न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् | कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: || ३, ५ ||
कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षणमात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है; क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता ही है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ५
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। कृष्ण यदि कह रहे हैं कि सब कर्म प्रकृति के गुणों से वशीभूत होकर ही होते हैं तो फ़िर वे अर्जुन को कर्म में क्यों भेज रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: इनकी उलझन समझ रहे हैं? वो कह रही हैं कि आदमी जितने भी काम करता है, वो प्रकृति में गुणों में बँधकर, उनके प्रभाव में आकर करता है। जब सब कर्म प्रकृति के प्रभाव में आकर ही होते हैं तो फ़िर कृष्ण अर्जुन को क्यों कह रहे हैं कि 'कर्म कर'?
कर्मों में जो अपवाद होता है, उसका नाम है यज्ञ। सब कर्म प्रकृति के वशीभूत होकर होते हैं, यज्ञ नहीं होता। सम्पूर्ण अध्यात्म ही अपवाद तलाशने का ही तो अभियान है न।
आदमी ऐसा है जैसे उसे कई दीवारों में क़ैद कर दिया गया हो, दीवारें-ही-दीवारें हैं जिनमें कोई दरार नहीं, कुछ नहीं। पर एक अपवाद मौजूद होता है, एक दरवाज़ा हमेशा होता है। अध्यात्म उस अपवाद को तलाशने का नाम है। चारों तरफ़ देखोगे तो क्या दिखाई देती हैं? दीवारें। किसी दिशा में मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं; एक दिशा अपवाद होती है।
अपने-आप को देख लो, अपनी हालत को देख लो, मुक्ति का रास्ता मिल जाएगा।
तो अध्यात्म इसलिए अपनी ओर मुड़ता है क्योंकि मुक्ति ख़ुद से होकर जाती है। ख़ुद से होकर जाती है माने मैं कोई आत्मा इत्यादि की बात नहीं कर रहा, अपनी हालत से हो करके जाती है।
"अर्जुन, तू बँधा हुआ है, अपनी हालत को देख। अर्जुन, अगर तुझे राज्य का लोभ होता और इस समय तू कह रहा होता कि हे 'केशव! मैं राज्य के लोभ से मुक्त हो गया, मुझे धन-सम्पदा, राज्य, कीर्ति, पद-प्रतिष्ठा नहीं चाहिए। मुझे जाने दो।' तो अर्जुन, मैं कहता, साधुवाद! जा, क्योंकि तूने स्वयं को जीत लिया। अगर तुझे राज्य का लोभ होता तो तेरा बँधन क्या था? राज्य। राज्य अगर बँधन होता और फ़िर तू कहता कि 'मुझे युद्ध नहीं करना है' तो मैं तेरा साथ देता, अर्जुन। फ़िर मैं निश्चित रूप से कहता कि अर्जुन, बिलकुल ठीक कर रहा है।”
"ज़्यादातर लोग लड़ाई इत्यादि करते हैं लालच में, और अर्जुन तूने अपने लालच को जीत लिया। क्या बात है! अब लड़ाई बिलकुल मत कर, चला जा। मैं सहमति देता, मैं प्रशंसा करता तेरी, अर्जुन। लेकिन अर्जुन तेरा बँधन राज्य का लालच तो कभी था ही नहीं। लोभी तो तू बचपन से नहीं था, अर्जुन। मैं तुझे बचपन से जानता हूँ, बाल सखा हूँ।"
"लेकिन मोह तुझमें रहा है। भाइयों का मोह भी रहा है, पत्नी का मोह भी रहा है, माता का मोह भी रहा है, पितामह का मोह भी रहा है। मुझसे भी तेरा बड़ा मोह है, अर्जुन, और इसी तरह तेरा मोह अपने कुरु भाइयों से है। और सामने गुरु खड़े हैं द्रोण जैसे, जिनसे तूने बहुत कुछ सीखा, उनका भी तू बड़ा प्रिय शिष्य था। और कृपाचार्य खड़े हैं, और अश्वथामा दिख रहा है और तेरे ही पक्ष के कितने सगे-सम्बन्धी हैं। द्रौपदी के ही कुछ रिश्तेदार हैं जो उस पक्ष में भी खड़े हुए हैं। और कर्ण है।"
जब गीता की बात हो रही थी तब कर्ण नहीं था, महाभारत के आरंभिक दिनों में कर्ण मैदान पर नहीं था। पर आना तो था ही, यह तो तय ही था कि कर्ण उतरेगा आज नहीं तो कल।
“तो तेरा बँधन राज्य नहीं है। तूने राज्य छोड़ा होता, मैं तेरी प्रशंसा करता। तेरा बँधन क्या है? मोह। उस मोह को काटना है, लड़ाई कर!”
