महाकुंभ में आचार्य प्रशांत की पुस्तकें क्यों जलाई गईं?

Acharya Prashant

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महाकुंभ में आचार्य प्रशांत की पुस्तकें क्यों जलाई गईं?
महाकुंभ जैसे पावन पर्व तथा गंगा तट के किनारे श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ५०० धार्मिक ग्रंथों को जलाया गया। ऐसा आक्रमण कोई पहली बार नहीं हुआ है। हम खिलजी की बात करते हैं कि उसने नालंदा आकर के विश्व का सबसे बड़ा पुस्तकालय जला दिया था और हम उसे भारत पर हुए अत्याचार की तरह देखते हैं। दरअसल, यह वास्तविक धर्म और विकृत लोकधर्म के बीच का संग्राम है जो भारत राष्ट्र और महान सनातन धर्म का भविष्य तय करेगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य प्रशांत जी, महाकुंभ चल रहा है प्रयागराज में और महाकुंभ में आपकी किताबों को जलाया गया। पांच सौ से अधिक किताबें थी। आपके ऊपर जो हमले होते रहे हैं उसकी ताजा कड़ी यह प्रकरण है जो प्रयागराज में हुआ है। अब ये वो किताबें हैं जो राम की हैं, कृष्ण की है यानि धर्म अध्यात्म की है। इन किताबों को प्रयागराज में तीर्थराज प्रयाग और महाकुंभ के समय जलाया जाता है और वो इसलिए कि वो आपका विरोध हो रहा है। इसका कारण क्या समझते हैं आप? क्यों ऐसा हुआ है?

आचार्य प्रशांत: देखिए चीज ही अपने आप में इतनी सांकेतिक है। हम नालंदा की बात किया करते हैं। हम खिलजी की बात करते हैं कि उसने नालंदा आ करके और वहां उस समय विश्व का सबसे बड़ा पुस्तकालय सबसे बड़ी लाइब्रेरी- एक विराट पुस्तक संग्रह था और सारी किताबों को आग लगा दी थी और यह कहा जाता है कि वो किताबें हफ्तों नहीं, महीनों तक धूधू करके जलती रही थी और हम सब उस बात को भारत के दुर्भाग्य की तरह देखते हैं और भारत पर हुए अत्याचार की तरह देखते हैं कि दर्शन की और धर्म की किताबों को विधर्मियों ने आकर के जला दिया।

और आज यह कितनी विडंबना की आयरनी की और भयानक दुख की बात है कि महाकुंभ जैसे पावन पर्व पर गंगा नदी के तट पर श्रीमद्भगवद्गीता, शिव सूत्र भाष्य, दुर्गा सप्तशती, राम निरंजन न्यारा रे, हे राम ये संतवाणी का संकलन है; इन पुस्तकों को ऐसी पांच सौ पुस्तकों को जलाया जा रहा है और सारी की सारी जो पुस्तकें थी, एक-एक पुस्तक वो धार्मिक है और आध्यात्मिक है।

तो ये जो पिक्चर ही है कि महाकुंभ में गंगा किनारे धार्मिक किताबें जलाई जा रही हैं। बड़ी इवोकेटिव है। इस तस्वीर से ही बहुत कुछ पता चलता है कि चल क्या रहा है। चल ये रहा है कि जो वास्तविक धर्म है उसको जो प्रचलित धर्म है, लोक धर्म है, वह स्वीकार नहीं कर पा रहा है। आम आदमी जिसको धर्म बोल रहा है, उसको धर्म के नाम पर बहुत गलत चीज़ें पढ़ा दी गई हैं। आम आदमी के साथ धोखा हुआ है बेचारे के साथ। उसको असली धर्म से बहुत दूर कर दिया गया है।

हमारा वैदिक धर्म है। वेद और उपनिषद् श्रुति कहलाते हैं। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता; यह हमारी प्रस्थानत्रयी में आते हैं। और अगर वैदिक हमारा धर्म है तो वास्तविक सनातनी वह हुआ ना जिसको वेदांत का ज्ञान हो। पर आज जो लोग अपने आप को हिंदू बोल रहे हैं, उनके लिए धर्म का मतलब हो गया है सिर्फ अंधविश्वास। बहुत बिखरी हुई सी मान्यताएं। और बहुत क्षेत्रीय किस्म के कर्मकांड। तो उन तक जब सनातन का शुद्ध रूप ले जाने का प्रयास होता है, तो लोग उग्र हो जाते हैं। उग्र हो जाते हैं और क्योंकि वह दिल से धार्मिक है नहीं तो इसलिए वह कई प्रकार की साजिशें करने से भी कतराते नहीं।

वैसा ही एक प्रकरण हमें प्रयाग में देखने को मिला। जब धार्मिक पुस्तकों का वहां पर दहन किया गया।

क्यों दहन किया गया क्योंकि वह जो किताबें हैं वह हिंदू को सच्चे धर्म के पास ले जा रही थी। उन किताबों से जो झूठे धर्म की दुकान खोलकर लोग बैठे हैं उनको बड़ा खतरा है। तो वो आक्रमण करते हैं और ऐसा आक्रमण कोई पहली बार नहीं हुआ है।

हां, यह थोड़ा ज़्यादा नाटकीय है, ड्रामेटिक है क्योंकि इसके इर्द-गिर्द जो स्थितियां हैं, वह बड़ी जबरदस्त हैं कि प्रयाग है, कुंभ है और वहां पर किताबें जलाई जा रही हैं। नहीं तो इस तरह के हमले तो हमें लगभग हर हफ्ते देखने को मिलते हैं। यह वास्तविक धर्म और विकृत धर्म के बीच का संग्राम है। यह इस बात का संग्राम है कि महान सनातन धर्म का भविष्य क्या होने वाला है। यह इस बात का संग्राम है कि भारत राष्ट्र का भविष्य क्या होने वाला है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सनातन को लेकर के कि अब एक लंबी परंपरा है। और जब आप कहते हैं कि धर्म का अपना एक मर्म होता है, आप उस तरफ जाने की कोशिश करते हैं लेकिन जो लोग सनातन मतावलंबियों के बिखरने के खतरे को लेकर के चिंतित रहते हैं ऐसा है क्या?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जो लोग मेरे खिलाफ है ऐसा नहीं है कि वो सनातन को एकजुट करने के इच्छुक हैं। वो वास्तव में बस सनातनियों का शोषण करने के इच्छुक हैं। तो सबसे पहले तो मैं यह बात स्पष्ट कर देता हूं कि मेरे विरोध में वो लोग बिल्कुल भी नहीं खड़े हुए हैं जो सनातन धर्म के हित-चिंतक हैं। एकदम भी नहीं है। वो सनातन धर्म के हितचिंतक नहीं है। वो वही लोग हैं जिनकी वजह से सनातन पतन और पराभव में पड़ा रहा पिछले हजार सालों तक। ये वो लोग हैं। ये सनातन के शुभचिंतक लोग बिल्कुल भी नहीं है।

परंपराएं बहुत प्यारी होती हैं और हर धर्म को परंपराओं की निस्संदेह जरूरत होती है। पर परंपरा में अमृत आ जाता है जब परंपरा अपने स्रोत से जुड़ी हो। नहीं तो फिर तो हर गांव, शहर, कस्बा अपनी कोई भी परंपरा लेकर के उसको ही धर्म का नाम दे देगा ना। परंपरा को उसके स्रोत से जोड़ दिया जाए तब सब पूजा पाठ का, नहाने धोने का, कर्मकांड का, बड़ा सुंदर महत्व हो जाता है तब हो जाता है। ये लोग परंपराओं को उसके स्रोत से नहीं जुड़ने देना चाहते। ये चाहते हैं कि परंपरा अंधविश्वास में पगी हुई रहे। ये चाहते हैं कि परंपरा वैसी रहे, उन्हीं कारणों से जुड़ी हुई रहे जिनके कारण भारत बहुत पिछड़ा हुआ रहा। मैं कह रहा हूं परंपरा वही रखो लेकिन परंपरा का विशुद्ध अर्थ तो जानो। जब उस अर्थ को जानते हुए, आप परंपरा का पालन करेंगे तब देखिए कि कैसे भीतरी क्रांति होती है। तब धर्म का सुंदर और शुद्ध रूप उभर कर सामने आता है। यह लोग नहीं चाहते कि हम धर्म के स्रोत यानि सत्य तक पहुंचे।

आपके साथ ही कुंभ पर हमने कैसी ज्ञानवर्धन चर्चा करी थी अभी दो हफ्ते पहले ही।

प्रश्नकर्ता: ये सनातन, सनातन की एकजुटता, ये आस्था, ये निष्ठा और सनातन का बोध जिसमें यह भी आता है कि बटोगे तो कटोगे। तो मुझे लगता है कि इन सब पर जो आस्था है, निष्ठा है, एकजुटता का बोध है इस पर भी आपको अपना पक्ष रखना चाहिए।

आचार्य प्रशांत: देखिए, एकजुटता किस आधार पर? मनुष्य में और पशु में यह अंतर होता है कि मनुष्य के पास बोध होता है और पशु वो है जो भेड़ की तरह सब एक दूसरे के पीछे चल दिए। बिल्कुल हमें एकजुट होना चाहिए। बिल्कुल हमें बटना नहीं चाहिए। बिल्कुल लेकिन एकजुटता का कोई आधार भी तो होता है ना।

एक भीड़ वो होती है जो कई बार आपको दिखाई देती है किसी यूनिवर्सिटी के कैंपस में। वह वहां इसलिए इकट्ठा है क्योंकि वो अपने आप को बेहतर बनाना चाहते हैं। कुछ सीखना चाहते हैं। वह ज्ञानवर्धन के लिए वहां पर आए हैं। एक भीड़ आपको खेल के मैदान में भी दिखाई देती है। एक भीड़ ऐसी भी हो सकती है जो बहुत सारे हैं जो कहीं पर जाकर के यूं ही नशे में नाच रहे हैं। एक भीड़ पशुओं की भी हो सकती है। और एक भीड़ धार्मिक लोगों की हो सकती है। जो सत्य को जानने, स्वयं को जीतने और दुनिया के सामने ना झुकने के संकल्प से एकजुट हुए हैं। हम किस भीड़ की बात करना चाहते हैं? हम हिंदुओं को कौन सी भीड़ बनाना चाहते हैं?

