आचार्य प्रशांत: सूत्र के साथ दो बातें हैं।
पहला, वो अति शुद्ध होता है। वो अति सूक्ष्म होता है और छोटा होता है, लघु होता है।
अपने-आप में उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती। अनुपयोगी होता है।
पर यदि वो बैठ जाता है आपके भीतर, तो आपका मन ऐसा हो जाता है फ़िर कि वो जीवन को उपयोगी ढंग से जी सकता है। और अगर आप यह जानना चाहते हैं कि कोई सूत्र आप वाकई समझे हैं कि नहीं, तो इसके अलावा और कोई तरीका नहीं है जाँचने का–क्या उस सूत्र का प्रयोग, उपयोग, मेरे जीवन में उतरा है?
सूत्र होगा अति शुद्ध। आप गणित का प्रश्न पत्र देने जाते हैं, आपको सारे फॉर्मूले (सूत्र) पता हैं पर उनकी एप्लिकेशन (प्रयोग) नहीं पता तो क्या होगा? क्या होगा?
प्रश्नकर्ता: समझना व्यर्थ है।
आचार्य: व्यर्थ है न। हमारे साथ यही हो रहा है यहाँ पर। आपको यह (सूत्र) तो पता है, पर यह नहीं पता कि ज़िंदगी में इसका करूँ क्या! तो ज़िंदगी में खूब मार खाते हैं। कोई भी आकर बेवक़ूफ़ बना कर चला जाता है। अभी यही तो बोल रहा था। जिसको यह समझ में आया हो वो कदम-कदम पर बेवक़ूफ़ कैसे बनेगा? यहाँ तो आज के यह लड़के हमें चरा रहे हैं और हमें समझ में भी नहीं आता कि वो चरा गया।
जो सत्य के समीप होता है वो संसार पर राज करता है।
वो संसार में बेवकूफ बन कर नहीं घूमता इधर-उधर कि जिधर गए वहीं धोखा खाया। जिसने चाहा उसी ने नचाया। उसे संसार की एक-एक चाल समझ में आती है।
वो कहानी सुनी है न कि एक कोई बहुत बड़ा धनी, शायद राजा ही, बुद्ध के पास आया। अब राजा है तो उसके अपने कुछ तौर-तरीके हैं, नखरे हैं। जल्दी ही कहने लगा कि, "मैंने तो सब कुछ सीख लिया। मैं कोई आम शिष्य, आम भिक्षु थोड़े ही हूँ, सब जानता हूँ।" बुद्ध ने कहा, "ठीक! मेरी एक भिक्षुणी रहती है पास वाले गाँव में, तू उसके यहाँ चला जा।" तो यह चला जाता है उसके यहाँ। उसके घर पहुँचता है। दोपहर का वक़्त है। घुसते ही कहता है, "अगर कुछ ठंडा पीने को मिल जाता तो मज़ा आ जाता।" जैसे ही सोचता है कि कुछ मिल जाता वैसे ही भिक्षुणी कहती है, "मैं ज़रा आपके लिए फ़ल का रस लेकर आती हूँ शीतल।" कहता है "बढ़िया है", पी लेता है। फिर थोड़ी देर बातचीत करता है। फिर थोड़ी देर बाद कहता है कि, "दोपहर हो रही है अगर कुछ शैया का प्रबंध हो जाता तो आराम कर लेते।" सोच रहा है यह। वो सोचता नहीं है कि वो कहती है कि, "आप आए हैं मैं आपके लिए ज़रा लेटने का प्रबंध कर देती हूँ।" बहुत बढ़िया! लेट-वेट जाता है फिर थोड़ी देर में उठता है। कहता है कि, "अब भूख लग रही है", खाना मिल जाता। वो खाना ले कर आती है उसमें वो सारे व्यंजन जो उसे बड़े पसंद। बढ़िया हो रहा है। वो राज़ी-ख़ुशी लौट कर जाता है बुद्ध के पास।
बुद्ध पूछते हैं, "कैसा रहा?" वो कहता है, "बहुत बढ़िया!" कहते हैं, "ठीक है! कल भी जाना।" वो कल भी आता है। चढ़ते हुए सोच रहा है कि, "कल वाला ही रस देगी या आज कुछ और होगा शीतल पेय स्वागत के लिए?" वो सोचता है, बोलती है, "नहीं-नहीं कल वाला नहीं है, आज दूसरा लाई हूँ आपके लिए।" उसका माथा ठनकता है। कहता है "मैं तो सोच भर रहा था।" खाना लगता है। उसने सोचा होता है कि, "कल मेरी पसंद की चीज़ें तो बनी थी पर जिस थाली में परोसी गईं थी वो मेरे लिए कुछ ठीक नहीं थी। मात्रा कुछ कम थी।" सब जैसा उसे चाहिए, मिल रहा है। अब परेशान होना शुरू हो जाता है। कहता है कि, "यह हो क्या रहा है!" वो कहती है "आप परेशान क्यों हो रहे हैं, आप खाना खाइए।" वो देखता है, कहता है, "इसे मेरे मन की बात समझ आ रही है क्या?" कहती है, "नहीं, बिलकुल भी नहीं।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
खाना-वाना छोड़ कर भागता है बुद्ध के पास। बुद्ध कहते हैं, "आज का दिन कैसा रहा?" बोलता है, "नहीं! आज का दिन कुछ ठीक नहीं रहा है।" बोलते हैं, "कोई बात नहीं, कल फिर जाना।" सुबह का समय है तीसरे दिन का, वो काँप रहा है।
बुद्ध के पास जाता है।
कहता है, "मत भेजिए।"
कहते हैं, "क्या हो गया?"
