम देख क्या रहे हो? जो दिख रहा है, सब झूठा है। ये ऐसी सी बात है कि तुम किसी बच्चे से कहो कि हम तुम्हें देख रहे हैं, चलो अब शैतानी करो। वो करेगा ही नहीं। उसकी शैतानी देखनी है तो छुपकर देखो। छुपकर देखने को कहते हैं साक्षित्व। मन को पता भी ना चले कि उसको देखा जा रहा है। पर तुम तो घोषणा करके देखते जाते हो बाकायदा।

जैसे कई सरकारी दफ़्तर, वहाँ पर होता है फ्लाइंग स्क्वॉड , उड़न दस्ता। वो घोषणा करके छापा मारता है। ‘कल आपके यहाँ अकस्मात दस बजे छापा मारा जाएगा।’ अब वहाँ तुम क्या देखोगे? कुछ नहीं। तुमने तो बता दिया पहले ही। साक्षित्व है छुपकर छापा मारना। सरप्राइज रेड , जिसपर छापा मारा उसे पता भी नहीं चला। यही तो साक्षी है। जो छुपा है उसे कोई देख नहीं पा रहा। वो सब कुछ देख रहा है, उसे कोई देख नहीं पा रहा।

और ध्यान में तुम क्या करते हो? ‘सुबह आठ बजे फलानी जगह पर फलाने आसन में ध्यान लगाया जाएगा।’ अरे पागल, कभी बता कर छापा मारा जाता है? फिर मुझे शोले याद आ गई। "किसी को कानो-कान खबर नहीं होनी चाहिए! शूशूशू... ये बस हमारे और तुम्हारे बीच की बात है।" नगाड़ा तो बजा रहे हो, सबको बता दिया। अब बात छुपी रहेगी क्या?

हेराफेरी आई थी। उसमें ओम पुरी का जो चरित्र था, एक पंजाबी बंदा। मेरे ख़्याल से उन्होंने पैसे वगैरह वसूलने के लिए बहुत सारे जो होते हैं, लेनदार वो दल बनाकर आते हैं। एक कार में आते हैं। और वो कहते हैं कि अगर इसे पता चल गया तो ये घर से निकल जाएगा। तो उसके घर के बाहर रुक कर के, ओम पुरी उस पूरी जनता को संबोधित करके कहता है, क्या? यही कहता है, "किसी को कानोकान खबर नहीं होनी चाहिए।" और जब वो कहता है, "शूशूशू..." तो वहाँ बीस होते हैं। वो सब के सब एक साथ बोलते हैं "शूशूशू।" तो ऐसा तुम्हारा ध्यान होता है। मन को देखने जा रहे हो, नगाड़ा बजा कर। वो भग जाएगा। जिन्होंने पैसा ले रखा है वो भग जाएगा, पीछे से मिलेंगे बस बाबु भैया। (श्रोतागण हँसते हैं)

लेनदार तो भग गए, पकड़ में कौन आए? बाबु भैया। अब उनसे निकलवाते रहो पैसा। ओम पुरी और परेश रावल, ये हैं तुम्हारे दृष्टा और दृश्य। एक पगला, दूसरा झूठा। पगला कौन है? दृष्टा। और झूठा कौन है? दृश्य। जिसे देखना था वो मिला नहीं, जो दिख रहा है वो वो है ही नहीं जिसे देखना था। वो झूठा है।

बाबु भैया को फ़ोन आया। तो वो फ़ोन करते थे लोग, कहीं और पर, तो रॉंग नंबर था वो इनके यहाँ आ जाता था। तो इनसे पूछें, "मछली है क्या?" तो बाबु भैया पक चुके थे। बोल रहे हैं, ‘जो मैं हूँ नहीं मुझे वही समझते रहते हैं।’ ऐसा तुम्हारा ध्यान हैं। जो बाबु भैया हैं नहीं वही उन्हें समझा जा रहा है। तो उनसे पूछ रहे हैं, "मछली है क्या?", तो बाबु भैया बोलते हैं, "नहीं, उसे मैं मस्त तेल में फ्राई करके खा गया।" (श्रोतागण हँसते हुए)

तो ये तुम्हारे ध्यान के अंत में तुम्हें जवाब मिलता है कि मछली तो मैं मस्त तेल में फ्राई करके खा गया। और उधर वाले को पता थोड़े ही चला है कि इधर क्या है। उसको लग रहा होगा, 'क्या पता, यही जवाब मिलता होगा स्टार-फिशरी से।'

प्र५: ध्यान की विधियाँ जो बनाई गई हैं, जो ओशो भी कहते हैं, उन्होंने भी इतनी विधियाँ बनाईं, उनका क्या विचार होगा उसके पीछे?

