प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्कार, मैं अभी आपसे दो-ढाई महीने से जुड़ा हुआ हूँ। मेरी उम्र तीस चल रही है, तो आज भी मैं जी रहा हूँ और दो-ढाई महीने पहले भी जी रहा था। पर पहले वो जीवन में ठसक नहीं थी जो अभी है। पहले मैं जो भी काम करता था उसमें कुछ उद्देश्य नहीं था। एक से दो दुकान बनाना है, दो से तीन बनाना है, छोटे से बड़ा घर बनाना है, पर किसलिए कर रहे हैं ये कभी समझ में ही नहीं आया। जो मैंने कारोबार करा था वो पूरा कम कर दिया है। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ, यही जिज्ञासा थी। और मैं आपके सामने बैठकर खुद को बहुत सफल मानता हूँ आपके सामने बैठने के बाद में, बस यही जिज्ञासा थी गुरुजी।
आचार्य प्रशांत: देखो वो तो अपनी संवेदनशीलता पर है। जितना ज़्यादा तुम भीतर के माहौल को जानोगे उतना समझ जाओगे कि भीतर क्या है जिसको ठीक करने की ज़रूरत है। जितना ज़्यादा दुनिया को जानोगे उतना समझ जाओगे कि दुनिया में क्या है जो ठीक करने की ज़रूरत है। उसके बाद ये सवाल नहीं रह जाता कि क्या करूँ। हमारे भीतर और बाहर इतना कुछ अव्यवस्थित है, अस्त-व्यस्त है बल्कि घायल और पीड़ित है कि उसको उपचार की और समाधान की ज़रूरत है। तो ऐसे में हम ये कैसे कह दें कि जीवन का कोई उद्देश्य नहीं मिल रहा। नहीं समझे?
आप एक ऐसी जगह पर हो जहाँ पेड़ कट रहे हैं, जहाँ लाशें पड़ी हुई हैं, जहाँ हिंसा हो रही है, जहाँ धुआँ-ही-धुआँ है, जहाँ लोग विक्षिप्त हो रहे हैं, आग अलग रहे हैं, हत्या है; आप ऐसी जगह पर हो किसी। और आप पूछो कि समझ में नहीं आ रहा है कि करें क्या, कुछ करने को नहीं है। तो इसका क्या अर्थ हुआ, इसका अर्थ हुआ कि आप देख ही नहीं पा रहे हो कि अन्दर-बाहर कैसा नर्क मचा हुआ है। आप देख पाते तो आपको साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं मिलती। आप ये कैसे कह देते कि मेरे पास तो करने के लिए कुछ भी नहीं है मैं अपने समय का क्या उपयोग करूँ, जीवन में कोई उद्देश्य कहाँ से लाऊँ।
स्थिति तो आज की ये है कि आप एक उद्देश्य माँगो, पाँच मिलेंगे। स्थिति तो आज की ये है कि इतना सारा काम सामने है करने को, इतनी बड़ी चुनौतियाँ हैं कि तुम्हारी ये छोटी-सी ज़िन्दगी बहुत छोटी है उनसे निपटने के लिए। काम का हिमालय सामने खड़ा हुआ है। और हम कुछ नहीं हैं। काम इतना ज़्यादा है कि पन्द्रह मिनट ज़्यादा सो लो तो ग्लानि होती है। ऐसे में कैसे कह सकते हो कि करें क्या।
थोड़ा संवेदना के साथ, थोड़ा आँख खोलकर देखो तो दुनिया को और फिर मुझे बताओ कि कैसे कह पाओगे कि क्या करें। या ऐसा है कि दुनिया जैसी चल रही है उसको वैसा चलने देने में ही तुम्हारे स्वार्थ हैं। तो तुम कुछ बदलना ही नहीं चाहते। अगर तुम कुछ बदलना ही नहीं चाहते तो फिर तुम पूछोगे ही कि क्या करें, कुछ करने को ही नहीं है। जो चल रहा है सब ठीक ही है तो चलने दो फिर। फिर तो कुछ भी नहीं है करने को। नहीं तो सबकुछ है करने को। बदलने ही बदलने को चीज़ें हैं। यहाँ ऐसा है क्या जो बदल नहीं जाना चाहिए?
