प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ग्रंथों को पढ़कर, तत्वबोध को पढ़कर काफ़ी विभाजनों के बारे में पता चला है, जैसे कि अलग-अलग तरह के कर्म, अलग-अलग तरह के शरीर इत्यादि। ये सब विभाजन क्यों हैं? यह सब बड़ा सैद्धांतिक-सा लगता है। इतना विभाजन है कि समझ नहीं आता, कैसे इन सबको समझा जाए?
आचार्य प्रशांत: ये इतने भेद दिए ही इसीलिए गए क्योंकि आदमी की बुद्धि भेद माँगती है। सीधी-सरल बात तो यह है – दो ही हैं, एक सच और एक झूठ। और इन दोनों में एक है ही नहीं, तो बचे कितने? एक। और एक अकेला हो नहीं सकता दूसरे के अभाव में, तो कितने बचे? कुछ भी नहीं। लो कोई विभाजन नहीं!
पर ज्यों ही कह दिया गया कि कुछ भी नहीं है, त्यों ही तुम्हारे हाथ में कोई ग्रंथ भी नहीं आएगा, और मन को जहाँ विचार करने के लिए कोई सामग्री मिली नहीं, मन जहाँ सामग्री से रिक्त हुआ नहीं, कि उसने उपद्रव मचाना शुरू कर दिया। मन अन्यथा जा करके उपद्रव ना मचाए, इसलिए मन की इस माँग को मान लिया जाता है कि ज्ञान का भी वर्गीकरण कर दिया जाए। मन को ढाँचे अच्छे लगते हैं।
शंकराचार्य ने पूरे वैदिक ज्ञान को वर्गीकृत कर दिया, एक रूप दे दिया, एक स्ट्रक्चर , एक ढाँचा दे दिया। अनंत से मन डरता है, ढाँचों और खाँचों के साथ वह सहमत हो जाता है। बिलकुल ही बात तुमसे सीधे-सीधे कह दी जाए तो ना उसे पकड़ने को तैयार होओगे, ना तुम उसका सम्मान करोगे। तो बात थोड़ा घुमा-फिराकर कही जाती है, बात ज़रा इस तरीके से कही जाती है कि तुम्हारे लिए सुग्राह्य हो जाए।
जो ‘वस्तु’ आकाशवत् है, उसे संस्थानगत बनाना पड़ता है कई बार; आकाश को भी इन्स्टिट्यूशनलाइज़ करना पड़ता है। यह आग्रह आकाश की ओर से नहीं है, यह आग्रह हमारे अहंकार की ओर से है। हम व्यवस्थित ज्ञान चाहते हैं, *ऑर्गेनाइज़्ड नॉलेज*। हमें चीज़ें आयोजित चाहिए। और आदि शंकराचार्य ने वेदांत के ज्ञान को बड़े प्रभावी तरीके से व्यवस्थित कर दिया। विधि दी और विधि सफल भी रही।
और नहीं पड़ना व्यवस्था और आयोजित ज्ञान के इस झोल में, तो कह ही दिया मैंने तुमसे कि सब ज्ञान, सब शब्द, अखिल संसार, सब मिथ्या और सत्य बस एक। और एक अकेला रह नहीं सकता—बचे ना एक, ना अनेक। बात ख़त्म, पैसा हज़म! कहो, कैसा लगा?
आप कहोगे, "नहीं, शंकराचार्य जी ने जैसे बताया, वही ठीक है। हमें कहानियाँ चाहिए, हमें ढाँचे, व्यवस्थाएँ चाहिए। हमें घर चाहिए। खुला आकाश डराता है हमें, हमें दीवारें चाहिए।" तो जो हमारे हितैषी होते हैं, हमारे गुरु, वे अपनी करुणा में कई बार हमारी ज़िद की ख़ातिर हमें ढाँचें और दीवारें दे देते हैं। उन्हीं दीवारों को तुम विभाजन का नाम दे रहे हो। वह विभाजन हमारी ज़िद है इसलिए हमें दिया गया है; हमारी ही माँग पूरी की गयी है।
प्र२: आचार्य जी, मैं जीवन आत्मस्थ होकर नहीं जीता, जीवन वृत्तियों का ग़ुलाम ही है। जीवन में जो चल रहा है और ग्रंथों में जो लिखा है, उसमें बहुत दूरी है, फिर भी ग्रंथों को पढ़ते समय कोई प्रश्न नहीं उठता। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य: तुम पढ़ते रहो बस। जबरन प्रश्न उठाने की कोशिश भी मत करो। जितनी तुम्हारी क्षमता है, बस पढ़ते रहो।
ग्रंथ पढ़ते समय जो असली प्रक्रिया चल रही होती है, वह चेतना के पार की होती है। उसको तुम कभी पकड़ नहीं पाओगे। तुम तो यही सोच रहे हो कि आँखें ग्रंथ को पढ़ रही हैं और मन तक कुछ सूचना पहुँच रही है, इतना ही नहीं हो रहा है, कुछ और भी हो रहा है, वह पीछे-पीछे हो रहा है, नेपथ्य में हो रहा है, उसकी तुम्हें सूचना नहीं मिल रही। तो जल्दी से यह मत कह दिया करो कि “पढ़ तो रहे हैं, पर हो क्या रहा है?” जो हो रहा है, वह हो रहा है; तुम्हें सूचित किए बग़ैर हो रहा है। पढ़े जाओ।
प्र३: ज्ञानी के कर्मों का नकारात्मक विश्लेषण या निंदा करने से पाप मिलेगा और सकारात्मक विश्लेषण करने से पुण्य मिलेगा।
आचार्य: क्या कह रहे हो?