हम इस्लाम का बार-बार हवाला देते हैं। इस्लाम की हालत क्या कोई बहुत अच्छी चल रही है अभी? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो लोग बार-बार इस्लाम, इस्लाम की दुहाई दे करके हिंदुओं को भीड़ बना देना चाहते हैं, यह लोग खुद हिंदुओं के खलीफा बनना चाहते हो? क्योंकि इस्लाम में सेंट्रलाइज्ड पावर होता है जिसके खिलाफ आप आवाज नहीं उठा सकते। कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदुओं को भी इकट्ठा करके कोई चाह रहा हो कि मुझे उसका सेंट्रलाइज्ड लीडर बन जाना है और यही वो लोग हैं। जो जिंदगी में कोई उपलब्धि नहीं करना चाहते, वास्तविक श्रम से कुछ पाना नहीं चाहते; बस यह चाहते हैं कि भीड़ को उकसा करके भीड़ के नेता बन जाए। भाई, इकट्ठा होना बहुत अच्छा है। राष्ट्र का अर्थ ही होता है लोग जो अब इकट्ठे है पर राष्ट्रीयता का आधार क्या है? धार्मिकता का भी अर्थ यही होता है कि आप कहें कि आप भी सनातनी है। मैं कहूं मैं भी सनातनी हूँ तो हम में आप में कुछ साझा होना चाहिए। है ना?

आप कहीं जाते हो आप कहते हो हिंदू। मैं कहीं जाता हूं मैं भी कहता हूं हिंदू। तो हम में और आप में कुछ साझा होना चाहिए। बताइए राणा जी, क्या साझा होना चाहिए?

हमारे पूर्वाग्रह, हमारा अंधेरा, या हमारा प्रकाश? हमारे उपनिषद् कहते हैं ‘तमसो मां ज्योतिर्मय’। हमारी ज्योति हमारा प्रकाश हम में साझा होना चाहिए ना। वो प्रकाश में लोगों तक लाने की कोशिश कर रहा हूं ताकि हम वास्तविक अर्थ में धार्मिक हो सकें। तो जो अंधेरे के सब पैरोकार हैं, जिनके स्वार्थ अंधेरे से जुड़े हुए हैं यही वो लोग हैं जिन्होंने शताब्दियों तक भारत को और हिंदुओं को अंधेरे में रखा और यही वो हैं जो आज भी मेरा विरोध कर रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: तो आचार्य प्रशांत जी आप यह कह रहे हैं कि धर्म को सबल करने के नाम पर उसको निर्बल करने का खेल भी चल रहा है। लोग आपको भटका रहे हैं, भरमा रहे हैं और जो लोग गेरूआ वस्त्रधारी हैं, हो सकता है कि वह गेरूआ वस्त्र में हो, हो सकता है त्रिपुंड धारी हो, हो सकता है कि वह रुद्राक्ष की माला पहने हुए हों लेकिन वो धर्म की ध्वजा लेकर के आगे चल रहे हों यह आवश्यक नहीं है। आप कह रहे हैं कि धर्म धर्मावलंबियों का मजबूत होना, सबल होना बहुत आवश्यक है लेकिन धर्म के मूल तत्व के साथ जुड़े हुए ही।

अपने निहितार्थ के लिए, अपने स्वार्थ के लिए अगर पूरे समाज को कोई आदमी भटकाता, भरमाता है तो वो धर्म का भला नहीं कर रहा है। अब अचानक ही यहां से आप सीधे चुनौती दे रहे हैं और आप जानते हैं कि एक बड़े तबके को आप चुनौती दे रहे हैं। यह एक युद्ध जैसी स्थिति हो जाएगी।

आचार्य प्रशांत: देखिए सबसे पहली बात मैं जिनकी बात कर रहा हूं, उनमें से अधिकांश गेरूआ वस्त्रधारी नहीं है। जिन्होंने अपने जीवन को धर्म की सेवा में समर्पित करा है और गेरूआ या भगवा या श्वेत वस्त्र धारण करा है, यह लोग आमतौर पर विकृत नहीं होते क्योंकि इन्होंने जीवन में बहुत कुछ है जो त्यागा होता है और बहुत कुछ है जो अब यह ना भोगेंगे, ना भोगने की कामना रखते हैं तो इनके पास बहुत महत्वाकांक्षाएं होती नहीं है।

समस्या सारी उनकी है जो भीड़ को भड़काते हैं, जिसको आप कह सकते हो ‘इंटरनेट हिंदू’ जो जमीन पर अपना कोई बहुत दखल रखते भी नहीं है लेकिन तमाम तरीके से वो लोगों के मन में गलत धारणाएं, मिस-इनफार्मेशन इत्यादि पहुंचाते रहते हैं। यह वह लोग हैं जो कि ना धर्म को समझते हैं और ना धर्म को समझना चाहते हैं। यह बस अपने स्वार्थ की रोटियां सेकते हैं धर्म के नाम पर, और इसमें सबसे ज्यादा हानि धर्म की ही होती है। मैं धर्म को उसके विशुद्ध रूप तक पहुंचाना चाहता हूं। आप थोड़ा सा इसमें मुझे समय दीजिए। मैं बताता हूं।

कहानी राणा जी, शुरू होती है लगभग आठवीं शताब्दी से। हमारा वैदिक काल था और वैदिक काल के समाप्ति की ओर पहुंचते-पहुंचते तक बहुत सारी उसमें ऐसी कुरीतियां आ गई थी जो वेद सम्मत भी नहीं थी। फिर हम पाते हैं कि पहला सुधार कार्यक्रम शुरू होता है। महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर के रूप में। यह हम ईसा से पांच सौ- छह सौ साल पहले की बात कर रहे हैं और वह बड़ा जबरदस्त सुधार कार्यक्रम है।

और उसके बाद बहुत कुछ है जो सनातन धारा में भी पुनः शुद्ध हो जाता है। जिस तरफ हमें उपनिषद् ले जाना चाहते थे। हम उस ओर को ज्यादा मुड़ जाते हैं। एक नई सफाई हमें दिखाई देती है। पर फिर काल चक्र आगे बढ़ता है। समाज का प्रदूषण पुनः धर्म पर हावी होने लग जाता है। सनातन धर्म पर भी और बौद्ध धर्म पर भी।

और यह प्रक्रिया ईसा के लगभग छह सौ, आठ सौ साल बाद तक बड़ी जबरदस्त हो जाती है। हम पाते हैं कि सनातन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ही अब कुप्रथाओं का और प्रदूषणों का शिकार हो चुके हैं। और फिर आते हैं आचार्य शंकर। आचार्य शंकर जो कि बौद्धों की कुरीतियों पर प्रहार करते हैं और सनातन धर्म की भी बराबर की शुद्धि करते हैं। लेकिन आचार्य शंकर के जाने के बाद आठवीं-दसवीं शताब्दी के आसपास से, लगभग तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक जबरदस्त रूप से धर्म में मिलावट का दौर चलता है।

और फिर उसी की सफाई के लिए हम पाते हैं कि भक्ति आंदोलन आया है और वह पूरा प्रयास करते हैं कि किसी तरीके से धर्म में जो विजातीय तत्व प्रविष्ट हो गए हैं उनको हटाया जाए और इसीलिए आप यह भी पाते हो कि भक्ति काल के जो बहुत सारे संत कवि थे, वह तथाकथित समाज के निचले वर्गों और वर्णों से आते थे। उन्होंने आम जनमानस की भाषा में समझा करके, गीत गा करके धर्म की शुद्धि का प्रयास करा।

वही प्रयास फिर हमें दिखाई देता है सिख पंथ के रूप में भी, वहां भी हिंदू धर्म की सफाई का ही प्रयास करा गया था क्योंकि बहुत सारे उसमें, जैसे गंगा नदी में जाकर के हम बहुत शुद्ध नदी है लेकिन गंदा नहीं कर आते। वैसे ही सनातन की गंगा को भी बहुत बार गंदा किया गया है और विदेशियों धर्मियों द्वारा जितना किया गया है उससे ज्यादा स्वयं हिंदुओं द्वारा किया गया है।

देखिए चीज जितनी साफ होती है ना, राणा जी, उसको गंदा करना उतना ज्यादा संभावित हो जाता है। सनातन धर्म इतना साफ धर्म है, अपने केंद्र में कि वह बहुत तेजी से गंदा हो जाता है। तो अभी हम पहुंच रहे हैं लगभग पंद्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के आसपास। उसके बाद हम पाते हैं कि यूरोप में सुधार कार्यक्रम चलता है, एक बड़ा रिफॉर्मेशन और रेनसा के नाम से। और फिर भारत में भी एक जबरदस्त भारतीय धार्मिक और सामाजिक सुधार कार्यक्रम शुरू होता है।

जिसकी शुरुआत होती है अठारहवीं शताब्दी में राजा राममोहन रॉय से। और राजा राममोहन रॉय को डेथ थ्रेट्स भी मिलती हैं, मौत की धमकियां भी मिलती हैं। उनका हर प्रकार से बहिष्कार होता है। और जितने उनको कष्ट दिए जा सकते थे, दिए जाते हैं। और उसके बाद उन्नीसवीं शताब्दी में हमारे सामने आ जाते हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती आ जाते हैं। ईश्वर चंद विद्यासागर आ जाते हैं। ज्योतिराव फुले आ जाते हैं। सावित्रीबाई फुले आ जाती हैं। हम गोविंद राणा आ जाते हैं। और ये जितने ही लोग हैं ये सब के सब वो हैं जिन्होंने हिंदू धर्म को सुधारने की कोशिश की क्योंकि सुधार पूरा नहीं हो पाया था भक्ति आंदोलन के बाद भी। तो सुधार की वो प्रक्रिया चल रही है।

