अध्यात्म में लज्जा को आभूषण क्यों कहा गया है?

Acharya Prashant

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अध्यात्म में लज्जा को आभूषण क्यों कहा गया है?
लज्जा बहुत उपयोगी है जब परमात्मा के सामने आए और लज्जा बहुत घातक है जब समाज के सामने आए। लाज आनी चाहिए अपनी दुर्गति पर। जाओगे तुम संतों के यहाँ तो वो गाते हैं, ‘घर जाऊँ कैसे, बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे।’ लाज आती है। ‘लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे?’ लज्जा आनी चाहिए कि तेरा भरोसा हमने बिल्कुल ही तोड़ दिया। बार-बार तूने हमें सुधरने का, पाक-साफ़ रहने का मौका दिया और बार-बार हमने गलत चुनाव किया। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: जो गुण अध्यात्म की दृष्टि से उपयोगी बताए गए हैं उनमें एक गुण लज्जा भी है। लाज आनी चाहिए अपनी दुर्गति पर। जाओगे तुम संतों के यहाँ तो वो गाते हैं, ‘घर जाऊँ कैसे, बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे।’ लाज आती है। ‘लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे?’ लज्जा आनी चाहिए कि तेरा भरोसा हमने बिल्कुल ही तोड़ दिया। बार-बार तूने हमें सुधरने का, पाक-साफ़ रहने का मौका दिया और बार-बार हमने गलत चुनाव किया।

लज्जा बहुत उपयोगी है जब परमात्मा के सामने आए और लज्जा बहुत घातक है जब समाज के सामने आए।

जब तुम लजाने लग जाते हो कि अरे! कोई दूसरा मुझे देख न ले, तो वो लज्जा बड़ी व्यर्थ है। और आम तौर पर हमें वही लज्जा होती है। सड़क पर गिर गए फिसलकर, तुरंत देखते हैं किसी ने देखा तो नहीं इधर-उधर। घर में लड़का फेल हो गया, तुरंत छुपाते हैं, किसी को पता न चले। लड़का गंजेड़ी निकल गया, पुलिस ले ग‌ई, दो दिन थाने में रहा। उसका गांजा छूटे न छूटे, ये खबर दबनी चाहिए। एकदम पता नहीं चलना चाहिए दुनिया को कि अपना कुलदीपक दो रात हवालात रोशन करके आया है।

ये लज्जा सड़ी हुई चीज़ है। लेकिन उसके सामने लाज आनी चाहिए। परमात्मा के सामने, ग्रंथों के सामने, गुरु के सामने बड़ी लज्जा आनी चाहिए। नज़रें झुकी रहनी चाहिए, सिर झुका रहना चाहिए। ‘तुमने हमें इतना दिया, हम फिर भी किसी काबिल नहीं निकले। तुम मौका दिए जाते हो, हम मौका गँवाए जाते हैं।’

पर वो लाज भी बड़ी विचित्र बात है, सिर्फ़ संतो को ही आती है। संत बार-बार गाते हैं कि अवसर छूटो जाए रे। “बीत गए दिन भजन बिना रे।”

आम आदमी को लाज ही नहीं आती। संत परमात्मा के सामने खड़ा होता है और रो पड़ता है कि किसी काबिल नहीं निकला मैं। आम आदमी परमात्मा को भी आँख दिखाता है — ‘गलती सारी तुम्हारी है, तुम्हीं ने ऐसा बनाया है।’

तो पुराने लोगों ने अगर लज्जा को आभूषण बताया था तो सही ही बताया था। लज्जा वास्तव में आभूषण है पर सही लज्जा। जेठ के सामने घूँघट डालकर घूम रही है, इसको लज्जा नहीं बोलते, ये बेहूदगी है। या बाज़ार में निकले हैं पर्दा करके, ये नहीं लज्जा है, ये लज्जा का विकृतिकरण है।

अध्यात्म की दृष्टि से देखो तो सब जीव स्त्रियाँ हैं, परमात्मा मात्र पुरुष है। उसके सामने लज्जा आनी चाहिए और सिर्फ़ उसके सामने और किसी के सामने नहीं।

संसार के सामने पूर्ण निर्लज्जता चाहिए और परमात्मा के सामने बस गोरी की आँखें झुकी ही रहें।

फिर बुरा लगता है, बड़ी ग्लानी उठती है भीतर। फिर ये सवाल नहीं पूछोगे कि एक बार गलती करके आदमी दोबारा दोहराए तो। फिर ऐसा लगता है कि कैसे मुँह दिखाएँगे। “जाकर बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे। लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे।” शर्म आनी बहुत ज़रूरी है। बेशर्मी की संस्कृति घातक है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अगर प्रेम है फिर लज्जा कैसी?

आचार्य प्रशांत: वो जो प्रेमी है, वो तो प्रेम निभा रहा है, तुमने नहीं निभाया है न। इसी बात की तो लज्जा कि तुमने प्रेम का मान नहीं रखा। प्रेम है, किस तरफ़ से है? उसकी तरफ़ से है। तुम प्रेम की आबरू नहीं रख पाए, इसी बात की तो लाज। वो देता रहा और तुम इस लायक भी न हो पाए कि ले पाओ, इसी बात की तो लाज।

अब समझ में आ रहा है, क्यों कहा उन्होंने कि पानी ग‌ए न ऊबरे मोती, मानुष, चून?

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

~ रहीम दास

लज्जा है जिसको पानी कहा जा रहा है। आदमी में पानी होना चाहिए, लाज होनी चाहिए। जिस आदमी का पानी मर गया, उसके लिए कोई सम्भावना नहीं। “पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून।”

पूरी ईसाईयत सिन (पाप) और गिल्ट (अपराधबोध) पर आधारित है। कि अनुभव करो और मानों कि तुम पापी हो और फिर प्रायश्चित करो, रिपेंटेंस। लाज आनी चाहिए न कि हाय! ये मैंने क्या कर दिया। यीशु मुझे क्या देने आया था और मैंने क्या कर डाला। उसके प्यार का मैंने क्या सबब दिया। पूरी ईसाईयत ही इसी पर है कि लाज करो, थोड़ी शर्म करो। और ईसाई मत से ज़्यादा सिन की बात कोई करता नहीं। यही उसकी विशेषता भी है। वो बार-बार तुम्हें याद दिलाता है कि तुमने कुछ बहुत गलत कर रखा है और गलत करे जा रहे हो।

एक तरह से देखो तो ईसाई मत आदमी की बे-हयाई के खिलाफ़ आंदोलन है। कितने बे-हया, कितने निर्लज्ज!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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