अब शक्ति दीजिए || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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अब शक्ति दीजिए || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम।! आचार्य जी, प्रश्न नहीं है, मनोस्थिति है अभी की, कि अभी मैं आपके पास आने वाला था, शिविर में; एक महीने पहले बात हो गई थी, रोहित जी से कि आना है, तो मैं छुट्टी के लिए ऑफ़िस (कार्यालय) में बोला कि मुझे जाना है, आचार्य जी के पास, ऋषिकेश। उन्होंने छुट्टी के लिए मना कर दिया, दो दिन के लिए। तो फिर रोहित जी ने बोला—"एक दिन के लिए माँग लो, कोई बात नहीं।", मैंने एक दिन के लिए माँगा, वो भी मना कर दिया। मैंने कहा–, कोई बात नहीं। फिर दोनों दिन मना हो गया कि नहीं जाना है। मैंने कहा ठीक है कोई बात नही; मैं सोचा मैं बीमारी का बहाना बनाकर आ जाऊँगा।"।

मैं सीन्सियरली (अच्छी तरह से) काम करता हूँ ऑफ़िस में। मेरी फ़ैमिली है;। बीवी है, छोटा बच्चा है; यहाँ पर। मैं रेन्ट पर रहता हूँ दिल्ली में। और मैं एकेडमिक (शैक्षिक रूप से) बहुत स्ट्रोंग (मजबूत) नहीं हूँ। और मैं फ़िज़िकली (भौतिक रूप से) भी बहुत स्ट्रॉन्ग नहीं हूँ, और मेन्टली (मानसिक रूप से) भी नहीं हूँ। मैं आप से जुड़ा हूँ चार साल से। और मेरी स्थिति अभी यह है।

मेरे मम्मी–पापा वृद्ध हैं, अस्सी साल के हैं। उनकी भी चेतना उठी हुई नहीं है। और अब उनको मैं फ़िज़िकली भी बहुत मदद नहीं दे सकता हूँ, न इकॉनोमिकली (आर्थिक रूप से)। किसी तरीके से मैं किसी को मदद देने के लायक नहीं हूँ। मेरी स्थिति ये है।

अभी मैं मेरेरा बॉस का कॉल आया था कि तुम्हें आज आना है, ऑफ़िस (कार्यालय), तुम्हें आना है। तो मैंने उसको मैसेज (संदेश) डाला कि मैं जा रहा हूँ हॉस्पिटल (चिकित्सालय) और मैं जैसे ही मेरा ठीक रहेगा, डॉक्टर बोलेगा, तो आ जाऊँगा। बोला कि "नहीं, नहीं। तुम आओ। मेडिसिन (दवा) लो और तुम आओ ऑफ़िस , काम करो।" तो, मैंने उसको बोला। तो, मेरे एकदम शॉर्ट टेम्पर , मैं हो गया (सनक गया) और मैं उसको खूब गाली दिया। मैं चिल्लाया। मैं अपने कन्ट्रोल (नियंत्रण) से खत्म। मतलब, मेरी आवाज अभी भी बैठी हुई है, उसको गाली दिया मैं दो–तीन मिनट। मेरा बच्चा, मेरा बच्चा रो रहा था वहाँ देखकर कि ये कैसे हो गए। ये ऐसे तो होते नहीं थे। मेरी वाइफ़ (पत्नी) बोली—"तुम साइको (पागल) हो गए हो, ये आचार्य जी के चक्कर में, और तुम्हारा कन्डिशन ठीक नहीं है।"

और मैं ऋषिकेश आया हूँ, मैं यहाँ से जाना नहीं चाहता। मैं उस दिल्ली में जा रहा हूँ।; ‘डर है’, मुझे पता है, जो भी चीज़ है, डर है। और मैं देख रहा हूँ कि वहाँ मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ। पोल्यूशन (प्रदूषण) इतना ज़्यादा है। दीपावली में मैं देखा हूँ, लोग पटाखे फोड़ रहे हैं। कोरोना का टाइम (समय) अभी वह गुज़रा है, इतना खतरनाक टाइम , हम लोग कैसे गुज़रे हैं। घर–घर में लाशे बिछी। लोग साँस लेने में। आप भी गुज़र रहे थे। मैं भी गुज़र रहा था। मैं बारह दिन हॉस्पिटल में रहा।

मैं देखता हूँ, ऑफ़िस में जो कन्सर्न (दृष्टिकोण) रहता है; आपने कहा था कि तुम जहाँ हो, वहाँ से सही राह लो। तुम जहाँ हो, वहाँ से तुम कहाँ पर हो, यह नहीं मैटर करता (मायने रखता)। वहाँ से तुम राह क्या ले रहे हो?

