अच्छी नौकरी की तलाश है?

Acharya Prashant

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अच्छी नौकरी की तलाश है?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं अभी बैंक में जॉब कर रहा हूंँ, लगभग सात-आठ साल हो गये हैं। शुरुआत तो मैंने आजीविका के लिए करी थी; जैसे परिवार जो सोचता है कि आप पढ़ो और काम करो, उस हिसाब से।

लेकिन अभी, मतलब पिछले कुछ तीन से चार सालों में मुझे उस काम में सन्तुष्टि नहीं मिल रही है, मतलब मुझे नहीं लग रहा है कि जीवन में सन्तुष्टि मिल पा रही है या जीवन को सही दिशा दे पा रहा हूँ। तो इस दिशा में उलझन बनी रहती है कि क्या करूॅं अब, किधर जाऊॅं?

आचार्य प्रशांत: इसका तो मैं कोई जवाब दे ही नहीं सकता क्योंकि आप एक चीज़ जिसमें आपको रुचि नहीं है, उससे आप एक दूसरी चीज़ मॉंग रहे हो, जिसमें आपको रुचि होगी; इस सवाल में और इस सवाल में; कि साहब मैं यहाँ पर आया हूँ, इस रेस्त्रॉं (भोजनालय) में, मैं हमेशा बर्गर खाया करता था, आज मैं पास्ता मॅंगा लूॅं क्या? कोई अन्तर है? वही तो सवाल है न कि पहले एक चीज़ में रुचि थी, अब उसमें रुचि नहीं है, तो क्या दूसरी चीज़ कर लूँ, जिसमें मुझे रुचि है?

मैं इसमें क्या बताऊँ? अगर आपका केन्द्र नहीं बदल रहा है, तो पहले वाला चुनाव और बाद वाला चुनाव; वो एक ही तल के तो हैं भाई! आज तुम बर्गर से ऊबकर पास्ता की ओर जा रहे हो, कल तुम कुछ और मॉंगोगे, परसों कुछ और मॉंगोगे, इसमें मैं आपकी क्या सहायता करूॅं?

अध्यात्म आपके निर्णयों को बाद में बदलता है, पहले अध्यात्म का काम है, आपके केन्द्र पर प्रकाश डालना। कहाँ से निर्णय आ रहे हैं, किसके लिए निर्णय आ रहे हैं? अभी भी जो तुम नौकरी करना चाहते हो बदलकर के, वो नौकरी इसीलिए तो करना चाहते हो न कि तुम्हें कुछ बेहतर अनुभव होने लग जाऍं?

अभी जो काम चल रहा होगा, उससे ऊब गये होगे, या पैसा लगता होगा कि और बढ़ जाए, पैसा नहीं लगता होगा, तो लगता होगा कि कुछ ऐसा करें, जिसमें थोड़ा और कुछ रोचक हो, थोड़ी उत्तेजना हो, वो तो सबको लगता है।

सेवन ईयर इच सुना है? क्या होती है? हर रिश्ते में होती है, शादी भर की बात नहीं है, हर रिश्ते में। जो चीज़ तुम्हें आज, जान से ज़्यादा प्यारी लगती है, कुछ लोगों ने डेटा इकट्ठा करके कहा है कि सात साल के बाद उसी से एकदम ऊब जाओगे और ये एक सात वर्षीय चक्र चला करता है, सात वर्ष के बाद फिर जो चीज़ अच्छी लगेगी? सात साल बाद उससे भी ऊब जाओगे। इस ऊब में कहीं भी केन्द्र का ऊर्ध्वगमन सम्मिलित नहीं है, तुम सिर्फ ऊबे हो, बदले नहीं हो।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे कोई सार्थक काम करने की हिम्मत ही नहीं आ पा रही है। जैसे मान लीजिए…

आचार्य प्रशांत: यहाँ कैसे आ गये? निरर्थक हैं हम सब? यहाँ कैसे आ गये? काहे झूठ बोलते हो, ‘हिम्मत ही नहीं आ रही है?’, हिम्मत नहीं होती तो मेरे सामने बैठ जाते तुम? और सवाल पूछ रहे होते वो भी? तुम्हें पता है, कैसे-कैसे सूरमा हैं, बिलकुल फ़न्ने-खाँ है जो ये एक काम करने की हिम्मत दो साल से नहीं जुटा पा रहे?

