प्रश्नकर्ता: कृष्ण कहते हैं, “जो मुझे समर्पित रहते हैं और अपनी श्रद्धा मुझ में रखते हैं और मेरी पूजा करते हैं, उन्हें ही मैं अपना सच्चा दास मानता हूँ।”
आचार्य प्रशांत: अहंकार के साथ एक बड़ी मज़ेदार बात है; वो अपने पर दावा करता है और अपने ही बारे में उसे बड़ा संदेह रहता है। समझना इसको। वो अपने-आप पर दावा करता है और अपने ही बारे में संदेहजनक रहता है — ये दोनों बातें जुड़ी हुई हैं।
तो इसीलिए हम जब भी बोलते हैं कि, “मैं कुछ हूँ”, तो यह बात कभी पूरे विश्वास के साथ नहीं बोलते, थोड़ा संदेह बना ज़रूर रहता है। आप समझ रहे हो? इसीलिए हम अपने आपको बहुत ऊँचा नहीं बोल पाते क्योंकि हमें अपने बारे में सदा कुछ-न-कुछ संदेह बना रहता है।
अहंकार का अपनी घोषणा करना हमेशा कुछ संदेह लेकर के आता है। आदमी के इतिहास में कितने लोग हुए हैं जिन्होंने अपने-आप को भगवान घोषित कर दिया? कितने हो पाए हैं? तुम अपने-आप को छोटी-मोटी चीज़ तो घोषित कर लेते हो — “मैं दानी, मैं पुण्य और भी बहुत कुछ”, पर जो भी करते हो, सीमित रहकर करते हो। बड़े-से-बड़ा अहंकारी यह नहीं बोलेगा कि, "मैं दुनिया का सबसे बड़ा दानी हूँ" या "मैं इतिहास का सबसे बड़ा दानी हूँ", और बोल भी देगा तो उसे शक़ पैदा हो जाएगा कि, "क्या पता? इतिहास में सब को तो मैं जानता नहीं। क्या पता, मैं हूँ कि नहीं!"
अहंकार जहाँ है, वहीं हीनता है, वहीं आत्म-शक़ है। स्वाग्रह ही आत्म-शक़ है।
इसीलिए हम अपने-आप पर कभी पूरी तरह दावा नहीं कर पाते। मैं नहीं कह पाऊँगा कि, "मैं भगवान हूँ", बड़ा मुश्किल हो जाना है। ठीक है?
कृष्ण होना पड़ेगा यह कहने के लिए कि, "मैं ही तो हूँ, और कौन है?" यह बड़ी गहरी निरहंकारिता है। क्योंकि अहंकार तो हमेशा सीमित घोषणाएँ करेगा। निरहंकार ही परम-घोषणा करेगा। क्या? “अहम् ब्रह्मास्मि।” निरहंकार ही परम-घोषणा करेगा। और कृष्ण वो परम-घोषणा कर रहे हैं, “पार्थ, जो कुछ है, मैं हूँ। मेरी शरण में आ। सब धर्मों को त्याग कर, मेरी शरण में आ।”
कोई नासमझ आदमी कहेगा, “यह कृष्णा तो बड़ा ही उजड्ड आदमी है। यह तो क्या कर रहा है। यह तो अर्जुन को अपना अनुगामी बना रहा है। यह तो बड़ा अहंकार दिखा रहा है।”
नहीं! अहंकार जब भी घोषणा करता है, तो अपने सीमित होने की ही करता है। अहंकार की प्रत्येक घोषणा बस इतनी सी है कि, “मैं छोटा हूँ। मैं छोटा हूँ और इस बात से डरता हूँ, इस कारण मैं अपने-आपको थोड़ा बढ़ा-चढ़ा कर बता रहा हूँ।” अहंकार अपने छोटेपन का अहसास है। अहंकार अपनी सीमितता का अहसास है। कृष्ण उस अहसास से ऊपर उठ गए हैं। तो इसलिए कृष्ण इस ‘मैं’ शब्द का बड़े निरहंकारी रूप में प्रयोग कर रहे हैं।
जब कृष्ण बोलते हैं ‘मैं’, तो फ़िर कृष्ण नहीं हैं ‘मैं’, वो समस्त अस्तित्व की बात कर रहे हैं। जो कृष्ण का ‘मैं’ है, यह कोई शरीर में सीमित ‘मैं’ नहीं है; ये वो ‘मैं’ है, जो पूरे अस्तित्व में व्याप्त है, फैला ही हुआ है। धूल-धूल में फैला हुआ है।
और यह काम एक अहंकारी आदमी नहीं कर सकता। आमतौर पर ऐसा लगेगा कि जो अपने-आपको जितना बड़ा बोले, वो उतना अहंकारी है। पर आप ध्यान से देखना, अहंकारी आदमी अपने-आपको एक सीमा से बड़ा नहीं बोल सकता। और अगर बोलेगा, तो उसे खुद ही संदेह हो जाएगा। उसे तो अपने-आपको छोटा बोलने में भी संदेह रहता है।
अहंकार तो अपने बारे में जो बोलता है, उसको उसी में संदेह रहता है। और एक हद से ज़्यादा बड़ा बोलेगा, तो संदेह और बढ़ जाएगा। उसकी ज़बान ऐंठ जाएगी, बोल नहीं पाएगा। आप जाओ किसी गहरे अहंकारी के पास, पर वो भी यह नहीं कह पाएगा कि, “मैं भगवान हूँ, मैं परम हूँ।” नहीं कह पाएगा। तो इसका मतलब यह है कि यह घोषणा अहंकार की तो नहीं हो सकती।
पढ़िए दोबारा इसको।
प्र१: “जो मुझे समर्पित रहते हैं और अपनी श्रद्धा मुझ में रखते हैं और मेरी पूजा करते हैं, उन्हें ही मैं अपना सच्चा दास मानता हूँ।”
आचार्य: चार-पाँच बार ‘मैं’ आ रहा है। यह ‘मैं’, इस बात को समझिएगा, यह सीमित ‘मैं’ नहीं है। ठीक है न? जो कृष्ण-भक्त होते हैं, वो बड़ी ज़्यादती करते हैं कृष्ण के साथ। वो इस ‘मैं’ को क्या बना देते हैं?
