आचार्य जी, आपके भीतर इतना जज़्बा आता कहाँ से है? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

5 min
116 reads
आचार्य जी, आपके भीतर इतना जज़्बा आता कहाँ से है? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: सर, प्रणाम! आपका पुराना छात्र हूँ। दो-हज़ार-दस से आपको सुन रहा हूँ, देख रहा हूँ। आप नहीं बदले, सब बदल गया। ज़माना बदल गया! आपके भीतर इतना जज़्बा आता कहाँ से है?

आचार्य प्रशांत: मुझे तो नहीं पता चलता कि मुझमें कोई जज़्बा है। तुमने कहा, ‘इतना जज़्बा! विशेष जज़्बा!’ मुझे तो कोई साधारण जज़्बा भी पता वगैरह नहीं चलता है। हाँ, कोई अनूठे ही मौके हों, तो बात अलग है। अभी तुमने सवाल भेजा है, तुमसे बात कर रहा हूँ। कोई विशेष मौका ये है नहीं मेरे लिये। जब इस सत्र में बैठता हूँ तुम्हारे सामने आकर के, तो मेरे लिए खास बात बस इतनी ही होती है कि कुर्ता पहन लेता हूँ और बालों में कंघी कर लेता हूँ। इसके अलावा तो सबकुछ वैसा ही है, सरल! सहज! इस क्षण में, जैसा कि अभी से एक घंटे पहले था या तीन घंटे पहले था या पाँच घंटे पहले था।

अभी दो घंटे पहले मैं खाना बना रहा था, वैसे ही बना रहा था जैसे तुम्हारे सवाल का जवाब दे रहा हूँ। कोई खास जज़्बा न मैं तब दिखा रहा था, न मैं अब दिखा रहा हूँ। या अगर मैं कोई खास जज़्बा अभी दिखा रहा हूँ, तो उतना ही खास जज़्बा में दो घंटे पहले भी दिखा रहा था। खाना बनाते वक्त भी ऐसा तो कोई भाव था नहीं कि कोई बहुत विशेष मौका है, कोई बहुत खास काम हो रहा है। और इस वक़्त भी जब तुम्हारे सामने बैठा हूँ तो ऐसा तो मुझे कोई एहसास या तनाव नहीं है कि मैं कोई बहुत विशेष काम कर रहा हूँ।

हाँ, कुछ बातें होती हैं जीवन सम्बन्धित, समय सम्बन्धित, उनका खयाल रखना पड़ता है क्योंकि इंसान हूँ, तो समय सीमित है। तो उस वक्त भी ये खयाल रख रहा था कि भई, जो भी खाना-पीना है, नौ-सवा-नौ तक निपटा दो। आज सत्र है! और आज सत्र जल्दी शुरू करना है क्योंकि आज बारह बजे से टीवी पर प्रसारण आएगा। उसी तरीके से अभी भी तुमसे बात कर रहा हूँ, तो समय का थोड़ा अहसास है।

लेकिन उससे ज़्यादा तो कोई ऐसा जज़्बा नहीं। न अभी है, न पिछले दस सालों में ही किसी सत्र में रहा है। बाकी ये है कि कोई अनूठा ही सवाल आ गया, कोई बिलकुल अद्भुत ही प्रश्नकर्ता मिल गया, तो फिर जज़्बा भी खास उमड़ने-घुमड़ने लग जाता है। पर उस खास जज़्बे का कारण ये मौका नहीं होता, उस खास जज़्बे का कारण ये सवाल-जवाब की प्रक्रिया नहीं होती है। वो तो ऐसा है कि कोई साहब मिल गये जो एकदम ही विशिष्ट थे, तो हमें भी जज़्बा आ गया।

सहज जी रहे हैं! सहज बातचीत कर रहे हैं! उस सहजता में कोई अवरोध आता है, कोई चुनौती आती है, तो ये पता है कि जो धर्म है उसको तो निभाना ही है। और धर्म निभाते समय शिकायत करने का न तो हमें अधिकार है, न उससे कोई फायदा है। तो चुपचाप सिर झुका करके, जो अपना कर्तव्य है, धर्म है, उसको निभाते चलो। ऐसे ही गाड़ी खिंच रही है। तुमने शायद किसी कॉलेज़ में मुझे सुना होगा, मुलाकात हुई होगी। मैं तब भी वो कर रहा था, जो करना आवश्यक है। मैं आज भी वो कर रहा हूँ, जो करना आवश्यक है।

तो एक निर्विकल्पता है जिसमें जज़्बे के लिए कोई स्थान नहीं है। वज़ह ये है कि जज़्बा पल-दो-पल का होता है भई। आप भावनाओं के उन्माद पर लगातार नहीं चल सकते। कोई भी जज़्बा, कोई भी भाव, आपको थोड़ी देर के लिये ऊर्जा दे सकता है, प्रेरणा दे सकता है। पर अगर आपको जीवनभर चलना है बिना रुके, बिना थके चलना है, तो वो काम जज़्बे से, भावना से या पैशन से नहीं किया जा सकता। वो काम तो धर्म से ही किया जा सकता है, वो काम तो सहज ही होगा।

जज़्बे में असहजता होती है। जज़्बे में ऊर्जा का अतिरेक होता है। जज़्बे में उत्साह बहुत ज़्यादा होता है। जज़्बे में आप बहुत ज़्यादा अपनी ऊर्जा और अपने ईंधन को जलाते हो। उतना ज़्यादा जलाने लग गये, तो बहुत दूर तक चल नहीं पाएंगे भई। और जज़्बा उन्हें चाहिए होता है, जिनके भीतर, जो काम कर रहे हैं वो, उसे लेकर विरोध होता है। आप जो कर रहे हो, अगर आप वो नहीं करना चाहते हो, तो फिर आपको अपने भीतर जज़्बा जगाना पड़ता है। अपनेआप को प्रेरणा देनी पड़ती है, या मोटिवेट (प्रेरणा देना) करना पड़ता है।

मुझे तो ये छोटी-सी बात पता है कि जो कर रहा हूँ, वही करना ही है। उसके प्रति किसी भी तरह के विरोध की भावना कब की बीत चुकी। और अगर थोड़ी-बहुत शेष भी होगी, तो उसको महत्त्व देते नहीं क्योंकि जो करना है, वो करना है। नियति है अपनी यही। नियति के ख़िलाफ़ जाकर, नियति का विरोध करके किसी को क्या मिलना है?

जो अटल है, उससे क्या लड़ें? जो सुनिश्चित है, क्या उसका विरोध करें? तो ऐसे चल रहा है और तुमसे भी मैं यही कहूँगा कि अगर सच्चाई को ही ज़िन्दगी बनाना है, तो ये काम सहजता से ही हो सकता है। भावना से नहीं! जज़्बे से नहीं! जज़्बा थोड़ी देर के उफान के लिए ठीक है, लम्बा काम नहीं करवा पाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories