राणा यशवंत: स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक राजनेता जो अपने विचार, निर्णय, दृष्टि और दर्शन इस लिहाज से सर्वाधिक चर्चित रहा। जो सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों पर सबसे गहरा असर डालता रहा। जिसके नाम से दलित चिंतन और दलित राजनीति दोनों चलती रही और देश में जो बाकी दल थे। वो अपने अपने राजनैतिक नेतार्थों के लिए बाबा साहब अंबेडकर और उनके चिंतन को या उनकी चिंता को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाकर चलते रहे। आज की तारीख में अगर सबसे अधिक विवाद किसी को लेकर के है तो बाबा साहब अंबेडकर की सार्थकता, उनकी प्रासंगिकता और उनके नायकत्व को लेकर के है। बाबासाहेब आंबेडकर, उनकी दृष्टि, उनके विचार भारतीय राजनीति और समाज में जो परिवर्तन हुए उन पर उनका असर, गढ़ मामला है।
जाहिर है इस तरह के गूढ़ प्रश्नों पर एक चर्चा जरूरी है और आचार्य प्रशांत से अलग कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो सकता है कि इस पर लंबी और अच्छी चर्चा की जाए और लोगों के सामने एक साफ सुथरी राय रखी जाए। आपका बहुत-बहुत स्वागत है।
कैसे देखते हैं आप डॉ. अंबेडकर और उनके विचार और भारत को लेकर के उनके नजरिए को
आचार्य प्रशांत: मानवतावादी विद्वान है वो, जो जीवन के हर क्षेत्र में, इंसान कितनी ऊंचाइयां छू सकता है इसको जानते समझते थे और ये भी देख रहे थे कि कैसे हमारी जनसंख्या के बहुत सारे हिस्से हैं जो उन अनेक प्रकार की चोटियों पर पहुंचने से वंचित हैं। तो पहली बात तो यह कि जितनी भी दिशाएं हो सकती हैं मानव उत्कृष्टता की उन्होंने सभी की बात करी है। एक दो की नहीं। उनके काम का जो कैनवस है वह बड़ा विस्तृत है और इसी तरीके से जितने लोगों के लिए उन्होंने बात करी है जितने दलों समुदायों के लिए वर्गों के लिए वो वर्ग भी कोई एक दो नहीं है। उनका जो मानवतावाद है उसने बाहें फैला करके लगभग सभी को गले से लगाया है।
अब लेकिन आज हो यह रहा है कि अह विभिन्न तरह के वर्ग हैं और दल हैं। उसमें से कुछ राजनैतिक हैं, सब सामाजिक हैं। सबके अपने-अपने अह हित है, स्वार्थ है, एजेंडा हैं। वह इसके हिसाब से एक बहुत माइक्रो व्यू, एक संकीर्ण दृष्टि ले रहे हैं। जो कि गलत नहीं है पर अपर्याप्त है।
विहंगम दृष्टि से जो उनका संपूर्ण विस्तार है उसको लोग या तो देख पा नहीं रहे या देखना चाह नहीं रहे। तो डॉक्टर अंबेडकर सचमुच क्या है? इसकी पूरी बात करने वाले लोग मुझे बहुत कम दिखाई देते हैं। हां, उनकी आधी अधूरी बात उठा कर के और किसी तरीके से अपने उद्देश्यों के लिए उनके नाम का या उनके कृतों का इस्तेमाल कर लेना यह बहुत हो रहा है। और इसमें फिर कहूंगा मैं कि उनके नाम का जहां भी इस्तेमाल करा जा रहा है। वह गलत नहीं है। बिल्कुल हो सकता है उन्होंने कोई बात कही हो या किसी मुद्दे पर उनकी कोई राय हो जो आज सामने रखी जा रही हो। लेकिन उनका जो दायरा है उनकी किसी एक मुद्दे पर राय से कहीं ज्यादा बड़ा था। तो जब तक आप उस व्यक्ति को उसकी संपूर्णता समग्रता में नहीं समझेंगे तब तक आपको यही लगता रहेगा कि वह किसी एक दिशा में और किसी एक वर्ग के प्रतिनिधि थे। ना वह किसी एक दिशा में हमें या विश्व को ले जाना चाहते थे, ना उनकी जो प्रखर प्रतिभा थी चेतना थी इंसान के काम के किसी एक क्षेत्र तक सीमित थी और ना ही उनकी चिंता का उनकी करुणा का जो दायरा था वो बस जनसंख्या के किसी एक वर्ग के लिए था वो सबके हैं।
ये हम जितनी जल्दी समझ जाएंगे उतनी जल्दी हम उनको उनकी सही जगह उनके सम्यक स्थान पर प्रतिष्ठित कर पाएंगे। और उसका मतलब यह नहीं होता है किसी के काम का दायरा विशाल हो, किसी के हृदय में उदारता बहुत हो। इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उसको देवता भगवान बनाकर पूजने लग जाए। एक एक क्रिटिकल अप्रोच हमेशा जरूरी होती है। सभी के लिए जरूरी होती है। तो निश्चित रूप से आप समालोचना करें।
लेकिन आप जिसकी आलोचना भी करना चाहते हैं, पहले उसको पूरा देख-समझ तो लें। जिसको आप जानते ही नहीं, उसकी आलोचना किस आधार पर आप कर रहे हैं?
राणा यशवंत: राजनीतिक के अपने निहितार्थ होते हैं। तो किसी विचारधारा को आप दरकिनार कर दें या फिर थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दें या अपने दूरी बना लें। इसका मतलब शायद यह नहीं होता है कि आपकी उससे नाइत्तफाकी है। हो सकता है कि उस कार्य विशेष में आप अभी उस फैसले को उस तरीके से रखना नहीं चाहते हैं, चाहने के बावजूद। तो अंबेडकर क्या उस समय एक ऐसे नायक थे हिंदुस्तान के जो राजनीति के लिए वैसे तो तो अनुकूल थे लेकिन सामाजिक अनुकूलता नहीं थी जो राजनीति उनको दूर रखी….
आचार्य प्रशांत: राजनीति के लिए कभी अनुकूल थे ही नहीं। उनकी जो शुरुआत हुई है वो अर्थशास्त्र से हुई है, ठीक है ना। कोलंबिया लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स डबल पीएचडी। ये आदमी राजनीति थोड़ी करना चाहता था।
कोई भी विद्वान आदमी आमतौर पे राजनीति को अपनी पहली पसंद नहीं बनाता है।
वो भी नहीं बना रहे थे, वो वापस आते हैं अपनी पीएचडी पूरी करके और वहां पर ग्रेस इन थी। वहां पर प्रैक्टिस वगैरह करके और यहां आते हैं तो जो बड़ौदा राज्य था उसी ने स्पोंसर करा था तो जाहिर था कि पहले वो उनके साथ काम करेंगे। है ना कि आपने मुझे पढ़ाया है तो अनुग्रह के तौर पर आपके अब वहां वो काम करने गए तो काम करने में वो पा रहे हैं कि पूर्वाग्रह और जाति आड़े आ रही है। उस पर उन्होंने वो जो लिखा है बड़ा सुंदर वेटिंग फॉर अ वीजा वो पढ़ने लायक है। वो फिर उनको काम छोड़ना पड़ा।
वो काम छोड़ के राजनीति में नहीं गए। सबसे पहले वो गए हैं एडमिनिस्ट्रेशन में। एडमिनिस्ट्रेशन छोड़ के वो गए हैं एकेडमिक्स में। वो शिक्षाविद बने। तो मुंबई के एक कॉलेज के वो प्रिंसिपल बने। तो वो जब प्रिंसिपल बन रहे हैं तो वहां पा रहे हैं कि छात्रों के बीच में तो वो स्वीकार भी हो रहे हैं उन्हें प्यार भी मिल रहा है। लेकिन जो बाकी सब थे वहां टीचर्स एचओडीज ये वो विभिन्न संकायों के लोग उनके फिर वही चीज आड़े आ रही है कि जाते जाते तो वहां से चल कर के फिर वो आते हैं राजनीति में नहीं अभी भी राजनीति में नहीं आ रहे वो।
अब वो आते हैं लीगल प्रैक्टिस में और यह चल रहा है 1925 के आसपास का समय। अब वो लीगल प्रैक्टिस में आते हैं तो यहां पर कुछ ऐसा होता है जो उनके काम के और उनकी पहुंच के दायरे को विस्तार दे देता है। हम ये समझना चाह रहे हैं कि अंबेडकर द पॉलिटिशियन आ कहां से रहे हैं? मैं कहना चाह रहा हूं वो पॉलिटिशियन थे ही नहीं फंडामेंटल रूप से। पर यही वजह है कि उनको फिर राजनीति में बहुत सफलता भी नहीं मिली है।
तो इसके बाद वह लीगल प्रोफेशन में आ जाते हैं और तीन जने थे जिन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ कुछ बोल दिया था। तो जब बोल दिया था तो उन पर मुकदमा डाल दिया गया था। तो अंबेडकर इन तीन व्यक्तियों के पक्ष में मुकदमा लड़ते हैं और इनको बरी करा लेते हैं। तो यहां से उनकी जो है थोड़ी सी जो ख्याति है, वो फैलती है। और उसके बाद जो होता है वह है 1927 का महा सत्याग्रह कि…। अभी भी वह राजनीति में नहीं आए हैं। राजनीति में वो अभी भी नहीं है। अभी भी वो हमने कहां से शुरुआत करी कि मैनेजर एडमिनिस्ट्रेटर अच्छा बीच में उन्होंने इन्वेस्टमेंट कंसल्टिंग भी करी है क्योंकि इकोनॉमिक्स के हैं ना वो तो फाइनेंस समझ रहे हैं। तो उन्होंने इन्वेस्टमेंट कंसल्टिंग भी करी है।
डॉ. अंबेडकर ने सारे द्वार खटखटाए हैं राजनीति में आने से पहले। उन्हें कोई शौक नहीं था कि इस रास्ते पर आ जाए। आज डॉ. अंबेडकर के नाम के साथ राजनीति ही राजनीति जुड़ गई है और वो ऐसे व्यक्ति हैं जो स्वयं राजनीति में आसानी से आना नहीं चाहते थे।
तो उसके बाद महा सत्याग्रह वो 1923 में एक कानून पास हो गया था कि भाई ये जितनी भी पब्लिक वाटर बॉडीज हैं ये सबके लिए खुली रहेंगी। तो छुआछूत अस्पृश्यता ये सब आप नहीं कर सकते। एक पब्लिक वाटर बॉडी है तो उससे सब पानी पी सकते हैं। तो महाद शहर है छोटा सा शहर है। वहां पर ये हो रहा था कि भाई जो जो ऊंची जात के थे सवर्ण वगैरह
राणा यशवंत: तालाब में जाने पाबंदी थी
आचार्य प्रशांत: वो जाने में पाबंदी थी तो वो लेकर के जाते हैं लोगों को अपना ऑर्गेनाइज करके….