आचार्य: जिससे कुछ ना होता हो वो वो कर लें और फिर दिख जाएगा कि उससे कुछ नहीं होता तो आगे बढ़ेगा। शुरू करने के लिए ठीक ही है। सिर्फ़ शुरू करने के लिए। जैसे कोई व्यर्थ ही अपने को अपाहिज माने बैठा हो, तो तुम उसे सीधे दौड़ने को तो नहीं बोल सकते न? अपाहिज है नहीं, पर मान तो उसने यही रखा है। तो उसे कैसे चलाओगे? पहले सहारा दोगे, प्रेरणा दोगे, सौ कहानियाँ सुनाओगे। ये सब शुरू कराने के लिए चाहिए।

ध्यान की विधियाँ ऐसी ही हैं, पर शीघ्र ही इनको समाप्त हो जाना चाहिए। कुछ समय तक इन्हें चलना चाहिए और कुछ समय के बाद तुम्हें ध्यान की सभी विधियों से मुक्त हो जाना चाहिए।

"मस्त तेल में फ्राई करके खा गया।"

प्र६: आचार्य जी, डायनमिक मैडिटेशन सुबह करने से अच्छा महसूस होता है। दिन भर होश में रहते हैं।

आचार्य: वो दिनभर क्या करोगे?

प्र६: रोज़मर्रा के जो भी काम हैं...

आचार्य: आह, वही, वही, वही फँस गए न। जैसे पूछा था, ‘कहाँ जा रहे थे गाड़ी में बैठकर?’ बस वही तो बात है। अगर ध्यान तुम्हारी नियमित दिनचर्या को बनाए रखने में सहयोगी हो रहा है, तो फिर वो ध्यान नहीं है दुश्मन है तुम्हारा। ध्यान वो चाहिए जो तुम्हारी दिनचर्या तोड़ कर रख दे। जिसके बाद तुम अपनी नियमित दिनचर्या में कदम रख ही ना सको।

प्र६: आचार्य जी, वही कह रहा हूँ। जैसे बैठे हो धूप में, यदि मैंने सुबह डायनामिक किया है तो मुझे ऐसा डर था, कोई उठाए ना मुझे यहाँ से। आँखें अपने-आप बंद होने लगती हैं और ऐसे बड़ा आनंद सा अनुभव होता है। मैं अपने काम भी छोड़ देता हूँ उस वक़्त। कोई मुझे डिस्टर्ब ना करे, बस बैठे रहना है।

आचार्य: और अगर काम छोड़ दिए। अगर काम छोड़ दिए तो अगले दिन डायनामिक की ज़रूरत पड़ेगी? जल्दी बोलो।

प्र६: नहीं पड़ेगी।

आचार्य: तो डायनामिक की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्योंकि तुम डायनामिक करने के बाद भी ज़िद करके पुनः अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट जाते हो।

ना लौटो उस दिनचर्या में तो अगले दिन क्या ज़रूरत है डायनामिक की? तो डायनामिक की उपयोगिता बिलकुल है, पर इसलिए थोड़ी ही है कि डायनामिक करो और फिर उन्हीं ढर्रों में लौट जाओ जिनमें रहते हो। ढर्रों में जितनी बार जाओगे, डायनामिक उतनी बार चाहिए होगा।

प्र६: वही हो रहा है।

आचार्य: तो क्यों जाते हो उन ढर्रों में वापस?

प्र६: रोक नहीं पाता अपने-आप को।

आचार्य: तो इसीलिए मैं कहता हूँ कि वो ध्यान कम-से-कम करो जो ध्यान सावधिक है। सावधिक समझते हो? एक अवधि के लिए है। मैं तुमसे उस ध्यान की बात करता हूँ जो अनंत है, कालातीत है, जिसका किसी अवधि के बाद कभी अंत नहीं आएगा। डायनामिक अच्छी बात है। वो तुम्हें स्वाद देता है, वो तुम्हें झलक दिखलाता है। तुमने डायनामिक ना किया होता तो मेरे पास नहीं आ पाते।

प्र६: हाँ, आचार्य जी।

आचार्य: तो डायनामिक ने अपना काम पूरा कर दिया। अब डायनामिक को छोड़ो। डायनामिक की उपयोगिता यही थी कि तुम्हें झलक मिली। ध्यान की वो झलक भी नहीं मिली होती तो आज यहाँ आते क्यों? अब जिसकी झलक मिली है उसको पूरा पाओ। या झलक से पेट भरना है?