बोलता है, "मत भेजिए!"
बोलते हैं, "क्या है?"
"भिक्षुणी युवा है। सुन्दर है। मेरे मन में तो और भी विचार उठते हैं। वो सब पढ़ ले रही है लग रहा है। बड़ा अपमान होगा। वो सब जान जा रही है।"
बुद्ध कहते हैं "तो? तुम भी तो सब जान गए हो न इतने दिन मेरे पास रह कर। वो सब जान जा रही है यह तुम जान लो। जैसे वो तुम्हें पढ़ रही है, तुम भी पढ़ लो।"
राजा कहता है, "यह विद्या तो मुझे आती ही नहीं। आपने सिखाई भी नहीं।" कहते हैं, "मैं तो यह विद्या सिखाता भी नहीं हूँ कि दूसरों के विचार कैसे पढ़ने हैं। मैं तो निर्विचार सिखाता हूँ। पर जो निर्विचार सीख जाता है वो दुनिया के फिर सारे विचार पढ़ना जान जाता है।"
जो स्वयं शांत हो जाता है वो बिलकुल समझ जाता है कि बाहर क्या-क्या अशांति चल रही है। जो स्थिर बैठा है वो दुनिया को एक किताब की तरह पढ़ लेता है। दुनिया बिलकुल खुल जाती है किताब की तरह उसके सामने।
क्यों, तुम लोगों ने देखा नहीं है, बैठा होता हूँ संवाद में, या यहीं तुम लोगों के सामने, अक्सर आँख नहीं मिलाते मुझसे। या इधर-उधर छुप कर बैठते हो कि किसी तरीके से चेहरा सामने ना हो। आँखें न... मैंने पकड़ कर पूछ ही लिया कि, "क्यों?" तो बोला एक-दो लोगों ने कि, "आप से आँख मिलाएँगे तो आप सब जान जाएँगे। बात खुल जाएगी। छुपना ज़रूरी है।" जिन्हें भी मुझसे छुपना होता है वो कोने-कतरे दूर जा कर बैठते हैं।
जब आप के भीतर घमासान नहीं मचा होता तो दुनिया को जानना बड़ा सहज हो जाता है। और यदि दुनिया को आप नहीं जान पा रहे हैं तो साफ समझिए कि आपके भीतर बड़ा घमासान मचा हुआ है।
आप हिलते हुए आईने की तरह हैं। हिलते हुए आईने में जो दिखाई देता है?