राणा यशवंत: एक टर्निंग पॉइंट साबित होता है
आचार्य प्रशांत: वो एक टर्निंग पॉइंट साबित होता है और वहां वो क्या देखते हैं कि जब उनके साथ वालों ने उनके अनुयायियों ने वो पानी पी लिया तो उसके बाद 108 घड़े गोबर के और 108 घड़े गौमूत्र के उसमें डाले गए। और कहा गया कि यह सब जो इंसान इस पानी को छू के गए हैं, यह पानी गंदा हो गया इंसानों के छूने से और पानी साफ हो जाएगा जब उसमें गोबर और मूत्र डाला जाएगा और गोबर और मूत्र खड़े-खड़े भर के डाला गया मंत्रोच्चारण के मध्य उसमें और फिर कहा गया पवित्र हो गया पियो। ये सब उन्होंने देखा, ये सब उन्होंने देखा। उसके बाद फिर उनको दिखाई देने लगा कि काम बस अपने लिए नहीं करा जा सकता। कि मैं कहीं पर जाकर के जुरिस्ट बन जाऊं, इकोनॉमिस्ट बन जाऊं, प्रोफेसर बन जाऊं, एडमिनिस्ट्रेटर बन जाऊं, कंसलटेंट बन जाऊं। मैं सिर्फ अपने लिए काम नहीं कर सकता। तो वहां से फिर जो अलग-अलग तरीके के टेंपल एंट्री मूवमेंट्स होते हैं। तो एक के बाद एक उन्होंने उनकी आवाज बुलंद करनी शुरू करी है।
अंबेडकर का नाम राजनीति में कहां से जुड़ता है? जो कम्युनल अवार्ड आता है 1932 में। तो उस में प्रावधान कर दिया गया था कि भाई इनका तो सेपरेट इलेक्टोरेट ही कर देंगे। डिप्रेस्ड क्लासेस उनको बोला गया था कि ये डिप्रेस्ड क्लासेस हैं तो इनके लिए सेपरेट इलेक्टोरेट होगा। तो गांधी जी ने उसका विरोध किया। बोले इससे तो सब बट जाएगा। और गांधी जी उस वक्त थे जेल में। तो अंग्रेजों ने कहा अच्छा चलो ठीक है। जो जनरल हिंदू क्लासेस हैं उनके प्रतिनिधि बनेंगे गांधी जी और गांधी जी के प्रतिनिधि। पर जो डिप्रेस्ड क्लासेस हैं उनके प्रतिनिधि होंगे डॉक्टर अंबेडकर।
फिर उनका वहां से घर्षण शुरू होता है गांधी जी के साथ फिर पूना पैक्ट होता है और अब वो राजनीति में अच्छे तरीके से आ चुके हैं। तो माने इतनी जगहों पर आजमाने के बाद वो राजनीति में आते हैं और देखिए जो विद्वान व्यक्ति होता है ना उसका मन बहुत चालाकियां कर नहीं पाता है। राजनीति के लिए जो एक प्रकार की मैं किसी अन्य शब्द के अभाव में कहूंगा कुटिलता।
एक बार आपने इतनी पढ़ाई लिखाई कर ली है। 50,000 उनके पास अपनी किताबें थी। जो व्यक्ति एक बड़े आकाश में उड़ लिया है, बहुत कुछ जान गया है, उससे अब क्षुद्रता नहीं करी जाती।
जिसने व्यापकता को देख लिया है ना विद्या की ज्ञान की। उससे अब क्षुद्रता नहीं करी जाती।
तो फिर वह आए इसमें और अड़कर रहे। आप जानते ही हैं जीवन भर वह कोई अपने आप से चुनाव जीत नहीं पाए, जीता था वो आजादी से पहले की बात थी। आजादी के बाद दो लोकसभा चुनाव थे वो दोनों नहीं जीते। राज्यसभा से पहुंचे थे। ये राजनैतिक आदमी के लक्षण नहीं है। वो बहुत सीधे आदमी थे। सीधे आदमी की सीधी बात पर गहरी बात।
आज उनके नाम पर जो चल रहा है और आज से मेरा मतलब पिछले कुछ दिनों से नहीं है। मेरा मतलब पिछले कई दशकों से है। 1990 में उनको भारत रत्न मिला। वही समय था जब मंडल कमंडल की राजनीति शुरू हो रही थी और उसके बाद से उनको बिना समझे उनके नाम पर बहुत कुछ हो रहा है। समझने वाला कोई नहीं है। उनको पढ़ने वाला कोई नहीं है। इतनी उन्होंने किताबें लिखी हैं। उनको पढ़ने वाला कौन है? इकोनॉमिस्ट हैं। तीन किताबें तो उनकी अच्छी खासी इकोनॉमिक्स पर हैं।
क्या हम ये जानते हैं कि अमर्त्य सेन हमारे जो नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। उन्होंने कहा था कि अंबेडकर इज द फादर ऑफ माय इकोनॉमिक्स। अंबेडकर एज एन इकोनॉमिस्ट एकदम अव्वल दर्जे के हैं। अब आज अंबेडकर की जो इतनी बातें कर रहे हैं, मैं उनसे पूछूं कि आपने जो प्रॉब्लम ऑफ द रूपी, रुपए का उस समय अवमूल्यन हो रहा था तो उन्होंने किताब लिखी थी प्रॉब्लम ऑफ द रूपी आपने पढ़ी है? कहेंगे नहीं पढ़ी है। मैं उनसे पूछूं फाइनेंसेस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी आपने पढ़ी? उन्होंने नहीं पढ़ी है। प्रोविंशियल फाइनेंसेस को लेकर के उन्होंने पेपर्स लिखे थे। वो फिर संकलित हुई किताब के रूप में वो आपने सब पढ़ा है? नहीं पढ़ा है। अच्छा चलो हटाओ। ये तो उनके व्यक्तित्व का शायद एक कम जाना हुआ पक्ष है कि वह एक बहुत अच्छे अर्थशास्त्री भी थे। क्या आपने उनकी वो किताबें पढ़ी हैं जो आज उनके नाम को परिभाषित करती हैं? रिडल्स ऑफ हिंदूइज़्म, हु आर द शूद्रास, एनिहिलेशन ऑफ कास्ट ये सब आपने पढ़ी हैं?
मृत्यु से तीन दिन पहले वो जिस पुस्तक को पूरा करके गए हैं। बुद्ध और उनका धर्म बुद्धा एंड ह धम्मा आपने उसको कभी हाथ लगाया है? नहीं ये सब कुछ नहीं करा है। बस एक छवि बना ली है। कुछ उस छवि का समर्थन कर रहे हैं। कुछ उस छवि का विरोध कर रहे हैं। जैसे मैं आपसे कहूं कि बताइए A इज़ ग्रेटर दैन ज़ीरो और लेस दैन ज़ीरो? तो आप कहते हैं A इज़ ग्रेटर दैन ज़ीरो। और मैं कह दूं A इज़ लेस दैन ज़ीरो। और हम दोनों बिल्कुल एकदम भिड़ जाए, लड़ जाएं। और हम दोनों में से जानता ये कोई नहीं है कि A है क्या? पर आपने कल्पना कर रखी है कि A जो है नेगेटिव है। मैंने कल्पना कर रखी है A पॉजिटिव है और हम दोनों भिड़ गए हैं बिल्कुल। बिना A को जाने।
तो अंबेडकर पर कोई विवरण हो इसके लिए पहले हमें उस विद्वान को जानना पड़ेगा।
अपने जो भी हमारे नजरिए हैं और हमारे जो भी संकीर्ण स्वार्थ हैं उनको किनारे रख के डॉक्टर अंबेडकर डबल पीएचडी अंबेडकर उस व्यक्ति को समझना पड़ेगा इंसान की तरह।
राणा यशवंत: यहां एक सवाल आता है आचार्य जी जैसे इन दोनों किताबों के हवाले से मैं कहता हूं हु आर द शूद्रास और एनिहिलेशन ऑफ कास्ट। अब ये दोनों दो समानांतर तरह की सोच उनके भीतर चल रही है। एक बड़ी जमात जिसको समाज के भीतर जगह नहीं मिल रही है और वो मवेशियों की तरह इस समाज के भीतर व्यवहार किया जा रहा है और जातियों की जकड़बंदी ऐसी है कि वो टूटने का नाम नहीं ले रही है। तो जिसको वो खत्म करना चाहते हैं उस मौजूदा परिवेश में उसको खत्म होते हुए देखना देख नहीं पा रहे हैं और वो बेचैनी एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में दिख रही है। तो धर्म छोड़ करके बुद्ध को अपनाने के पीछे भी कारण यही रहा कि यह दो समानांतर जो सोच है वह उनके भीतर आपस में टकरा रही है। कहीं कोई उनके पास रास्ता, विकल्प नहीं दिख रहा है। वो एक युग बिता है।
75 साल हो गए इस देश को आजाद हुए। स्थितियां बदली हैं। आज की तारीख में दलित मतदाता इस देश में अपना एक वजूद रखता है। उसका असर है और पूरी राजनीति अगर दलित केंद्रित हो गई है तो उसका कारण यह है कि अंबेडकर ने जो आवाज बुलंद की जो सोच उनकी बार-बार टकराती रही समाज से वह कहीं ना कहीं धीरे-धीरे उस गृह गांठ को खोलती रही, आज वहां आकर के खड़े हैं कि दलितों के आसपास यह सब चल रहा है।
आज की तारीख में लड़ाई यह है कि नेहरू ने दरअसल अंबेडकर को दरकिनार किया। नेहरू ने अपनी राजनीति को बनाए बढ़ाए रखने के लिए कहीं ना कहीं एक डर जो उनके भीतर था वो अंबेडकर को लेकर था और उससे उन्होंने फासला रखा। इससे कितनी सहमति है आपकी?
