प्रश्न: आचार्य जी, दैनिक जीवन में छोटी-छोटी बातों में फँस जाता हूँ, बहुत ज़्यादा सोचने लगता हूँ, इससे बाहर कैसे निकलूँ?
आचार्य प्रशांत: गाड़ी चला रहे होते हो और सौ की गति से गाड़ी चली जा रही है। वहाँ तो न जाने कितना कुछ है जो तुम्हारे सामने आता जाता है। आता-जाता है न? आता-जाता है कि नहीं? रुक-रुक कर हर एक चीज़ का परीक्षण करते हो क्या और सोचते हो?
सौ की गति से जा ही रहे हो क्योंकि मंज़िल से प्यार है। मंज़िल से प्यार है इसीलिए द्रुत गति से भगे जा रहे हो मंज़िल की ओर, और बीच में बहुत कुछ आएगा। क्या करोगे? उपेक्षा करोगे उसकी, और क्या करोगे।
पर अगर काम कुछ नहीं है, यूँही व्यर्थ हो, जिसे कहते हैं, वेला। वो टहलने निकला है, जाना कहीं नहीं है, यूँही टहल रहा है, समय काट रहा है, मटरगश्ती। तो उसको अब एक दिख गया राह का गिट्टा-रोड़ी-पत्थर, तो उसको उठाएगा (उँगलियों से उठाने का इशारा करते हैं), पूछेगा, ‘यह कैसे उत्पत्ति में आया होगा?’
‘किसी ज्वालामुखी से लावा बहा। कालांतर में वो लावा ठंडा होकर जम गया। उससे एक आग्नेय चट्टान का जन्म हुआ। फिर वर्षा हुई और बरसते पानी ने पत्थर को तोड़ डाला, तो पत्थर छोटा पत्थर बना, फिर और छोटा पत्थर बना। छोटा होकर किसी नदी में पहुँच गया, नदी ने उसके नुकीले किनारे घिस डाले और देखो वह गोल-गोल हो गया और मेरे हाथ में आ गया।‘ विश्लेषण जिंदाबाद!
ये तुम कर क्या रहे, काहे को कर रहे हो? ये तुम सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि फ़ुरसत बहुत ज़्यादा है। जो सौ की गति से गाड़ी भगा रहा हो, वो यह सब विचार करेगा कि रास्ते में जितने रोड़ी-पत्थर आ रहे हैं, वो क्या हैं। इन पर चढ़ा दें या काट लें। अरे! चढ़ाना हो चढ़ा दो, काटना हो काट लो, मंज़िल तक पहुँचो भाई। मंज़िल से कुछ प्रेम है कि नहीं है? जवाब दो।
मन कोई नियम-कायदे थोड़े ही मानता है। वो ये थोड़े ही कहेगा कि छोटी चीज़ है तो उस पर थोड़ा ही समय व्यतीत करो। अनुपातों का नियम वहाँ चलता ही नहीं है। वो छोटी चीज़ पर भी अनन्त समय बिता सकता है। तुम्हें एक मच्छर से ही अगर आसक्ति हो जाए, अब्सेशन `, तो तुम जीवन के अस्सी साल उस मच्छर के बारे में ही सोचने में बिता सकते हो। और हम मच्छर जितनी चीज़ों के बारे में सोचने में ही तो पूरा जीवन बिता देते हैं न।
कोई मेरी जायदाद न हड़प लें, कोई मेरी बीवी न ले भागे, मेरे बच्चों का क्या होगा, मेरे बाल कैसे दिख रहे हैं, लोगों में मेरी इज़्ज़त तो नहीं गिर गयी। इन्हीं बातों को सोचते-सोचते ज़िन्दगी कट जाती है। क्यों कट जाती है? क्योंकि मटरगश्ती कर रहे हैं, भूल ही गये हैं कि जीवन माने यात्रा। यात्रा, जिसमें समय सीमित है और समय पूरा हो जाए उससे पहले मंज़िल तक पहुँचना है।
तो मटरगश्ती कर रहे हैं, इधर-उधर फ़ालतू समय गँवा रहे हैं। जैसे तीन घंटे की परीक्षा हो किसी कॉलेज में, और कोई भूल ही जाए कि परीक्षा चल रही है। परीक्षा के बीच में उठे और इधर-उधर घूमना शुरू कर दे। ‘ये खंभे में निशान क्यों लगा है?’ ये सोचते-सोचते आधा घंटा बिता दिया और वहाँ घड़ी टिक-टिक कर रही है। तीन घंटे में तुमसे उत्तर पुस्तिका छीन ली जाएगी वापस, और जीवन व्यर्थ बिताया जा रहा है बेवकूफ़ी की बातों पर, बीतते लम्हों की कोई क़द्र ही नहीं। मच्छर!