प्र६: वो तो और भी मुश्किल हो गया है।

आचार्य: वही तो कहता हूँ। बड़ी क्रूरता हो जाती है। इससे अच्छा तो झलक भी ना दिखलाते।

प्र६: हाँ, ना दिखलाते तो अच्छा होता।

आचार्य: कोई भूखा हो तो भूखे पेट सो जाएगा। पर वो भूखा है और तुमने उसके कमरे में बढ़िया पराठे की और दाल-सब्ज़ी की खुशबू फैला दी। अब आएगी नींद उसको? आएगी? वरना तो भूखे-पेट सोना कोई बहुत मुश्किल बात नहीं। और भूखे सो रहे हो और कोई ज़ालिम तुम्हें ललचा रहा है और लार बन रही है। अब कहाँ से नींद आएगी?

प्र३: कुछ खुशी भी तो मिलती है डायनामिक करके।

आचार्य: कुछ ही चाहिए?

मैं डायनामिक का विरोधी थोड़े ही हूँ। डायनामिक की उपयोगिता है पर डायनामिक का अंत भी तो होना चाहिए। कहीं पर जाकर के डायनामिक समाप्त हो और सत्य मात्र शेष रह जाए।

प्र: ये तो ओशो ने भी बताया है। छूटना चाहिए।

आचार्य: हाँ, डायनामिक लत थोड़े ही बन जानी चाहिए।

प्र: एक काँटे को निकालना है, दूसरा काँटा वहीं रख लिया उसको निकाल कर।

आचार्य: पेनकिलर (दर्द निवारक) पर जीना चाहते हो? एक नशे को काटने के लिए दूसरे नशे पर जीना चाहते हो?

हमारी ज़िन्दगी क्या है? पेन से पेनकिलर तक जाओ, जब तक पेनकिलर पेन ना बन जाए। और फिर उस पेन से अगले पेनकिलर पर जाओ, जब तक वो पेन ना बन जाए। हम किसी भी पेनकिलर पर तभी तक तो रहते हैं जब तक वो पेन ना बन जाए। और कोई पेनकिलर ऐसा नहीं है जो समय के साथ पेन ना बन जाए। और तुम जिसकी ओर भी भागते हो सदा, वो तुम्हारे लिए पेनकिलर ही होता है।

‘मिल गया, मिल गया! नया पेनकिलर मिल गया!’ और छह महीने बाद, किलर तो किल हो गया बचा सिर्फ़ *पेन*। जो दर्द से राहत बनकर उतरा था वही दर्द बन गया। तुम्हारी ज़िन्दगी में कोई ऐसा दर्द है जो कभी राहत बनकर ना आया हो? तुम उसे प्रवेश ही ना देते अगर उसने अपना नाम दर्द बताया होता। जब वो आया था तो क्या प्रतीत हुआ था? राहत। दर्द से राहत, *पेनकिलर*। और आज वो क्या है? सिर्फ़ दर्द। दर्द कभी दर्द बनकर थोड़े ही आता है। दर्द हमेशा दर्दनाशक बनकर आता है। पेन हमेशा पेनकिलर बनकर आता है। ऐसे ही थोड़ी धोखा खाते हो, धोखा धोखा बनकर आया था या भरोसा बनकर?

प्र: भरोसा बनकर।

आचार्य: मत भागो किसी भी सहारे की तरफ़। सहारे अच्छे हैं। वो तुम्हें दुःख से बाहर लाते हैं। जब दुःख से बाहर आ गए फिर सहारे का क्या काम? और अगर सहारे को ही पकड़ने की आदत बन गई तो सहारा ही दर्द बन जाएगा, दुःख बन जाएगा।

ये सब कहकर मैं जो डायनामिक विधि है, उसकी खिलाफ़त नहीं कर रहा हूँ। मैं तुमसे सिर्फ़ पूछ रहा हूँ कि बार-बार डायनामिक करके भी तुम इतने ख़ाली क्यों नहीं हो पाते कि डायनामिक की आवश्यकता ना पड़े? इसका अर्थ है कि तुम डायनामिक को पूर्णता से नहीं करते।