आचार्य प्रशांत: कुछ हद तक यह बात सही हो सकती है और यह शुरुआत होगी ना इसकी जो जब अंग्रेजों ने घोषणा कर दी थी, 1939 में कि भारत भी ब्रिटेन के वॉर एफर्ट का हिस्सा बनेगा। तो जितनी भी कांग्रेस की सरकारें थी उन्होंने प्रोविंशियल गवर्नमेंट्स उन्होंने सबने एक साथ इस्तीफा दे दिया था। और जिन्नाह ने उसको नाम दिया था तब कि यह डे ऑफ डिलीवरेंस हो गया। अच्छा हुआ सारी जो सरकारें हैं कांग्रेस की वह चली गई। तो डॉ. अंबेडकर ने उस वक्त जो लिखा वो बड़ा रोचक है। वो बोले कि – ‘I am ashamed. मुझे स्वयं पे शर्म आ रही है that Jinnah has stolen a march over me in expressing the sentiment and the language which best belongs to me.’
वो यह कहना चाह रहे थे कि कांग्रेस से मुस्लिम लीग को जितनी समस्या है, उससे ज्यादा समस्या मुझको है। तो यह बात 47 की नहीं है। यह बात 50 की नहीं है। यह 52 वाले इलेक्शन की भी बात नहीं है। यह जो बात है ये 1940 की है। यह तब से चल रहा है। और क्यों चल रहा है? हम वजह थोड़ा समझना चाहेंगे।
देखिए जिसके पास ताकत होती है ना जो वर्तमान स्थितियां होती हैं उसका दोष भी उसको मिलता है जो कि कुछ हद तक जायज भी है आरोप। भारतीय परिवेश को बदलने की जो ताकत थी वह तो भारत की जो सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी थी और वो राजनैतिक नहीं थी वो सामाजिक भी थी।
गांधी जी तब तक कांग्रेस से हट चुके थे। हालांकि उनका नैतिक प्रभाव कांग्रेस पर पूरा था। पर कांग्रेस से हट चुके थे। क्या बोल करके कि मैं जा रहा हूं सामाजिक काम करने। मैं गांव-गांव जाऊंगा। सफाई का कार्यक्रम चलाऊंगा। हरिजनों की मदद करूंगा और शिक्षा और महिलाओं के लिए काम करूंगा। गांधी जी हट चुके। तो सामाजिक क्षेत्र में भी जो अग्रणी संस्था थी वह कौन थी? कांग्रेस और राजनैतिक क्षेत्र में भी कौन थी? कांग्रेस। मुस्लिम लीग बहुत पीछे थी। तो अगर भारत की दुर्दशा है और भारत की सर्वे सर्वा यही संस्था है, यही दल है कांग्रेस तो उस दुर्दशा का जो ठीकरा है वो भी कांग्रेस के ही सर पर फूटेगा।
तो इसको लेकर के डॉ. अंबेडकर के मन में कांग्रेस के लिए कोई सद्भावना नहीं थी। उन्होंने इसीलिए अपना एक अलग दल भी आया था कि मैं अपना अलग से काम करूंगा। यह लोगों का ठीक है नहीं। गांधी जी को लेकर बोलते थे कि यह गुजराती में जब लिखते हैं तो जाति प्रथा पर उतना कड़ा प्रहार नहीं करते। अब हम नहीं जान सकते। मैंने वो पढ़ा नहीं है। गुजराती में जानते नहीं। उसका अनुवाद ही मैंने पढ़ा नहीं है। सबसे पहले तो मैं स्पष्ट करूं।
पर ये आरोप था डॉ. अंबेडकर का कि गांधी जी जब गुजराती अपने पत्रों में लिखते हैं समाचार पत्र तो उतना वो जाति के खिलाफ ज्यादा नहीं खिलाफ रहते हैं पर उतनी कड़ाई से नहीं बात करते। वही जब वो अंग्रेजी में लिखते हैं जहां उनको पता है पढ़े लिखे लोग पढ़ेंगे और खुद अंग्रेज भी ब्रिटिशर्स भी पढ़ेंगे तो वहां वो जाति के खिलाफ बहुत जोर से बोलते हैं। तो इन सब चीजों को लेकर के डॉ. अंबेडकर के मन में कांग्रेस के लिए बहुत कोई सद्भावना थी नहीं। 1935 में वो बोल चुके थे, 'I was born a Hindu. I will not die a Hindu.' क्योंकि सारे दरवाजे वो खटखटा के देख चुके हैं। और जब उनकी राजनी नीति में एंट्री ही हो रही है तो उनका प्रवेश ही हो रहा है कांग्रेस से एक तरह की मुठभेड़ के रूप में।
शुरुआत में ही आकर के क्या हो रहा है कि भाई जो गांधी जी के मनोनीत प्रतिनिधि हैं उनके साथ तो नेगोशिएट कर रहे हैं कि भाई नहीं नहीं नहीं वो एक सेपरेट इलेक्ट्रोलाइट नहीं चलेगा ऐसे चलेगा वैसे चलेगा यह सब होगा तो डॉक्टर अंबेडकर और कांग्रेस वस्तुतः कभी साथ-साथ चले नहीं है।
राणा यशवंत: एक बात कही जाती है क्योंकि संविधान के निर्माता के तौर पर डॉ अंबेडकर को देखा जाता है जो कॉन्स्टिट्यूएंट असेंबली थी 296 मेंबर शुरुआती दौर पर उस असेंबली के थे लेकिन उसमें अंबेडकर का नाम नहीं था फिर वो बंगाल से मुस्लिम लीग के जरिए दरवाजे से वो असेंबली में आए फिर कि भारत का बंटवारा हो गया तो जिस कॉन्स्टिट्यूएंसी से वो आए थे वो कॉन्स्टिट्यूएंसी पाकिस्तान में चली गई तो पाकिस्तान के असेंबली के मेंबर हो गए हिंदुस्तान ने उनकी संस्था रद्द कर दी। फिर उनको बगावती तेवर इख्तियार करने पड़े। तब जाकर के जयकर साहब ने इस्तीफा दिया और उनको उनको जगह पर लिया गया और वो संविधान निर्माता बन गए।
आचार्य प्रशांत: इसमें थोड़ा सा एक पक्ष और भी है।
राणा यशवंत: मैं इसको आम आदमी के लिहाज से आपके जरिए मतलब रखना चाहता हूं कि ये क्या है?
आचार्य प्रशांत: ये ऐसा है कि जो वास्तविकता होती है ना वो कभी कभी ब्लैक या वाइट या बाइनरी जीरो या वन नहीं होती। वो मल्टीलेयर्ड होती है। गांधी जी विराट व्यक्तित्व वाले आदमी थे। वह भी ऐसे नहीं थे कि उन्होंने कोना पकड़ लिया उसी कोने में बैठेंगे। तो जब 47 में बात चली कि भाई अब जो अंतरिम सरकार बन रही है तो उसमें कानून मंत्री कौन होगा? तो डॉ. अंबेडकर पहले कानून मंत्री बने हैं और उसके दो हफ्ते के बाद वो ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बने हैं कानून मंत्री होने के नाते और उन्हें कानून मंत्री नेहरू जी ने खुद बनाया है और कोई कोई जरूरत नहीं थी बनाने की क्योंकि कांग्रेस की तो मुखालफत में ही रहे थे।
पर कहा यह जाता है कि डॉ. अंबेडकर जैसे विद्वान को ही कानून मंत्री होना चाहिए। यह बात गांधी जी ने कही थी नेहरू को कि आप इनको जो है आप बनाइए। तो उन्होंने बनाया और क्योंकि वह कानून मंत्री थे इसीलिए फिर वह ड्राफ्टिंग कमेटी के फिर वह चेयरमैन भी हो गए और तो एक एक कॉम्प्लेक्स रिलेशनशिप है। इसमें हम यह भी नहीं कह सकते कि विरोधी हैं जिसमें हम यह भी नहीं कह सकते कि बिल्कुल साथ-साथ हैं। 52 में उन्होंने अलग से चुनाव लड़ा। उसको हारे। अब अलग से चुनाव हार रहे हैं। पर राज्यसभा में वो पहुंच रहे हैं। और राज्यसभा में पहुंच कैसे रहे हैं? वो कांग्रेस और द्वारा ही पहुंचाए जा रहे हैं। उस समय पर तो कांग्रेस इतना प्रभुत्व रखती थी। इतनी डोमिनेंट थी कि कांग्रेस ना चाहे तो कुछ ना हो। और फिर वो जो आपने कहा था अभी बाई इलेक्शन हो रहे हैं 54 में। वो बाय इलेक्शन में फिर खड़े हो रहे हैं तो वो फिर हार रहे हैं।
राणा यशवंत: लेकिन एक बात फिर समझ से परे है कि देश का प्रधानमंत्री जब वो नॉर्थ मुंबई से खड़े हैं 52 में उस समय खुद जाकर के दो बार वो वहां रैली करते हैं और पूरी ताकत नेहरू लगाते हैं कि अंबेडकर जीत करके ना आए। भंडारा का जो बाय इलेक्शन था उसमें भी इस बात को सुनिश्चित किया गया कि अंबेडकर ना जीते जबकि वो लोकसभा पहुंचना चाहते थे। उनके राज्यसभा से आने के पीछे भी गैर कांग्रेसी दलों की भूमिका बहुत अधिक रही कांग्रेस की बजाय। तो जो सक्रिय राजनीति है उससे अंबेडकर को दूर रखने की कोशिश कांग्रेस ने की। ऐसा लगता है।
आचार्य प्रशांत: यह जो संबंध है ना डॉ. अंबेडकर और कांग्रेस का यह एक जटिल संबंध है। क्योंकि आप अगर देखें तो कई अब जैसे टेंपल एंट्री मूवमेंट्स की हमने बात की, तो टेंपल एंट्री मूवमेंट्स में डॉ अंबेडकर जो कुछ भी कर रहे थे उनको महात्मा गांधी का पूरा समर्थन मिल रहा था और साथ ही साथ डॉ अंबेडकर गांधी जी का सम्मान करते थे लेकिन उनके भक्त भी नहीं थे उन्होंने उनकी आलोचना भी खूब करी। तो गांधी अंबेडकर संबंध और अंबेडकर नेहरू संबंध ये मल्टीलेयर्ड है इसमें कुछ कहानी नहीं जा सकता कि किस समय पर क्या चल रहा है। हां, यह पक्का है कि हम यह नहीं कह पाएंगे कि बहुत ज्यादा भ्रातृत्व था और एकदम गले मिले हुए थे। ऐसा नहीं था। पर ऐसा भी नहीं था कि आपस में एक दूसरे के लिए असम्मान था या कि कुछ और था। दोनों ही पक्ष विराट व्यक्तित्व के थे। और ऐसे लोग छोटी बातें करते नहीं हैं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। डॉ. अंबेडकर के। हम सब उनको जानते हैं कि भाई वो हमारे संविधान के जनक हैं। निर्माता ये सब बातें करते हैं। उनसे पूछा गया तो डॉ. अंबेडकर ने कहा था, 'जिस बात का मुझे श्रेय नहीं मिलना चाहिए वो मैं लूंगा भी नहीं।'
बोले 'मुझसे पहले ब्यूरोक्रेट थे बी एन राव। बोले यह जो ड्राफ्ट है जो ड्राफ्टिंग कमेटी के पास आया है। यह उन्होंने तैयार करा हुआ है। तो हमें पहले से ही एक मसौदा मिला हुआ था। तो श्रेय मुझसे ज्यादा आप उनको दीजिए।' हालांकि उसमें डॉक्टर अंबेडकर की पूरी-पूरी भूमिका है। हम बहुत अच्छे से जानते हैं और जिन सिद्धांतों के लिए जिन मूल्यों के लिए वो जीवन भर संघर्षत रहे वो सब उन्होंने हमारे संविधान में भी प्रविष्ट करा दिए। लेकिन उसके बाद भी वो यह नहीं करेंगे कि जहां जिस आदमी की अच्छाई है, वह उस अच्छाई से इंकार कर दें। और यह बात जितनी अंबेडकर पर लागू होती है, उतनी ही फिर गांधी और नेहरू पर भी लागू होती है।
राणा यशवंत: एक सवाल सर आता है अगर बहुत अदावत नहीं थी और दोस्ती भी अच्छी नहीं थी तो तीन सवाल लोग करते हैं। पहला सवाल ये है कि अंबेडकर को फिर कैबिनेट छोड़ना क्यों पड़ा? कांग्रेस से अपनी राह अलग क्यों करनी पड़ी? दूसरा सवाल आता है कि जब उनका अंतिम संस्कार होना था तो दिल्ली में उनको जगह क्यों नहीं मिली? फिर उनको महाराष्ट्र क्यों ले जाया गया?