तो, मैं आपसे मिला। आपकी अनुकम्पा मिली। मैं आपसे जुड़ा और मैं वहाँ सही राह मुझे जो दिखा; सुनता गया, जो समझ में आया; उस हिसाब से मैं जीता जा रहा हूँ।

अब मुझे दिक्कत क्या हो रही है! अब मैं देख रहा हूँ कि ऑफ़िस में लोग, जो जिस तरह से रह रहे हैं। मुझे अपनी भी वृत्ति दिख रही है कि मैं कहाँ–कहाँ लैक (कमतर) हूँ। बहुत सारी चीज़ें हैं, कमियाँ, बीमारी है, वो हैं। साथ- ही-के साथ आपका दिया हुआ जो है,— ‘अच्छाई’। वह भी मैं जी रहा हूँ ।

मैं घर में रहकर भी न! मैं उन लोगों के साथ नहीं हूँ, मैं आपके साथ हूँ।! मैं बहुत कुछ संस्था के लिए नहीं कर पा रहा हूँ। और मैं जो जा रहा हूँ, तो बस रोज़ी–रोटी के लिए मैं जा रहा हूँ। मैं खुद को बेचना नहीं चाहता हूँ। लेकिन एक गुलामी की वृत्ति है, लंबे टाइम से और वह गुलामी खत्म नहीं हो रही है।

और मैं चाह रहा हूँ कि जैसे अभी ऋषिकेश आया और आपके साथ हूँ। सही लग रहा था। और मैं ऐसा नहीं कि मेहनत नहीं करना चाहता। मेहनत करना चाह रहा हूँ। मुझे जितना शरीर में ताकत है, मन में है। मैं उससे एफ़र्ट्स (श्रम) लगाना चाह रहा हूँ, अच्छाई की तरफ़।

बस, मैं यही अपनी स्थिति आपके साथ साझा करना चाह रहा था। आपकी बहुत अनुकम्पा है कि मुझे मालिक मिले हैं। मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ। बस। प्रणाम।!

आचार्य प्रशांत: देखो,! इसी चीज़ को रोकना है। धर्म और अधर्म की लड़ाई हमेशा से चलती रही है न;! तुम कोई भी अपना ग्रंथ उठा लो रामायण, महाभारत, महाकाव्य हैं। अभी दुर्गासप्तशती थी, तो उसमें लगातार क्या है? उसमें लड़ाई है। लड़ाई। पॉवर प्ले (शक्ति का खेल) है। पॉवर गलत हाथों में है। इनके बॉस के पास पॉवर होना नहीं चाहिए था। और इनके बॉस के पास पॉवर इसलिए है, क्योंकि पूरी व्यवस्था का जो पॉवर का केंद्र है, वही गलत जगह पर है।

पूरी व्यअवस्था में पॉवर का केंद्र भारत की संसद नहीं है, भारत के लोग हैं। हमने अपने दिलों में, घरों में, ज़िन्दगी ज़िंदगी में गलत चीज़ को पॉवर दे रखा है। उसका नतीजा यह है कि दफ़्तर में भी गलत लोगों के पास पॉवर है, विद्यालयों में भी गलत लोगों के पास पॉवर है, धर्म में भी गलत लोगों के पास पॉवर है। यह पॉवर प्ले है सीधा–सीधा।

ये बिकना नहीं चाहते। मुझे डर है कि कभी- न- कभी इन्हें बिकने पर मज़जबूर होना पड़ेगा। कोई बड़ी बात नहीं कि इनका बॉस भी कभी इनके जैसा रहा हो। धर्म को ताकत देनी बहुत ज़रूरी है। मेरी बात भर सुनने से नहीं होगा न। मेरे हाथ मज़बूत करो। मुझे व्यक्ति की तरह मत देखो। मैं कुछ लेकर नहीं जाने वाला।

