प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर। जैसे पहले हम कुछ करते हैं और हमें नहीं पता है कि हम क्या कर रहे हैं। अनायास रिस्पॉन्डिंग, हमारे एब्सेन्स, हमारे रिस्पॉन्सेस, ये हो रहे हैं। और हमें उसका आभास सिर्फ़ तब है जब कोई हमें आकर ये बता रहा है या तो तारीफ़ के तरीके से या शिकायत के ज़रिए से। तभी हमें पता चलता है कि हमने क्या किया है, तो हम ऑब्ज़र्वेशन स्टेट में थे ही नहीं। उस समय हम अहंकार को पकड़े बैठे है, या तब जब हमको किसी ने बता दिया तारीफ़ या शिकायत के ज़रिए, तब ऐसा लगता है जैसे तब अहंकार निकलकर आ रहा है। वरना तो अगर अनायास ही कुछ कर रहे थे तो तब अहंकार नहीं था न?
आचार्य प्रशांत: अलग-अलग रूपों में सामने आता है। जब अनायास भी कर रहे हो, अनायास चले जा रहे हो बेहोशी में, कुछ जानते नहीं, ठोकर नहीं लगती है? दुख नहीं होता, चोट नहीं लगती? कहो। घूम रहे हो, गिरे गड्ढे में या जब अनायास कुछ कर रहे होते हो, तब सब आनन्द-आनन्द होता है। होता है न? खूब चोटें लगती हैं, कुछ भी नहीं होता। कुछ भी के लिए तो हम प्रस्तुत ही नहीं हैं। कुछ भी के लिए तो बड़ी बेधड़क निर्भीकता चाहिए। कुछ भी तो हमसे आगे की बात हो जाती है। हमारे साथ तो वही दो-चार छोटी-मोटी चीज़ें होती है जो रोज़ होती हैं।
प्रश्नकर्ता: तो तुम कर रहे हो।
आचार्य प्रशांत: तो तुम कर रहे हो तो अनायास देखो न तुम कहाँ घूम रहे हो? तो अनायास तुम वहीं घूम रहे होते हो जो रास्ते तुम्हारे चित-परिचित हैं। घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में तुम ज़रूर बेखयाली में चले जाते हो। कभी अनजान जंगलों में गये हो बेखयाली में कि ऐसे ही हैं हम अनायास घूमते-घूमते निकल आये? कभी अज्ञात जगहों पर पहुँच गये हो क्या अनायास? तो अनायास थोड़ी ही है, फिर तो प्रायोजित है, फिर तो सोचा-समझा है। अनायास तो हम तब मानते हैं कि जैसे घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में पहुँच जाते हो, कहते हो, ‘यूँही हो रहा है ये तो।’ जैसे हमें सोचना नहीं पड़ता, ये बहाव का हिस्सा है। वैसे ही बहते-बहते किसी दिन शहर से बाहर भी चले जाते हो, ऐसा तो होता नहीं। तो ये बहाव है नहीं फिर, ये एक ढाँचागत चीज़ है, ये एक ढर्रा है। ये नदी नहीं है, ये लहर है। नदी और लहर का अंतर समझते हो? क्या अंतर होता है?
प्रश्नकर्ता: नदी का बहाव है।
आचार्य प्रशांत: लहर में भी देखोगे तो उसका बहाव है, पर वो बहाव पूरा उद्देश्यपूर्ण है। और आप ही ने बनाया है वो बहाव; और नदी की बात दूसरी है। नदी की सुन्दरता कभी लहर को नहीं मिलेगी। हाँ, तुम कह सकते हो कि लहर की उपयोगिता कभी नदी में नहीं होगी, वो तुम जानो। आप जिसको बहाव कह रहे हो, वो बहाव नहीं है। और उस बहाव में ऐसा नहीं है कि आपको कुछ पता नहीं चलता। उस बहाव में भी सुख-दुख का खूब पता चलता है। जब पता चलता ही है तो उसी को अहंकार जानिए न, किसी के बताने की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो? क्यों कह रहे हो कि जब कोई ध्यान दिलाए तो पता चलता है? सुख का पता चलना माने अहंकार का पता चलना, दुख का पता चलना माने अहंकार का पता चलना, पता तो चल ही रहा है न।
प्रश्नकर्ता: अननोन (अपरिचित) सुख रहता है अननोन दुख से। अननोन सुख छोड़ देता है नोन (परिचित) दुख के लिए।
आचार्य प्रशांत: मन परिचित ही सबकुछ पकड़े रहता है। अपरिचित में क्या है उन्हें क्या पता, अभी से उसको सुख, उत्तेजना क्यों नाम दे रहे हो? तुम्हें क्या पता कि क्या है? कुछ है भी या नहीं, ये भी तुम्हें कैसे पता?