डायनामिक तुमसे यही करवाता है कि वृत्तियों में जो कचरा भरा हुआ है, मन के अंधेरों में जो कचरा भरा है उसको बक दो, उसका वमन कर दो। शालीनता के चलते, सामाजिकता के चलते तुम आम तौर पर वो सारी बातें वमित नहीं कर पाते, अभिव्यक्त नहीं कर पाते। डायनामिक कहता है, ‘वो सब जो तुमने भर रखा है, काहे भरे हुए हो? निकालो, उसे अभिव्यक्ति दो।’ अभिव्यक्ति दोगे तो वो खत्म हो जाएगा। अभिव्यक्ति दोगे तो खत्म हो जाएगा न। ये थोड़े ही कहते हैं कि बचा रहेगा और कल फिर करना पड़ेगा।

तुम पूर्ण अभिव्यक्ति क्यों नहीं देते? डायनामिक करते भी हो तो आधा-अधूरा करते हो। इतना ही करते हो कि काम चल जाए। उससे ज़्यादा थोड़े ही। जैसे कोई अपनी गाड़ी में सौ रुपए का तेल डलवाए। किल्लत हमेशा बनी ही रहेगी। इतना ही डलवाया है कि वहाँ तक पहुँच जाएँ और वहाँ पहुँचने के बाद फिर चिंता कि अब आगे क्या होगा। जैसे कोई जुगाड़ से गाड़ी ठीक करवाए कि बस दो ही महीने चलेगी। निश्चिंत कभी नहीं हो पाओगे। सौ रुपए का तेल हो या जुगाड़ वाला कारीगर, वो तुम्हें निश्चिंत नहीं कर पाते न। हाँ, तुम्हारी गाड़ी चलती रहती है।

तुम्हें गाड़ी भर चलानी है या निश्चिंत होकर विश्राम करना है? खेद की बात ये है कि हममें से ज़्यादातर लोग पहले विकल्प को चुनेंगे। हम कहेंगे, 'कुछ भी कर के चल। अभी चलवा दो यार, कल की कल देखेंगे।' ये जो तुम्हारा रुख रहता है न, कल की कल देखेंगे यहीं पर गड़बड़ हो जाती है। आज थोड़ा सा डायनामिक कर लो, तनाव कम हो। फिर सो जाओ और कल फिर वही सब कुछ करो जिसके कारण डायनामिक की ज़रूरत पड़ जाए। जीवन मत बदलने देना।

आज चौराहे पर गाली खाई, डायनामिक किया। कल फिर जाकर उसी चौराहे पर भिड़ गए। और फिर डायनामिक किया। और अब जब भिड़ते हैं तो और आश्वस्ति के साथ भिड़ते हैं। पता है कि हमें सहारा देने के लिए डायनामिक है न।

जैसे डायनामिक पीछे से कह रहा हो कि जाओ, खूब बेवकूफी करो। मैं हूँ न! जब पिटकर आओगे, तो डायनामिक कर लेना। डायनामिक ने ऐसा कहा तुम्हें? तो ज़िन्दगी क्यों नहीं बदलते?

प्र७: क्यों नहीं बदलते?

आचार्य: तुम बताओ।

(श्रोतागण हँसते हुए)

तुम नहीं बदलते।

प्र८: हम सौ रूपए का पेट्रोल भी क्यों डलवाते हैं जबकि पता है कि फिर खड़ा ही होना है। समझ नहीं आ रही बुद्धि ऐसी उलझी है ये।

आचार्य: ये सब प्रकृति के गुण हैं। तमसा यही तो है। आलस, बोझ, भारीपन। इसमें कोई राज़ नहीं है। इसमें जो है सो है। वो क्यों है ये पूछना लाभप्रद नहीं। बस ये देखिए कि जो भी है वो आप के लिए अच्छा नहीं है। और मेरे लिए अच्छा नहीं है तो फिर छोड़ना भला न।

क्या करोगे अस्तित्व का राज़ जानकर? उससे भला है दुःख छोड़ दो, पागलपन छोड़ दो। पागल आदमी को बता भी दिया अस्तित्व का राज़, तो क्या करेगा वो? किताब लिखेगा, 'पागल-सूत्र'। उसमें सब बड़ी-बड़ी बातें होंगी। दुनिया ऐसी, दुनिया वैसी।

प्र९: आचार्य जी, क्या ध्यान के लिए विधियों का उपयोग ठीक है?

