प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अपने बच्चों के लालन-पालन की हर संभव कोशिश करती हूँ। यह बात समझ में नहीं आती कि यह ज़िम्मेदारी है या अभी भी सिर्फ़ आसक्ति है?
आचार्य प्रशांत: ज़िम्मेदारी, दायित्व, दूसरे को कुछ देना है। दूसरे को आप वही देना चाहेंगे न जो उसके हित में हो। तो ज़िम्मेदारी या दायित्व के केन्द्र में होता है हित।
दूसरों के प्रति तुम अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर सको उससे पहले ये पता होना चाहिए कि दूसरे का हित कहाँ निहित है। अगर हमें यह पता ही नहीं हैं कि दूसरे का हित कहाँ है, तो हम ज़िम्मेदारी के नाम पर दूसरे का अहित कर देंगे न, कि नहीं कर देंगे?
तुमने ज़िम्मेदारी का हवाला देते हुए दूसरे को कुछ दे दिया। दायित्व माने देना। देय धर्म को कहते हैं दायित्व। दे तो दिया दूसरे को, और तुम्हें ये पता भी नहीं कि जो तुम दूसरे को दे रहे हो वह दूसरे के लिए हितकर है या अनिष्टकर। तो गड़बड़ हो जाएगी न।
हम देने में बड़ी रुचि रखते हैं। परंतु यह जानने में हमारी कम जिज्ञासा होती है कि हम जो दे रहे हैं, वह वस्तु उस दूसरे के काम की है भी या नहीं है। क्यों रहती है हमारी कम जिज्ञासा यह जानने में कि जो हम दे रहे हैं, वो दूसरे के लिए हितकर है या नहीं? क्योंकि हमने कभी यही नहीं जाना कि हमारे लिए क्या हितकर है।
तो कहानी बात बढ़कर के यहाँ पहुँच गई है कि तुम दूसरे के प्रति ज़िम्मेदारी पूरी कर सको इससे पहले तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारे लिए क्या हितकर है।
अगर तुम्हें अपना हित साफ़-साफ़ पता होगा तो तुम्हें ये भी पता होगा कि दूसरे का हित कहाँ है और होता ये है कि अगर तुम साफ़-साफ़ जान जाओ कि तुम्हारा हित कहाँ है तो दूसरे का हित भी तुम्हें स्पष्ट हो ही जाएगा, क्योंकि तुम्हारी और दूसरो की रुचियाँ अलग-अलग हो सकती हैं, तुम्हारे और दूसरो के स्वार्थ अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन तुम्हारा और दूसरों का हित एक ही होता है।
तो माने जो अपना हित जान गया, वो समस्त जगत का हित जान गया।
तो कहानी थोड़ा और आगे बढ़ाइए, हमें पता चल रहा है कि अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए हमें पता होना चाहिए अपना हित। और जो हमारा हित है, वही पूरे संसार का हित है।
तो जो लोग अपनी ज़िम्मेदारी इत्यादि निभाने में उत्सुक हों, उन्हें पहले ईमानदारी से इस प्रश्न का ज़वाब देना होगा कि क्या तुम अपना हित जानते हो? और जब तुम अपना ही हित नहीं जानते, तो दूसरों का हित क्या करोगे?
बताने वाले बता गए हैं कि सब का हित एक ही है। क्या? मुक्ति। तो दूसरों के प्रति भी तुम्हारी ज़िम्मेदारी एक ही है। क्या? दूसरों की मुक्ति में सहायक बनो।
लेकिन हो उल्टा जाता है, ज़िम्मेदारी पूरी करने के नाम पर हम दूसरों को बंधन में धकेल देते हैं। ये तो सब उल्टा हो गया। ज़िम्मेदारी यह थी कि तुम दूसरे की मुक्ति में सहायक बनो। और तुमने कर क्या डाला? ज़िम्मेदारी पूरी करने के नाम पर दूसरे को बंधन पहना दिए। हो गयी न गड़बड़। ये नहीं करना है।
ये बडा ख़तरनाक शब्द है—ज़िम्मेदारी। इसके कारण न जाने कितने लोग बर्बाद हुए हैं। जो ज़िम्मेदारी पूरी करते हैं, वे ज़िम्मेदारी पूरी करके दूसरों का अहित कर देते हैं। और जो ज़िम्मेदारी पूूरी नहीं करते, वो बेचारे इस ग्लानि मे, इस अपराध भाव में जीते हैं कि हम तो गैर-ज़िम्मेदार हैं।
तो दोनों ही तरीक़ों से नुक़सान-ही-नुक़सान है। बचेगा बस वो, जो जान जाए कि ज़िम्मेदारी का या दायित्व का यथार्थ क्या है। ज़िम्मा माने क्या? असल में पूछो तो ज़िम्मेदारी के लिए जो बिलकुल सही शब्द है वो है—धर्म।
क्योंकि धर्म ही तुम्हारा ज़िम्मा है। ज़िम्मेदारी को कहते हो न कर्तव्य, कहते हो न, या कहते हो रिस्पांसिबिलिटी?