कभी दी है कोई महत्वपूर्ण परीक्षा? परीक्षा केंद्रों पर भी मच्छर-खटमल ख़ूब होते हैं। अब यहाँ पर पूरा प्रश्नपत्र रखा हुआ है और तुम देख रहे हो मच्छर बैठा हुआ है वहाँ पर, सामने दीवार पर। करना क्या है इस बच्चू का। घड़ी बोल रही है, टिक-टिक-टिक-टिक। मच्छर भी उपद्रवी, वो जान गया है कि यह अब प्रेम में पड़ गया है मुझसे। तो अब वो नाचेगा तुम्हारे आस-पास, रिझाएगा घूँघट उठा-उठाकर, कानों में गीत गाएगा।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
अभी यह चाय आती है, ठंडी हो जाती है, पहली ठंडी होती है तो मँगाता हूँ गर्म लेकर आओ, तो दूसरी आती है, ख़ुद ही मँगायी है गर्म चाय, वह ठंडी हो जाती है। फिर ऐसे करता हूँ (अपने हाथ से सर पर एक मार करते हैं) कि भग! दूसरी बार भी ठंडी कर ली। फिर लाज आती है, तीसरी बार क्या माँगू, तो ठंडी वाली उठाकर पी लेता हूँ।
यहाँ होश किसको है कि चाय के तापमान पर ध्यान रखे बिलकुल। गर्म मिल गयी तो अच्छी बात, अब ठंडी हो गयी तो यही पी लो भाई, कुछ ज़्यादा क़ीमती चीज़ यहाँ चल रही है। चाय-पानी के लिए थोड़े ही बैठे हैं कैमरे के आगे।
यही किया करें आचार्य जी कि बैठते ही कहें कि जलपान कहाँ है? और दुनियाभर में प्रसारित हो रहा है कि आचार्यजी ठूँसे जा रहे हैं। लाना ज़रा समोसा, और पोहा तो आज आया ही नहीं! और वहाँ घड़ी टिक-टिक-टिक-टिक कर रही है। सत्र है दो घंटे का और डेढ़ घंटे आचार्य जी ठूँसते ही रहे। कैसा लगेगा तुम्हें फिर? कैसा लगेगा बेटा? तो जीवन भी दो ही घंटे का है, क्यों व्यर्थ कर रहे हो?
प्र: आचार्य जी, आप अक्सर बोलते हैं कि जीवन में ऊँचा उद्देश्य होना चाहिए, लेकिन वह ऊँचा उद्देश्य है क्या?
आचार्य: ऊँचा उद्देश्य यही है कि ऐसा उद्देश्य पा लो कि बाक़ी सब के प्रति निरुद्देश्य हो जाओ।
प्र: तो क्या है वो?
आचार्य: वो तुम्हारे सामने है, तुम इधर-उधर क्यों भटक रहे हो। यहाँ जिसकी बात हो रही है वही परम् उद्देश्य है। जीवन ऐसे जिया जाए कि उसकी बात समझें, समझाएँ और क्या उद्देश्य होगा!