मैं अपने बहुत पुराने दिनों से बता रहा हूँ, एक दोस्त था मेरा उसके साथ घूम रहा था सुबह-सुबह। रातभर जागे ही थे हम लोग, कुछ काम कर रहे थे और काम में गहरी चर्चा भी हो रही थी। कोई प्रोजेक्ट वर्क (परियोजना कार्य) था, कॉलेज के दिनों की बात थी। तो उसके बाद सुबह हो गयी, भोर हो गयी। तो फिर टहलने निकल पड़े। इरादा ये था कि कहीं जाएँ कुछ ब्रेड या पराठा-वराठा कुछ मिल रहा हो तो रातभर जागने के बाद सुबह बड़ी भूख लगती है। तो जो मेरे साथ था उसने कहा कि ये जितनी इमारतें हैं मुझे इनकी शक्ल अच्छी नहीं लगती, ये सब बदला जाना चाहिए। उसने कहा, ‘ये जो सब परिदृश्य है ये मुझे भाता नहीं है, सब बदला जाना चाहिए।’ उसने इमारतों की ओर देखकर कहा।
तो मैंने पूछा, ‘कैसे बदलना चाहते हो?’ वो बोलता है कि इसको ऐसा होना चाहिए, इस चीज़ को ऐसे होना चाहिए, ये ऐसे हो रखा है, वो वैसे है। कुछ बातें उसने बोली। तो मुझे वो क्षण याद है और उस समय बड़ी गहराई थी बात में क्योंकि हम वैसे ही माहौल से निकलकर आ रहे थे, वैसे ही बातचीत करते हुए आगे बढ़ रहे थे। तो मैंने उससे कहा कि ये जो कुछ है न ये मुझे बेहतर नहीं बनाना है, मुझे ये डिमोलिश (ख़त्म) करना है। मुझे ये जो इमारतें दिख रही हैं ये बेहतर बनाने में कोई रुचि नहीं है। मुझे इनको डायनमाइट (ध्वस्त) करना है। सबकुछ इतना गलत है, तुम कैसे कह रहे हो कि तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं है।
तुम जितना देखोगे और तुम्हारी आँखें जितनी ज़्यादा संवेदनशील, सेंसिटिव होती जाएँगी, तुम्हारे लिए उतना ज़्यादा साँस लेना मुश्किल हो जाएगा। तुम सामंजस्य कैसे बैठा लेते हो दुनिया के साथ? तुम्हें ये सब ठीक-ठीक ही लग रहा है? कैसे ठीक लग रहा है? कहाँ, क्या ठीक लग रहा है ये ही बात दो। ये तो हटाओ कि तुम्हें गलत क्या लग रहा है, तुम मुझे ये बताओ तुम्हें क्या ठीक लग रहा है? दो-चार चीज़ें बता दो बस, कि ये तो ठीक ही है, इसमें कोई बदलाव नहीं चाहिए।
जब सबकुछ ही आउट ऑफ प्लेस (जगह से हटा हुआ) है, अव्यवस्थित है, डिस ऑर्डर्ली है, तो तुम चैन से कैसे बैठे हुए हो? जब सबकुछ ही वीभत्स है, कुरूपमात्र नहीं, वीभत्स है तो तुम संतुष्ट हो उसके साथ? और जो अग्ली (भद्दा) है उसको डिमोलिश (ख़त्म) नहीं करोगे तो ब्यूटी (सुन्दरता) के लिए जगह कहाँ बची? या वो कुरूपता दिखाई नहीं पड़ती?
जहाँ मन्दिर खड़े हो सकते थे वहाँ कचड़े के ढेर हैं, कचड़े से कोई जुगुप्सा नहीं होती या मन्दिर के प्रति कोई प्रेम नहीं है? यही हाल इंसानों का है। एक बच्चा होता है वो न जाने क्या हो सकता था और क्या हुआ जा रहा है। तुम्हारे भीतर विरोध नहीं उठता, लोगों की शक्लें देखो कैसी हैं? हम जैसा जी रहे हैं, हम ऐसा ही होने के लिए पैदा हुए थे? तुम्हें अपनी हालत से, आस-पास जो लोग हैं उनकी हालत न तो तुम्हें दया आती, न तुम्हें तरस आता है, न तुम्हें घृणा आती।
कैसा ये अप्रेम है? हम पूरे तरीके से लवलेस (प्रेमहीन) हैं कि जो चल रहा है, जैसा चल रहा है, एक आदमी की ज़िन्दगी बर्बाद हो रही है, हो। एक जानवर कट रहा है, कटे। कसाईखाने के बगल में खड़े होकर हम अंगड़ाइयाँ ले रहे हैं और जम्हाई लेते हुए कह रहे है, ‘कुछ करने को नहीं है।’ और अगर तुमने कोई बढ़िया, ऊँचा, सुन्दर उद्देश्य बनाया हो, और उस उद्देश्य की दिशा में कोई एक चरण तुम्हारा पूरा हो गया हो और उसके बाद तुमको बस संयोगवश कोई ऐसा अन्तराल मिल जाए जिसमें तुम खाली हो तो उस अन्तराल में तुम नाच लो। फिर ठीक है।
होता है कई बार कि पूरी जान लगाकर के कुछ किया है जो पूरा हो रहा है या पूरा होने के करीब है और उस समय तुम्हें संयोगवश समय मिल गया, स्थान मिल गया तब तुम अकारण बिना बात के, बेमतलब नाच लो। तब भी मत पूछो कि क्या करें, करने को कुछ नहीं है। नाच तो सकते हो, नाचो। पर ये नाचने की बात मैं सिर्फ़ तब कह रहा हूँ जब तुमने पहले अपनी पूरी जान सही काम में झोंक दी है, और सही काम में झोंकने के बाद बस संयोगवश तुमको थोड़ा-सा समय मिल गया, तब तुम नाच लो।
नहीं तो चारों तरफ़ जब तुम्हारे हत्या का नाच चल रहा हो, वहाँ तुम बीच में खड़े होकर नाचोगे क्या?