मैं इसलिए बोलता हूँ, वक्त कम है। जितनी देर में हमने यह सत्र किया, उतनी देर में न जाने कितने लोग बिकने को मज़जबूर हो गए होंगे। इतनी देर में न जाने कितने लड़के–लड़कियों ने कैम्पस (विश्वविद्यालय क्षेत्र) में गलत जॉब (कार्य) चुन ली होगी। कितने लोगों ने कितने इधर–उधर के चुनावों में गलत बटन दबा दिया होगा। कितने लोगों ने गलत जगह पर पैसा लगा दिया होगा। कितने लोगों ने गलत जीवनसाथी चुन लिया होगा। कितने लोगों ने यूट्यूब पर गलत जगह सब्स्क्राइब बटन दबा दिया होगा।

बल चाहिए। और बल नहीं होगा, तो इतने लोग बिलखते रहेंगे। इतने हाथ ही नहीं हैं मेरे पास कि सबके आँसू पोंछ सकूँ। बल आपसे ही आना है। आपने बल गलत लोगों को दे रखा है। जब आप एक गलत माल खरीदते हैं बाज़ार से, तो आप उस गलत माल को बेचने वाले को बल दे आये न? कितना पैसा दे आये मिन्क कोट के लिए? एक गलत मूवी देखते हैं, उस मूवी को बनाने वाले को बल दे आये न? एक गलत चैनल को देखते हैं, उसकी टीआरपी बढ़ गई, उस गलत चैनल के गलत कन्टेन्ट (सामग्री) को बल दे आये न?

मैं आपसे बल माँग रहा हूँ। इस भरोसे के साथ कि जितना अकेले कर सकता हूँ, उतना कर रहा हूँ। ऐसा नहीं है कि अपना काम आप पर डाल रहा हूँ। हम अपनी शक्ति की सीमा पर खेल रहे हैं बिलकुल। और अभी थोड़े युवा हैं लोग। इसीलिए इनके शरीर बर्दाश्त कर ले रहे हैं। नहीं तो, शारीरिक तौर पर कोलैब्स (ध्वस्त) हो गया होता। हम इतना बॉर्डर लाइन खेल रहे हैं।

मेरा भी बचपन का माँ–बाप का दिया हुआ शरीर है। उन्होंने अच्छी परवरिश करी थी, अच्छा खिलाया–पिलाया था, इसलिए चल रहा हूँ। नहीं तो, मैं जैसी ज़िन्दगी जी रहा हूँ, मैं कभी का लुढ़क गया होता। जैसे कोई छः इन्जन (ऊर्जा स्रोत) वाला यान हो और एक इन्जन पर चल रहा हो। बाकी के पाँच इन्जन मुझे आपसे चाहिए। क्योंकि इनकी बात नहीं है। यह इस व्यवस्था की बात है। सब कम्पनियाँ ऐसी हैं। सब बॉस ऐसे हैं। क्योंकि उनके बॉस ऐसे हैं। क्योंकि अंततः जो शिखर पर बैठे हैं, वो ऐसे हैं। जब तक हम शिखर पर नहीं पहुंचेंगे, ऐसे ही रोते रहेंगे लोग।

इनके बॉस को क्या दोष दें। बताइए न? इनके बॉस कभी इनके जैसे रहे होंगे। आज भी अगर वो इनके पीछे पड़े, तो इसलिए, क्योंकि उनके ऊपर कोई है, जो उनसे कह रहा है—काम कराओ। टार्गेट पूरे कराओ।

ले–दे कर के यह सारा अधर्म, सारा पाप सत्ता के केंद्रों से निकल रहा है।

जो एक चीज़ थी, जो मैंने कभी नहीं चाही थी; वह थी पॉवर। वो चाहिए होती, तो मैं सिविल सर्विसेज़ (प्रशासनिक सेवाओं) में चला गया होता। वहाँ लोग पॉवर के लिए ही जाते हैं। और जब मैं टीनेजर (किशोर) ही था, तभी से आयनरैन्ड की एक बात मुझे बिलकुल जच गई थी—"द मोस्ट डिप्रेव्ड मैन इज़ द वन हू गोज़ आफ़्टर पॉवर। " सबसे गिरा हुआ आदमी वह होता है, जो पॉवर चाहता है।