वही प्रक्रिया फिर हमको पिछली शताब्दी में देखने को मिलती है। महात्मा गांधी के रूप में, डॉ. अंबेडकर के रूप में। उनसे थोड़ा सा पहले रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के रूप में लेकिन वह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। उसी सुधार प्रक्रिया का एक हिस्सा भारतीय संविधान भी है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी एक प्रश्न आता है। प्रश्न ये है कि सनातन के भीतर शुद्धिकरण की जितनी भी प्रक्रियाएं रही अलग-अलग कालों में; बौद्ध धर्म निकल कर के एक अलग धर्म के रूप में स्थापित हो जाता है। जैन धर्म स्थापित हो जाता है। सिख धर्म स्थापित हो जाता है। सनातन एक लय चलता हुआ नहीं रहा बल्कि उसकी शाखाएं निकलती चली गई।

यह गनीमत रही कि जब हम भक्ति आंदोलन में आते हैं तो हिंदू समाज बहुत संगठित हुआ और खास करके क्योंकि निचले तबके के संत हमारे ज्यादा आए। दादू, रहीम, नानक और समाज सुधारक राजा राममोहन राय से लेकर के और दयानंद सरस्वती के बीच में ये चलता रहा। यहां कोई बिखराव नहीं हुआ। इस्लाम के भीतर और क्रिश्चियनिटी के भीतर आप इस तरह की शाखाएं नहीं देखते हैं जो धर्म के तौर पर स्थापित हो जाए। जो सेमेटिक रिलीजन तीनों हैं इस्लाम….

आचार्य प्रशांत: नहीं शाखाएं बिल्कुल हैं। शाखाएं बिल्कुल हैं।

प्रश्नकर्ता: लेकिन….

आचार्य प्रशांत: रेनसा नहीं हो सकता था। रेनसा नहीं हो सकता था अगर रिफॉर्मेशन नहीं होता। प्रोटेस्टेंट और क्या है, प्रोटेस्टेंट शाखा ही…

प्रश्नकर्ता: रेनसा और आपके भक्ति मूवमेंट और समाज आंदोलन; इनको समानांतर रख के देखता हूं। मैं ये कह रहा हूं कि जो लोग चिंता करते हैं वो कहते हैं कि आप चार धर्मों के भूमि हो गए। बुद्धिज्म, जैनिज्म, सिखिज्म और सनातन। तो ये यहीं से निकले हैं। यह बिखराव इस्लाम में क्यों नहीं हुआ? यह बिखराव क्रिश्चिनिटी में क्यों नहीं हुआ?

आचार्य प्रशांत: देखिए क्रिश्चियनिटी में तो बिल्कुल हुआ है। मैंने अभी वही आपसे बोला। और जब हुआ है तो वहां पर भी जो शुद्धि करना चाहते थे, उनको बहुत प्रताड़ित किया गया। जर्मनी के संत है मार्टिन लूथर। तो उन्होंने कहा कि जो यह चर्च की जबरदस्ती की सत्ता है, जो हमको धर्म से और गॉड से और क्राइस्ट से बहुत दूर ले गई है और जिसने सारा पावर चर्च और पोप के हाथ में रख दिया है। हम इसको स्वीकार नहीं करते और जब उन्होंने यह कहा तो जो आरंभिक प्रोटेस्टेंट्स थे, आप उनकी हिस्ट्री पढ़ेंगे तो उनको भी बहुत प्रताड़ित किया गया। लेकिन अगर वो प्रोटेस्ट्स नहीं होते जिनसे प्रोटेस्टेंट निकले थे तो यूरोप में रेनसा भी नहीं होता।

प्रश्नकर्ता: ठीक है, सहमत हूं मैं।

आचार्य प्रशांत: और आज अगर यूरोप और अमेरिका दुनिया पर छाए हुए हैं तो इसका कारण यही है कि वहां धार्मिक सुधार हो पाया और यही मैं चाहता हूं कि सनातन धर्मी भी अपने धर्मों की जड़ की तरफ जाएं ताकि सनातन धर्म विश्व पर छा पाए। हम अपने मूल को क्यों भुला रहे हैं? हम अपनी जड़ों को क्यों भुला रहे हैं? क्या हम चाहते हैं कि हम पिछड़े हुए धर्म के तौर पर भी और राष्ट्र के तौर पर भी, यह मेरा प्रश्न है।

प्रश्नकर्ता: ये दो स्थितियां, आचार्य प्रशांत रख रहे हैं। आप कह रहे हैं कि ईसाइयत उसके भीतर, क्योंकि बार-बार सुधार होते रहे और सुधार की गुंजाइश या स्पेस उसने अपने भीतर दिया। तो हमारा शरीर, हम भी बाद में उपवास करते हैं। टॉक्सिक बॉडी का डिटॉक्सिफिकेशन बॉडी के लिए भी जरूरी होता है। तो धर्म के भीतर भी टॉक्सिक होता है। तो, इसका फ़िल्ट्रेशन ज़रूरी है और वह समाज सुधार के ज़रिए होता है। आत्मचिंतन, आत्म मंथन के माध्यम से होता है।

और यही आचार्य प्रशांत कह रहे हैं कि धर्म जो है अपने मूल रूप में, अपनी शुद्धता के साथ जब तक चल सकता है, जब तक आप उसमें बार-बार उसको डिटोक्सिफाई करते चलते हैं। यह क्रिश्चिनिटी करता रहा। इस्लाम ने नहीं किया। इसलिए रूढ़ होता चला गया। उसको खलीफा…

आचार्य प्रशांत: इस्लाम ने नहीं करा और इस्लाम इतना पिछड़ता चला गया है। क्या आप इस्लाम को अपना आदर्श बनाना चाहते हैं?

प्रश्नकर्ता: जी मैं यही आता हूं कि आप दो स्थितियां रख रहे हैं। एक इस्लाम की है, एक क्रिश्चियनिटी की है और भारत के सनातन अवलंबी जो हैं, उनको यह तय करना है कि वो कहां जाना चाहते हैं। इसलिए आचार्य प्रशांत कह रहे हैं कि मेरा अगर विरोध आप कर रहे हैं तो पहले यह सोचिए कि विरोध आप कहां कर रहे हैं और किन वजहों पर कर रहे हैं। जो वजह मैं लेकर के चल रहा हूं वो फिल्ट्रेशन का है। डिटॉक्सिफिकेशन का है। अगर आप उसके लिए तैयार नहीं है, इसका मतलब यह है कि आप समाज में, चेतना में, परंपरा में, सनातन के भीतर ज़हर लगातार भरते रहना चाहते हैं और इसके बाद ज़हर जब बहुत ज्यादा हो जाता है तो मौत तय हो जाती है। आप यही कह रहे हैं।

आचार्य जी, यहां मैं आपकी बात तो समझ गया हूं। मुझे लगता है कि मेरे दर्शक समझ गए होंगे। एक चिंता इस बात की है कि जब आप इतनी बुनियादी बात को लेकर के चल रहे हैं। धर्म के मूल तत्व को समाज के भीतर आप फैलाना चाहते हैं, उसका प्रसार चाहते हैं। फिर आपकी किताबों का आपका इतना विरोध क्यों है?

आचार्य प्रशांत: मेरी किताबों का विरोध इसलिए होता है क्योंकि जिन लोगों के स्टेक्स हैं, स्वार्थ हैं धर्म का झूठा रूप बनाए रखने में, उनके स्वार्थों पर चोट पड़ रही है। एक बात बताइए आप। एक शिकारी किसी चीज का शिकार कर रहा हो। खरगोश का शिकार कर रहा है। आप उसके खरगोश को बचा लें तो शिकारी आपसे दुश्मनी मानेगा कि नहीं मानेगा?

मैं सनातनियों को उनके शिकारियों से बचा रहा हूं। हिंदुओं को पता भी नहीं है कि जो लोग धर्म के पुरोधा बनकर बैठे हुए हैं; जो लोग कह रहे हैं कि हम तुम्हारे नेता हैं, हम तुम्हारे धर्म के रक्षक हैं, वही उनका शिकार करना चाहते हैं। और मैं शिकारी से शिकार छीन रहा हूं। तो शिकारी मेरे ऊपर आक्रमण कर रहा है। विरोध के कारण तो बहुत स्पष्ट है ना।

जातिवाद से आप भली-भांति जानते हैं किसका स्वार्थ जुड़ा हुआ है। महिलाओं को दबाकर रखने से यह भी आप भली-भांति जानते हैं किसका स्वार्थ जुड़ा हुआ है। आप यह भी जानते हैं कि जो लोग मेरा विरोध कर रहे हैं वह आमतौर पर प्रिविलेज्ड कास्ट से आते हैं और पुरुष हैं सारे। तो यह तो स्पष्ट ही होना चाहिए ना कि मेरा विरोध कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है। बहुत सारे लोग हैं देश में अभी भी जो चाहते हैं कि भारत हज़ार साल पीछे चला जाए। क्योंकि हज़ार साल पीछे जब भारत जाता है तो कुछ लोगों का स्वार्थ सिद्ध हो जाता है। उनको बैठे-बिठाए खाने को मिलता है। उनको हर तरीके की एडवांटेजेज़ मिलती हैं। वो नेता हो जाते हैं। वह पूजे जाते हैं। उन लोगों के स्वार्थों पर चोट आ रही है। इसलिए वो मेरा विरोध करते हैं।