आचार्य प्रशांत: देखिए उनकी मृत्यु दिल्ली में हुई थी। और उसके बाद उनको महाराष्ट्र ले गए थे एंथस्टी के लिए। यह जो आपने बात कही अभी मैं इससे परिचित नहीं हूं कि दिल्ली में उनको सही स्थान नहीं मिला उनकी समाधि के लिए। तो मैं इसको जानता नहीं कि ये क्या बात है। तो मैं इस पर कुछ बोल नहीं सकता। एक जगह है जहां पर मूल भेद आ जा रहा था। देखिए कांग्रेस जो थी वो गांधी जी की गोद में पली थी। भले ही वो सक्रिय सदस्यता से दूर हो गए हो। लेकिन वही वटवृक्ष थे जिनके नीचे कांग्रेस बच्चे की तरह खेला करती थी। अब गांधी जी का जो नजरिया था वो रेडिकल नहीं था। दलित समाज के प्रति। उन्होंने कहा हरिजन है और उनको सम्मान मिले और उनको शिक्षा मिले और आर्थिक तौर पर सामाजिक तौर पर, राजनैतिक तौर पर पूरी प्रतिभागिता के वह अधिकारी हैं तो उनको यह मिले।
गांधी जी के लिए यह बात बिल्कुल अचिंत्य थी, अनथिंकेबल कि ये लोग टूट करके हिंदू धर्म से निकल ही जाएंगे। और डॉ. अंबेडकर यह बात बार-बार बोला करते थे। बार-बार बोला करते थे। तो वहां पर जो है कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर में एक फंडामेंटल डिजोनेंस आ जाती है। और वो जो किताबें लिख रहे थे वो किताबें भी कोई ऐसा थोड़ी है कि जो जनता है वो बड़ी आसानी से और बड़ी शांति से स्वीकार कर ले रही थी।
हम 1927 की बात कर रहे थे ना महाद की 1927 में ही 25 दिसंबर को उन्होंने वो मनुस्मृति दहन दिवस बना दिया था। वो आज तक मनाया जाता है।
उसको लेकर बड़ा बवाल मचे। जब रिडल्स ऑफ रिडल्स इन हिंदूइज्म प्रकाशित हुई थी तो उसको लेकर के आप आप देखिएगा पढ़िएगा कि कितने धरना प्रदर्शन हुए और क्या-क्या नहीं हुआ और तो ये एक जबरदस्त तरीके से उनमें आपस में संघर्ष चलता रहता था जो थोड़ी सी कन्वेंशनल सोच थी, उसको ये लगता था कि हिंदू धर्म क्यों टूटे भीतर ही भीतर सुधार कर लेते हैं ना अपना घर है यहां भीतर ही भीतर सुधार कर लेते हैं और डॉ अंबेडकर ने सुधार के लिए जान लगा दी थी उनका नजरिया यह था कि भाई सुधार संभव है नहीं। बात इतनी बिगड़ चुकी है कि सुधारना लगभग असंभव हो गया है।
और वह 1956 से बहुत पहले से प्रयास कर रहे थे और खोज रहे थे कि करना क्या है। वो श्रीलंका जाते थे, बर्मा जाते थे देखने के लिए कि अगर बौद्ध हो जाते हैं हम और हमारे अनुयाई तो हमें क्या स्थान मिलेगा। आपको मालूम है? उससे पहले उन्होंने यह तक देखा था, सोचा था कि इस्लाम में क्या स्थिति बननी है। और ईसाइयत में क्या स्थिति बननी है? यहां तक कि सिख पंथ में भी क्या स्थिति बननी है अगर कन्वर्जन कर लें तो। तो इस्लाम में उन्होंने देखा बोले यहां पे क्या जाएं? यहां पर तो गुलामी की रही है परंपरा। गुलाम चलते थे। और उन्होंने साफ कहा कि भाई कुरान में कहा गया है कि गुलामों के साथ सदव्यवहार करो। पर यह थोड़ी कहा गया है कि गुलामी गलत है इसको वर्जित करो।
इसी तरीके से जो उन्होंने ये जो बहु विवाह की प्रथा है और जो स्त्रियों का स्थान है इस्लाम में वो सब देखा। बोले इस्लाम काम नहीं चलेगा भाई। तो यह तो बाहर हो गया। फिर वो ईसाइयत की ओर गए। बोले ये निग्रोज़ को अपनी आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन करना पड़ा। ईसाई धर्म के माध्यम से वो आजाद नहीं हो पाए। अगर ईसाइयत ऐसी होती कि जो वंचित लोग हैं, शोषित लोग हैं उनके लिए कुछ कर पाती। तो फिर सशस्त्र आंदोलन की क्यों नौबत आती? और यह जो पूरा अटलांटिक स्लेव ट्रेड हुआ था, यह क्यों होता? और जो अटलांटिक स्लेव ट्रेड था वह बर्बरता में भारत में जाति प्रथा के नाम पर जितने अत्याचार हुए वह उससे कहीं ज्यादा विभत्स था। तो बोले क्रिश्चियनिटी अगर हिंदूइज़्म जो है उसमें क्रुलिटी है, असमानता है तो क्रिश्चियनिटी तो और चार कदम आगे है तो उसको भी उन्होंने कहा हटाओ।
फिर उन्होंने सिख धर्म गुरुओं से बात करी वहां जाकर। तो वहां उनको पता चला कि यहां भी जो है इस्लाम में भी उन्होंने कहा था हां बोले कि इस्लाम में गुलामी बंद हो गई है। पर कास्ट तो इस्लाम में भी है। तो बोले इस्लाम तो हम नहीं हटा रहे हैं। अब सिखों से बात करी वहां पता चला कि वहां भी जो है समानता नहीं है बल्कि समानताओं के भी स्तर है कि ऊंचे स्तर वाले ये उससे नीचे ऐसे बोले कि हमें सेकंड क्लास सिख नहीं बनना है। तो फिर जाकर के उन्होंने बुद्धिज्म को अपनाया।
अब आप ये सब कर रहे हैं। समझिए आप ये सब कर रहे हैं। हम आप जाकर के वहां इस्लाम को टटोर रहे हैं। आप ईसाइयत के बारे में कुछ बात कर रहे हैं। आप सिख गुरुओं से मिल रहे हैं। और जहां तक बौद्ध मत की बात है उसको तो आप पूरा ही एक्सप्लोर कर रहे हैं। हम और वहां पर कांग्रेस बैठी देख रही है और गांधी जी बैठी देख रहे हैं कि चल क्या रहा है? ये ये हमारे समाज में चल क्या रहा है। इतना रेडिकल आंदोलन और एक के बाद एक किताबें आप प्रकाशित करते जा रहे हैं। तो सहज कभी नहीं हो पाए। ना कांग्रेस ना गांधी जी डॉ. अंबेडकर को लेकर कभी सहज नहीं हो पाए। कभी यह नहीं कह पाए कि हम इस व्यक्ति को अच्छे से समझते हैं और बिल्कुल ठीक है ये हमारे ही जैसा है हमारे बगल में चलेगा तो एक थोड़ी सी शंका की संशय की दृष्टि रही उनके लिए
राणा यशवंत: उस असहजता ने अंबेडकर को सीधे तौर पर कांग्रेस से जोड़कर दिखाने से अलग रखा
आचार्य प्रशांत: चाहे कांग्रेस हो गांधी हो नेहरू हो पटेल हो कहीं ना कहीं डॉक्टर अंबेडकर के प्रशंसक तो सभी थे। दिल ही दिल में तो सब मानते थे कि आदमी विद्वान है।
यह भी मानते थे कि इस आदमी की नियत अच्छी है। क्योंकि जिन वर्गों के लिए वह काम कर रहा है उनके लिए आवाज उठाने वाले बहुत कम लोग हैं। और आवाज उठाना भी एक बात होती है कि आपने एक अखबार में एक लेख लिख दिया। ये आदमी पढ़ा लिखा भी है और यह जमीन का कार्यकर्ता भी है। एक के बाद एक जमीन पर जो है आंदोलन कर रहा है। उनका नेतृत्व कर रहा है। कहीं-कहीं पे तो अपनी जान की बाजी लगा रहा है। तो इस नाते उनका सम्मान भी था। तो उनके प्रति संशय भी है कांग्रेस की ओर से और सम्मान भी है। तो ये एक अजीब डिसजोनेंस की हालत रही है। बिल्कुल अंत तक रही है। 1956 तक रही है।
राणा यशवंत: अब दो अलग-अलग कालखंड को मैं आपके सामने रखता हूं और उसके बीच में जो समय है उसको एक बार एनालाइज कीजिएगा। एक तो महाद आंदोलन मंदिरों में प्रवेश के बाद जो एक आक्रोश डॉ. अंबेडकर के भीतर दिखता है। वो फिर आता है कि आप सेपरेट इलेक्ट्रोरेट में आ जाओ। अब वो गांधी जी के साथ पूना पैक्ट हो जाता है। वह भी द्रवित हो जाते हैं कि ठीक है एक सम्मान उनके प्रति है तो मान ही लेते हैं। तो गांधी जी ने कुल मिलाकर के के हिंदू समाज को बटने से विभाजित होने से बचाया। मैं एक बार उसको देखता हूं एक तरह से कि एक बहुत बड़ा तबका कहीं ऐसा ना हो कि उसके सेंस में जाए कि हम तो अलग लोग हैं। आज की तारीख में संघ की चिंता भी यही है कि दलितों को लेकर के जिस तरीके से कि दलित और मुस्लिम ये हास्य के समाज हैं। हिंदू समाज से दलित कट जाए। हिंदू समाज दलित विहीन हो और कहीं वो एक दूसरा टुकड़ा तो मुसलमानों दलितों का एक खीमा तैयार हो जाए। यह चिंता मैं देखता हूं संघ और संघ से संबंधित कई संगठनों के भीतर दिखती है। तो 32 में जो गांधी की चिंता थी और आज के समय में जो संघ और संघ से संबंधित संगठनों की चिंता है। आपको ये एक सा दिखता है क्या?