आचार्य: हाँ, ये जो आपने लिखा है बिलकुल ठीक लिखा है। ध्यान के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है वो ज़रूर किया जाना चाहिए। मैं बिलकुल उसका विरोधी नहीं हूँ, मैं समर्थन में हूँ उसके। आप यहाँ आकर के बैठे हो तो ये जो ये व्यवस्था की गई है, ये विधि नहीं है क्या?

तो जो आपने बात लिखी है बिलकुल ठीक लिखी है। आपने लिखा है कि, अगर यूँ ही गुरु के शब्द कानों में पड़ जाएँ तो उनका प्रभाव थोड़े ही होगा। उसके लिए पहले विधिवत तैयारी करनी पड़ती है। पर आप उन तैयारियों पर ज़ोर क्यों नहीं देते?

आपने लिखा है, "आचार्य जी प्रणाम। आप ध्यान की विधियों पर ज़ोर नहीं देते। जैसे कि ध्यान में जाने से पहले शरीर पर कुछ काम करना इत्यादि। सीधे शब्द को समझ पाना साधारण मनुष्य के लिए कठिन नहीं होगा क्या? हर कोई सीधे सुनकर ध्यान को थोड़े ही उतार सकता है? आपको क्या ऐसा नहीं लगता कि हम सब ज़्यादा बीमार हैं और मन से पहले शरीर पर काम होना चाहिए?"

वो तो लगता ही है बिलकुल। शरीर पर तो काम करवाता ही हूँ। अब आज आपके शरीर पर काम नहीं हुआ होगा पता नहीं क्यों। मैंने तो पूछा, आज क्या किया? पूछा नहीं मैने, खेले कि नहीं खेले?

पता नहीं क्यों, दौड़ाया क्यों नहीं भई? तुम क्या कर रहे थे?

स्वयंसेवक: थके जा रहे थे सब।

आचार्य: या तुम थक रहे थे? तो यहाँ पर आकर व्यक्तिगत थकान को इतना महत्व देना होता है क्या? अब वही प्रश्न है। तुम जवाब दो।

बोधस्थल में बँधा हुआ है, सुबह साढ़े-छह बजे खेलने पहुँच जाना होता है। और तीन घंटे से पहले वापस लौटना नहीं होता है। तो काम शुरू करने से पहले शरीर को ऐसा करो कि शरीर ही विचारों का विषय ना बन जाए। मैं बिलकुल इस बात पर ज़ोर देता हूँ कि सुनने से पूर्व तुम ऐसे रहो कि सुन पाओ। और उसके लिए बहुत इंतज़ाम किए जाते हैं। कुछ इंतज़ाम आपको पता चलते हैं, कुछ नहीं भी पता चलते।

ये गंगा क्या है इस वक़्त यहाँ पर? ये इंतज़ाम ही तो है, और क्या है? ये पहाड़ क्या है? ये विधि ही तो है। अन्यथा ये शब्द ग्रेटर-नॉएडा में भी तो बोले जा सकते थे। यदि यहाँ (ऋषिकेश) आए हैं तो ये एक विधि ही तो है ताकि आप बेहतर सुन पाएँ। शब्द यही रहेंगे पर यहाँ जैसा श्रवण होगा वैसा वहाँ ना हो पाता।

लेकिन जितना ज़ोर मेरा तैयारी पर है, विधि पर है, उससे अनंत गुना ज़्यादा ज़ोर मेरा सत्य पर है। तैयारी और विधि ऐसी है कि जैसे प्रेमी आ रहा हो और आप मुँह साफ़ करें और बाल धोएँ, और नए कपड़े पहनें, वगैरह-वगैरह। वो अच्छा है, ठीक है। बढ़िया बात है। पर वो साफ़ शरीर आपका साफ़ हृदय का विकल्प थोड़े ही बन सकता है?

तो मेरा ज़्यादा-से-ज़्यादा ज़ोर रहता है कि मन साफ़ रखो। और मैं जानता हूँ तन को साफ़ रखना भी आवश्यक है। उसकी भी अपनी अहमियत है। दुर्भाग्यवश ध्यान के नाम पर ऐसा बहुत होता है कि बस तन ही तन का खेल चलने लग जाता है। हठ योग और पूरा क्या है? तन का खेल चल रहा है। आत्मा से मतलब किसको? हाँ, शरीर सुडौल हो गया, पेट अंदर चला गया, तमाम तरीक़े के भाँति-भाँति के शारीरिक आसन लगाने आ गए, मुद्राएँ सीख ली। तो?