इन सब के लिए शुद्धतम शब्द है—धर्म। कर्तव्य माने वो जो करणीय हो। और क्या है जो करणीय है, उसी को ही तो धर्म कहते हैं। तो एक धार्मिक चित्त ही अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकता है। और उसकी ज़िम्मेदारी है स्वयं भी मुक्त होना और दूसरों की मुक्ति में भी सहायक बनना। और नहीं है कोई ज़िम्मेदारी।
हाँ, दुनिया बहुत परेशान करेगी, 'अरे ये ज़िम्मेदारी पूरी करो, वो ज़िम्मेदारी पूरी करो।' आप मुस्कुरा दीजिएगा। नादान लोग हैं, इनकी बातों को क्या गंभीरता से लेना।
और ऐसा ही नहीं है कि माँ-बाप सोचते हैं कि बच्चों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी है और बच्चों का अहित कर देते हैं। बच्चे भी सोचते रहते हैं कि माँ-बाप के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी है और वो माँ-बाप का भी अहित करते हैं और अपना भी अहित करते हैं।
द्वैत का मतलब ही यही है कि गड़बड़ दोनों ओर से है। दोनों छोर ही गड़बड़ हैं।
प्रश्नकर्ता: लोग पूछते हैं कि बच्चे को क्या बनाना है तो मैं कहती हूँ कि जिसमें वो खुश रहे। उसको यदि चाय की दुकान खोलनी है तो खोलेगा क्योंकि उसे चाय बेचना पसंद है। तो लोग इस पर कहते हैं कि क्या अजीब बातें कर रही हो, उनको सुनकर हँसी आती है।
आचार्य प्रशांत: आप हँसिए ही नहीं, आप कहिए, शुरुआत आपने ही करी न। 'कैसी बातें कर रहे हो पागलों जैसी। आप कहिए, शुरुआत किसने की पागलों जैसी बात करने की, कि बच्चे को बनाना है? थोड़ी देर में बोलोगे कि बच्चा ऐप्पल है। बच्चा है कि घास-फूस और सब्जी है? ऐप्पल, पाइनऐप्पल, बनाना चल रहा है।
पहली बात तो यह कि बच्चा है वो। और कितना बड़ा होगा अब, जब मानोगे कि वो हुड़दंग है, वयस्क है, जवान है? पर ख़ास तौर पर हिन्दुस्तान में परंपरा है कि तीस का हो जाए या पैंतीस का हो जाए, अस्सी का हो जाए तो भी कहेंगे कि ये मेरा बच्चा। वो किस कोण से तुम्हें बच्चा दिख रहा है, बताना तो।
उसके भी बच्चे हो जाए तो भी यही कहते रहेंगे कि बच्चा है। बड़ा लाड़ से कहेंगे, 'अरे, उसके तो बाल पक जाए, दाँत गिर जाए हमारे लिए तो बच्चा ही है न।' ये पागलपन की बात है।
सन्तो की बातों पर ध्यान देते हैं, ज्ञानियों के बातों पर ध्यान देते हैं, गुरू की बातों पर ध्यान देते हैं; नादानों की बात आपने सुनी क्यों? उन बेचारों की क्या भूल, वो तो हैं ही नादान और गुमराह। ग़लती आपकी है कि आपने उनकी बात कान में पड़ने दी। और आप ऐसे लोगों की संगत क्यों कर रही हैं जो इस तरह की बातें करते हैं?