आचार्य प्रशांत: मैं किसी की चिंता नहीं देखना चाहूंगा। मैं थोड़ी देर के लिए बालक अंबेडकर बन जाऊंगा। थोड़ी देर के लिए। मैं क्यों परवाह करूं कि बाकी लोगों का क्या होने वाला है? मैं स्कूल जा रहा हूं और ऐसा नहीं कि मैं अशिक्षित घर से आ रहा हूं। मेरे पिता सूबेदार हैं फौज में और फौज का हमारा खानदानी काम रहा है। पहले भी मैं पढ़े लिखे घर से आ रहा हूं। उसके बाद भी मैं स्कूल जा रहा हूं। तो मुझे पीने को पानी नहीं है। उन्होंने लिखा नो प्यून नो वाटर। ऊपर से आकर एक आदमी पानी डालता था। तो फिर उनको पानी पीने को मिलता था और बोरे पर बैठते थे। वो बोरा जब स्कूल से घर वापस आए तो उन्हें अपने साथ ले आना होता था। अब यह जो बच्चा है यह बहुत बड़े समाज की चिंता करे, धर्म की एकजुटता की चिंता करे या यह देखे कि मेरे साथ और जो मेरे जात के लोग हैं उनके साथ क्या दुर्व्यवहार किया जा रहा है? आप समझिएगा बात को।
जब आप कुछ अनुभवों से नहीं गुजरे होते हैं ना तो आदर्शवादी बातें करना आसान हो जाता है।
पर जो आदमी यह देख रहा है कि बचपन से लेकर के बड़े तक हमारे साथ बहुत उल्टा ही सीधा हो रहा है और आज से नहीं हो रहा है। बहुत पीछे से हो रहा है। अनटचेबिलिटी आप समझ रहे हैं। आपको ऐसा मान लिया गया है कि आपको छूने से भी हम गंदे हो जाएंगे। अस्पृश्यता, मतलब मनुष्य की गरिमा के खिलाफ इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है? वो व्यक्ति ये देख रहा है। वो ये देख रहा है मैं कितना पढ़ लिख गया। उस जमाने में अमेरिका से, लंदन से कौन पीएचडी करता था? कौन इतना पढ़ा लिखा था कि जो इकोनॉमिस्ट भी हो, जरिस्ट भी हो और हम सब क्षेत्रों में जिसका जलवा हो और उसके बाद भी वो भारत लौट करके आ रहा है तो उसको देखा ऐसे ही जा रहा है। ये तो महार है। और फिर वो जाकर के देख रहे हैं कि जो दलित गांव हैं वहां पे उनके साथ क्या-क्या नहीं चल रहा है। पीने को पानी नहीं है ठीक से। साक्षरता का जो प्रतिशत है वो 2% भी नहीं है। और महिलाओं को ले लें तो 1% भी नहीं है। वह यह सब देख रहे हैं। तो फिर ऐसे में ना आदमी यह नहीं सोचता है कि मैं किसी तरीके से धर्म को बचा कर रखूं। आदमी कहता है कि धर्म का उद्देश्य है मनुष्य को ऊपर उठाना। ऐसे धर्म का मैं क्या करूं?
अभी मैं थोड़ी देर के लिए आपके सामने अंबेडकर बनकर बात कर रहा हूं कि उन्होंने कैसे सोचा होगा। जब वो छोटे थे और जब वो जवान हैं तो वो कैसे सोच रहे हैं। उन्होंने कहा धर्म तो इसलिए होता है ना कि इंसान को आजादी दे। षड दर्शन है। वो सब के सब दर्शन अंत में क्या बात करते हैं? मुक्ति और मुक्ति माने भाई जितने तरीके के बंधन हैं भीतरी और बाहरी इनसे व्यक्ति मुक्त हो जाए यही धर्म का उद्देश्य होता है। तो कहेगा नहीं कि ऐसा धर्म किस काम का है? आग लगे ऐसे धर्म को जो इंसान को और ज्यादा बंधक बनाता है। उसे शिक्षा नहीं लेने देता। उसको आर्थिक अवसर नहीं पाने देता। उसको गरिमा से नहीं जीने देता। उसको कहता है कि हमेशा सर झुका के चलो। तुम ठीक से कपड़े भी मत पहनो उसकी स्त्रियों को बेइज्जत कराता है। तो जब आप यह सब देख चुके होते हो ना तो फिर आपको जो बाकी वरीयताएं होती हैं वो बहुत महत्वपूर्ण नहीं लगती।
अब जो सवर्ण हैं, उनको वो चीजें लगती है महत्वपूर्ण। एक एक जगह पर तो कहते हैं डॉ. अंबेडकर बोलते हैं जो नेहरू जी हैं ना इनको इस बात की बड़ी कॉन्शियसनेस रहती है कि पंडित नेहरू हैं। अब रहती है कि नहीं रहती है राम जाने। ठीक है। अब नेहरू जी के दिल में घुस के तो उन्होंने देखा नहीं था। पर फिर भी एक एहसास हो रहा है कि भाई ये खाए पिए हो। बचपन से ही इज्जत मिल रही है। बढ़िया पढ़े लिखे हो। बढ़िया तुम्हारा घर रहा है। और बचपन से ही सम्मान पा रहे हो। तो तुम जिस नजरिए से भारत को और दुनिया को देख रहे हो। मेरा वैसा नजरिया नहीं है। मेरा नजरिया तो बदलाव का होगा। क्रांति का का होगा, संघर्ष का होगा, सैलाब का होगा और अलगाव का भी हो सकता है। अलगाव का भी हो सकता है। अब निंदा करना बहुत आसान है। आप बिल्कुल कह सकते हो कि ये आदमी तो धर्म को तोड़ने चला था। ये आदमी धर्म को तोड़ने चला था। वो आदमी कहेगा मैं धर्म को बचाऊं या अपनी जिंदगी बचाऊं।
एक पल को आप उनकी जगह पर आकर देखेंगे तो आप कहेंगे यार इन लोगों के साथ हमने कुछ अच्छा तो करा है नहीं। तो अब अगर उनको क्रोध है तो हम कैसे उनके क्रोध को नाजायज बोल दें। कैसे बोल दें? हम कैसे कह दें कि नहीं नहीं नहीं तुम आओ और धर्म की रक्षा करो। धर्मो रक्षति रक्षिता वो बोलेंगे जिस जगह लिखा है ना धर्मो रक्षति रक्षित तो तुम्हारी मनोस्मृति हम उसी को जला देंगे। मैं अभी थोड़ा सा उनकी वकालत करके बात कर रहा हूं। ठीक है? तो कुछ समय के लिए दूसरे व्यक्ति के नजरिए से भी समझना पड़ता है ना। वो क्या झेल रहा है? उसके साथ क्या हो रहा है? ये सब भी देखना पड़ता है। तो वो वहां से आ रहे हैं और गांधी जी कह रहे हैं नहीं सब कुछ ठीक रखो और वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाने रे हम गांधी जी का सम्मान करते हैं वो अपनी जगह ठीक बोल रहे हैं लेकिन मैं आपसे पूछता हूं अगर आपको पूर्ण निराशा हो जाए कि बदलाव और सुधार हो नहीं सकता तो आप क्या करोगे फिर आप उसी सिस्टम में उसी स्थिति में बने रहोगे या उससे बाहर निकल जाओगे?