तो यह एक चीज़ थी, जो मुझे बिलकुल नहीं चाहिए थी। लेकिन वक्त ने और हालातों ने भी ऐसी जगह खड़ा कर दिया है, जहाँ वही चाहिए। और वह अगर नहीं मिलेगा, तो मैं इस हालात को रोक नहीं पाऊँगा। अभी भी आप इतने लोग यहाँ आ पाए हो, इसीलिए नहीं सिर्फ़ कि मैंने कोई बहुत ऊँची बात करनी शुरू कर दी है; इसलिए, क्योंकि आज मेरे पास तुलनात्मक रूप से ज़्यादा बल है।

बातें तो ये मैं पिछले कितने सालों से कर रहा हूँ। ऐसे भी शिविर हुए हैं, जिसमें लोगों का आँकड़ा दहाई तक नहीं पहुँचा। आठ–आठ, दस–दस वाले भी हुए हैं। आज आप इतने लोग क्यों आ गये? और इतने ही लोग नहीं आ गये, यह हॉल छोटा पड़ा है, बहुत लोगों को हाथ जोड़ कर के मना करना पड़ा है कि नहीं है जगह, नहीं है, अगलीले बार आना।

यह ऐसा नहीं है कि मैं अचानक अमृत बरसाने लग गया हूँ। शायद पहले मैं और ज़्यादा साफ़ बात बोलता था। पॉवर की बात है। मानते हो कि नहीं? आज आपके लिए यहाँ आना भी ज़्यादा आसान है। आप अपने घरवालों को बता पाते हो, क्योंकि आचार्य प्रशांत इज़ अ बिट फ़ेमस (आचार्य प्रशांत थोड़ा बहुत प्रसिद्ध है)।

वो सब चाहिए है। और वो माँगने में कितना बड़ा खतरा है, यह मैं बखूबी जानता हूँ। मुझे मालूम है कि अहंकार की ये कितनी घटिया चाल हो सकती है। मुझे मालूम है, उस रास्ते पर कितनी कीचड़ है। उसी कीचड़ से बचना था, इसीलिए आधी उम्र बिता दी और पॉवर कभी चाहा नहीं। पर अब चाहिए। शक्ति के बिना कुछ नहीं होगा। मैं शिव के ही साथ रह गया। शक्ति आपसे चाहिए।

इतना ही कह सकता हूँ– भरोसा कीजिए। मैं भरोसा तोड़ूँ, तो पाप मेरे सिर। आप तो अपनी ओर से अच्छा ही काम कर रहे होंगे। मुझे वह ताकत चाहिए कि जब आप अपने बॉस से बोलें कि आपको आचार्य प्रशांत के शिविर में जाना है, तो बॉस बोले—मैं भी चलूँगा।

यह तो हुई सात्विक ताकत और राजसिक ताकत क्या है? कि आप अपने बॉस से बोलें– मुझे अचार्य प्रशांत के शिविर में जाना है। और बोले नहीं जाना है, तो आप बॉस के बॉस से शिकायत कर दें और बॉस का बॉस आचार्य प्रशांत का फ़ॉलोवर हो। यह हुई राजसिक ताकत। मुझे दोनों चाहिए। अगर आपको यहाँ आते रहना है, तो। नहीं तो, कुछ-न-कुछ आपको रोक लेगा। जिसके पास भी ताकत होगी, वह आप पर ताकत आज़मा लेगा।

इतना कुछ है, जो समाज में तुरंत रोका जाना ज़रूरी है। बिना बल के कैसे रोक लेंगे? हर आदमी समझदार नहीं होता न! बोल–बोल कर मैं सबको नहीं समझा सकता। कुछ लोगों को समझाने के लिए ताकत चाहिए। और जो मेरे शब्दों से समझ जाएँ, ऐसे लोग बहुत कम हैं। बहुत बड़ी तादाद उनकी है, जिनको समझाने के लिए मेरे बाज़ुओं में ताकत होनी चाहिए। शब्दों से काम नहीं चलेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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