जैसी जिसकी संगति होगी, वो वैसा ही बन जाएगा। अगर आप मूढों की संगति करेंगी, तो उनका प्रभाव आप पर भी आएगा। जो व्यर्थ की बात करता हो, या तो उसको सुधार दो। और अगर वो सुधर नहीं रहा तो, नमस्कार करके अपना रास्ता नापो। पर उसकी संगति करते रहना तो आत्मघातक है न।
फिर वही होता है कि वो तो नहीं सुधरता, आप बिगड़ जाते हो। उसके संशय तो दूर नहीं होते, हाँ, आपके मन में नये-नये तूफ़ानी संशय खड़े हो जाते हैं। यही होता है कि नहीं? शांत मन के थे और तभी वो फूफी आ गयी। और फूफी कह रही है, 'अरे, बच्चे को क्या बनाना है?' और ल्यो! आ गया भूचाल मन में। फूफा फल विक्रेता है असल में। तो फूफी जहाँ जाती है वही बनाना इत्यादि वितरित करती रहती है।
सबकी ज़िंदगी में ऐसे लोग हैं न। अच्छे-खासे शांत बैठे होंगे और दूर की चाची, क़रीब की फूफी, पड़ोस के शर्माजी आ करके मन बिलकुल हिला-डुला देंगे। करते हैं कि नही करते? तो ऐसों से क्या करना है? या तो उनको समझाओ और पाओ कि वो समझने को नहीं तैयार हैं, तो कम-से-कम अपनेआप को बचाओ।
सफ़ाई को कभी अपनेआप फैलते देखा है? सफ़ाई करनी पड़ती है। करनी पड़ती है कि नहीं? सफ़ाई तो करनी पड़ती है। कभी देखा है कि गंदा कपड़ा और साफ़ कपड़ा साथ-साथ रखे हों, तो गंदा अपनेआप साफ़ हो जाए, ऐसा होते देखा है क्या? सफ़ाई तो श्रमपूर्वक करनी पड़ती है। साधना है। और गंदगी, वो अपनेआप फैलती है, वो हो जाती है।
समय का मतलब है गंदगी। तुम साफ़ चीज़ समय पर छोड़ दो, समय उसे गंदा कर देगा। साफ़-सुथरी चीज़ छोड़ दो, एक हफ़्ते बाद जाकर देखो तो वो गंदी मिलेगी।
आप रसोई में अपने बर्तन धोकर रखती होंगी। हफ़्तेभर को बाहर चली जाए, वापस आए, तो बर्तन जैसा रखा है क्या उसे वैसे ही उठा करके इस्तेमाल कर लेती हैं? साफ़ बर्तन को भी पुनः साफ़ करना पड़ता है।
क्योंकि समय का अर्थ ही है गंदगी। लेकिन समय का अर्थ मुक्ति नहीं होता। ऐसा नहीं है कि समय में मुक्ति अपनेआप मिल जाएगी, नहीं। लेकिन समय के साथ बंधन अपनेआप मिल जाएँगे। मुक्ति तो श्रमपूर्वक प्राप्त करनी पड़ती है। बंधन बैठे-बिठाए मिल जाते हैं। गंदगी की जैसे प्रकृति होbफैलना। गंदगी की जैसे प्रकृति ही हो अपनेआप, स्वयं फैलना।
इसी तरीक़े से जिन लोगों के मन गंदे होते हैं, वो अपनी गंदगी को जहाँ-तहाँ फैलाते चलते हैं। लेकिन सफ़ाई, वो यूँ ही नही मिल जाती। सफ़ाई उसी को ही मिलती है, जो दृढ़प्रतिज्ञ हो करके साधना करता है। गंदगी उसको भी मिल जाती है, जिसने गंदगी की माँग नहीं करी। जो बस असावधान है। तो गंदगी यूँ ही मिल जाएगी, सफ़ाई अर्जित करनी पड़ेगी।
बड़ी विचित्र दुनिया हैं हमारी। यहाँ गिरने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। बस ज़रा-सा असावधान होना पड़ता है।
आप पहाड़ पर हैं अभी, उधर नीचे खाई है। गिरने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ेगी? गिरने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ेगी? कुछ भी नहीं। पल भर की असावधानी चाहिए और खाई में। और चढ़ने के लिए कितनी मेहनत करनी पडे़गी? बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। तो ऐसे संसार में हैं हम। जहाँ गिरने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। उठने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। गिर तो यूँ ही जाओगे।
परीक्षा में असफल होने के लिए क्या करना होता है? कुछ भी नहीं। और सफल होने के लिए क्या करना पड़ता है? बहुत कुछ करना पड़ता है। ऐसा संसार हैं हमारा। तो सावधान रहिएगा।
प्र२: आचार्य जी, जब से मैनें दूध पीना छोड़ा है तो घरवालों को लगता हैं कि मैं पतला हो गया हूँ तो वो दबाव डालते हैं, तब मुझे समझ नहीं आता क्या करना चाहिए?