और मैं हिंदू धर्म को एक अग्रणी आधुनिक धर्म देखना चाहता हूं। मैं भारत को विश्व में अपनी ध्वजा फहराते देखना चाहता हूं। लेकिन लोग हैं जो ऊपर ऊपर से नाम राष्ट्र का और धर्म का लेते हैं पर वास्तव में वह नहीं चाहते कि राष्ट्र आगे बढ़े कि धर्म आगे बढ़े। वो वास्तव में बस यह चाहते हैं कि उनके स्वार्थ आगे बढ़े। यही वो लोग हैं जो मेरा विरोध करते हैं। और मैं पहला नहीं हूं जिसका विरोध किया जा रहा है। स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर इन्हीं लोगों ने दिया था। अंबेडकर से लेकर के विद्यासागर तक मौत की धमकियां इन्हीं लोगों ने दी थी। सावित्रीबाई फुले पर मैला और गोबर यही लोग फेंका करते थे। यह वही लोग हैं। यह आज भी वही लोग हैं।

प्रश्नकर्ता: ये दो बातें आचार्य जी हैं। पहली बात आप ये कह रहे हैं कि धर्म, धर्म जो अभी समाज में माना जाता है। मैं उसको मानकर कह रहा हूं कि धर्म का एक सामंतवाद है। और कुछ लोग ऐसे हैं जो उसके ऊपर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि यह व्यवस्था टूटे नहीं। क्योंकि टूटने के बाद उनका जो अपना हित है वो ध्वस्त हो जाएगा। तो आपको चैलेंज करने वाले लोग सिर्फ वही हैं जो पुरुषवादी हैं, जो महिलाओं को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। जो समाज के लोगों को तरह-तरह से भरमा करके, भटका करके, उनसे अपना उल्लू सीधा करते रहना चाहते हैं। और यह जो है एक ऐसा तबका है जिसको आप कहते हैं कि ये सामंती समाज का है।

आचार्य प्रशांत: चैलेंज चुनौती तो बहुत ऊंचा शब्द होता है राणा जी। ये मुझे सिर्फ गाली देते हैं। आप उन लोगों को भली-भांति जानते हैं। जो मुझ पर आक्रमण करते हैं। हमारा काम बहुत मौज में चल रहा है। जितनी बार मुझ पर आक्रमण होता है, मेरा काम और तेजी से आगे बढ़ जाता है। लेकिन यह जो आक्रमण कर रहे हैं मुझसे कहते हैं कि मैं ऐसा हूं। मैंने यह कर दिया। आप इनसे जाकर पूछिए। इनमें से किसी ने कभी कोई शास्त्र छुआ है? मैं गीता का एक-एक श्लोक आम जनमानस तक पहुंचा रहा हूं। इन्हें गीता का कोई श्लोक पता है। मैं पचास से अधिक उपनिषदों पर विस्तृत भाष्य कर चुका हूं। इन्हें एक उपनिषद् आज तक समझ में आया है? ये किस हक से अपने आप को हिंदू बोलते हैं?

कोई भी हिंदू हो गया। बस ऐसे ही कहीं पैदा हो गया तो वो हिंदू हो गया। भाई, ईसाइयों को उनका ग्रंथ पता होता है। कोई ईसाई बोले मुझे बाइबल से कोई लेना देना नहीं तो वो ईसाई नहीं हो गया। कोई मुसलमान बोले मुझे कुरान से कोई लेना देना नहीं तो वो फिर मुसलमान काहे का। यह सब अपने आप को हिंदू बोलते हैं। आप इनसे पूछिए कि तुम्हें वेदांत कितना पता है? अगर तुम्हारा धर्म वैदिक है तो तुम्हें कितना वेदांत पता है? तो तुम हिंदू ही नहीं हो। तुम हिंदुओं के सरदार बन रहे हो। सरदार बनना तो छोड़ दो, तुम तो हिंदू ही नहीं हो। तुम किस हक से आक्रमण कर रहे हो? और ये जितनी बार आक्रमण करते हैं, लगातार ही करते हैं। ये उतनी अपनी पोल खोलते हैं और उतना ये मेरे हाथों को मजबूत करते हैं।

पर इस बार ये अति है कि ये किताबें जलाने लग गए। और एक बात अच्छे से समझिए। इतिहास कभी उनके साथ नहीं रहा है जिन्होंने किताबें जलाई हैं। आप भारत का नहीं दुनिया भर का इतिहास देख लीजिए। जिन भी लोगों ने किताबें जलाई है उनके साथ अच्छा नहीं हुआ है। इतिहास ने उनको सजा दी है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य प्रशांत दो बातें यहां कह रहे हैं। पहली बात यह है कि कोई भी धर्म अपने भीतर अगर समय के साथ परिवर्तन नहीं करता है और आने वाले समय के साथ सामंजस्य नहीं बिठाकर चलता है तो वह रूढ़ हो जाता है और वह धर्म नहीं है। दूसरी बात आप यह कह रहे हैं कि जितने भी धर्मावलंबी होते हैं, अपनी पुस्तकों से उनको सीख लेते रहना होता है। अगर आप अपने धर्म ग्रंथों को नहीं जानते हैं तो आप उस धर्म का होने का दावा नहीं कर सकते हैं। और जो लोग आचार्य प्रशांत को चुनौती दे रहे हैं, आप चुनौती उसको नहीं मानते हैं। आप कहते हैं कि गाली है, टिप्पणी है। ओछा बर्ताव है। लेकिन जो लोग भी विरोध में खड़े हैं उनको दरअसल जो सनातन के धर्म ग्रंथ हैं उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है। जिसको आप….

आचार्य प्रशांत: जानकारी छोड़ दीजिए, राणा जी। इनको ये नहीं पता होगा कि किस पुस्तक को शास्त्र माना जाना चाहिए। आप जब धर्म ग्रंथ…. (प्रश्नकर्ता और आचार्य प्रशांत दोनों हँसते हैं।)

आप इनसे जाकर के श्रुति और स्मृति का अंतर पूछ लीजिए बता नहीं पाएंगे।

प्रश्नकर्ता: हां।

आचार्य प्रशांत: मैं कह रहा हूं इतना पुराना धर्म है और इतनी पुरानी इसकी धारा है कि हजारों पुस्तकें धार्मिक, उसमें श्रुति किसको कहा जाता है; हमारे केंद्रीय ग्रंथ कौन से है इनको यही ना पता हो। ये इधर उधर की पांच किताबें ले आएंगे। कहेंगे कुछ भी संस्कृत में लिखा है तो वही शास्त्र है। इनको यह पता ही ना होगा कि श्रुति माने क्या और श्रुति और स्मृति में से स्मृति को हमेशा श्रुति के पीछे चलना होता है और अगर स्मृति श्रुति के पीछे ना चले तो स्मृति जो कह रही है उसको अस्वीकार भी किया जा सकता हैं। ये नहीं पता होगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं गीता पर आता हूं और गीता के मतलब कर्मयोग पर आता हूं क्योंकि इसी को लेकर के बार-बार लड़ाईयां होती हैं। और जो लोग कहते हैं कि वह धर्म ध्वजा के वाहक हैं, धर्म की सेवा कर रहे हैं, धर्मावलंबियों को एकजुट कर रहे हैं और उसके प्राण प्रतिष्ठा उन्हीं के जरिए हो रही है। जो कर्म है धर्म के मर्म के हिसाब से वो क्या है? जिसको गीता कहती है। गीता भी हमारे धर्म ग्रंथों का मूल है। मूल दर्शन मुझे लगता है दुनिया में कोई दर्शन वैसे है ही नहीं।

आचार्य प्रशांत: कर्म बोध की अभिव्यक्ति है। कर्म बोध की अभिव्यक्ति है। धर्म का संबंध कर्म से नहीं है। प्राथमिक रूप से धर्म का संबंध बोध से है। ‘बोधो अहं’ श्रुति कहती है ‘मैं बोध हूं’।

श्रुति ने कभी नहीं कहा कि मैं कर्म हूं या मैं कर्मकांडी हूं। विशुद्ध रूप में मैं क्या हूं? मैं प्रकाश मात्र हूं। मैं बोध मात्र हूं। प्रज्ञानं ब्रह्म। प्रज्ञान ब्रह्म है और अयं आत्मा ब्रह्म और अहम् ब्रह्मास्मि। प्रज्ञान मतलब ज्ञान से भी आगे जो है बोध अंडरस्टैंडिंग। अविद्या से आगे जो विद्या है, जो दृष्टा और दृश्य दोनों को जानती है वह बोध है, और बोध से फिर अपने आप कर्म फूटता है। उसके कोई नियम कायदे कानून नहीं हो सकते। उसकी कोई निर्देशिका नहीं हो सकती जो भी कर्म आपके बोध से आ रहा है वो सम्यक कर्म है और बोध से जो कर्म आता है श्रीकृष्ण उसी को गीता में कहते हैं ‘निष्काम कर्म’। आपके बोध से जो कर्म आ रहा है वो ‘निष्काम कर्म’ है और बोध आपको नहीं है तो आप कितना भी कर्म करते रहिए वो फिजूल है, व्यर्थ है। आप अपने आप को कर्मयोगी नहीं बोल सकते।

ये अध्याय दो में ज्ञान की बात है। अध्याय तीन में कर्म की बात है। पहले अध्याय दो आता है।

प्रश्नकर्ता: दो आता है। मैं बोध तत्व पर ही आता हूं। क्योंकि यहीं आकर के सारा जो फसाद है खड़ा हो जाता है। बोध जब तक ना हो तब तक यह बात भी साफ नहीं हो सकती है कि आप उस बोध के रास्ते चले या नहीं चले।