एक थे वो पकड़ में आये, तो उनसे कहा गया कि आइए-आइए, आप शिविर में आइए, आप इतना आचार्य जी को इज़्ज़त देते हैं और ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं। बोल रहे हैं, ‘जो चाहिए वो करवा लो, जितना चाहिए मॉंग लो, ये नहीं करूॅंगा मैं।’

‘अच्छा, आप आ जाइए, आप दरवाज़े के बाहर बैठ लीजिएगा।’, बोले, ‘वो भी नहीं हो पाएगा।’

आप झूठ बोल रहे हैं ये कि आपमें हिम्मत नहीं है। और पूर्ण या अनन्त हिम्मत तो किसी में भी नहीं होती न, मुझमें भी नहीं है। जितनी है, उसका समुचित इस्तेमाल करोगे या नहीं करोगे? जैसे कुछ हिम्मत दिखायी है यहाँ तक आने के लिए, वैसे ही कुछ हिम्मत दिखा दो, कोई और ऊँचा काम करने के लिए भी।

देखिए, बहुत बार बोल चुका हूँ, दोहराता हूँ; हमारी समस्या ये नहीं है कि हमारे पास सन्साधनों की कमी है, हिम्मत भी एक सन्साधन है, सन्साधन जानते हो न क्या होता है? क्या? रिसोर्स। कुछ ऐसा जिसका आप इस्तेमाल कर सको, उसको सन्साधन कहते हैं। तो हमारे पास सन्साधनों की कमी नहीं है, ये हमारी समस्या नहीं है, हमारी समस्या ये है कि हमारे पास जो है भी, हम उसका सही इस्तेमाल नहीं करते।

ऐसा नहीं है कि आपके पास समझ की कमी है। उदाहरण के लिए, आप बहुत कुछ जानते-समझते हो, समस्या ये है कि आप जो जानते-समझते भी हो, उस पर भी आप चलने को राज़ी नहीं हो। हमें बिलकुल माफ़ी मिल सकती है, अगर हमसे अज्ञानवश कोई ग़लती हो जाए; कि भाई हमें पता ही नहीं था, तो हमसे ग़लती हो गयी, हम जानते ही नहीं थे कोई बात, तो इसीलिए ग़लत फ़ैसला कर बैठे।

उस चीज़ की पूरी माफ़ी है। लेकिन वो हमारा क़िस्सा है ही नहीं, हमारा क़िस्सा ये है कि जहाँ हमें पता भी होता है कि सच है, उस तरफ़ को हम नहीं जाते, जहाँ पता है वहाँ भी नहीं जाते। जिस काम को करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए कि शेर की मॉंद में सिर देना है, वो तुम नहीं करो, कोई बात नहीं। पर जिस काम को करने के लिए साधारण हिम्मत चाहिए, वो भी आप नहीं करो, तो फिर क्या तर्क दोगे, बोलो? और जब करते नहीं, तो अपने लिए कहते हो कि मैं तो हिम्मत की कमी से ग्रस्त हूँ, मैं क्या करूँ?

जितना हो सके उतना तो करो! छोटे-छोटे क़दम बढ़ाने शुरू करो और फिर देखो कि ये छोटे क़दम तुम्हें कहाँ तक ले जाते हैं। छोटे क़दम, छोटे रह ही नहीं जाने हैं, हर छोटा क़दम, अगले बड़े क़दम की हिम्मत देगा, स्पष्टता देगा, साहस देगा।

पर हम कहते हैं, ‘नहीं साहब, जब हज़ार मील दूर जाना है, तो दो क़दम बढ़ाकर क्या होगा?’ आप दो क़दम बढ़ाइए तो, क़दम बढ़ाने वाला बदल जाएगा। जो तीसरा क़दम होगा, वो बहुत बड़ा होगा, चौथा क़दम और बड़ा होगा, पॉंचवा और बड़ा होगा और छठे में कोई भरोसा ही नहीं कि आप उड़ पड़ो!