आचार्य: बहुत सीधी-सादी बात होती है, ऐसा कोई नहीं होता जो समझ न पाए। हाँ, ऐसा ज़रूर हो सकता है कि कोई समझ के भी नासमझ बने रहने का चुनाव करे।
क्वान्टम फिजिक्स तो है नहीं, कि समझ मे नहीं आती। यहाँ तो बहुत सीधी-सरल बात है, जो अगर कोई नहीं समझ रहा तो यह जान लो कि वो चुनाव कर रहा है कि मुझे स्वार्थ से ज़्यादा कुछ प्यारा नहीं, करुणा का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं।
अब इस चुनाव का समर्थन करने का तुम्हें चुनाव करना हो तो तुम कर सकते हो। चुनाव करने को तो सब स्वतंत्र हैं न।
कोई ये चुनाव करे कि मुझे पशुओं पर हिंसा करनी ही करनी है, तो वो ये कर सकता है। और कोई ऐसा चुनाव करनेवाले के समर्थन का चुनाव करे, तो वो भी ऐसा चुनाव कर सकता है। तुम भी कर सकते हो। तुम्हें क्या लगता है जनतंत्र सिर्फ़ ज़मीन पर चलता है? उसने भी चला रखा है।
तुम्हें वही मिलेगा, जैसा तुम वोट डालोगे। लेकिन फिर जो तुमने चुना वो तुम्हें भुगतना भी पड़ेगा। तुम घटिया से घटिया नेता चुन सकते हो। कोई नहीं रोकेगा तुम्हें। लेकिन फिर उस नेता को भुगतेगा भी कौन? तुम्हीं भुगतोगे।
इसी तरीक़े से तुम भी घटिया से घटिया कर्म चुन सकते हो। लेकिन उसका कर्मफल भुगतेगा कौन? तुम्हीं भुगतोगे।
तो वो एक चुनाव कर रहे हैं, उन्हीं की तरह तुम भी चुनाव कर सकते हो। और एक ग़लत चुनाव तुमने कर ही लिया—झूठ को बेबसी कहने का चुनाव। कह रहे हो समझ नहीं पाती हैं। ये ऐसे कहो न, समझना नहीं चाहती हैं।
तो एक ग़लत चुनाव तो तुम कर ही चुके हो कि जो काम जानबूझ कर किया जा रहा है उसको तुम मजबूरी बता रहे हो। वो मजबूरी नहीं है। वो मजबूरी नहीं है। बाकी एक सीमा के आगे कोई किसी को सलाह दें नहीं सकता। मैं भी तुम्हें सलाह नहीं दे सकता। क्योंकि जो बात कही जा सकती है वो कह दी गयी। अब उसको सुनना है कि नहीं सुनना है, उस पर अमल करना है कि नहीं करना, ये तुम्हारा चुनाव है। अब तुम जानो।
अब गेंद तुम्हारे पाले में है, अब हम क्या करें? किसी ने तय ही कर लिया हो कि करुणा से कई ज़्यादा बड़ा होता है स्वार्थ। तो हम क्या करें? अब तो आपको आपका कर्मफल ही बताएगा।
जानने वाले कह गए हैं कि पुत्र अगर मुक्त होता है पुत्र अगर सतलोक को, मुक्तधाम को प्राप्त होता है तो उसके साथ-साथ माता और पिता को भी सत्य और मुक्ति प्राप्त हो जाती है। तो कोई भी पुत्र या पुत्री अपने माँ-बाप को सबसे अच्छा और ऊँचे-से-ऊँचा उपहार क्या दे सकता है या दे सकती है? यही न कि मुक्ति की ओर बढ़े। तो अगर अपने माँ-बाप से प्रेम है, तो मुक्ति की ओर बढ़ो भाई। यही समझ लो, तुम्हारी भेंट होगी उनको। उन्होंने इतना कुछ करा तुम्हारे लिए। ये तुम्हारी ओर से एक छोटी-सी दक्षिणा होगी।