प्र३: ज्ञानी को तो आगामी कर्मों का फल मिलेगा नहीं, तो जो भी कोई अज्ञानी उनके कर्मों की निंदा करेगा, उसे पाप लगेगा।
आचार्य: अज्ञानी का तो अज्ञान ही पाप है। उसे कुछ करने की क्या ज़रूरत है पाप पाने के लिए! वह तो अज्ञानवश जो भी कुछ करेगा, पाप ही पाएगा।
अज्ञानी को पाप लगे, इसके लिए यह बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि वह जाकर किसी ज्ञानी की निंदा करे। वह ज्ञानी की स्तुति भी करेगा तो भी पाप ही पाएगा। वह स्तुति भी ऐसी होगी जैसे तुम मुझसे कहो कि “आचार्य जी, आपका कुर्ता कितना अच्छा है!” सत्र के उपरांत कोई पूछे, “आचार्य जी कैसे लगे?” तो तुम बोलो, “अरे! स्तुति है – क्या कुर्ता था!” तो पाप ही तो पाओगे, और क्या पाओगे?
अज्ञानी अगर निंदा करे, तो भी पाप पाएगा और प्रशंसा करे, तो भी पाप पाएगा; पाप उसके कर्म में नहीं है, पाप तो कर्ता में ही है। कर्ता कौन है? उसका अज्ञान ही कर्ता है। तो वो जो भी कुछ करेगा, वह पाप-ही-पाप है।
प्र४: ऐसा बताया जाता है कि एक संसारी को भगवान से कुछ नहीं माँगना चाहिए क्योंकि उससे चैन नहीं मिलता, तो फिर मैंने निश्चय किया था कि अब भगवान से कुछ नहीं माँगना। पर आपका वीडियो देखा, उसमें आपने बोला है कि भगवान को माँग लो, “माँगो तो भगवान को माँगो।” तो क्या ये उचित है?
आचार्य: जिस आशय में बोला, उसको समझिए।
पूर्ण की माँग का क्या मतलब होता है? पूर्ण की माँग का यही मतलब होता है कि हम इतने बड़े हैं कि पूर्ण को संभाल लेंगे। तुम कहो, “पूर्ण चाहिए”, तो पूर्ण को संभालने के लिए तुम्हारा आँचल कितना बड़ा होना चाहिए? पूर्ण जितना ही कम-से-कम। तो माने पूर्ण को संभालने के लिए तुम्हें भी क्या होना पड़ेगा? पूर्ण। और अब जब तुम पूर्ण हो ही गए, तो माँग क्या रहे हो! तो पूर्ण को माँगा माने कुछ नहीं माँगना। बात बताने के तरीक़े हैं।
प्र५: आचार्य जी, अभी यह सब जीव, ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, भगवान, प्रभु, ब्रह्म, यह सब सुनकर के तो बड़ा कन्फ़्यूज़न (उलझन) हो गया है। हमें अब करना क्या चाहिए इन स्थितियों में?
आचार्य: सो जाओ, आधी रात से ज़्यादा हो गयी!
इन सबके बारे में यही तो बोला कि मिथ्या है, “सत्य एक है, बाकी सब मिथ्या”, तो अब कन्फ़्यूज़न क्या है? यही तो बोला कि जितना याद है, वह सब भूल जाओ, मिथ्या है।
प्र५: वह सत्य जानना चाह रहा हूँ, आचार्य जी।
आचार्य: सत्य है ही नहीं, सब कुछ मिथ्या-ही-मिथ्या है। और जो सत्य है, वह अज्ञेय है, वह जाना नहीं जा सकता। उसको तुम जानने के लिए क्या आतुर हो? और जो कुछ तुम जानते हो या जान सकते हो, वह सब व्यर्थ है। सो जाओ!
है बड़ी राहत की बात, कि नहीं? कि जितना कुछ लेकर घूम रहे थे कि ऐसा होता है, वैसा होता है, सृष्टि का ऐसे निर्माण हुआ, फिर यह हुआ, फिर वह हुआ, फिर ईश्वर ने ऐसा करा, फिर फलानी चीज़ — यह सब कुछ नहीं हैं, कहानियाँ हैं, बस बैठे-बैठे कपोल-कल्पनाएँ लेने जैसा है। और सत्य? वह अकल्प्य है, ना चिंतन उसे पकड़ेगा, ना बुद्धि उसे पकड़ेगी, ना कल्पना उसे पकड़ेगी। तो कहानियों को लेकर क्यों गंभीर हो रहे हो?
गंभीर इसलिए हो रहे हो क्योंकि उन कहानियों में निवेश कर बैठे हो। उन कहानियों के साथ भाव जोड़ लिए हैं, कहानियों के साथ नाता है। और वो कहानियाँ अगर झूठी हैं, तो तुम भी झूठे साबित हुए जाते हो, तो कहते हो, “बड़ा कन्फ़्यूज़न आया है।” कन्फ़्यूज़न क्या है? तुम्हारी कहानियाँ झूठी हैं और तुम्हारी कहानियों में एक पात्र तुम भी हो।
तुम क्या हो? अपनी ही गढ़ी हुई कहानी का एक पात्र हो। अब अगर पूरी कहानी ही झूठी है, तो तुम भी झूठे हो गए। इसी बात से डरते हो। कहते हो, “नहीं, चूँकि हम सच्चे हैं, तो हमारी कहानी भी सच्ची होगी।”