द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्। जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।१०.३६।।
"मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों की विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।"
~ श्रीमद्भगवद्गीता, दसवाँ अध्याय, छत्तीसवाँ श्लोक,
प्रश्नकर्ता: नमस्ते! श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि वो मनुष्य के कर्मों में मौजूद हैं, वो सर्वव्यापक हैं, सूरज का तेज हैं, प्रभावी का प्रभाव हैं, निश्चेयता का निश्चय हैं। अगर वो कण-कण में हैं, सर्वत्र हैं, हर घटना, हर विचार, हर व्यक्ति में हैं, तो फिर मैं पीड़ा में क्यों हूँ? क्यों कोई घटनाएँ, कुछ चुनाव, कुछ लोग मुझे दुख दे जाते हैं, जबकि उनमें भी श्रीकृष्ण हैं और मुझमें भी श्रीकृष्ण हैं, फिर दुख कहाँ से आया?
आचार्य प्रशांत: दुख इसलिए आया, क्योंकि तुम्हें श्लोक समझ में नहीं आया। यहाँ पर श्रीकृष्ण का ये आशय बिलकुल भी नहीं है कि वो कण-कण में व्याप्त हैं। ये नहीं कह रहे हैं। जो पूरा दसवाँ अध्याय ही है, इसको ध्यान से पढ़िए। थोड़ा अलग है, अनूठा है, विचित्र है, रोमांचक भी है। इस पूरे अध्याय के सार को, इसकी लय को समझेंगे तो दिखाई देगा कि यहाँ पर श्रीकृष्ण कह क्या रहे हैं।
वो कह रहे हैं, मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ, जीतने वालों की विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय हूँ, सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ। वो वास्तव में कह रहे हैं, ‘जो भी कुछ जिस भी क्षेत्र में श्रेष्ठतम है, श्रीकृष्ण वो हैं।’ तो कहेंगे कि मैं सब नक्षत्रों में सूर्य हूँ। क्योंकि जहाँ तक पृथ्वी के लोगों की बात है, उनके लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण और सबसे ज़्यादा निकट कौनसा तारा है? सूर्य। तो कहेंगे, ‘बाकी सब तारों की अपेक्षा मैं सूर्य हूँ।’ तो उनका आशय है कि मैं वो हूँ जो उच्चतम है, जो श्रेष्ठतम है। जो सर्वाधिक उपयोगी है।
वो एक अलग मुद्दा है कि क्या बाकी तारों में श्रीकृष्ण नही हैं? हाँ, ठीक है। लेकिन यहाँ पर उनका ये आशय नहीं है। तो कह रहे हैं, ‘मैं छल करने वालों में जुआ हूँ।’ कह रहे हैं, ‘दुनियाँ में बहुत तरह के छल होते हैं — छोटे छल, बड़े छल, लेकिन जुए से बड़ा कोई छल नहीं होता।’ और ये बात वो कह किससे रहे हैं? ये बात वो एक ऐसे व्यक्ति से रहे है, जो जुए से बहुत मारा हुआ है। शकुनी ने पकड़-पकड़कर द्यूत-क्रीड़ा में पांडवों को जुए में बर्बाद किया था। और एक नहीं, दो बार। तो समझा रहे हैं अर्जुन को कि अर्जुन, बहुत तरह के धोखे होते हैं न, पर धोखों में भी जो सबसे बड़ा धोखा हो सकता है, जैसे तुम्हारे साथ हुआ था, बहुत बड़ा धोखा, वो सबसे बड़ा धोखा मैं हूँ।
अब यहाँ पर बात ये नहीं है कि श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण धोखे का नाम है। जब श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि मैं सबसे बड़ा धोखा हूँ, तो उनका ज़ोर धोखे पर नहीं है, उनका ज़ोर सबसे बड़े होने पर है। उल्टा मत पढ़ लीजिएगा कहें कि देखो गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं न कि वो जुआ समान हैं, तो माने जुए में कृष्णत्व है, आओ जुआ खेलें। हमारा कोई भरोसा नहीं, हम अर्थ का अनर्थ ही कर डालें।
तो श्रीकृष्ण यहाँ पर जुए की तरफ़दारी नहीं कर रहे हैं, न ही आपको सिखा रहे हैं कि जुआ खेलो। जुआ ही खेलना होता तो अर्जुन को बोलते कि अर्जुन काहे के लिए लड़ाई कर रहा है, चल हम तुम बैठ जाते है और पासे खड़काते हैं। रख गांडीव उधर। और गीता ज्ञान गया एक तरफ़, श्रीकृष्ण-अर्जुन बैठे बीच में मैदान के जुआ खेल रहे हैं।
जुआ खेलने के पक्षधर नहीं हैं कृष्ण, उनका ज़ोर किस पर है, उच्चतम होने पर, उच्चतम होने पर। पूरे अध्याय में बार बार वही कह रहे हैं, ‘जो भी जिस भी श्रेष्ठ में उच्चतम है, वो मैं हूँ। देवताओं में जो उच्चतम है, वो मैं हूँ। हिमालय की सब चोटियों में जो उच्चतम है, वो मैं हूँ। पुरुषों में जो उच्चतम है, वो मैं हूँ। अवतारों में जो उच्चतम है, वो मैं हूँ। श्रेष्ठधारियों में जो उच्चतम है, वो मैं हूँ। नदियों में जो उच्चतम है, वो मैं हूँ।’ और भाँति-भाँति के उदहारण देकर के अर्जुन से एक ही बात कही है, कुल मिला-जुलाकर आशय यही है कि बेटा! उच्चतम मैं हूँ। अर्थात् हर क्षेत्र की जो उच्चता होती है, वो एक साझा शिखर होती है। ‘नदियों की उच्चता मैं, पर्वत श्रृंखलाओं की उच्चता मैं, पुरुषों की उच्चता मैं, स्त्रियों की उच्चता मैं, पशुओं में भी जो श्रेष्ठतम उच्चतम पशु है वो मैं। माने जितनी भी ऊँची चीज़े हैं, वो ऊपर जाकर के एक में लय हो जाती हैं।
समस्त श्रेष्ठता में कुछ एकत्व है, जैसे कि जहाँ कहीं भी सौन्दर्य हो, वो किसी एक ही जगह से निकलता हो। जैसे कि जहाँ कहीं भी रोशनी हो, किसी एक ही जगह से निकलती हो। जैसे कि जहाँ कहीं भी सच्चाई हो, किसी एक ही केन्द्र से आती हो। जैसे कि जो कुछ भी जीवन को जीने लायक बनाता है, उसका एक साझा ही जन्म स्थान होता हो। ये बात कह रहे हैं श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, मुझसे ऊँचा कोई नहीं।
‘जहाँ कहीं भी तुम कुछ भी ऐसा देखना जो सम्मान के काबिल है, जहाँ कहीं भी तुम कुछ ऐसा देखना जिसे चाहा जा सकता है, जहाँ कहीं भी कुछ ऐसा देखना जिसके सामने सिर झुकाया जा सकता है, तो जान लेना वो मैं हूँ।’ ये बात कह रहे हैं श्रीकृष्ण यहाँ पर।
बात समझ रहे हो?