बात समझिएगा। लोग अक्सर कहते हैं कि "अर्जुन तो अहिंसा का रास्ता अपना रहा था तो कृष्ण ने उसको क्यों रोक दिया?" मोह में कौन सी अहिंसा हो सकती है, भाई? जो मोह से बँधा हुआ है, वो अहिंसक कैसे हो सकता है? तुम मोहवश दूसरे पर तीर ना चलाओ तो ये अहिंसा हुई क्या? इसीलिए अर्जुन का हटना त्याग नहीं था, भगोड़ापन था, पलायन था।
तो कृष्ण ने कहा कि, "तू राज्य नहीं त्याग रहा, तू मोह को त्यागने से इंकार कर रहा है।" अर्जुन दिखा यूँ रहा है कि जैसे वो राज्य त्याग रहा है। वो राज्य नहीं त्याग रहा, वो मोह को त्यागने से इन्कार कर रहा है। तो कृष्ण कहते हैं, “ना, मोह बँधन है और बँधन में तो तुझे नहीं जीने दूँगा मैं। लड़! तेरे लिए उचित कर्म यही है कि तू अपने बँधन काट।”
तो अपवाद कहाँ से पता चलता है? सब कर्म प्रकृति करवाती है। अपवाद कर्म कौन सा है? जिसमें तुम कर्म करने वाले की ज़ंजीरें काट दो। प्रकृति कर्म कैसे करवाती है आपसे? आपको ज़ंजीरें पहना-पहनाकर।
माल ढुलाई के लिए जो जानवर इस्तेमाल होते हैं, देखा है, कभी उनका मुँह बाँध दिया जाता है, कभी उनके आगे के दो पाँव बाँध दिए जाते हैं, कभी उनका गला बाँध दिया जाता है। बाँध-बाँधकर काम कराया जाता है न? बाँध करके काम कराया जाता है। प्रकृति हमसे ऐसे काम करवाती है।
इन कामों का एक अपवाद है। वो जानवर अपनी ओर मुड़ जाए और कहे कि, "अब एक आख़िरी काम करूँगा। जो ये मेरे आका बने बैठे हैं, इनके लिए तो बहुत काम कर लिया, जीवनभर इन्हीं के लिए माल ढोता रहा, एक आख़िरी काम मैं अपने लिए करना चाहता हूँ। और इनके लिए इतना कुछ कर दिया तो थोड़ा अपने लिए तो कर ही सकता हूँ, ताक़त तो है मुझमें।" वो क्या है आख़िरी काम जो अपने लिए करना चाहता हूँ? अपवाद कृत्य क्या है? "इतना बोझा ढोता हूँ तो इतनी ताक़त तो मुझमें होगी कि ये जो बँधन बाँध दिए हैं इनको तोड़ ही दूँ, काट दूँ, फाड़ दूँ।"
ये अध्यात्म है - काम तो कर रहे हो, एक वो काम कर डालो जो आज़ादी दे दे।
तो जो संशय हुआ है, वो समझा जा सकता है, लेकिन कृष्ण कहीं नहीं कह रहे हैं कि मात्र प्रकृति के वशीभूत होकर ही कर्म हो सकता है। कृष्ण के वशीभूत होकर भी तो कर्म हो सकता है न?
बड़े सुन्दर तरीके से कृष्ण एक जगह पर कहते हैं, “या तो मेरी सुन लो या मेरी माया की सुन लो।” वो ये भी नहीं कहते कि या तो मेरी सुन लो या माया की सुन लो। वो कहते हैं कि या तो मेरी सुन लो या 'मेरी' माया की सुन लो। सुनोगे तो तुम दोनों स्थितियों में मेरी ही, पर मैं सामने खड़ा हूँ तो सीधे-सीधे मेरी ही सुन लो। वो आज़ादी का थोड़ा छोटा रास्ता है, आसान रास्ता है, सुविधा रहेगी।