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए। मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।

प्र१०: जैसे आचार्य जी, एथलीट होते हैं। उनकी बॉडी (शरीर) एकदम परफ़ेक्ट होती है लेकिन उनके अंदर सारी भावनाएँ होती हैं: जलन, लोभ, एक दूसरे के प्रति घृणा। शरीर एकदम परफ़ेक्ट होता है।

आचार्य: तो वही हालत तो निन्यानवे प्रतिशत हठ योगियों की भी है। शरीर उनका ऐसा है कि आप देखें और ललचा जाएँ। और मन से तो वो वैसे ही हैं जैसे और कोई संसारी। धूर्तताएँ, भय, लोभ सब उनमें भरे हुए हैं। शरीर सुंदर रहे, स्वस्थ रहे इसका मैं बड़ा हिमायती हूँ, बहुत ज़ोर देता हूँ। जो खेलने से जी चुराते हैं, मक्कारी करते हैं उनके पीछे हाथ धोकेर पड़ता हूँ। लेकिन मुझे ये भी पता है कि शरीर तो शरीर है। और सत्य तो सत्य है।

कौन चाहिए आपको, नहाई-धोई वाली या वो जो आपसे प्रेम करती हो?

श्रोतागण: प्रेम करती हो।

आचार्य: और खूब नहा-धो कर आती है और प्रेम आपसे करती नहीं, चलेगी?

और एक है जो नहीं नहाती-धोती, मलिन वस्त्र हैं पुराने फटे पर प्रेम है। उसको तो इनकार नहीं कर पाएँगे। अब अच्छे से अच्छा ये हो कि प्रेम भी हो और वस्त्र भी साफ़ हों। उसका कोई मुकाबला नहीं है।

प्र११: आचार्य जी, साक्षी भाव कैसे पाया जाए, उसका क्या रास्ता है?

आचार्य: साक्षित्व कोई भाव नहीं होता। जब आप डर को प्रोत्साहन नहीं देते, लालच को प्रोत्साहन नहीं देते तब जो भी घट रहा होता है वो बस घट रहा होता है। उसका आपके लिए कोई अर्थ नहीं होता। हमारे लिए कोई घटना कभी नहीं घटती। हमारे लिए हमेशा हम घटित होते हैं। हम घटना में शामिल होते हैं। आप समझ रहे हैं?

तो हम हमेशा जुड़े होते हैं जो भी कुछ चल रहा है उससे। तो जैसे आपने चार लोगों को देखा और वो चार लोग कुछ कर रहे हैं तो वास्तव में वो चार लोग कुछ नहीं कर रहे।

वो कितने लोग हैं?

श्रोतागण: पाँच।

आचार्य: पाँच।

चार तो वो हैं जो दिख रहे हैं और पाँचवा कौन है? वो हम हैं। क्योंकि हम हमेशा अपने-आपको होती हुई घटना से जोड़ देते हैं। तो आप क्या हो गए? आप शामिल हो गए। आप साझेदार हो गए।

चार लोग थे, उनका कुछ भी चल रहा था। वो हो सकता है हँस रहे हों, हो सकता है खेल रहे हों, हो सकता है लड़ रहे हों, हो सकता है रो रहे हों, हो सकता है गा रहे हों। पर वो जो कुछ भी कर रहे थे, उसमें आप किसी-न-किसी रूप से घुस गए। अब ऐसे नहीं कि आप भी जाकर वहाँ गाने लग गए। पर उनके गाने में आपका किसी तरीक़े से समिश्रण हो गया। आपका उनके दल में किसी तरीक़े से सम्मिलन हो गया। होता है ऐसा कि नहीं होता है?

बारात जा रही है। क्या वो सिर्फ़ बारात होती है आपके लिए? बताइए वो क्या हो जाती है? आज आप बारात देखते हो तो क्या हो जाती है आपके लिए? ‘बहन की शादी करनी है।’ अब आप उस बारात में घुस गए कि नहीं घुस गए? ‘एक दिन मैं भी ऐसे ही फँसा था।’ बोलो।

श्रोतागण: जी।

आचार्य: ‘और ये बारात जा रही है और अब ये आगे जाकर ट्रैफिक का जाम लगाएगी।’ आप उस बारात में घुस गए कि नहीं घुस गए? 'खाना कैसा बना होगा भीतर पंडाल में?' आप घुस गए कि नहीं घुस गए? बोलो?