प्र: जैसे कि मैंने तो अभी कुछ वैसा किया नहीं है, जीवन में पहले ये सब काम थे मेरे पीछे तो पहले कुछ उद्देश्य ही नहीं था मेरा, बस कमाना है। क्यों कमाना है इसके बारे में कुछ पता नहीं। छोटे से बड़ा घर बनाना है, क्यों बनाना है इसके बारे में कुछ पता नहीं। पर आपके सहयोग से इतना तो पता चल गया कि पूरी होने वाली इच्छा ही समस्या बनती है। और जो आधी बची इच्छा है वो भी समस्या है। ये सभी बातें मेरे साथ घटित हैं। तो अभी मुझे ऐसा लगा कि कितना भी कुछ कर लो कम पड़ने वाला है। तो मैंने यही सोचा था कि सब छोड़कर कुछ अच्छा काम करने जाऊँ। पर ये भी समझ में नहीं आ रहा था कि कौनसा अच्छा काम करें, गुरुद्वार में जाकर साफ़-सफ़ाई करें कि क्या करें। तो इसी बारे में जिज्ञासा थी।
आचार्य: कौनसा अच्छा काम करें, तो उसके लिए लिखो कि कौन-से बुरे काम हो रहे हैं। अपने आप में कोई काम अच्छा नहीं होता। जो भी आज अच्छा काम होगा वो किसी बुरे काम का विरोध, नकार ही होगा। इसीलिए तो ज़्यादातर लोग अच्छे काम करने से बचते हैं न, क्योंकि अच्छे काम का मतलब ही होता है — टकराव, उलझन। तुम्हें किसी कि विरुद्ध खड़ा होना पड़ेगा। कौन चाहता है कोई किसी के विरुद्ध खड़े हो? वो भी तब जब सामने वाली ताकत तुमसे कई गुनी हो।
कोई अच्छा काम नहीं हो सकता जिसमें तुमको किसी वहशी ताकत का विरोध न करना पड़े, नहीं सम्भव है। वो वहशी ताकत बाहरी भी हो सकती है, आन्तरिक भी हो सकती है। ज़्यादातर समय दोनों जगह होगी, बाहर भी होगी, भीतर भी होगी। तो इस तरह के अच्छे काम कि जाकर के गरीबों में केले बाँट दिये, ये दो कौड़ी के हैं। ये तुमने बहुत सस्ता विकल्प निकाला है। ये नपुंसक विकल्प है जिसमें तुम प्रतिरोध के जोखिम से बच निकले हो। तुम कह रहे हो ये अच्छा तरीका है इसमें हम ये भी कह देंगे कि कोई बढ़िया काम कर लिया और कोई जोखिम भी नहीं उठाना पड़ेगा। क्योंकि गरीबों को केला बाँट दिया इसमें ख़तरा क्या है? कुछ भी नहीं।
लिखो क्या-क्या गलत काम चल रहे हैं, और जो गलत काम चल रहे हैं उनके खिलाफ़ खड़े हो जाओ। यही अच्छा काम है। अगर सबकुछ ठीक ही है तो किसी अच्छे काम की कोई ज़रूरत ही नहीं है। अच्छे काम का सवाल ही तब उठता है न जब कहीं कुछ गलत हुआ पड़ा हो। क्या-क्या गलत हुआ पड़ा है, लिखो और उसे ठीक करो, यही धर्म है। भिड़ना तो पड़ेगा, कोने में बैठकर के ध्यान लगाने से नहीं हो जाना है।
सड़क पर तो उतरना पड़ता है, चाहे ऑनलाइन चाहे ऑफ़लाइन (हँसते हुए)। जो लोग, मुठभेड़ से टकराव से बचते हैं, अध्यात्म उनके लिए नहीं है। वो फिर अपना सामाजिक जन्तु हैं, वो समाज में हैप्पी-हैप्पी रहे। कि साहब तो बहुत अच्छे हैं, सबसे बनाकर रखते हैं। सबसे बनाकर रखते हैं मतलब ठीक है, बलात्कारियों से, हत्यारों से, सबसे बनाकर रखते हैं। और ज़्यादातर तो यही हैं, ये सबसे बनाकर रखने का मतलब क्या है। समाज में 99.99 प्रतिशत कौन हैं, हम भलीभाँति जानते हैं। तो तुम कह रहे कि मैं तो सबसे बनाकर रखता हूँ, मैं तो बड़ा सामाजिक, बड़ा सज्जन आदमी हूँ। तो फिर आपसे बड़ा दुर्जन कोई नहीं है। किनसे बनाकर रख रहे हो, जिनसे बनाकर रख रहे हो न उन्हीं के खिलाफ़ खड़ा होना पड़ेगा। यही अध्यात्म है। ‘बड़ा मुश्किल है। दुकानदार हैं तो ग्राहक के खिलाफ़ खड़ा होना पड़ेगा?’ जी।