प्रश्नकर्ता: लगता है अननोन से, जैसे जो हमारे पास कुछ अननोन बात की बोल अच्छी लगती है, वो चीज़ भी अननोन ही हो गयी लेकिन इसे साइड कर दिया।
आचार्य प्रशांत: ये जानते हैं; जानने का मतलब अनुभव नहीं होता। सेक्स ज़रूरी नहीं है कि तुम्हारे जीवन में जननेन्द्रियों से ही प्रवेश करे, कान से भी तो प्रवेश करता है। तुम बैठकर के काम-चर्चा में सहभागी हो रहे हो, ये सेक्स नहीं है? तुम पोर्न देख रहे हो, ये सेक्स नहीं है? ये भी तो सेक्स ही है। तो अननोन क्या है उसमें? तो नोन है। जो कुछ भी इन्द्रियगत विषय बन गया, वो नोन ही है, उसमें अननोन क्या है?
प्रश्नकर्ता: सर, जैसे सुकन्या जी बात कर रही थीं अनायास कि जैसे नौकरी पर जाते हैं कि बहुत लोग मिलते हैं जो कहते हैं, ‘जस्ट लाइक दैट, आ गये करने।’ तो इस चीज़ से समझ नहीं आता है कि अब उनको कैसे बताऊँ कि इसके पीछे कोई बहुत बड़ा तंत्र है जो काम कर रहा है।
आचार्य प्रशांत: एक सवाल पूछ लो न कि जस्ट लाइक दैट, कभी किसी अन्धेरी गली में घुस गये हो क्या? इस भरे पूरे बाज़ार की सुपरिचित गली में तो आ गये हो जो जगमगा रही रोशनी से और दुकानों से, और कहते हो कि जस्ट लाइक दैट। अगर जस्ट लाइक दैट ही होता तो ये भी तो बता दो कि कभी अनजानी अन्धेरी गलियों में भी घुसे हो क्या, जस्ट लाइक दैट? तो जस्ट लाइक दैट तो नहीं है, योजना तो पूरी है इसके पीछे।
जस्ट लाइक दैट का तो अर्थ हो जाता है पूर्ण मुक्ति, फिर तो कुछ भी हो सकता है। कपड़े क्यों नहीं पहने? जस्ट लाइक दैट! कभी होता है बिना कपड़े पहने आ जाओ बाहर? अगर जस्ट लाइक दैट ही होता तो फिर ये भी होता कि बिना कपड़े पहने ही आ गये, अपनी पत्नी की जगह किसी और को ले आए, जस्ट लाइक दैट! कभी होता है ऐसा? ये सब हम अपने आप को धोखा देने के लिए खूब साज़िशें करते हैं। हम बिलकुल वही कर रहे हैं जो हमें हमारी योजनाएँ करा रही हैं।
पर हम अपने आप को ये बताना चाहते हैं कि नहीं-नहीं, ये काम योजनाओं का नहीं है, ये काम तो परमात्मा का है। तो हम ही योजनाओं को हम जस्ट लाइक दैट का नाम दे देते हैं। ‘न, ये मैंने नहीं किया, ये तो कुछ प्रबोधन उतरा है आकाश से, ये तो कोई दैवीय अभिप्रेरणा है, मेरा काम थोड़े ही है।’ भाई, दैवीय अभिप्रेरणा चुन-चुनकर तुम्हें उन्हीं रास्ते पर भेजती है जिन रास्ते पर तुम ही जाना चाहते थे? अगर दैवीय है तो फिर तो उसे स्वछन्द, मुक्त होना चाहिए न, वो तुम्हें कहीं भी भेज सकती है। कहीं भी जाते तुम्हें हमने देखा नहीं, तुम्हें तो हमने हमेशा कुल कुछ चन्द चक्रों में ही घूमते देखा है। उन चक्रों से बाहर कभी देखा नहीं तो जस्ट लाइक दैट क्यों बोल रहे हो? सीधे-सीधे कहो, ‘मैं खुद अपने चक्रों में गिरफ़्तार हूँ।’
प्रश्नकर्ता: सर, जब अपने आप से विचार करती हूँ तो लगता है कि अभी तो बहुत स्ट्रगल कर रही हूँ जीवन को समझने के लिए, और बहुत दूर हूँ अभी सच से। जब लोग आस-पास के सवाल पूछना शुरू करते हैं कि तुम कौन हो, मतलब तुम कहाँ जा रही हो और तुम्हारे साथ क्या हो रहा हो, तुम्हारा अनुभव बाँटो, हमें भी बताओ कि क्या कर रही हो। तो जब उनको बताना होता है कि सवालों पर जवाब देना शुरू करती हूँ, तो बड़ी एक स्टेज आ जाती है जब ऐसा लगता है जैसे पता नहीं कितना पा लिया होगा, और एक बैकलेस (निराधार) सी लगती है। ऐसा लगता है जैसे मैं तो बड़ी अलग जगह हूँ, तुम्हारे मुकाबले में तो कुछ मज़े में हूँ।