अब हम हमारे सामने एक प्रश्न आता है कि क्या यह निश्चित था कि कोई सुधार कोई बदलाव हो नहीं सकता? तो फिर हमें 1956 के बाद की घटनाओं को देखना पड़ेगा। कितना सुधार आज तक भी हो पाया है? डॉ. अंबेडकर कह रहे हैं कि अगर तुम हिंदू बने रहोगे तो तुम्हारे साथ अन्याय, अत्याचार, शोषण, भेदभाव, डिस्क्रिमिनेशन चलता रहेगा। आप बिल्कुल कह सकते हैं कि नहीं नहीं नहीं यह तो ज्यादा उन्होंने निराशा की बात कर दी। यह ज्यादा उन्होंने पेसिमिस्टिक बात कर दी। अगर उन्होंने ऐसी कर दी तो बताइए 56 के बाद से भारतीय समाज में इस जाति के मुद्दे को लेकर कितना सुधार हुआ है? हुआ है पर बहुत क्रमश हुआ है। बहुत इंक्रीमेंटल हुआ है।
एक आदमी जीता है 50 साल 70 साल। अगर समाज सुधार होने में 150 साल लगने हैं तो वह कब तक इंतजार करेगा? वह कहेगा मुझे इंतजार नहीं करना है। मैं दूसरी नाव पे सवार होने जा रहा हूं।
राणा यशवंत: फिर डॉ. अंबेडकर और भारतीय समाज को मैं आपके सामने रखता हूं। अगर आप कह रहे हैं कि इनके मेंटल चेंजेस हुए, बहुत बदलाव नहीं हुआ। हालांकि समाज और राजनीति दोनों आप स्वीकार कर रहे हैं। हो सकता है कि उनके अपने स्वार्थ हैं। लेकिन आप स्वीकार करते हैं कि उनको बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए और वो लगातार आगे आते रहने चाहिए। आप कहते हैं कि जब सभी धर्मों को आजमाने के बाद उन्होंने लगाया कि हिंदू धर्म के इतर जितने भी धर्म है वो या तो वैसे ही है उससे खराब हैं। बुद्धिज्म ही अच्छा है। हिंदुस्तान के भीतर जितने भी धर्मांतरण हो रहे हैं आज की तारीख में या या तो इस्लाम में है या क्रिश्चियनिटी में है और यह दलित समाज जो दोनों धर्मों को स्वीकार कर रहा है वो डॉक्टर अंबेडकर के सिद्धांत और उनके उस फैसले के ठीक विरुद्ध है कि यह धर्म कहीं से भी हिंदू हिंदूइज़्म से बेहतर नहीं है। तो यह जो परिवर्तन धर्मांतरण है यह किस तरह का है? यह लोभ है, प्रलोभन है, गरीबी का अपने आप में मजाक है। कई तरह की चीजें हैं।
आचार्य प्रशांत: दो बातें समझनी पड़गी। पहली बात तो यह कि डॉ. अंबेडकर अब्राहमिक धर्मों के प्रशंसक नहीं थे। एकदम नहीं थे। और खूब समझते थे। विदेश में रह के आए थे। वहां की व्यवस्था देख के आए थे। वहां से सीख के आए थे। वहां से अपना आत्मविश्वास बढ़ा के आए थे। लेकिन उसके बाद भी उनको यह नहीं था कि विशेषकर ईसाइयत कोई बहुत अच्छा विकल्प है।
दूसरा हमें यह देखना पड़ेगा कि ये Proselytizing religions हैं। इनका काम आगे बढ़ता ही ऐसे है कि जाकर के दूसरे को कन्वर्ट करा लो। ये पूरी दुनिया में ऐसे ही फैले हैं। आप ईसाइयत की इस्लाम की बात कर रहे हैं। पूरी दुनिया में ऐसे ही फैले हैं। ये तो इतिहास है। और तीसरी एक बात हमें और समझनी पड़ेगी। कम से कम भारत में उनको अब सफलता नहीं मिल रही है। पिछले अगर आप 2030 साल को देखेंगे तो सफलता नहीं मिल रही है। जो ईसाइयों की आबादी का प्रतिशत है कुल वो या तो उतना ही है जितना था या कहीं-कहीं पर तो भी हो रहा है। हां, 30 साल से पहले अगर मैं बात करूं तो आप उत्तर पूर्व में चले जाइए तो वहां बिल्कुल धर्मांतरण हुआ और जबरदस्त तरीके से हुआ है।
पर आज अगर आप देखेंगे मैं दो प्रदेशों की बात करूं जहां बड़े प्रदेश नॉर्थ ईस्ट जैसे छोटे प्रदेश नहीं तो आप दो बड़े प्रदेशों की बात करेंगे गोवा और केरल। तो इसमें पारंपरिक रूप से हुआ करते थे। वहां पर अह सेंट जेवियर थे। वहां सेंट थॉमस थे। तो पारंपरिक रूप से यह भारत में ईसाइयत के गढ़ थे। और इन दोनों में ही जो ईसाइयों का अनुपात है वो तो कम हो रहा है। गोवा में भी और केरल में भी। तो कोशिश पूरी की जा रही होगी निश्चित रूप से क्योंकि ये तो है ही प्रोजेसिलिटाइजिंग रीजंस माने कि ये तो धर्मांतरण के दम पर ही चलते हैं। तो इनकी ओर से कोशिश पूरी की जा रही होगी।
मैं उस बात से भी सहमत हूं कि विदेशों से पैसा आता होगा कि भाई ये ले लो और इनको जो है कन्वर्ट कराओ। मैं इस बात से भी सहमत हूं कि जो अशिक्षित इलाके हैं या जैसे बेचारे हमारे ट्राइबल्स हो गए तो वहां पर जाकर के उनको कोई झूठा-मोटा जादू दिखा के या जैसे कहते हैं ना राइस बैग कन्वर्ट्स उस सब का भी पूरा प्रयास करा जा रहा होगा। लेकिन मैं अब यह भी कहूंगा कि इन प्रयासों को कम से कम जो ये वर्तमान शताब्दी चल रही है इसमें अब बहुत सफलता मिल नहीं रही है। तो अगर इस बात को लेकर के चिंता के कोई कारण थे भी जिन लोगों को भी चिंता करनी हो तो वह कारण पीछे थे चिंता करनी होती तो तब करते। अब विशेष चिंता करने की कोई ऐसी जरूरत है नहीं जो हिंदू धर्म है इसने बड़ी रेिलियंस दिखाई है दृढ़ता। तो जितने भी लोग हिंदूइज़्म से बाहर जा रहे हैं उनका जो प्रतिशत है हिंदू आबादी के कुल प्रतिशत के तौर पर वो नगण्य जैसा है।
आप ऐसे कहोगे कि हां इतने 100 या इतने हजार चलेगा तो लगेगा 100-1000। पर जब आप देखोगे कि वो सवा सौ करोड़ में से कुछ हजार की बात हो रही है तो आप कहोगे कि यह तो बहुत छोटा प्रतिशत है। तो जो जो हिंदू रिलजन है इसने बड़ी दृढ़ता दिखाई है और एक तरह का बड़ा चुंबकत्व दिखाया है। कम से कम जब से ये होने लगा है कि हमारी गरीबी अब उतनी ज्यादा नहीं रही है। तो जो पैसा भी दिखा के कन्वर्जन हो जाता था वो कन्वर्जन भी बहुत कम हो गया है। इसी तरीके से जो आप इस्लाम पर आते हैं तो यह बिल्कुल ठीक है कि आबादी में मुस्लिमों का प्रतिशत बढ़ा है। पर वह जो प्रतिशत बढ़ा है वो लगभग उसी गति से बढ़ा है जिस गति से हिंदुओं की आबादी में जो एससी और एसटीज हैं वो बढ़ा है, दोनों की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग एक जैसी रही है। और वो जो जो इनक्रीस इन ग्रोथ रेट ऑफ पॉपुलेशन था ये तो होता है कि ग्रोथ और एक होता है इनक्रीज इन ग्रोथ। वह भी उनका अब जो है वह लगभग स्टेबलाइज करने की स्थिति में आ रहा है। जिस प्रतिशत पर उनकी आबादी पहुंच गई है उससे थोड़ा बहुत हो सकता है और बढ़ जाए। उससे ज्यादा वो बढ़ने की नहीं है। क्योंकि बात सिर्फ धर्म की नहीं होती है। बात इकोनॉमिक्स की भी होती है। बात शिक्षा की भी होती है।
राणा यशवंत: एक सवाल बनता है। आपने कहा कि हिंदूजन ने बहुत रेजिलियंस दिखाया है और डॉ. अंबेडकर की जो बगावत थी वो उस religion के ना होने के कारण ही थी। और आप कह रहे हैं कि गांधी जी की थोड़ी दूरी थी इसलिए कि वो चुकि लगातार किताबें लिख रहे थे और जमीन पर संघर्ष कर रहे थे। जाति के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। आंदोलनों के नायक बने हुए थे। और एक बड़ा धड़ा हिंदू समाज का वो टूट करके उनकी अगुवाई में जा सकता था अगर उनको उतनी ऊंचाई जगह दे दी गई तो। शायद वो डर था इसलिए आप कह रहे हैं कि थोड़ा सा वैचारिक……
आपके कहे पर मुझे एक शेर याद आ रहा है कि जिसको जितना मतलब है मुझसे वहीं तक पूछा जा रहा है। जमाने पर भरोसा करने वालों भरोसे का जमाना जा रहा है।
आचार्य प्रशांत: वाह
राणा यशवंत: आप कहते हैं कि अंबेडकर से जिसको जितना मतलब था उसने उतना ही लिया बाकी छोड़ दिया। अगर आप कुछ उदाहरण के जरिए, कुछ प्रसंग के जरिए समझाएं तो बेहतर है।