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया बहुत बढ़िया।

प्रश्नकर्ता: बोध ही तो सब है अगर वो हो जाता है तो फिर वहां से तो फिर प्रश्न ही सारे…

आचार्य प्रशांत: और वही बोध पाना ही धर्म का लक्ष्य है। वही बोध दुख से मुक्ति देता है। धर्म का क्या लक्ष्य होता है? मुक्ति। धर्म का लक्ष्य स्वर्ग नर्क प्राप्ति नहीं होता, कुछ भी पाना धर्म का लक्ष्य नहीं होता। आपके षड दर्शन है और सब दर्शन कहते हैं कि जीवन का लक्ष्य है मुक्ति, मुक्ति और बोध ही है जो आपको अज्ञान से, तमस से, भीतरी अंधकार से, माया से मुक्ति देता है। तो बोध ही मुक्ति देता है। यही धर्म का लक्ष्य है। जिसको बोध नहीं जो बोध को सर्वोच्च नहीं मानता वो धार्मिक ही नहीं है। या वो अपनी दृष्टि में धार्मिक होगा पर वेदांत और श्रुति उसको धार्मिक नहीं मानते। वो फिर अपने लिए कोई और धर्म आविष्कृत कर ले अलग बात है।

प्रश्नकर्ता: एक प्रश्न आता है आज-कल कि बार-बार चर्चाओं में लोग कहते हैं और इस तरह की चर्चाओं में जो धर्म के किनारे-किनारे होती रहती हैं। ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अब मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं क्योंकि धर्म का मर्म जानना धर्म की रक्षा करना और धर्म के जरिए खुद भी रक्षित होना यह जो ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ इसका मूल भाव क्या है?

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया। यह हमारा श्लोकांश है, वाक्यांश है। मनुस्मृति में भी आता है, अन्य जगहों पर भी आता है और ये अधूरा है कि जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा होती है। पूरा यह है कि और जो नहीं रक्षा करता उसकी रक्षा नहीं होती है। उसका नाश हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि आप जब अपने भीतर बोध को दाना पानी देते हैं, पनपाते हैं तो वही बोध फिर आगे चलकर के आपको बचाता है। मैं इसको ऐसे समझाया करता हूं कि ‘सत्यमेव जयते’ तो पारमार्थिक तल की बात है।

आचार्य शंकर ने तीन तल कहे हैं। पारमार्थिक हो गया। फिर आपका व्यवहारिक है और सबसे नीचे प्रातिभाषिक आ जाता है। ‘सत्यमेव जयते’ तो श्रुति की वाणी हो गई, वो पारमार्थिक तल की बात है। इस दुनिया में तो सत्य यानि धर्म रोज रोज हारता है। इस दुनिया में आप ज्यादा किसको जीतता देखते हैं? धर्म को कि अधर्म को? रोज-रोज कौन जीतता है हमारी व्यवहारिक जिंदगी में?

अधर्म ही तो जीतता है। असत्य ही तो जीतता है। तो जो व्यवहारिक तल है माने हमारा आपका जीने का जो द्वैतात्मक तल है, जो उच्चतम तल है वो अद्वैत का होता है। लेकिन जो हमारा व्यवहार का तल है वो द्वैत का होता है। इस तल पर तो सत्य हारता है तो मैं क्या करता हूं? सत्य या धर्म छोटे बच्चे की तरह है। आपको उसकी रक्षा करनी पड़ेगी। सत्य की रक्षा किसी को करने की कोई जरूरत नहीं। पर अपने सत्य की रक्षा तो स्वयं ही करनी पड़ती है। अंतर है ट्रुथ और माय ट्रुथ में। सत्य जीतता होगा पर मेरे देखे मेरे लिए तो मैं सत्य को रोज हरवाता हूं। अपने कर्मों में अपने अपनी जिंदगी में तो मैं सत्य को रोज हरवाता हूं।

तो जो अपनी जिंदगी में सत्य को जितवाता है, सत्य फिर उसको जिता देता है। ठीक वैसे जैसे कि आप किसी छोटे बच्चे को बड़ा करें। तो फिर वो आपके कई बार बुढ़ापे का सहारा बन जाता है। आप अपने भीतर के धर्म के नन्हे से पौधे को खाद पानी दो। उस छोटे से बच्चे को पालो। क्योंकि वो बड़ा अभी असुरक्षित होता है। हमारी जिंदगी में ना सत्य है। धर्म बड़े असुरक्षित होते हैं। हम कभी भी उन पर प्रहार कर देते हैं। कभी भी उनका गला घोट देते हैं। रोज यही तो हो रहा होता है। लेकिन अगर किसी ने अपने भीतर की सच्चाई को प्रश्रय दिया, पोषण दिया तो वही सच्चाई फिर आपके जीने का आधार बन जाती है। सहारा बन जाती है और आपको मुक्ति की तरफ ले जाती है और संसार में बड़ी ऊंचाइयां देती है। ये है इसका अर्थ।

प्रश्नकर्ता: अभी आचार्य जी आपकी किताबें वेदांत के साथ चलती हैं। एक सिद्धांत है वेदांत का। मुझे लगता है कि वेदांत को समझना भी लोगों को चाहिए और हिंदू समाज का बड़ा पक्ष बहुत बड़ा पक्ष वेदांत के तत्व को नहीं समझता है। मैं चाहता हूं कि आप एक बार रखिएगा कि जो आप लोक धर्म कहते हैं कि लोक धर्म है जो हम रोज कहते हैं पूजा पाठ, मंदिर, संस्कार, अनुष्ठान जितनी चीजें हैं और यह जरूरी है आपने कभी भी विरोध नहीं किया मंदिर का, पूजा का पाठ का, संस्कारों का लेकिन आपने कहा इससे जो बोध पैदा होता है वो आपको सही तरीके से धर्म की तरफ ले जाता है और वहां पर वेदांत आता है।

इस वेदांत को समझाइए क्योंकि जो प्रश्न आपके ऊपर बात बार उठते हैं। आपकी किताबों को जलाने के पीछे जो साजिशें रही होंगी यही है कि वेदांत कहीं ना कहीं बहुत लोगों के स्वार्थ से टकराता है।

आचार्य प्रशांत: बहुत आसान है। वेदांत आप कह रहे हैं कि लोगों को समझने में दुरुह पड़ता है। वेदांत से ज्यादा सरल कुछ नहीं है। जिसे वेदांत का कुछ ना पता हो। व भी ना पता हो। जो एकदम बिगिनर हो उसको प्राथमिक बात समझाने के लिए मैं ऐसे कह देता हूं कि ऐसे समझ लो। ये तुम हो इसको बोलते हैं ‘अहम्’। यह सत्य है- इसको बोलते हैं आत्मा। और यह है जगत- इसको बोलते हैं प्रकृति।

(आचार्य जी तीन उँगलियों से समझाते हुए।)

यह तुम हो। यह सत्य या आत्मा है और यह संसार या प्रकृति है। अब तुमको चुनाव करना है कि तुम इधर जाओगे कि तुम इधर जाओगे। बस सारा वेदांत यहीं से शुरू होता है और उसका अंत होता है इन तीनों के ही एक हो जाने में। यहां से शुरुआत होती है और परम एकत्व पर समापन होता है।

वेदांत आपको बड़ी ताकत देता है। वह कहता है तुम्हारी जिंदगी का चुनाव तुम्हारे हाथ में है। तुम मजबूर नहीं हो। किसी ने तुम्हारी किस्मत पहले से लिख कर नहीं भेजा है। तुम चुनो कि तुम्हें इधर जाना है कि इधर जाना है। हां, इधर जाओगे तो प्रेय मिलेगा। यह कठोपनिषद के वचन है। इधर जाओगे प्रकृति की दिशा में माने समाज की दिशा में, समय की दिशा में, संयोग की दिशा में तो प्रेय मिलेगा। वो सब चीजें जो प्रिय है तुमको जो पसंद है तुमको वो सब तुमको इधर जाने पे मिलेंगी दुनिया में। लेकिन गौर से देखो कि क्या इधर जाकर के जो तुम्हारी मूल इच्छा है पूरी हो रही है?

जो तुम्हारी मूल अपूर्णता है क्या वो इधर पूरी हो रही है? और यदि ध्यान से देखोगे तो पाओगे कि इधर बार-बार जाते हो। बार-बार जाते हो। यही पुनर्चक्रण है। यही पुनर्जन्म है। बार-बार इधर जाते हो। बार-बार इधर जाते हो और एक ही पुराने चक्र को दोहराते हो। जो व्यक्ति यह देख लेता है, वो यहां से मुक्त हो जाता है और आत्मा में स्थापित हो जाता है।

यही योग है। यही मुक्ति है और इसकी विधि है आत्म अवलोकन। क्योंकि तुम भूल प्रतिदिन कर ही रहे हो। उसी भूल का अवलोकन करना माने उसी भूल को देखना माने अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को देखना। यही मुक्ति की विधि है। ईमानदारी उसमें अनिवार्यता है। और विधि है देखना। ईमानदारी से स्वयं को देखना। यही विधि है। इतना आसान है वेदांत। अब कोई क्यों कहता है कि वेदांत कठिन पड़ता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अब इसमें एक प्रश्न आता है। आपने कहा कि ये तुम हो, यह प्रकृति है और यह आत्मा है। मान लिया मैंने। इस लिहाज से अब यह जो प्रकृति और तुम इनके बीच का जो संबंध है, यह सांसारिक संबंध है। इससे जीवन है, गृहस्थ धर्म है, इससे विज्ञान है, इससे संसार है, सत्ता है। सब कुछ चल रहा है। यहां से यहां आने के बाद यह सब कुछ खत्म हो जाता है। जाहिर है वेदांत ये नहीं कह रहा होगा। इसका मतलब वेदांत जो है ना एक संतुलन के साथ चल रहा है और इसी के साथ जीते-जीते इस तरफ आने की बात कह रहा होगा।

आचार्य प्रशांत: जो मैंने बात कही थी वो बिल्कुल प्राथमिक थी। अब आपने उससे आगे का सवाल कर दिया कि क्या इधर आने का मतलब होता है इसको त्याग देना। क्या ये सब बिल्कुल छोड़ना है? सत्य की ओर आने का मतलब क्या प्रकृति का त्याग है? संसार का त्याग है?

