प्रश्नकर्ता: आध्यात्मिक भ्रांतियाँ जो पुस्तक है उससे सवाल है। "अगर अज्ञान आँखों का अंधकार है तो ज्ञान है आँखों का अंधापन।"
आचार्य जी, जिस ज्ञान से मैंने इतना सबकुछ जाना है, आपको जानने का प्रयास किया है, सत्य को जानने का प्रयास कर रहा हूँ। अहम् क्या है और वहम क्या है, यह जानने का प्रयास कर रहा हूँ। वह ज्ञान कैसे आँखों का अंधापन हो सकता है?
आचार्य प्रशांत: जानने का प्रयास जब तक कर रहे हो तब तक ज्ञानी नहीं हुए न। जो जानने का प्रयास कर रहा है अभी वो खोजी है, वो साधक है, और उच्च कोटि का प्रयास है उसका तो वो मुमुक्षु है, ज्ञानी तो नहीं हुआ।
कह रहे हो कि अभी जानने की कोशिश है। जानने की कोशिश है जब तक तब तक ठीक है। जिस दिन कह दोगे 'जान गया, ज्ञानी हो गया', उस दिन जानने की कोशिश ही बंद कर दोगे न। इसीलिए कहता हूँ कि ज्ञान आँखों का अंधापन है।
ज्ञान का अर्थ होता है एक पूर्णविराम ऐसी जगह पर जहाँ कोई पूर्णता है नहीं। ज्ञान का अर्थ होता है तुमने विराम लगा दिया एक ऐसी जगह पर जहाँ तुमको अभी रुक नहीं जाना चाहिए था। जहाँ विश्राम नहीं है वहाँ तुमने विराम लगा दिया। तो तुम ऐसी जगह पर रुक गए न जहाँ आराम नहीं मिलेगा? रुक गए न?
ज्ञान का यही अर्थ होता है। अपने आप को समझा दिया कि हम तो जान गए। जब तक जान रहे हो, जब तक जानते चल रहे हो तब तक एक बात है। जिस दिन कह दिया कि, "ज्ञानी हो गया मैं!" उस दिन बात बिलकुल दूसरी है।
जो जानता चल रहा है उसके लिए जानना एक सतत प्रक्रिया है, प्रोसेस। और जो कह रहा है कि वो जान गया, उसके लिए अब आगे जानने की कोई संभावना बची नहीं रही। उसका ज्ञान अब डब्बा बंद इकाई है, एक पैकेज्ड एंटिटी है। 'मैं हूँ और ये मेरा ज्ञान'।
जो जानता चल रहा है उसके लिए जानना ऐसा है जैसे सरिता का प्रवाह, उसमें ताज़गी है, उसमें नयापन है, निरन्तरता है और उसमें कभी सड़ांध नहीं उठने वाली।
ये जो डब्बा-बंद ज्ञान है। किस डब्बे की बात कर रहा हूँ? ये खोपड़ा (अपने सिर की ओर इशारा करते हुए)। ये जो डब्बा-बंद ज्ञान है, जिसके होते हम दावा करते हैं ज्ञानी हो जाने का, ये सड़ता है क्योंकि जो वास्तविक ज्ञान है वो कभी भी स्थिर नहीं हो सकता, वो सदैव चलाएमान होता है। तुम्हें जानते रहना पड़ता है।
तुम कभी ये नहीं कह सकते कि, "मैं जानता हूँ"। ये कहना, "मैं जान रहा हूँ" एक बात है, इसमें बड़ी विनम्रता है और असलियत है। और ये कहना कि मैं जानता हूँ, ये ज्ञान को मार देने की बात है। ये ज्ञान की लाश है, 'मैं जानता हूँ'।
तो इसलिए समझाने वाले कह गए हैं कि अज्ञान तो पता नहीं कितना बुरा है, ज्ञान निश्चित रूप से बहुत बुरा है। अज्ञानी कम-से-कम इतनी विनम्रता तो रखता है कि नहीं जानता। हालाँकि ये विनम्रता भी एक प्रकार की आश्वस्ति है। वो कह रहा है कि, "मुझे पक्का पता है कि मैं नहीं जानता।" अज्ञानी यहाँ फँसता है, कि उसे ये ज्ञान है कि वो अज्ञानी है।
लेकिन ज्ञानी तो और बुरा फँसता है। वो कहता है कि, "मुझे ज्ञान है।" ये तो मारा गया, अब इसे कौन बचाएगा? और ये सबकुछ किसलिए? ताकि तुम अपने बारे में दम्भपूर्वक कुछ तो कह सको। अपने बारे में कुछ कहना ज़रूरी होता है ताकि हमारी सत्ता कायम रहे।
जो 'मैं' होता है न, ये अपने आप को लेकर के बड़ी उहापोह में होता है। इसे पक्के तौर पर ये भी नहीं पता होता कि 'मैं हूँ या नहीं हूँ? मेरी कोई हस्ती कोई अस्तित्व है भी कि नहीं?'
तो ये बार-बार फिर क्या करता है? अपने आप को केंद्र में रखकर कुछ बातें छोड़ता है। पतंगे उड़ाएगा, जुमले बताएगा। बड़ी-बड़ी बातें बोलेगा, जिनके केंद्र पर क्या बैठा होगा? 'मैं'। उस हर वक्तव्य का आशय, उस हर वक्तव्य का मन्तव्य एक ही होता है - 'मैं हूँ'।
तुमने कहा, "मैं अज्ञानी हूँ"। तो ये मत समझना कि साहब अपने अज्ञान की घोषणा कर रहे हैं। ये अज्ञान की उद्घोषणा नहीं कर रहे। ये अपने होने की उद्घोषणा कर रहे हैं। "मैं अज्ञानी हूँ", इसमें 'अज्ञानी' शब्द को बहुत हल्का सुनना, अज्ञानी शब्द की कोई कीमत नहीं है। इन्होनें वास्तव में क्या कहा है? "मैं हूँ"।
इसी तरह से जो कहे "मैं ज्ञानी हूँ", ये ना समझना कि ज़्यादा मतलब उन्हें अपने आप को ज्ञानी सिद्ध करने से है। उन्हें ज़्यादा मतलब ये सिद्ध करने से है कि 'मैं हूँ'। क्योंकि हम जानते ही नहीं कि हम हैं भी या नहीं। हम हैं भी या नहीं?
तो फिर खूब कहानियाँ… जो ना जानता हो वो है भी कि नहीं, वो कहे कि, "मैं ज्ञानी हूँ" तो ये तो मतलब… एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा। इन्हें ये तो पता है नहीं कि हैं भी कि नहीं, और ऊपर से कह रहे हैं कि हम हैं भी और हम ज्ञानी भी हैं।
जैसे तुम्हारे पास टिकट भी ना हो फ्लाइट का, टिकट भी नहीं है और तुम किसी को फ़ोन करके बोलो कि विंडो सीट (खिड़की के तरफ वाली सीट) चाहिए। तुम्हें घुसने कौन दे रहा है? तुम हो भी? उस फ्लाइट में तुम हो भी? अभी तो यही नहीं पक्का है कि तुम हो भी या नहीं लेकिन तुम उससे भी आगे की बात बोल रहे हो। क्या? "खिड़की वाली कुर्सी देना भाई!" ये हालत है ज्ञानियों की।
'मैं' एक तो वैसे ही ताश का महल और फिर उस ताश के महल पर तुम जाकर के बैठ भी गए हो ज्ञानी बन कर।