प्रश्नकर्ता: सर (महोदय), ये मेरा प्रश्न अपमानित करने के लिए नहीं है। तो जब आप कहते हैं कि— हमने शुरू में ही बात की थी कि फ़ियर ऑफ होल्डिंग नॉलेज , और ये सब— तो जब आप हमें ये सब सिखा रहे हैं तो क्या ये आपका एक तरह से वही वाला फ़ियर नहीं है? क्योंकि अगर आप सोचते हैं कि “मैं किसी को ये चीज़ सिखा सकता हूँ,” तो कहीं-न-कहीं हम ये मान रहे हैं कि अगर हम ये नहीं सिखाते तो दुनिया ये मतलब ठीक नहीं चल रही होती। या फिर जब हम रेशनल थिंकिंग किसी को बोलते हैं, कि “आपको रेशनली सोचना चाहिए,” तो कहीं-न-कहीं हम ये मान रहे हैं कि अगर ये दुनिया रेशनली नहीं सोचेगी तो ठीक नहीं होगा। तो ये कहीं-न-कहीं हमारा फ़ियर ही है शायद जो हमें, किसी को यदि हम कुछ सिखाते हैं तो मेरे को लग रहा है कि वो हमारा वही वाला फ़ियर है जिसकी हम बात कर रहे थे।
आचार्य प्रशांत: हाँ वही है! मैंने कहा था: दो तरह के भय होते हैं - एक जो अपने लिए होता है, पर्सनल , वैयक्तिक, और एक होता है जो अपने लिए नहीं होता, निर्वैयक्तिक, इंपर्सनल। ये जो फ़ियर होता है न, जो इंपर्सनल है, इस फ़ियर को कहा जाता है कंपैशन , करुणा — अपने लिए नहीं परेशान हो, कि “मेरा कुछ खो जाएगा।” लेकिन सही कह रहे हो, है तो वो भी एक तरह का डर ही। पर वो आम डर से इतना अलग है कि उसके लिए एक अलग शब्द ही रच दिया गया है, उसको फिर भय कहा ही नहीं जाता। लेकिन है वो भी एक तरह का भय ही, क्योंकि भय में भाव तो यही होता है कि कुछ है जो गलत है और नहीं होना चाहिए। बस आमतौर पर जब हम कहते हैं कि “कुछ है जो गलत है, नहीं होना चाहिए,” तो वो हम अपने लिए कहते हैं, अपने संकीर्ण स्वार्थों को ध्यान में रख कर कहते हैं न? — “मेरा कुछ छिन न जाए, मेरा कुछ छिन न जाए।”
और जो दूसरा भय होता है, जिसके लिए मैंने कहा था कि “वो एक भय अगर तुमने पकड़ लिया, तो फिर बाकी सब भयों से तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी,” वो ऊँचा भय है। ठीक है? वो भय अगर नहीं होता तो दुनिया में कोई न होता जो सिखा रहा होता, दुनिया में कोई न होता जो सीख पाता। वो भय बहुत ज़रूरी है, उस भय के लिए जानने वाले जानते हो क्या कह गए हैं? “भय पारस है जीव को, निर्भय होय न कोय।“ वो एक खास डर है, जो पारस पत्थर की तरह आदमी को लोहे से सोना बना देता है। और वो कहते हैं, “निर्भय होय न कोय,“ - वो प्रार्थना कर रहे हैं कि कोई ऐसा न हो जाए जो डरा हुआ नहीं है! तो वो एक विशिष्ट डर होता है, वो एक अलग डर होता है। ठीक है?
जो तुम्हारे साधारण डर हैं, उनको पार कर जाओगे जब, तो वो फिर आखिरी डर बचेगा। वो आखिरी डर फिर वो होता है जिसके कारण कृष्ण ने अर्जुन से गीता कही। हम बिल्कुल कह सकते हैं कि कृष्ण को भी तो डर था कि कहीं अधर्म फैल न जाए, तभी तो वो अर्जुन को गीता बता रहे थे, वरना क्यों कहते? साफ़-साफ़ अपना डर बताते हैं, “परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्.... संभवामि युगे युगे।“ “देखो अगर मैं नहीं आऊँगा, मैं अवतरित नहीं होऊँगा, तो साधुओं को कौन बचाएगा? और ये दुष्टों को सज़ा कौन देगा?” तो एक तरह से कृष्ण भी तो देख रहे हैं कि “भाई काम ज़िम्मेदारी का है, और वो काम नहीं पूरा हुआ तो डर है कि कुछ गलत घटित हो जाएगा।“ ठीक है? पर वो बहुत आखिरी चीज़ है, उसकी बात छोड़ो।
हम जीते हैं अपने छोटे-छोटे, संकुचित डरों में, हाँ? उनसे मुक्ति मिलनी ज़रूरी है; उनसे मिलनी ज़रूरी है। ये जो रोज़मर्रा के डर हैं न — फोन बजा, डर गए; पी.सी.आर. का सायरन सुनाई दिया, दिल धक-से हो गया; दरवाज़े पर किसी ने आहट कर दी, उसमें भी कुछ, कोई खबर आ गई, एक मैसेज ही आ गया, धक-से हो गए। हम बात-बात में डरे रहते हैं! चलते जा रहे हैं, चले जा रहे हैं, पीछे से आ कर किसी ने अचानक कंधे पर हाथ रख दिया, चौंक गए। ये चौंकना क्या बताता है? हमें ये क्यों नहीं विचार आया कि जिसने हाथ रखा है वो हमारा सबसे प्यारा दोस्त भी तो हो सकता है? कोई अचानक आ कर के हाथ रख दे कंधे पर, और आप चौंक ही जाओ, यही तो बता रहा है भीतर डर छुपा हुआ है। इन सब छोटे-छोटे, क्षुद्र, टुच्चे डरों से निजात मिलनी ज़रूरी है, इनकी बात अभी हम कर रहे हैं।
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=L0eB4OHcXuw