किसी-न-किसी तरीक़े से आप उसमें अपना नाता बना लेते हो। हमारा जो 'मैं' है वो बड़ा तड़पता रहता है नाते बनाने के लिए। तो हम जो भी कुछ देखते हैं, हम उसके साथ क्या कर रहे हैं? जुड़ जा रहे हैं, जुड़ जा रहे हैं, जुड़ जा रहे हैं। हमारा 'मैं' उससे जुड़ जा रहा है। हम उससे कोई-न-कोई निजी संबंध निकाल लेते हैं। ये होता है जीने का, प्रेक्षण का, सामान्य और अस्वस्थ तरीक़ा। जुड़ जाना, शामिल हो जाना, संयुक्त हो जाना, साझी हो जाना।

जैसे कोई भूखा किसी भोजनालय को देखे और वहाँ उसे दिखाई दे रहा है कि ये ढाबा है मान लो। ढाबे में बाहर ही बड़े बड़े डोंगे, तस्ले सब रखे रहते हैं। इतने बड़े-बड़े वहाँ पर। रखे रहते हैं, नहीं रखे रहते हैं?

और तुम भूखे हो। अब वो क्या तुम्हारे लिए सिर्फ़ भोजन है? क्या है वो? तुम उससे जुड़ गए कि नहीं जुड़ गए? पचास तरह के विचार आएँगे न उस भोजन को देख कर?

तो ऐसे हम जीते हैं। अब यहीं एक आदमी जिसका पेट भरा हुआ है, वो ये सब खाना-पीना देखे तो ये संभव है कि उसके लिए वो सिर्फ़ क्या है? खाना-पीना है। वो हो सकता है उससे जुड़े ही न। ये साक्षित्व है कि जो भी दिख रहा है वो बस दिख रहा है, हमारा उससे कोई संबंध नहीं है। हमारा 'मैं' ऐसा अधूरा नहीं है कि उससे जाकर के नाता बना बैठा।

प्र: उससे जुड़ा नहीं है।

आचार्य: जुड़ा नहीं है। और जुड़ते तुम तभी हो जब तुम्हें कोई लालसा इत्यादि होती है। तो ये साक्षित्व है।

अब ये कोई भाव है? भाव तो भूख है। भूख का भाव होता है। पेट भरा हो, ये कोई भाव है? आँख में दर्द हो रहा हो, तो ये भाव है। आँख में दर्द नहीं हो रहा हो तो कितने लोगों को भाव आ रहा है भई? किस-किस की आँख में दर्द है? और किस-किस को ये भाव आया कि मुझे दर्द नहीं है? माने कि भाव सिर्फ़ तब है जब दर्द है। तो स्वस्थ होने का भाव नहीं है, अपितु कोई भी भाव नहीं है।

समझो, जब दर्द नहीं होता तो क्या ये भाव होता है कि मैं स्वस्थ हूँ? तो दर्द ना होने पर स्वस्थ होने का भाव तो नहीं ही होता वरन कोई भी भाव नहीं होता।

तो साक्षित्व कोई भाव नहीं है। साक्षित्व बस ऐसा है कि चल रहा है काम ज़माने का बाहर और मन के कारखाने का भीतर और हमें दोनों से ही कोई लेना-देना नहीं है। बाहर चार जनें बैठे हैं, भीतर भी दो-चार जने बैठे हैं और उनकी अपनी गुफ्तगू चल रही है। उनकी चल रही है, हमने सुन ली। हमें कोई फ़र्क थोड़े ही पड़ गया।

साक्षित्व इसी अनछुएपन का नाम है; 'हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता।' जो चल रहा है सो चल रहा है। मन, बुद्धि इनको फ़र्क पड़ता है। स्मृति, उसको फ़र्क पड़ता है। जो चल रहा है हो सकता है स्मृति में आ जाए। तो किसको फ़र्क पड़ा? स्मृति को। जो चल रहा है उसको एक अनुकूल उत्तर देने के लिए हो सकता है बुद्धि को, प्रज्ञा को कुछ काम करना पड़े। तो किसको फ़र्क पड़ा? बुद्धि को। बुद्धि को फ़र्क पड़ा, हमें नहीं पड़ा।

प्र१९: किसी तरीक़े का भाव अस्वस्थता की निशानी है, ये कहा जा सकता है?