आचार्य प्रशांत: बहुत सारे उदाहरण है। उदाहरण बड़े रोचक हैं। लेकिन साथ ही साथ वो बड़े विवादास्पद भी होने वाले हैं। मैं अभी देता हूं उदाहरण। असल में हम अपने जो विद्वान होते हैं ना उनके साथ बड़ा अन्याय करते हैं। उनका जो पूरा एक्सपेंस होता है, विस्तार होता है। वो हमारी पकड़ में आता नहीं। तो हम अपने स्वार्थ के हिसाब से उनका थोड़ा हिस्सा ले लेते हैं और जो हिस्सा हमें सुहाता नहीं हमारे प्रति हां उसको बिल्कुल छोड़ ही नहीं देते, दबा देते हैं कि किसी को भी ना पता लगे। आप उदाहरण कह रहे हैं तो एक दो उदाहरण। 1940 में लीग ने पाकिस्तान रेोल्यूशन अपना पास करा था लाहौर में और आज जितनी आप पार्टियां देखते हैं हम जो बिल्कुल डॉ. अंबेडकर के नाम की कसमें खाती हैं और कहते हैं ना कि भाई हम सोशल जस्टिस सामाजिक न्याय के साथ हैं और हम दलितों के साथ हैं और जहां बात करी जाती है कि हम दलितों के साथ हैं वहां अक्सर साथ हैं, मुसलमानों को भी जोड़ दिया जाता है। हैं कह देते हैं कि दलित और मुसलमान ये दोनों ही वंचित वर्ग हैं। शोषित वर्ग हैं। मेन स्ट्रीम से कटे हुए वर्ग हैं। तो हम इन दोनों के साथ हैं।
तो ऐसा माना जाता है कि जैसे जो दलित डिस्कोर्स है और जो माइनॉरिटी डिस्कोर्स है, ये दोनों एस इनिशियली पैरेलल है या एक ही है कि माने जो जो कह रहा है कि हां मैं दलित हित की बात कर रहा हूं वही आदमी वो होगा जो कह रहा होगा कि मैं मुस्लिम हित की भी बात कर रहा हूं। अल्पसंख्यकों की भी बात कर रहा हूं। अब इसमें कोई निष्कर्ष निकालना जरूरी नहीं है। पर एक बड़ा रोचक तथ्य है। आपने उदाहरण पूछा तो मैं सामने रख रहा हूं।
तो ये जो पाकिस्तान रेज़ोल्यूशन पास हुआ था जिसमें कहा गया था कि भाई भारत के दो टुकड़े होने चाहिए और उधर से पंजाब की तरफ इधर बंगाल की तरफ से और पाकिस्तान बनना चाहिए। सबसे पहले और सबसे ज्यादा इसके समर्थन में डॉ. अंबेडकर आए थे। उन्होंने एक बड़ा लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार करा था। पाकिस्तान एंड समथिंग समथिंग कुछ का नाम है पूरा। बस उन्होंने साफ कहा था कि हां ठीक है। यह जो विभाजन है यह हो जाना चाहिए और साथ में उन्होंने यह भी कहा था कि जनसंख्याओं की पूर्ण अदला बदली आनी चाहिए और टोटल एक्सचेंज ऑफ़ पापुलेशन।
राणा यशवंत: यानी कि जितने मुस्लिम हैं, वह पाकिस्तान में होने चाहिए और हिंदू इधर आ जाए। मतलब घालमेल नहीं होना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: हां, तो तो मतलब यह भी एक मुद्दा आ गया जहां पर कांग्रेस और डॉ. अंबेडकर एक दूसरे से नजर से नजर मिला के बात नहीं कर सकते थे। क्योंकि कांग्रेस तो अंत तक इसमें लगी रही कि विभाजन रोको, रोको। कम से कम गांधी जी से तो थे कि विभाजन रोको। डॉ. अंबेडकर ने पहले ही बोल दिया था कि हां यह विभाजन जो है यह व्यवहारिक बात है। यह प्रैक्टिकल बात है। तो अब यह उनके व्यक्तित्व का जो पहलू है यह कभी सामने नहीं लाया जाता। इसका कोई जिक्र नहीं करता और खासकर जो अंबेडकराइड पार्टीज हैं या जो पार्टीज हैं जो अपने आप को दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करती हैं वो ये कभी सामने नहीं लाएंगी।
राणा यशवंत: और यह जो अगड़ा तबका है यूरेशन मूल का है या…
आचार्य प्रशांत: हां हां ये ये दूसरा बहुत अच्छा उदाहरण है। अब अभी जो अंबेडकरराइट्स हैं और प्यारे लोग हैं। एक तरीके से मैं दीक्षा भूमि गया था नागपुर। वहां पर एम्स और आईएम का कुछ कार्यक्रम था तो उसमें उन्होंने मुझे बुलाया था। तो फिर मैं दीक्षा भूमि में चला गया। वहीं वहीं पर सामने एक उनकी अंदर ही कैंपस में ही एक किताबों की दुकान है बड़ी। अब किताबों की दुकान हो तो मैं जाऊंगा। मैं वहां गया। वो सब मुझे पहचान गए। और इतने प्यार से बैठाया उन्होंने और जबकि पता है उन्हें कि मैं वेदांत की बात करता हूं। मैं गीता की बात करता हूं और बड़ी देर तक लंबी चौड़ी बात चली बैठे और लोगों को ही बुला लिया और जादुई बात थी सब मुझे जानते भी थे और बड़ी लंबी चौड़ी बात चली। तो अच्छे लगते हैं ज्यादातर युवा लोग हैं वो बढ़िया लगते हैं लेकिन एक रोचक बात है जिसको शायद वो जानते नहीं होंगे या सामने नहीं लाना चाहते और तथ्य तो तथ्य है उनका सम्मान करना चाहिए।
डॉक्टर अंबेडकर यह जो आर्यन इन्वजन थ्योरी है इसको सिरे से नकारते थे और उनके ही जो अनुयाई हैं वह कहते हैं कि हम मूलनिवासी हैं और जो सवर्ण है वो सब बाहर से आए हैं। और डॉक्टर अंबेडकर कहते थे बाहर से कोई नहीं आया। ये जो आर्यन इन्वजन थ्योरी है यही नसी है। सरासर गलत है। सब यहीं के हैं। वो तो ये तक कहते थे कि भाई ये जिसको आप कह दो कि सवर्ण है या जिसको आप दास बोलते हो या दस्यु बोलते हो ऋग्वेद में अलग-अलग लोगों का नाम नाम आया। बोले ये अलग-अलग पीपल्स हैं। अलग-अलग रेसेस नहीं है। सब यहीं के हैं। अगर सब यहीं के हैं तो फिर आज जो अंबेडकर के अनुयाई हैं वो ये दावा कैसे कर देते हैं कि हम मूल निवासी हैं और ये सब जितने ब्राह्मण क्षत्रिय हैं ये तो यूरेशिया से आए हैं।
तो आप अपने आप को डॉ. अंबेडकर का फॉलोअ बोल रहे हो। लेकिन बात आप उनकी बात के बिल्कुल खिलाफ कर रहे हो। हम उन्होंने कहा सब यहीं के हैं और आप बोल रहे हो कि नहीं ये जो सब सवर्ण है ये तो यूरेशिया से आए हैं।
तो अपने मतलब की बात हर आदमी ने उस आदमी से ले ली है। उनके साथ बड़ा अन्याय हुआ है इस दृष्टि से कि जो उन्होंने पूरी बात कही उसमें से हर आदमी ने अपने मतलब का एक टुकड़ा निकाल लिया है और बाकी बातों को दबाने की कोशिश की है। देखिए कोई बाध्यता नहीं है कि किसी की भी हर बात से सहमत हुआ जाए। लेकिन इंसानियत का नैतिकता का तकाजा यह होता है कि आप जिसको कोट कर रहे हैं या आप जिसके प्रिंसिपल्स पर चलने की बात कर रहे हैं या आप जिसका समर्थक होने का अनुयाय होने का दावा कर रहे हैं। कम से कम उसके कृत्व को उसकी विचारधारा को समग्रता से पेश करें। कम से कम दबाने की कोशिश ना करें। हां। तो इस तरह का अन्याय डॉ. अंबेडकर के साथ हुआ है। और न जाने अतीत में कितने महापुरुष हैं सबके साथ हुआ है। शायद हर ऊंचे आदमी की किस्मत में ये लिखा है कि वो मिसअंडरस्टुड होगा। मिसअंडरस्टुड होगा। वो कुछ बोलेगा और कोई उसमें से कुछ उठाएगा, कोई कुछ उठाएगा।
राणा यशवंत: इतने हिस्सों में बट गया हूं मैं। कि मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं है।
आचार्य प्रशांत: मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।
राणा यशवंत: डॉ. अंबेडकर अगर आज की तारीख़ में होते तो जिस रेसिलियंस की बात आप कर रहे हैं तो क्या फिर उनका वो विलगाव नहीं होता? वो बुद्धिज्म की तरफ नहीं जाते अगर यह स्थितियां आज की आप देख रहे हैं जैसी हैं।
आचार्य प्रशांत: मेरे ख्याल से आज एक बड़ी रोचक स्थिति पैदा हो जाती है। आज स्थिति यह पैदा हो जाती है कि जिनको हम सवर्ण कहते हैं ना वो बड़ी तादाद में डॉ. अंबेडकर के साथ खड़े हो जाते। आपने प्रश्न भी यही सोच कर पूछा है कि मैं दलितों की बात करूंगा। उल्टा है। हां। 2012 में सीएनए आईबीए ने और हिस्ट्री टीवी 18 इन्होंने एक पोल करा। छोटा-मोटा पोल नहीं, 2 करोड़ लोगों ने उसमें भाग लिया। उसमें उन्होंने पूछा कि आजादी के बाद से भारत का सबसे महान व्यक्तित्व कौन रहा है? अब 2 करोड़ लोगों ने उसमें पोलिंग करी है तो सब दलितों ने तो नहीं कर दी होगी।
राणा यशवंत: जाहिर है।
आचार्य प्रशांत: और 2012 तो जानते हैं किसका नाम नंबर एक आया उसमें? डॉ. अंबेडकर का। नेहरू जी से ऊपर, पटेल जी से ऊपर डॉ. अंबेडकर। अब तो उनके जो काम का दायरा था ना वो इतना व्यापक था और इतना आकर्षक था कि आज का जो आम बच्चा है ना वह भी उधर को आकर्षित होता। अब जैसे उन्होंने महिलाओं के लिए बात करी और महिलाओं को लेकर के उनका जो उदारवादी लिबरल नजरिया था, जो आज की लड़की है वो क्यों नहीं चलेगी डॉक्टर अंबेडकर की ओर चाहे वो फिर ब्राह्मण के घर की हो ठाकुर के घर की हो किसी सवर्ण घर की हो वणिक घर की हो वो क्यों नहीं कहेगी कि यह व्यक्ति जो है ये मेरे हाथ में बात कर रहा है?