पर हम पहला भी नहीं उठाऍंगे। अहंकार चाहता है, कुछ बड़ा करना, ‘साहब! अब जब मैं करूॅंगा न तो पूरा ही करूॅंगा, अब आधा-अधूरा नहीं करूॅंगा, पूरा करूॅंगा।’ और पूरा करने की नौबत कभी आनी नहीं, तो अच्छा बहाना मिल गया न, कभी भी कुछ भी न करने का? कि मैं तो जब करूॅंगा, तो पूरा करूॅंगा।

‘भाई ये दो श्लोक हैं कृष्ण के, थोड़ा इन पर ग़ौर करेंगे?’ ‘नहीं, मैं तो जब पढ़ूँगा, तो पूरी गीता पढ़ूँगा।’ देखो, दो तुम्हें पढ़ने नहीं, सात सौ श्लोक तुम कब पढ़ लोगे, बताओ? लेकिन क्या तुमने अपनेआप को ज़बरदस्त बहाना दिया है कि मैं तो ऐसा कृष्णभक्त हूॅं कि जब पढ़ूँगा, तो पूरी गीता पढ़ूँगा। जिसे पूरी पढ़नी होती, वो दो पढ़ने से इनकार करता?

तो एक बेईमानी होती है कि दो श्लोक भी नहीं पढ़ेंगे, ये भी बेईमानी की बात है; एक बेईमानी होती है कि दो श्लोक ही पढ़ेंगे। कि दो श्लोक पढ़े और दो ही श्लोक पर रुक गये। और उससे ज़्यादा बड़ी बेईमानी क्या होती है? ‘दो श्लोक भी नहीं पढ़ेंगे।’ और जो दूसरी बेईमानी है, इसको जायज़ ठहराने के लिए तर्क क्या है? ‘जब पढ़ेंगे, तो पूरा पढ़ेंगे।’ ये पूरेपन का खेल बहुत गड़बड़ है। जितना है उससे शुरुआत करो, जितना जानते हो, उसको तो अमल में लाओ जीवन में!

प्रश्नकर्ता: बहुत बार जैसे संकल्प उतना आ नहीं पाता है।

आचार्य प्रशांत: जितना आता है, उतना करो!

प्रश्नकर्ता: कोशिश करता हूँ, लेकिन पैर फिसल जाता है, ऐसा होता है।

आचार्य प्रशांत: बार-बार फिसलने दो, फिसल ही तो जाता है न, टूट तो नहीं जाता? ऐसा तो नहीं होता कि अब पॉंव बचा ही नहीं, दोबारा प्रयास करने के लिए? पॉंव साबुत है, तो फिसल गये हो, तो खड़े हो जाओ! एक बार और कोशिश करो!

आपको प्रयास करने से तो कोई नहीं रोक सकता न? सफल होंगे या नहीं होंगे, ये अलग बात है, प्रयास करने से कोई रोक सकता है? प्रयास क्यों छोड़ रखा है? अन्दरूनी साज़िश है, कहीं धोखे से प्रयास सफल न हो जाए, हमने पूरी व्यवस्था कर ली है कि प्रयास सफल न हो, लेकिन अगर दस बार प्रयास किया, तो ऐसा न हो कि एकाध बार प्रयास सफल ही हो जाए।

काहे कि हमारी व्यवस्था भी हमारे ही जैसी है, जब हम सफल होने का प्रयास करते थे, तो असफल होते रहे‌। अब हम चाहते हैं कि हम सफल होते रहें, कहीं धोखे से सफल हो गये, तो क्या होगा। तो फिर ख़ैरियत इसी में है कि कोशिश ही मत करो।

अब अगली बात बताता हूँ; मैंने बोल दिया, अब होगा कि आपने जो बोला, वो बात तो बिलकुल सही थी, लेकिन उसे मैं अपने जीवन में उतार नहीं पाया, तो अब मैं संकल्प लेता हूँ कि मैं आपको अपना मुॅंह नहीं दिखाऊॅंगा, जब तक मैं आपकी कही बात को अपनी ज़िन्दगी में उतार नहीं लेता।

ये है साज़िश के ऊपर साज़िश! ये समझ रहे हो क्या किया जा रहा है, अन्दरूनी तौर पर? क्या किया जा रहा है? ये भागा जा रहा है और कहा ये नहीं जा रहा है कि मैं भाग रहा हूँ, अपनेआप को क्या समझाया जा रहा है? कि अब तो जब मैं इनकी कही बातें ज़िन्दगी में उतार लूॅंगा, तभी इनके सामने आऊॅंगा, ये भागने का तरीक़ा है। या फिर, ‘ये तो बातें ही ऐसी बोलते हैं जो ज़िन्दगी में उतारी ही नहीं जा सकती, तो इनके पास जाऍं काहे को?’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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