प्र: वही हिलता हुआ होता है।
आचार्य: वही उल्टा-पुल्टा होता है। आपको कुछ समझ नहीं आएगा। आपका मन, शांत, झील जैसा दर्पण नहीं हुआ है। बहुत लहरें हैं। बहुत ऊँच-नीच है। आप आते हैं न मेरे पास कि, "ऐसा हो रहा था, वैसा हो रहा था।" और फिर मैं कहता हूँ कि, "ऐसा हो रहा था तो ऐसा तुम्हें सूझा क्यों नहीं?" उसको मैं राईट रेस्पोंस (उचित प्रतिक्रिया) कहता हूँ। कि राईट रेस्पोंस (उचित प्रतिक्रिया) क्यों नहीं दे पा रहे? क्योंकि तुम्हें परिस्थिति ही समझ में नहीं आती। उचित कर्म तो तुम तब करोगे न जब तुम्हें पहले स्थिति क्या है यह उचित रूप से पता हो। तुम्हें स्थिति ही नहीं पता चलती। तुम अपने ही स्वप्नों में खोए हो। वस्तु-स्थिति क्या है? ऑब्जेक्टिव फैक्ट (वस्तुगत तथ्य) क्या है? यह तुम जान ही नहीं पाते। तो फिर तुम्हारे भीतर से उसका उचित रेस्पोंस (प्रतिक्रिया) भी नहीं उठता। तुम्हें पता ही नहीं चलता कि इस मौके पर मुझे क्या करना चाहिए, क्या कहना चाहिए, तुम कुछ का कुछ कर आते हो। जो बोलना चाहिए था वो नहीं बोलते हो। कुछ और बोल कर आ जाते हो। और फिर मैं कहता हूँ, "यह क्या बोल आए? यह कोई जवाब था? यह क्या कर दिया?" क्योंकि तुम समझ ही नहीं रहे। तुम्हारे अपने मन में कुछ और ही...
समझ रहे हो बात को?
इनको (सूत्रों को) अगर समझोगे तो ज्ञान नहीं इकट्ठा करोगे। यह ज्ञान नहीं होते हैं। ज्ञान तो बोझ है। यह तो भीतर जा कर के तुम में घुल जाते हैं। यह भीतर जा कर के तुम्हारा अस्थि, माँस, मज्जा, बन जाते हैं। यह तुम्हारे खून में दौड़ने लग जाते हैं। तुम्हें इन्हें याद नहीं रखना पड़ता। तुम चाहो तो भूल जाओ कि क्या पढ़ा था पर फिर यह तुम्हारे खून में, लहू में दौड़ने चाहिए। अब तुम संसार में जो भी करो उसके पीछे यह बैठा हुआ है। कि जैसे कोई ऐसा हो कि जिसे गणित के सूत्रों की इतनी ज़बरदस्त समझ है कि बाहर का कोई सवाल वो ग़लत कर दे, यह हो ही नहीं सकता। या हो सकता है?
और तुम ऐसे हो कि सूत्र दोहराते फिर रहे हो–(A+B)^2=A2 + B2 + 2AB
और पूछा जा रहा है कि यह फुटबॉल का मैदान है। इसका क्षेत्रफल बता दो। तो नहीं कर पा रहे। हाँ, फ़ॉर्मूला पता है तुमको। मूर्ख ही रह गए न? ज़िंदगी में उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं है। बातें रट ली हैं। ज़िंदगी में उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन वैसा का वैसा। बल्कि पहले से और ख़राब। क्योंकि पहले तो सिर्फ़ बुद्धू थे। अब बोझ उठाते हुए बुद्धु हो। पहले गधे थे, अब लदे हुए गधे हो। दुनिया से मार पहले भी खाते थे, अब सूत्रों के साथ खाते हो। पहले पिटते थे तो हाय-हाय करते थे, अब पिटते हो तो हाय राम करते हो। इतना ही अंतर पड़ा है। लेकिन पिट तो अभी भी रहे हो। पिटना कब बंद होगा यह बताओ। जीतना कब शुरू करोगे? यह पूरी सेना इसीलिए है।
फिर पिट गए!
किसी का संदेश आ रहा है, छात्र का, उसे क्या जवाब देना है, नहीं समझ में आता। घर-परिवार में क्या बात करनी है, नहीं समझ में आता। बाज़ार में क्या निर्णय लेने हैं, नहीं समझ में आते।
क्या है यह?