जब वो कानून मंत्री हैं तो उन्होंने लेबर के पक्ष में कितने सारे नियम बनाए उन्होंने कहा कि भाई शिफ्ट है 8 घंटे से ज्यादा की मत कर देना।
कम से कम इतने तुम इनके लिए पैसे रखना इनके लिए इतनी सोशल सिक्योरिटी रखना तो जो मजदूर वर्ग है वह क्यों नहीं चल देता डॉक्टर अंबेडकर की ओर?
इसी तरीके से समाज के जितने भी वर्ग हो सकते हैं अब एक वर्ग है जो कह रहा है मुझे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है मैं गरीब हूं मुझे शिक्षा देनी है फर्क नहीं पड़ता मैं किस जाति का गरीब हूं पर मैं गरीब हूं। अब आपका अनुच्छेद 45 डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स वो कहता है कि स्टेट की ये जिम्मेदारी है कि सबको मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराए। वो अभी तक कानून वैसा नहीं बन पाया है कि सबको कि आप स्टेट को कोर्ट में ले सको कि बच्चे को मुफ्त शिक्षा के लेकिन उन्होंने डाला हुआ था तो बिल्कुल हो सकता है कि आप ब्राह्मण हैं पर आप गरीब ब्राह्मण हैं और वहां डॉक्टर अंबेडकर खड़े हुए हैं और वो कह रहे हैं कि तुम्हारे बच्चे को मुफ्त शिक्षा मिलनी चाहिए तो ये जो ब्राह्मण पुरुष है ये क्यों नहीं जाएगा डॉक्टर अंबेडकर की ओर?
राणा यशवंत: आप कह रहे हैं कि उस समय सामाजिक वर्जनाओं और धार्मिक वंचनाओं के चलते बहुत बड़ा वर्ग जो चुप्पी साधे बैठा रहता था या वो भीड़ के साथ चल रहा होता वह आज की तारीख में अगर होता तो अंबेडकर का नायक मानता उनको?
आचार्य प्रशांत: बिलकुल मानता, मैं कह रहा हूं कि जो नई जनरेशन है अंबेडकर इसके हीरो हो जाते। अरे! पढ़ा लिखा आदमी है और आप उनके इंटरव्यूज वगैरह तक देखिए। तो बढ़िया अंग्रेजी में फ्लूएंट बात करते हैं। बेखौफ दो टूक बात करते हैं। तो मतलब चाहे वह फिर मिलेनियल्स हों, चाहे वो जेंजी हो उनको पसंद करते हैं लोग। फिर यह नहीं रह जाता कि दलित नेता हैं। वो एक सामाजिक नेता होते उनको कॉलेज यूनिवर्सिटीज में बुलाया जाता। आप लॉ पे बात करिए, इकोनॉमिक्स पे बात करिए, करंट अफेयर्स पे बात करिए, रिलीजन पर बात करिए, स्पिरिचुअलिटी पर बात करिए, इंटरनेशनल रिलेशंस पर बात करिए। हर जगह वो छाए हुए होते। और फिर आप ये नहीं कह पाते कि उनका बस एक छोटा सा दायरा है कि आप बोल दो कि दलित नेता हैं। दलित नेता नहीं है। आदमी का कैनवास बहुत व्यापक था।
राणा यशवंत: मेरा आखिरी सवाल है। नरेंद्र मोदी की सरकार के 10 साल हो गए हैं। और नरेंद्र मोदी बार-बार इस का जिक्र करते हैं कि हमारी सरकार के आने के बाद बाबा साहब को लेकर के जो उपेक्षा का भाव था सरकार का एक दल विशेष का वो हमने दूर किया है। उनसे जुड़ी जो पांचों जगह हैं चाहे दिल्ली है, नागपुर है, मुंबई है, लंदन है उसको हमने पंचतीर्थ के तौर पर विकसित किया है। हमने बाबा साहब के जन्मदिन को संविधान दिवस के रूप में मनाने की परिपाटी डाली है। हमने बाबा साहब को भारतीय राजनीति के विचार और विमर्श इन दो के दायरे में हमने उनको खड़ा किया है और आज अगर बहुत बड़े नायक हैं तो उसमें हमने जो भी बन पड़ा है किया है। इस बात से आपकी कितनी सहमति रहती है?
आचार्य प्रशांत: देखिए उनकी जो प्राथमिक लड़ाई थी ना जहां से उनके बाकी सारे असरों का उदभूत होते हैं। उनकी प्राथमिक लड़ाई थी धार्मिक रूढ़िवादिता के खिलाफ। धर्म को जो गंदा कर दिया गया था इतनी शताब्दियों से और उसका जो दुष्परिणाम झेला जा रहा था, इसके खिलाफ उनकी पहली लड़ाई थी और फिर वही उसी लड़ाई के समझिए अलग-अलग मोर्चे हैं कि महिलाओं के लिए, गरीबों के लिए, दलितों के लिए, युवाओं के लिए अलग-अलग मोर्चे हैं। पर उन सब मोर्चों के केंद्र में तो धर्म ही बैठा हुआ था ना? धर्म बैठा हुआ था।
तो आज अगर होंगे डॉक्टर अंबेडकर तो पहली चीज यह पूछेंगे कि कहीं ऐसी ताकतों को प्रोत्साहन तो नहीं मिल रहा जो धर्म का बड़ा रूढ़िवादी स्वरूप प्रमोट कर रही हो।
वो पूछेंगे कि अच्छा बताओ अभी धर्म के क्षेत्र में चल क्या रहा है? क्या धर्म का अर्थ हो रहा है दर्शन? बुद्ध जैसी साफ बात, बिल्कुल बंधुत्व जिसमें अहंकार के लिए कोई स्थान नहीं है। अहंकार को बुद्ध के दर्शन जैसा ही शून्य कर दिया गया है या धर्म का कोई और अर्थ प्रचलित हो रहा है, प्रसारित हो रहा है।
अंबेडकर किताब लिख रहे थे। वो पब्लिश नहीं हो पाई। उनकी मृत्यु हो गई। था कि Revolution and Counter-Revolution. तो रिवॉल्यूशन से उनका अर्थ यह था कि वह सब जो गड़बड़ चल रही थी ना धर्म के नाम पे कर्म कांड रूढ़िवाद यह सब तो उसको उन्होंने कहा उसके विरुद्ध रिवॉल्यूशन किसका था? महात्मा बुद्ध का। और फिर काउंटर रिवॉल्यूशन आया और काउंटर रिवॉल्यूशन में फिर अनटचेबिलिटी और ये सब शुरू हो गया और बुद्धिज्म को दबा दिया गया। साफ ही कर दिया गया। वो रिवॉल्यूशनरी हैं। और वो उसको अपना आदर्श मानते थे। बुद्ध को आदर्श मानते थे जिन्होंने धर्म की गंदगी के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ा। तो पहली चीज डॉ. अंबेडकर पूछते 'आज धर्म में और गंदगी प्रविष्ट कराई जा रही है। या धर्म की सफाई हो रही है, मुझे यह बताओ साफ-साफ। धर्म की गंदगी क्या होती है?'
धर्म की गंदगी ये होती है कि रूढ़िवाद, बाबावाद, परंपरावाद जो पीछे चल रहा है वही बिल्कुल ठीक है। किसी छुपे तरीके से जाति को जायज ठहराने की कोशिश करना। भूत प्रेत, टोना-टोटका दूसरों के खिलाफ वैमनस्य, द्वेष का माहौल, भेदभाव को किसी तरीके से सही साबित करना, यह ठीक ठहराने की कोशिश करना कि स्त्रियों का स्थान तो घर में ही है और सामाजिक क्षेत्र में और आर्थिक क्षेत्र में वो बाहर ना निकलें।
डॉक्टर अंबेडकर सवाल करते कि बताओ ये सब अभी कम हो रहा है या ये सब ज्यादा हो रहा है? तो इस सवाल का जो भी जवाब आता
राणा यशवंत: लेकिन इस आधार पर तो हिंदुस्तान का कोई भी दल खरा नहीं उतरेगा। जाति की राजनीति करने की बात कहें तो धर्म की राजनीति करने की बात कहें तो या फिर किसी दूसरे आधार जित जितनी भी शर्तें आपने की हैं फिर तो कोई भी राजनेता और उसका दल खरा नहीं उतरेगा।
आचार्य प्रशांत: आप पक्का समझिए हम अब जितना भी पक्का मेरी ओर से हो सकता है। आज अगर होते डॉक्टर अंबेडकर तो जितने दल हैं हम इनको सबको वो ठोकर पर रखते भले ही उसमें उनको बहुत सफलता मिलती कि नहीं मिलती। हमने कहा ना कि वो व्यक्ति दिल से कोई राजनीतिक नहीं था। पॉलिटिकल उसकी थिंकिंग थी नहीं कि कैसे करके लोगों को लुभा लूं और उनसे वोट ले लूं। खरा इंसान है दो टूक बात करने वाला। तो हो सकता है कि आज वो आए फिर से उनको पॉलिटिकल सक्सेस ना मिले।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी भी तरीके की किसी पार्टी के साथ एलाइन हो जाएंगे। मैं लगभग निश्चित समझता हूं कि आज अगर वह होते तो वह आज भी अपने आप को बहुत अकेला पाते। उतना ही अकेला जितना वो 1956 में थे।
राणा यशवंत: ये दिलचस्प चर्चा रही है। डॉ. अंबेडकर अभी आचार्य जी कह रहे थे कि राजनीति में वो बहुत सफल नहीं हुए। लेकिन भारत का संविधान बना करके जो भविष्य का भारत है उसमें परिवर्तन और बदलाव का जो सपना उन्होंने देखा था उस रास्ते पर कितना भारत आगे बढ़ा है यह चर्चा इसी के आसपास घूमती रही है और मुझे लगता है कि अंबेडकर कल भी प्रासंगिक थे आज भी हैं आने वाले समय में भी प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि इंसान की बुनियादी जो जीवन की शर्तें हैं उसकी बात करते हैं और उसको सत्ता समाज धर्म सब जगह स्थापित करने की पैरवी करते हैं। आचार्य जी बहुत दिलचस्प है। आपने बहुत खुलकर के अपनी बात रखी है। बहुत धन्यवाद आपको।