प्र: कृष्ण।
आचार्य: वो इस ‘मैं’ को ‘कृष्ण’ बना देते है। यह अस्तित्व बोल रहा है। यह जीवन बोल रहा है। जीवन अर्जुन से कह रहा है कि, “सब कुछ छोड़, मेरी शरण में आ। मुझमें श्रद्धा रख।” और आप भी जब अपनेआप को हटा दोगे और आपके माध्यम से जीवन बोलेगा, तो आपकी भाषा भी ऐसी हो जाएगी। और आपको लगेगा भी नहीं कि मैं तो कोई अहंकारी बात कर रहा हूँ।
बिलकुल कह दोगे, “मैं कह रहा हूँ इसलिए सच है।” कोई आपसे पूछेगा, “तुम्हें कैसे पता?” बस पता है! और जो कोई दूर से सुन रहा होगा, वो कहेगा, “बड़ा अहंकारी आदमी है। इतना घमंड कि, ‘मैं सोच रहा हूँ, तो मुझे पता है। मैं जानता हूँ, तो मुझे पता है।’, ऐसा कैसे?” और आप कहोगे कि, “हाँ, ऐसा ही तो है। इसमें क्या घमंड है? मैं कह रहा हूँ, हाँ!”
इससे यही सिद्ध हुआ है कि आप मिट गए हो, आप अब हो ही नहीं। जब आप यह बोल पाओ, तो अब आप हो ही नहीं। ‘आप’ माने सीमितता, वो गई; ‘आप’ माने आपकी सीमाएँ, वो गईं; ‘आप’ अब हो ही नहीं। कोई और ही है, जो बोल रहा है।
बाँसुरी बज रही है, पर बाँसुरी का उसमें कुछ नहीं है। समझ रहे हो न बात को?
इसका बिलकुल विपरीत तरीका भी करा जा सकता है। कृष्णमूर्ति कभी ‘मैं’ बोलते ही नहीं। वो ‘वक्ता’ बोलेंगे। वो कृष्णमूर्ति का तरीका है। वो ‘मैं’ के पूरे त्याग पर उतारू हैं, और कृष्ण ‘मैं’ को पूरी तरह पा लेने को उतारू हैं — काम दोनों जगह एक ही हो रहा है।
कृष्णमूर्ति ‘मैं’ से दूर भागने पर लगे हैं। कह रहे हैं, "‘मैं’ का नामोनिशान मिटा दूँगा।" और कृष्ण ‘मैं’ को पूरा अपने में समेट लिए हैं।
कृष्णमूर्ति के तरीके में एक दिक्कत आएगी; जब आप सबकुछ मिटा दोगे, तो भी मिटाने वाला बचा रहेगा। आपका सारा अहंकार नष्ट हो जाएगा। आप अपनी सारी पहचानें हटा दोगे, लेकिन अंत में एक पहचान अटक जाएगी, “मैं वो हूँ जिसने सारी पहचानें हटाईं।” ठीक है, वो भी हट सकती है। वो चीज़ भी अटकेगी नहीं। अंततः वो भी हट सकती है। पर वहाँ अटकोगे। आख़िरी बाधा वो पड़ेगी।
कृष्ण के तरीके में वो बाधा है ही नहीं। कृष्ण कह रहे हैं, “हटाना क्या है? मुझे तो सिर्फ़ पाना है! जीवन हटाने के लिए थोड़े ही है, कि इसका त्याग करो, उसका त्याग करो।’ इसकी नेती-नेती करो, इसका निषेध करो।" वो कह रहे हैं, “आओ, सब आओ। गोपी, कहाँ हो तुम सब? सब आओ। मुझे कुछ नहीं त्यागना। कतई नहीं त्यागना।”
"क्या त्यागना? मैं ही मैं हूँ।"
"क्या कहना 'ये भी झूठ है, वो भी झूठ है'?”
कृष्ण के यहाँ पर कुछ भी झूठ नहीं है। सब कृष्णमय है। यमुना झूठ नहीं है, वो कृष्णमय है। मोर और गायें और पक्षी झूठ नहीं हैं, वो कृष्णमय हैं।
गोपियों का प्रेम झूठा नहीं है, वो कृष्णमय है। सब कृष्णमय है। “मैं ही मैं तो हूँ।”