और ऊँचे जाते जाओ, जाते जाओ, जाते जाओ, जब तक कि वो ही न हासिल हो जाए, जिसके होने से सारी ऊँचाइयाँ हैं। और तुम्हारे जीवन में जब भी कभी कोई ऊँचाई आये, सच्चाई आये, अच्छाई आये, सदा याद रखो कि वो किसकी रहमत से आ रही है। कुछ अगर आपके जीवन में निकृष्ट है, उसका श्रेय आपको है। बात सीधी समझिएगा! और ये बात मैं भक्ति भाव में नहीं कह रहा हूँ, बहुत समझकर कह रहा हूँ, भावुकता इसमें नहीं है। हमारे जीवन में जहाँ कहीं भी मुसीबत हो, परेशानी हो, दुख हो, क्लेश हो, उसके ज़िम्मेदार हम हैं। ‘हम’ माने ‘अहम्’।
और जीवन में जब भी कुछ ऐसा हो, जिसमें सौन्दर्य हो, आनन्द हो, मुक्ति हो, आह्लाद हो, कुछ दिखाई दे, समझ आए, बोध हो तो जान लीजिएगा कि वहाँ आप पीछे हटे हैं और कोई और आगे आया है। वो जो कोई और है, जिसके आगे आने से जीवन सुरभित, सुगन्धित हो जाता है, उसी का एक नाम है श्रीकृष्ण। उसके कई और नाम भी हो सकते हैं, आप चाहें तो उसे कोई नाम न दें। लेकिन समझने की बात ये है कि वो ऊँचाई आपको हासिल अपने बूते नहीं होने की है। अपने बूते जो हमें हासिल होता है, वो हमारे चेहरों पर लिखा होता है। सब तरह के तनाव, परेशानियाँ, मूर्खताएँ। हम पीछे हटते हैं, फिर कुछ और होता है और अगर आपके साथ कुछ और हुआ है, जाने-अनजाने आप पीछे हटे होंगे।
श्रीकृष्ण माने वो मूर्ति ही नहीं, जो आपको देवालय, कृष्णालय में दिखाई देती है। श्रीकृष्ण माने वो व्यक्ति ही नहीं जो गीताकार है। जीवन में, संसार में जहाँ कहीं भी कुछ श्रद्धेय है, उसी का नाम श्रीकृष्ण है।
बारिश की एक बूँद हो सकती है, जो आपका मन साफ़ कर जाए। एक नन्हीं सी बारिश की बूँद। लेकिन कभी होता है, ऐसा संयोग बैठता है कि वो पड़ी और एक नन्हीं सी बूँद मन का टनों कचरा साफ़ कर गयी। उस बूँद का नाम श्रीकृष्ण है। किसी की कोई ज़रा सी बात हो सकती है, जो अन्तर में अनुगूँज बनकर स्थायी हो गयी और मौन पसर गया, भीतर-ही-भीतर। वो जो ज़रा सी बात है, वो श्रीकृष्ण हैं।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘जीवन में जब भी कुछ ऐसा मिले, जो तुमको रास्ता दिखा जाए, जो तुमको रोशन कर जाए, समझ लेना श्रीकृष्ण मिल गये। तो श्रीकृष्ण को किसी एक मूर्ति, एक छवि, एक प्रतिमा तक सीमित मत कर दीजिएगा। न ही श्रीकृष्ण के कृतित्व को श्रीमद्भगवद्गीता तक सीमित कर दीजिएगा। जब भी कहीं कोई बात कही गयी है और उस बात में सच गूँजता हो, मान लीजिए वो बात श्रीकृष्ण ने ही कही है, भले कहने वाला कोई भी हो, आप जान लीजिएगा कही श्रीकृष्ण ने ही है। ये कह रहे हैं, श्रीकृष्ण यहाँ पर इस अध्याय में।
सब रूप जो ले जाते हों मुक्ति की तरफ़, श्रीकृष्ण के ही हैं। जहाँ बोध है, जहाँ प्रकाश है, जहाँ सौन्दर्य है, जहाँ प्रेम है, उसी का नाम कृष्णत्व है।