आचार्य प्रशांत: ये सब बता दिया करिए अन्त में डिस्क्लेमर (अस्वीकरण), ‘तुम्हारे ही जैसी हूँ।’ सब बताइए जो बताना है, ‘बड़ा ऐसा है, बड़ा वैसा है, बड़ा इसमें रस रहता है; मौन रह जाती हूँ।’ फिर अन्त में ये कहिए, ‘लेकिन सखी आखिरी बात और, हम तो तुम्हारे जैसे ही हैं।’
प्रश्नकर्ता: कई बार लोगों को ऐसा लगता है कि दूसरे की ज़िन्दगी में बड़ी उत्तेजना से, वो खुश हैं या एक फाल्स इमेज अपने दिमाग में बैठाकर रखता है कि यदि उसके पास तो इतना पैसा है, तो वो इसमें बड़ा खुश है। अपने भी जीवन में वैसा ही रहेगा। उसे लगता है कि मेरे पास भी अगर ये हो जाएगा तो खुशी आएगी। तो एक जो कम्पैरीज़न से एक इल्यूजन (भ्रम) होता है, इसको कैसे?
आचार्य प्रशांत: वो तुम्हें शायद कोई छवि देना चाहते हैं, पर क्या तुम्हें वो उस छवि के लिए विवश कर सकते थे? तुममें अगर वास्तव में उत्सुकता होती सच्चाई जानने की, तो तुम छवि पर चले होते या यथार्थ पर?
प्रश्नकर्ता: यथार्थ पर।
आचार्य प्रशांत: और इतना मुश्किल तो नहीं है यथार्थ जाँचना। जिसकी फेसबुक पोस्ट पढ़कर के तुम प्रभावित हुए जा रहे हो, कितना मुश्किल है जाकर के उसके जीवन के यथार्थ को जाँच आना?
तुम्हारा दोस्त है और वो फेसबुक पर डालता रहता है, ‘यहाँ घूम रहा हूँ! देखो, मैं इतना खुश हूँ। स्वर्ग से सुन्दर जीवन है मेरा।’ ये विदेश से यात्रा करके आया है, ये नयी गाड़ी खरीद ली। ये मेरा डंडा मत लो, दूसरा आने वाला है। ये मेरी प्यारी नौकरी, ये मेरी प्यारी लिटिल माताजी, ये मेरी देवी जैसी पत्नी।’ और ये पढ़ रहे हो और तुम्हें ये लग रहा है कि हम ही रह गये। जितना पढ़ते हो उतना लालायित होते हो। थोड़ी देर में लार बहने लगती है, लैपटॉप शार्ट सर्किट हो जाता है, ‘हम ही रह गये!’ जाकर के, उठकर के उसके जीवन में झाँक आओ। कहानियों से मतलब है या सच्चाइयों से? मीडिया में किसी की कहानी छप जाती है और वो भी बिलकुल परी कथा है — ये ऐसे थे, ऐसे थे, फिर उन्होंने ये किया, अब देखिए ये ऐसा कर रहे हैं, ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया।
अगर वास्तव में तुम्हें उस कहानी से कोई ताल्लुक रखना है तो उसकी जड़ तक पहुँचो न। जिनको अपना आदर्श बनाए लेते हो, जिनको अपने मन पर बैठाए लेते हो, जाकर के वहाँ पर तथ्यों की जाँच क्यों नहीं कर आते? ज़्यादातर खेल तो इसमें मीडिया का है। तुम इसलिए नहीं कर आते क्योंकि तुम खुद तैयार बैठे हो बेवकूफ़ बनने के लिए। कोई तुम्हें बेवकूफ़ बना नहीं सकता बिना तुम्हारी मर्ज़ी के।
विज्ञापनदाता विज्ञापन दिये जाते हैं और तुम बेवकूफ़ बन जाते हो। वो नहीं बना सकते तुम्हें बेवकूफ़ अगर तुममें पहले ही वृति न बैठी होती झूठ के साथ रहने की। तुम क्यों अपने उस वृति को पोषण देते हो? जिसको जो भी माल बेचना है; और उत्सुक भी अक्सर वही लोग होते हैं जो खुद खाली बैठे होते हैं। जिसे जो भी माल बेचना है, वो उसी माल की गौरव बातें सुनाएगा। धूप में चाँद-सितारें माँगेगा। कितना मुश्किल है देख पाना कि धूल क्या है और हीरे-मोती क्या है? इतना मुश्किल है कि किसी की कहानियों को छोड़कर के उसकी आँखों को देखो? आँखें सच्चाई बता देंगी या कहानियाँ? बोलो।