नहीं त्याग नहीं है। अब जो पाठ दूसरा है अगला वो कहता है कि प्रकृति ही विधि है। इसीलिए हम दुर्गा सप्तशती में देवी की आराधना करते हैं क्योंकि देवी ही मुक्ति दायनी है। प्रकृति ही देवी है और देवी ही मुक्ति दायनी है। तो यहां तक आने की विधि होती है इसमें ध्यान के साथ प्रवेश करना। प्रकृति में जो ध्यान के साथ प्रवेश करता है, वह प्रकृति से मुक्ति पा जाता है। प्रकृति में ध्यान से प्रवेश करने का क्या मतलब होता है? कि प्रकृति को भोगने की दृष्टि से उसमें प्रवेश नहीं करूंगा। प्रकृति को जानने की दृष्टि से उससे संबंध बनाऊंगा।

मेरे सामने यह दुनिया है। एक तो मेरा कामनाजित रुख यह हो सकता है कि मैं क्या खा लूं क्या नोच लूं क्या खसोट लूं। क्या अपनी जेब भर लूं और किस चीज से डर के भाग लूं। यह अज्ञानजनित दृष्टि है और यही वो आम दृष्टि है जो लोकधर्मी रखता है प्रकृति के प्रति।

वेदांत कहता है प्रकृति के अलावा जाओगे कहां? जहां भी जाओगे प्रकृति। प्रकृति माने समूचा ब्रह्मांड, अस्तित्व पूरा। वो तो हर जगह है ना। वो तो हर ही जगह है। तो तुमको उससे भागने की जरूरत नहीं है। त्याग इत्यादि की कोई जरूरत नहीं है। जागना ही त्यागना है। तुम्हें त्यागना है ही नहीं। तुम जाग जाओ इतना पर्याप्त है। और जागने का मतलब है कि तुम प्रकृति के साथ जो रिश्ता बना रहे होश में बनाओ, ध्यान में बनाओ।

ध्यान में जब रिश्ता बनाओ उसको विवेक कहते हैं। किससे संबंध रखना है? किससे संबंध नहीं रखना है ये जानने को विवेक कहते हैं। या किसी से संबंध रखना है तो किस गुणवत्ता का रखना, उस संबंध का आधार क्या हो? ये जानने को विवेक कहते हैं। सार-सार में भेद को विवेक कहते हैं। वो सार-सार सब प्रकृति में ही तो लागू होते हैं। आओ प्रकृति से रिश्ता बनाओ, बिल्कुल बनाओ। आपको आपने गृहस्थी की, दांपत्य की बात करी। नर नारी से संबंध बनाएगा। नारी नर से संबंध बनाएगी। पर किससे विवाह करना है ये तो सोचोगे ना। वेदांत ये बोलता है। नहीं तो वही जो पिछली बार बात हुई थी चार सौ अठानवे ए। (४९८)

रिश्ता बनाने को मना नहीं करा जा रहा। बेहोश रिश्ता बनाने को मना करा जा रहा है। तो वेदांत जो है वो कालातीत है। वेदांत हर आधुनिक से आधुनिक युग में भी लागू होगा और हिंदुओं को प्रकाश देगा और बल देगा। वेदांत कहता है, ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’। बल की बात करता है वेदांत।

मैं चाहता हूं हिंदू एक बलशाली कौम बने लेकिन जो मैं अपने चारों ओर होता देख रहा हूं उसमें हमें बस कमजोर करा जा रहा है। हमें पुनः उसी स्थिति में लाया जा रहा है जिस स्थिति में हमें हजारों साल तक गुलाम रहना पड़ा। कुछ कारण थे ना कि हम इतने युद्ध हारे और कई तरीकों से पिछड़ते गए, पिछड़ते गए। उन कारणों को दोबारा प्रस्थापित किया जा रहा है।

प्रश्नकर्ता: एक मौलिक प्रश्न है। जब हम जाते हैं ईसाइयत की तरफ तो वहां हमको बाइबल मिलता है। अगर आपको दो टुकड़ों में देखें तो ओल्ड टेस्टामेंट, न्यू टेस्टामेंट मिलता है। इस्लाम में आते हैं कुरान या फिर हदीस। इज्मा कयास की बात मैं छोड़ देता हूं। कुरान और हदीस। जब हम सनातन में आते हैं तो हमारे वेद आते हैं और वेद जो हैं, यह कर्म फलवाद के सिद्धांत पर चलते हैं। कर्मकांड है। उपनिषद् आ जाते हैं। वह ज्ञान के आधार पर चलते हैं। मुझे लगता है कि इन दोनों से पलायन और ईश्वर के साथ मेल का रास्ता निकाला गया, भक्ति आंदोलन के दौरान।

स्मृतियों का काल आता है। बहुत सारी स्मृतियां आती हैं। बहुत सारे देवता आ जाते हैं। अलग-अलग पूजा पद्धतियां आ जाती हैं। तो एक बहुत विशाल संसार धर्म के भीतर खड़ा हो जाता है। सनातन के लोगों के साथ संकट ये हो जाता है कि मेरे धर्म का मूल तत्व मूल धर्म ग्रंथ क्या है और कहता क्या है।

आचार्य प्रशांत: यही बात और हमें ये कोई बताने वाला नहीं है कि यह बात बिल्कुल पत्थर की लकीर की तरह है कि हमारे मूल ग्रंथ वेद है और वेदों के दर्शन का वेदों के शिखर का नाम वेदांत है। वेदांत का अर्थ ही होता है कि वेदों का अंत माने वो जगह जहां वेद आपको ले जाना चाहते थे। अंत माने अर्थ भी होता है कि वेदों का पूरा अर्थ वह वेदांत है। तो हिंदू वही है जो वेदों का मर्म तो जाने। वेदों का मर्म आपको वेदांत में मिलेगा। और वेदांत माने उपनिषद् और कहा जाता है कि सब उपनिषदों का सार जो है वह श्रीमद्भगवद्गीता में मौजूद है और जितने भी ऐसे ऐसे सूत्र हो सकते हैं जिनको समझ करके वेदांत के बारे में कोई भ्रम बचने की संभावना ही नहीं रहती। वह हमें मिल जाते हैं ब्रह्मसूत्र या वेदांत सूत्र में बादरायण के। यह तीनों मिलकर के आपको हिंदू बनाते हैं। यह हिंदू होने की परिभाषा है।

इधर-उधर की आप बहुत बातें कर लें। उससे आप यह तो कह सकते हो कि हम किसी मान्यता पर चलते हैं। पर आप मैं बहुत विनम्रता के साथ कह रहा हूं। आप अपने आप को सनातनी कहने के अधिकारी नहीं हो जाते। अगर आप उपनिषदों और गीता से दूर हैं तो।

प्रश्नकर्ता: तो जब आप ऋग्वेद से बादरायण के सूत्र तक आएंगे और इतना आतंक पैदा करेंगे तो लोग कहेंगे ना कि आपका विरोध बहुत जरूरी है। कि इस तरीके से तो हो नहीं सकता।

आचार्य प्रशांत: कोई आतंक नहीं है राणा जी। बहुत प्यार का माहौल रहता है। हमारा गीता समागम चलता है। मैं उनको बोलता हूं कि गीता तुम्हें ज्ञान देने के लिए नहीं है। गीता तुम्हें प्यार सिखाने के लिए है। कोई आतंक नहीं है। वो मैं दिखने में ऐसा लगता है कि थोड़ा सा, ऐसा कुछ नहीं है। मामला हमारा बड़े भाईचारे का है। बड़े सौहार्द का है और सच बता रहा हूं। मामला बहुत प्यार का है।

प्रश्नकर्ता: मेरा इशारा था आपका बार-बार विरोध आपके ऊपर आक्षेप और पुस्तकों को जलाने तक की स्थितियों को पैदा कर देना।

आचार्य प्रशांत: वो भी उनके प्यार का एक तरीका है। वो भी मुझे चाहते ही हैं। पर वो बेचारे हिचकिचाते हैं पास आ करके ‘आई लव यू’ नहीं बोल सकते हैं तो वो मेरी किताबें जलाते हैं।

प्रश्नकर्ता: एक प्रश्न है आचार्य जी। मैं कई बार ना पोंगापंथ और पांडित्य लोग कहते हैं पोंगापंथी है। ये पंडित है और सनातन में यही चलता है। अरे पोंगापंथी, ये पंडित है। तो ये पोंगापंथी और पंडित, इन दोनों का भेद ना मतलब पोंगापंथी ज्यादा हो जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: आपने पता नहीं ने किस दैवीय प्रेरणा से ये प्रश्न पूछा है ये श्रीमद्भगवद्गीता का वो श्लोक है जो अभी कल रात ही मैंने सबसे कहा है और बड़ी विस्तृत दो ढाई घंटे की चर्चा हुई है और पंडित, पंडित कौन है वो इसमें आकर के श्री कृष्ण साफ-साफ बता रहे हैं।

हम यह पांचवें अध्याय का अठारहवा श्लोक है। इसमें ब्राह्मण कौन है वो भी उन्होंने बता दिया है और पंडित कौन है वो भी बता दिया है। तो यहां श्री कृष्ण कह रहे हैं अगर हम समझ सके तो कि जिसमें विद्या है और विनय है वो ब्राह्मण हुआ। और जो समदर्शी है वो पंडित हुआ। समझने की बात है। तो पंडित वो है जो समदर्शी हो जाए। समदर्शी का क्या अर्थ है?