या बाज़ार में मूली खरीदने जाओगी, दुकानदार पूछेगा, "कौन सी मूली चाहिए?" तो कहोगी "तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार!" अरे! वो पूछ रहा है, कौन सी मूली लेनी है! साफ़-साफ़ जवाब दो! संसार जवाब माँग रहा है, एक स्थिति है। उसका समुचित उत्तर दो। या वहाँ भजन गाओगे कि मुरली बाज उठी... वो पूछ रहा है, "बैंगन कि टिंडा?" पता नहीं है तुम्हें। मुरली बजा रहे हो वहाँ! और दुनिया ऐसी है पगली, जो कहेगी, "बड़ी भक्त है। देखो! पूछा जा रहा है कि बैंगन कि टिंडा, तो बोल रही है मुरली बाज उठी।" अनघाता वो भी।
स्मार्ट (होशियार) होना बड़ा अच्छा लगता है न, स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) है असली स्मार्टनेस (होशियारी)। पता हो, कि क्या करना है क्या नहीं! स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) आदमी का सब ठीक रहता है संसार में, उसके पास समय की कमी नहीं पड़ती। कि पाँच लोग पीछे से ठेल रहे हैं, तो रात में तीन बजे होश आया कि एक मेल लिखनी है। वो भी तब जब अपमान भी झेल लिया। दो-चार कटु वचन भी किसी ने कह दिए।
स्मार्टनेस (होशियारी) का यही मतलब होता है न–
राईट डिसिज़न (सही फैसला), राईट एक्शन (सही कार्य)। नो टेंशन (बिना तनाव के)। एवरीथिंग स्मूथ (सब शांत रूप से)। ख़ट-ख़ट-ख़ट-ख़ट-ख़ट, फँस नहीं गए।
ऐसे ही थे एक पंडित जी, नाव में जा रहे थे। वहाँ बेचारा बैठा हुआ है मल्लाह, केवट। चार साल से वो बोध-सत्र में आते थे–रविवार, बुद्धवार। सब पढ़ डाला था। उपनिषद, कबीर, अष्टावक्र इत्यादि। तो कहें "कुछ तो वसूलें।" तो लगे उसको ठेलने। "तुझे उपनिषद आते हैं?" बोला "नहीं महाराज! आप बड़े आदमी। आप कोहम् पर मेल भेजते हो पढ़-पढ़ कर, मुझे कहाँ आते हैं।"
"तुझे भजन आते हैं?"
बोला, "नहीं महाराज! मैं तो यही चप्पू की आवाज़ सुनता हूँ, यही भजन है।"
"पुराण पढ़े हैं?"
"अरे महाराज! कैसी बात कर रहे हो, काला अक्षर भैंस बराबर।"
"अरे! गीता आती है?"
बोला, "मैं किसी गीता को नहीं जानता, एक गाँव में है बस। उसको भी थोड़ा ही बहुत जानता हूँ और किसी गीता को नहीं जानता।"
बोले, "तुझे कुछ नहीं आता, अधम, नरक के कीड़े।"
बोलता है, "महाराज, आपको तैरना आता है?"
बोले, "नहीं।"
तो बोलता है, "मुझे नहीं पता मैं नरक में कब जाऊँगा, आप अभी जाने वाले हो। नाव में छेद है।"
तो ऐसी हालत है।
फिसड्डीपना कब ख़त्म होगा, यह बताओ? जो आता है, वही तुम पर हावी हो जाता है। यह हाय-हाय करना कब बंद होगा? जब देखो तब मजबूरियाँ। अरे! इसने मार दिया। अभी कोई और चढ़ा हो तो उसने पिटाई कर दी। वो हावी हो गया। उसने दबा दिया। यह अड़चन आ गई। अभी तो हालत ऐसी है कि कोई सेना लेकर लड़ने जाए और जितने सैनिक हों वो कूद-कूद कर आगे आकर सेनापति से चिपक जाएँ। "अरे! बचाओ रे।"
तुम्हें लड़ने के लिए भेजा है या इसलिए भेजा है कि तुम आ-आ कर, उछल-उछल कर मेरे ही ऊपर चिपको, कि, "बचाओ रे!" अब मैं लड़ाई भी करूँ और तुम्हें भी बचाऊँ। बड़ी तुमने मेरी मदद करी है। अपनी तो मैं जो लड़ाई कर रहा हूँ, वो तो करूँ ही। एक आकर पाँव से चिपक गया है, एक कंधे पर बैठा हुआ, एक पीठ पर चिपका हुआ है कि, "बचाओ रे, फिर पिट गए।" एक सो गया है उसको पता भी नहीं है कि लड़ाई चल रही है (हँसते हुए)। नहीं, ऐसे भी सैनिक होते हैं, वो समाधिस्त होकर के वीरगति को प्राप्त होते हैं, खर्राटे लेते हुए। खर्राटों के बीच शहादत हो गई है। बिगुल बज गया था, वो खर्राटे ही मारते रह गए।