श्रोतागण: आँखें।
आचार्य प्रशांत: तो क्यों तुम्हारे पास वो आँखें नहीं हैं जो कहानियों की जगह आँखों को पढ़ सके? तुम क्यों निर्भर हो किसी के द्वारा सुनाई गयी कहानियों पर, तुम उसकी आँखें क्यों नहीं पढ़ सकते? वो बोल रहा है, ‘मैंने ये कर लिया, मैंने वो कर लिया, मैं ज़िन्दगी में यहाँ पहुँच गया, वहाँ पहुँच गया।’ अरे! ज़रा उसकी शक्ल देखो, पूछो, ‘ये सब करके शक्ल ऐसी क्यों? ये सबकुछ करके जो अंजाम निकला है, वो तो ये शक्ल है।’ सुनिश्चित तुम ज़रूर झूठ बोल रहे हो। और यहाँ पर बात ऐसी भी नहीं है कि तथ्य भी हो उन दावों में जो दावे पेश किये जाते हैं, वो झूठ होते हैं। कौनसा माल तुमने बाज़ार से खरीदा है जो उन दावों पर खरा उतरता हो, जो वो करता है?
नौकरी तुम्हें आकर्षित करती है, नौकरी नौकरी थोड़े ही होती है, नौकरी दावे करती है। तुम उन दावों की ओर खिंचते हो। तुम्हें क्या लगता है, कोई नौकरी तुम्हें पैसे दे रही है तो तुम पैसे की ओर खिंचते हो? न, नौकरी उन दावों की ओर खींचती है। तुम उन दावों की ओर आकर्षित होते हो, तुम कहते हो, ‘पैसा मुझे सुख देगा।’ इस दावे की जाँच तो कर लो, ऐसा होगा भी कि नहीं होगा।
और ये तो फिर भी बहुत सूक्ष्म दावा होगा, और ये तो फिर भी बहुत सूक्ष्म जाँच होगी। किसी ने तुमसे कहा कि हम तुम्हें इतना पैसा देंगे, पैसा तुम्हें सुख देगा। और जाँचने पहुँच गये कि पैसा सुख देता है या नहीं देता। यहाँ तो घपला, स्कैम उससे पहले ही हो जाता है। अक्सर वो जितना दावा कर रहे होते हैं कि पैसा देंगे, उतना पैसा होता भी नहीं है। पर तुम बेवकूफ़ बनने के लिए ऐसे लालायित हो कि पहुँच जाते हो। सीटीसी आठ लाख! पूछ तो लो मिलता कितना है, पूछ तो लो। और जितना दावा किया उतना तो था भी नहीं, खुला झूठ बोला जा रहा है। और तुम तैयार बैठे हो उस झूठ में फँसने के लिए। जो तुम्हें बेवकूफ़ बना रहा है, वो तुम्हारा साथ दे रहा है। तुम्हें उसे धन्यवाद देना चाहिए, वो बिलकुल वही कर रहा है जो तुम उससे करवाना चाहते थे।
तुम बैठे हुए थे, तुम भीख माँग रहे थे, ‘कोई तो आए मुझे लूटने।’ वो तुम्हारी मर्ज़ी पूरी कर रहा है। तुम खुद पत्थर जाकर इकट्ठा करके बैठे हुए थे, ‘भगवान के नाम पर कोई आकर मेरे सिर पर पटक दो।’ तुमने माँगा था, तुमने खुद सारा इन्तज़ाम किया था। ‘ये देखिए, अगर आप नुकीले पत्थर से मारना चाहे तो इधर रखा है, बोधरे पत्थर से मारना चाहे तो इधर है, पूरी चट्टान उठा सकते हैं तो ये पीछे है। और अगर आप मुझे रिटी-गिट्टी मारकर मज़ा लेना चाहते हो तो यहाँ है।’
वो तो वही कर रहा है जो तुम चाहते थे, अब उसे दोष क्यों देते हो? खैर, दोष तुम देते नहीं, तुम तो यही कहते हो कि वो सब तुम्हारे भगवान हैं, हितैषी हैं। कुछ हो रहा है तुम्हारे साथ जो तुमने नहीं चाहा था? अब बोलते हो, ‘क्यों?’