समदर्शी का मतलब होता है कि मैं अपने भीतर आत्मा में ऐसा स्थापित हो गया हूं कि बाहर की कोई भी चीज़ मुझ पर प्रभाव डालकर मुझे असम नहीं कर सकती। तो वो हो कि वो हो, मेरे लिए दोनों इस अर्थ में बराबर है कि ना तो वो मुझे आकर मेरे केंद्र से विस्थापित कर सकता है ना वो मुझे आकर मेरे केंद्र से विस्थापित कर सकता है। वहां प्रशंसक है, वहां निंदक है। अगर मैं भीतर अपूर्णता यानि अहंकार लेके बैठा हूं तो प्रशंसक आकर मुझे हिला देगा और निंदक भी आकर मुझे हिला देगा।

समदर्शी का मतलब है, ना प्रशंसक मुझे हिला सकता है ना निंदक मुझे हिला सकता। दोनों को मैं सम देखता हूं। क्योंकि भीतर मैं अपनी पूर्णता में, आत्मा में स्थापित हूं। उसमें किसी के कुछ कर पाने की हस्तक्षेप की कोई संभावना ही नहीं बची। वो होता है पंडित।

अब ये बात जब मैं बताता हूं तो बहुत सारे लोग जो अपने आप को पंडित बोलते हैं उनको बड़ी समस्या हो जाती है। चिढ़ने लग जाते हैं क्योंकि वो समदर्शी तो है नहीं। पर उनको शौक बहुत है अपने आप को पंडित बोलने का। तो फिर वो मेरी किताबें चला देते हैं। पर वो मेरी किताब है नहीं। वो तो वो तो श्री कृष्ण की किताब है। उस पर जो चित्र है, छवि है, वो भी श्री कृष्ण की ही अर्जित है।

प्रश्नकर्ता: तो आप तो यह भी कह रहे कि पोंगापंथी पंडित होने के इस विश्लेषण के ऊपर या इस तबके के ऊपर अपना कब्जा कर लिया।

आचार्य प्रशांत: ये बात। ये बात। ये बात। पोंगापंथी अपने को पंडित बोलने लग गए हैं। और जिन्होंने बस कुछ अंधविश्वास की और भूत प्रेत की बातें करनी शुरू कर दी, वो अपने आप को गुरु बोलने लग गए हैं। जो कुछ नहीं समझते कि सनातन शब्द का ही मतलब क्या है, वो तो कहते सनातन माने संस्कृति होता है। सनातन माने परंपरा होता है। जो सनातन जानता ही नहीं क्या होता है, वह अपने आप को सनातनी बोलने लग गए हैं।

और सनातियों सनातनियों के भी अग्रणी नेता अपने आप को बोलने लग गए कि साहब हम तो गुरु है। हम तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे। अंधा-अंधे ठेलिया दोनों खूब पड़ंत। जब गुरु ऐसा हो जाएगा तो समाज की चेलों की क्या हालत होगी।

ये चल रहा है। मैं हंस रहा हूं। पर मैं भीतर से बहुत-बहुत दुखी रहता हूं, इस मामले में राणा जी।

प्रश्नकर्ता: लेकिन एक संकट है आचार्य जी। जब यही लोग समाज की रस्सी पकड़ लेंगे और उसको लेकर के आगे चलने लगेंगे, सूत्रधार बन जाएंगे तो संकट तो पूरे समाज के सामने है तो फिर तो आप सामने आ करके और उस कमान को अपने हाथ में लेने का एक युद्ध लड़ना पड़ेगा। साहस तो करना पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: देखिए बात साहस की नहीं है। बात यह है कि यहां दुश्मन हमारे भीतर बैठा हुआ है। मैं कह रहा हूं मैं सामने आ जाऊं। मेरी बात आपको समझ में ही नहीं आएगी जब तक वो बात आपको समझाई नहीं गई है। अगर आपका दुश्मन कोई बाहर हो आपसे तो मैं उस दुश्मन को अलग करके आपकी रक्षा कर सकता हूं। पर मैं क्या करूं, अगर आप स्वयं अपने दुश्मन बन गए हो तब तो आपको बचाने का सिर्फ एक यह तरीका रहता है कि शिक्षण किया जाए ताकि आप अपने ही विरुद्ध खड़े हो सके।

मैं कैसे किसी को कह दूं कि मैं तुम्हारा नेतृत्व करने के लिए आ रहा हूं। जब उन्हें अभी बात समझने की योग्यता ही नहीं है। तो मैं कोशिश कर रहा हूं कि लोगों में सच परखने की पहले योग्यता जागृत हो और जैसे-जैसे लोगों में सच परखने की योग्यता जागृत हो रही है, अब लाखों लोग ऐसे हो गए हैं अगर करोड़ों नहीं तो हो सकता है करोड़ों हो रहे हो जिनमें सच परखने की कुछ योग्यता मेरे माध्यम से जागृत हो रही है।

और ये लोग जो हैं न्यस्त स्वार्थों के लिए, समाज के ठेकेदारों के लिए, यह बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। तो फिर वो जिनके लिए खतरा बन रहे हैं, वह उस पर आक्रमण करते हैं। नेतृत्व ऐसा नहीं हो सकता कि आप जा करके समाज में कह दे मैं नेता हो गया, नेतागिरी करूंगा या मैं राजनीति में खड़ा हो जाऊं, चुनाव लड़ना शुरू कर दूं। मैं जो बोल रहा हूं, जब वो मेरी बात कोई समझेगा नहीं तो वो मुझे वोट दे भी दे तो उस वोट की कोई कीमत नहीं होगी ना। और अगर वो मेरी बात समझ गया है तो फिर वो किसी को भी वोट दे उसने सत्य को ही वोट दिया। सत्य को ही वोट दिया।

तो लोगों को मैं तैयार कर रहा हूं। एक जमीन की तरह एक सुंदर जमीन जिस पर भारत के भविष्य का एक विराट वृक्ष खड़ा होगा। गरिमामय, विशाल, बलवान। मैं वो जमीन तैयार कर रहा हूं। एक वटवृक्ष उस पर खड़ा होने वाला है और वो वो हो के रहेगा। मेरे माध्यम से नहीं तो किसी और के माध्यम से। मेरा क्या है? मुझे तो हो सकता है कल को गोली मार दे या जेल में डाल दें। तो हो सकता है मैं रहूं ना रहूं। लेकिन मैं नहीं भी रहूंगा तो जो बात मैं कह रहा हूं, इससे भारत राष्ट्र का और सनातन धर्म का विराट उज्जवल सशक्त भविष्य जरूर तैयार होगा।

प्रश्नकर्ता: जी, मेरा आखिरी प्रश्न है क्योंकि बहुत उल्लास मैंने इस देश के भीतर देखा है। लोग उमंग से भरे हुए हैं। खास करके ये जो महाकुंभ चल रहा है, तीर्थराज प्रयाग में उनको लगता है कि यह जो अवसर है वो बहुत पुनीत है और एक बार संगम स्थान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इस परंपरा को जो हमारे यहां संगम की रही है। नदियों की परंपरा जो है, वह गंगा हो या गोदावरी हो तो गोदावरी से गंगा तक इसको सनातन के साथ जोड़कर के आप कैसे परिभाषित करेंगे?

आचार्य प्रशांत: देखिए सनातन में शुद्धता का बड़ा महत्व है। जो मूल बात होती है वह यह होती है कि शुद्धता तुम्हारा कोर है, केंद्र है, मर्म है, हृदय है। और उसके ऊपर मैल जम गई है। उस मैल का नाम अहंकार होता है। ठीक है? दुनिया की जो बाकी धाराएं अब्राहमिक वगैरह वो कहती है कि वह जो उच्चतम है, जो परम है, जो गॉड है, जो ऊपर वाला है, वह कहीं दूर है उसको बाहर कहीं जाकर खोजना पड़ता है। वेदांत ऐसा नहीं कहता। वेदांत कहता है वो यहां है उसका नाम हृदय भी है इसीलिए सत्य को हृदय भी कहते हैं। तो वो तो है हृदय, आपसे दूर कहां जा सकता है। वो तो है लेकिन उसके ऊपर कुछ और जम जाता है, उसे आच्छादित कर देता है।

श्री कृष्ण कहते हैं श्रीमद्भगवद्गीता में तीन उदाहरण देते हुए कहते हैं।

कहते हैं जैसे गर्भ के ऊपर जो भ्रूण होता है, उसके ऊपर गर्भ का जल चढ़ा रहता है। जैसे दर्पण के ऊपर धूल जमा रहती है और जैसे आग के ऊपर धुआं जमा रहता है। इसी तरह से आत्मा के ऊपर अहंकार जमा रहता है। सच के ऊपर झूठ जमा रहता है। इसका मतलब यह है कि सच कहीं चला नहीं गया है। ठीक वैसे जैसे हां जैसे दर्पण में कुछ दिखाई नहीं दे रहा। इसका मतलब यह नहीं कि दर्पण कहीं चला गया है। मतलब बस यह है कि कुछ अतिरिक्त आ गया है। तो शुद्धता पर बड़ा जोर है। जो अतिरिक्त तुमने इकट्ठा कर लिया है मैल, उसको हटाना ही वेदांत की विधि है।

और आपको वो विधि बार-बार याद आती रहे इसीलिए हिंदू धर्म में नहाने का बड़ा स्थान है। नहाने का मतलब ये थोड़ी होता है कि जाकर के हाथ ऐसे ऐसे…

‘नहाए धोए क्या जो मन मैल न जाए’। संतों ने इसलिए तो याद दिलाया, बार-बार संत वेदांत ही आपको याद दिलाना चाहते थे।