आचार्य: भाव मन को आए, भाव 'मैं' पर ना छा जाए। किसी भी तरह का भाव अस्वास्थ्य की निशानी नहीं है। भाव उसको आए जिसे भाव आना चाहिए। आपको ना आए। भाव कुछ नहीं है, भाव माने विचार। विचार मन में आएँ, पर विचार 'मैं' पर ना छा जाएँ।

अर्थ क्या है इसका? कि विचारों का विषय संसार रहे। विचारों का विषय पदार्थ रहे। आत्मा विचार का विषय ना बन जाए। 'मैं' विचार का विषय ना बन जाए। क्योंकि 'मैं' यदि विचार का विषय बना तो आप बार-बार यही सोचोगे, ‘मेरा क्या होगा? मेरा क्या होगा? मैं अपना क्या करूँ? आगे कैसे बढ़ूँ? ये क्या करूँ? तरक्की कैसे होगी? इत्यादि, इत्यादि।’ ये मूर्खता की बात है।

प्र१२: तो जैसे कोई समाचार मिला और हम खिन्न नहीं हुए।

आचार्य: नहीं, ये मत पूछिए कि समाचार मिला तो क्या हो, क्या ना हो इत्यादि इत्यादि। जो हो सो हो क्योंकि जिसको समाचार से जो होना है, उसको भी आज़ादी है वो होने की जो समाचार उसे कर देगा। उदाहरण के लिए अगर इस हाथ पर जलती हुई लकड़ी रख दी जाए तो हाथ को पूरी आज़ादी है जलने की। अब आप ये मन्नत नहीं माँग सकते कि हाथ ना जले। ये तो बँधी हुई बात है।

आप साक्षित्व को बस ऐसे समझ सकते हैं कि जिसको जो होना था हुआ, कोई ऐसा बचा रह गया जिसे कुछ नहीं हुआ। वो जो बचा रह जाता है उसे ही साक्षी कहते हैं। उसे कुछ नहीं होता।

बाकी तो जिसे होना होता है, होता है। कोई खिन्न भी होगा, कोई रोएगा भी। कोई आशा भी करेगा, कोई दौड़ेगा भी। पर कोई है जिसे कुछ नहीं होता, वो साक्षी है। और यदि वो है जिसे कुछ नहीं होता, तो फिर जिन्हें जो कुछ होता है वो ज़रा बदल जाता है। साक्षी के होने भर से मन प्रकाशित रहता है।

जैसे एक कमरा हो, वो सूरज को तो नहीं देख सकता न? और बंद है। पर सूरज के होने भर से वो कमरा प्रकाशित हो जाता है। उस कमरे के भीतर जो चीज़ें रखी हुई हैं उन्हें सूरज से क्या लेना-देना? वो अदिनी सी चीज़ें हैं। वो अंधेरे की अभ्यस्त हैं। पर सूरज है तो कमरे की सारी गतिविधियाँ फिर प्रकाश में होंगी। और जब काम प्रकाश में होने लगते हैं तो बदल जाते हैं।

अह्म भावना उससे भी जुड़ी रह सकती है जिसपर असर पड़ता है और अह्म भावना उससे भी जुड़ी रह सकती है जिस पर असर नहीं पड़ता। आप उससे जुड़िए जिससे असर नहीं पड़ता। 'मैं' को मन से मत जोड़िए, 'मैं' को साक्षी से जोड़िए। होते ये दोनों हमेशा हैं। हमेशा वो भी है जो परिवर्तनशील है और हमेशा ही वो भी है जो अपरिवर्तनीय है। विकल्प आपके पास है, आप इन दोनों में से किससे जुड़ते हैं।

चेतना का मतलब ही विकल्प होता है। एक तरफ़ प्रकृति के गुण हैं जो मजबूर हैं। वो वही करेंगे जो उन्हें करना है। और दूसरी तरफ़ सत्य भी मजबूर है, उसे निर्लिप्त ही रहना है। सत्य मजबूर है अपने साक्षित्व से, अपनी निर्लिप्तता से। और प्रकृति के गुण भी मजबूर हैं कि उन्हें तो लिप्त ही होना है। आप चैतन्य हैं, आप के पास विकल्प है। चाहें तो इससे जुड़ लें, चाहे तो उससे जुड़ लें।

साक्षित्व का अर्थ होता है कि आप साक्षी से जुड़ गए। साक्षित्व का अर्थ ये नहीं होता कि साक्षी का उदय हो गया या साक्षी पैदा हो गया। जो पैदा हो जाए वो साक्षी नहीं। जो उदित हो वो साक्षी नहीं। साक्षी सदा है। प्रश्न ये है कि क्या आपके लिए सदा है? आपके लिए सिर्फ़ तब है जब आप ये निर्णय लें कि आपको साक्षी के साथ रहना है बजाय उसके जो लिप्त इत्यादि रहता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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