‘मीन सदा जल में रहे धोए बांस ना जाए।’

माने क्या था यही था कि आत्म स्नान, आत्म शुद्धि। तो आप के लिए कहा गया, आप जाएं कई सालों में एक बार नहीं, आप प्रत्येक वर्ष जाएं और यदि आपको सुभीता हो तो आप प्रतिदिन ही जाएं। और नदियों को प्रकृति की संज्ञा दी गई। माँ की। महा-माँ कौन है वेदांत में? महा-माँ, महामाया वो प्रकृति है क्योंकि वही इस शरीर को जन्म देती है। कहे, आप वहां जाएं और अपना आंतरिक शुद्धिकरण करें। कैसे? वो आपको याद दिलाएगा- ‘सुमिरन सुरति लगाए के मुंह से कुछ ना बोल, बाहर के पट बंद कर भीतर के पट खोल।’

तो बाहर नहाना अपने आप में बस यह महत्व रखता है कि वो आपको याद दिला देता है कि तुम्हें भीतर नहाना है। कोई बाहर से नहा रहा है और भीतर नहा ही नहीं रहा है तो उसे क्या मिलेगा? बहुत जाहिर सी बात है। बाहर से नहाना तो आप अपने बाथरूम में भी कर सकते हो।

हम अपनी महान नदियों के पास इसलिए जाते हैं ताकि हमें कुछ भीतरी बात याद आए।

प्रश्नकर्ता: शुद्धि की जो बात कह रहे हैं आप। मुझे लगता है कि शायद ये इकलौता ऐसा धर्म है या धर्म दर्शन है जो प्रकृति से अपने आप को जोड़ता है। ‘आप शांति वायु शांति वनस्पति शांति’ तो यह यह सब कुछ कि वायु भी, पानी भी, वनस्पति भी यह सब शुद्ध रहें, शांत रहें, संतुलन रहे- ये प्रकृति के संतुलन का जो दर्शन है मुझे लगता है इकलौता है और सनातन से सीधा-सीधा जुड़ता है तो मूल तत्व तो मुझे लगता है कि यही है इसका।

आचार्य प्रशांत: राणा जी, इतना शानदार है हमारा धर्म कि मैं कहता हूं कि जो एक बार सनातन धर्म के केंद्र से परिचित हो गया, आप उसका धर्म परिवर्तन करा के दिखा दीजिए। आप उसके यहां तलवार रख दीजिए। यहां बंदूक रख दीजिए। वो फिर भी हंसेगा। वो कहेगा मुझे मार क्या दोगे? मैं जीवन मुक्त हूं।

आप उससे पूछेंगे कि ऐसा तू किसको मानता है कि तुझे भय ही नहीं लगता। तो कहेगा ‘तत्वमसि’। जो तुम हो वो तुम्हारे पास भी है, बस तुम उसे जानते नहीं हो। तो यह जितनी भी हमारी समस्याएं हैं वह सब दूर हो जाए अगर हम सनातनियों को उपनिषदों के और वेदांत के पास ला पाए और वही प्रयास मैं कर रहा हूं।

और उस प्रयास के बदले में गाली खा रहा हूं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी कह रहे हैं कि ‘एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ से लेकर के ‘तत्वमसि’ ये जितने सूत्र हैं वो सनातन के ऐसे हैं जो दुनिया को सबसे बेहतर रास्ता दिखाते हैं। मानव कल्याण का, इससे बेहतरीन कोई दूसरा सिद्धांत तो हो ही नहीं सकता है।

आचार्य प्रशांत: दुनिया ने ‘मैन वर्सेस नेचर’ का नैरेटिव दिया है और वही चीज अब क्लाइमेट चेंज के रूप में परिणित हो रही है। सनातन धर्म इकलौता ऐसा है जिसने प्रकृति को कहा कि माँ है माँ और देवी कह के पूजा। हमारे नवरात्र वास्तव में प्रकृति पूजन के उत्सव होते हैं। पर दुर्गा सप्तशती हमने पढ़ी ही नहीं है। और अगर पढ़ी भी है तो हमने उसका वास्तविक अर्थ करा ही नहीं है। और जो मेरे साथ हैं जो उसका वास्तविक अर्थ समझ जाते हैं, वह फिर देवी के ऐसे भक्त हो जाते हैं और प्रकृति के प्रति ऐसी अहिंसा से भर जाते हैं कि आप उनको डिगा कर दिखा दीजिए।

प्रश्नकर्ता: ये शास्त्रों की धर्म ग्रंथों की मीमांसा जो है वो समाज को दिशा देती है। और आचार्य प्रशांत यही काम करते रहे हैं। लेकिन विरोध जो है सनातन का जो सबसे बड़ा सेवक है। सनातन धर्म क्या है? उसके मूल तक लोगों को ले जाने का जो व्यक्ति प्रयास कर रहा है। उसी के सामने एक बड़ा विरोध खड़ा हो जाता है। उसी की किताबों को जलाया जाता है। यह अपने आप में अजीब स्थिति है और सनातन के जितने भी सच्चे अनुयाई हैं उनको सोचना चाहिए कि स्थितियां क्यों पैदा हो रही हैं। आचार्य जी चलते-चलते मैं चाहता हूं कि कोई टिप्पणी….

आचार्य प्रशांत: एक बात बताइएगा, एक बात बताइएगा।

भारत राष्ट्र पर खतरे हैं। हम इसकी बात करते हैं। हम पर कोई आक्रमण करने आएगा। चीन ने सिक्स्थ जनरेशन फाइटर स्टील, फाइटर जेट जो है तैयार कर लिया है। वह हम पर आक्रमण करने आएंगे तो जादू टोना यह हमको बचाएगा क्या? हमारे अंधविश्वास हमको बचाएंगे। हिंदुओं को एक बहुत वैज्ञानिक समाज बनना पड़ेगा कि नहीं बताइए आप?

प्रश्नकर्ता: नहीं नहीं ये आवश्यक है।

आचार्य प्रशांत: मैं विज्ञान की बात करता हूं तो ये मेरा विरोध करते हैं। हम कहते हैं प्रोस्पेरिटी समृद्धि। समृद्धि कहां से आ जाएगी? अगर आप में रचनात्मकता नहीं है। अगर आप बाहर निकल कर के नए खतरे नहीं उठा सकते। तो लेकिन हमको हमारे पुराने दायरों में कैद करने की कोशिश करी जा रही है। ऐसी ऐसी चीजें वापस लाई जा रही हैं जो कि समय की धूल हो चुकी थी।

आप जिनको पाए सबसे ज्यादा हिंदू-हिंदू की बात करते हुए, ये वही लोग हैं जो हिंदू समाज में सबसे ज्यादा अंधविश्वास का और भेदभाव का और जातिवाद का समर्थन करते हैं और महिलाओं को कैद रखने की बात करते हैं। ऐसे भारत आगे बढ़ेगा? ऐसे सनातन धर्म आगे बढ़ेगा? कहीं ऐसा ना हो कि कल हम पर जब आक्रमण हो तो हम भीतर से इतने खोखले हो चुके हो कि हम उसका जवाब देने की स्थिति में भी ना हो और आक्रमण जरूरी नहीं है कि सामरिक हो, सैनिक हो।

आक्रमण तो आर्थिक भी होता है और आज की दुनिया में तो आर्थिक आक्रमण ही ज्यादा होते हैं। जो टैलेंट है भारत का वो भारत छोड़ छोड़ के भाग रहा है क्योंकि भारत की संस्कृति और ज्यादा दम घोटू होती जा रही है। आदमी ना खुल के बात कर पा रहा है, ना जी सकता है। जरा सा कुछ बोले तो आप को धर्मद्रोही और राष्ट्रद्रोही बोल देते हो। भारत से पलायन करने वालों की संख्या किस कदर बढ़ रही है वह आप भली-भांति जानते हैं। ऐसे भारत में ताकत आएगी क्या?

बहुत चाहा है मैंने भारत को इसीलिए दिल बहुत दुखता है जब देखता हूं कि किस अंधी राह पर मेरे देश को और मेरे धर्म को धकेला जा रहा है।

प्रश्नकर्ता: यह पीड़ा है आचार्य प्रशांत। मुझे लगता है कि यह समझा जाना चाहिए। एक शेर है. ‘कि जरूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो। उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो, अक्सर देर कर देता हूं मैं।’

यह देरी जो है वो आपके लिए खतरनाक हो जाती है। समय पर समाज जब अपने लिए जरूरी निर्देश और संदेश समझ लेता है और उसके लिए आवश्यक जो काम है, वह करना शुरू कर देता है, तो ना सिर्फ परिवर्तनकारी होता है, प्रगतिशील होता है, बल्कि अपने युग में वो एक मानक स्थापित करता है। मानदंड स्थापित करता है।

और आचार्य प्रशांत यही कह रहे हैं। यह सारा जो संघर्ष है वो इसी बात का है कि सनातन समाज जो है वो सबल हो। वो नायक बने। उसके हाथ में दुनिया का नायकत्व आए। और जब आप यह सब कुछ कहते हैं तो विरोध आ जाता है।

आचार्य जी बहुत-बहुत धन्यवाद आपका फिर से जुड़ने के लिए। यह चर्चा बहुत दिलचस्प रही है आज। क्योंकि यह आपके विरोध को लेकर के थी और आपने मुझे लगता है कि बहुत खुलकर अपनी बात रखी। बहुत धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: और आपका आभार आपने यह मुद्दा उठाया आज।

प्रश्नकर्ता: नहीं आवश्यक था क्योंकि दुनिया भर के प्रश्नों का जवाब आप देते हैं तो जो प्रश्न आपके चारों ओर खड़े हो गए हैं उनका जवाब तो मिलना ही चाहिए। बहुत-बहुत धन्यवाद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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