प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। तो अभी मैं ऐसा देख पा रही हूँ आपको सुनने के बाद कि जो भीतर जो नॉइस था वो थोड़ा ऐसा लग रहा है कम हो रहा है। पर उसको मतलब इंटेंसिटी भी देख पा रही हूँ। पर वो सही डायरेक्शन में पता नहीं चल रहा। किस दिशा में जाऊँ? जैसे पहले जो काम कर रही थी सब ऐसे लगता है की व्यर्थ है। ये भी व्यर्थ है। पहले जो जिस काम में डूबी रहती थी उसमे एकदम मन नहीं लगता है और एकदम फ्रस्ट्रेट और हो जाती हूँ। और फिर जब कुछ काम और सही काम समझ नहीं आता। ऊर्जा तो बहुत देख पाती हूँ अपने भीतर कि कुछ करना है। ये कुछ करना है कुछ करना है। पर वो चीज मुझे समझ नहीं आ रही है इस समय। और आपको और सुन रही हूँ। समझ रही हूँ। पर यहीं पर मैं जाकर अटक रही हूँ।
आचार्य प्रशांत: सुनना समझना सब बहुत जल्दी अनुपयोगी हो जाता है। ये आपसे जो बातें हो रही हैं वो इस तरह की हो रही हैं। जैसे ट्रेजर हंट एक खेल होता है। जानते हैं उसमें ये होता है कि कहीं पर दूर एक खजाना पड़ा है और उस खजाने तक पहुँचने के जो निशान हैं, हिंट्स हैं, वह भी दूर-दूर बिखरे हुए हैं और एक जगह नहीं हैं। तो आप जैसे ही पहला हिंट पाते हो, तो आपको उस पर काम करना होता है और वो आपको बताएगा कि अगला कँहा मिलेगा और भाषा जो है उसकी थोड़ी क्रिप्टिक होती है। क्रिप्टिक माने कोडेड, तो आपको कुछ मिला और उसमें लिखा हुआ है कि है कहीं एक ऊँचा पर्वत उसकी चोटी पर बैठा है कोई और ऐसे से करके उसका मतलब ये है कि सामने वाली जो बिल्डिंग है उसकी टॉप फ्लोर पर जाना है और वहां पर एक पत्थर के नीचे एक कागज पड़ा हुआ है। उस कागज में लिखा हुआ है कि आगे कँहा जाना है। अब आपको ये पहला हिंट मिला। आप उसी को लेकर के बैठ जाएँ और कहें मुझे बहुत ऊर्जा आ रही है। वँहा जँहा मिला है वहीं पे नाचना कूदना शुरू कर दें, तोड़फोड़ शुरू कर दें, उछल कूद। तो कुछ होगा क्या?
आगे की बात समझ में ही तब आएगी जब आगे जाओगे। गीता पर जैसे-जैसे आप जीते जायेंगे वैसे-वैसे गीता आपके लिए खुलती जाएगी। देखिए आप समझते नहीं हो। ये अर्थ हैं श्लोकों के। ठीक है? ऐसे ले लेते हैं। इधर जो है क्या है? श्लोकों के अर्थ हैं। वो कोई एक श्लोक हो सकता है। उसके भी अर्थों के अलग-अलग तल हो सकते हैं। या मान लीजिए अलग-अलग श्लोक हैं। या मान लीजिए कि ये सत्रों की श्रंखला है। एक के बाद एक सत्र। है। कैसे भी मान लीजिए। ठीक है? ये एक ही श्लोक के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। ये अलग-अलग श्लोक हो सकते हैं या ये अलग-अलग सत्र हो सकते हैं जिसमें अलग-अलग श्लोक लिए जा रहे हैं। आप यहाँ पर हो। तो आपको यहाँ होने के कारण बस इसी तल का अर्थ समझ में आएगा। अब मान लीजिए सत्र श्रंखला आगे बढ़ गई। अगला सत्र आ गया। उसका अगला आ गया। उसका अगला भी आ गया। तो सत्र तो यहाँ पहुँच गए। लेकिन आपने ये फैसला ही नहीं किया कि अपनी जिंदगी बदलनी है। आप कँहा पर हो? अभी आप यहाँ पर हो। तो यहाँ होने के कारण सत्र भले ही ये बात कर रहा हो पर आपको ये समझ में आएगा। आपको वही बात समझ में आएगी और उतनी ही समझ में आएगी जिस तल पर आप बैठे हो। ऊँची बात समझने के लिए उस बात के तल पर साथ-साथ ऊँचा उठना पड़ता है। बात उठ रही है। अच्छा मैं भी उठेंगी। बात उठी, मैं उठी । और कई बार बात उठनी भी जरूरी नहीं होती है। मैं कह रहा हूँ एक ही श्लोक के भी अलग-अलग अर्थ होते हैं अलग-अलग तल पर।
तो जो जिंदगी नहीं बदल रहा। मैं जो बोल रहा हूँ उसको लगेगा कि मैंने ये बोला। आज के ही श्लोक को ले लीजिए। तो एक आदमी है। इतने लोग सुन रहे हैं। हजारों लोग सुन रहे हैं। उसमें से किसी को लग रहा है मैंने ये बोला। पर जिसने जिंदगी बदल करके दाम चुकाया है और यहाँ पहुँच गया है उसको ये लगेगा कि मैंने ये बोला तो एक ही बात है मेरी पर दो लोगों के लिए बिल्कुल अलग-अलग बात है। वो इस पर निर्भर करता है कि किसने मेरी बात को सुनकर के अपने आप को उठाया है। आप जो सुन रहे हो उसके अनुसार अगर स्वयं को बदलोगे नहीं तो 10 साल में भी कोई लाभ नहीं होगा और बल्कि ऊब और आ जाएगी।
आपने कहा फ्रस्ट्रेशन क्योंकि आपको लगेगा कि मैं एक ही बात बोल रहा हूँ। अब हो क्या रहा है कि यह सत्रों की श्रंखला है। पहला सत्र, दूसरा, तीसरा, चौथा। अब मैं तो अलग-अलग बात बोल रहा हूँ। ठीक है ना? गीता सीरीज आगे बढ़ती जा रही है। आप कँहा बैठी हो? आप यहाँ बैठे हो और आपकी ज़िद है कि यहाँ से ऊपर मुझको उठना नहीं है। तो मैं भले ही ऐसे-ऐसे-ऐसे- ऐसे ऊपर-ऊपर की बात करता जा रहा हूँ। पर आपको क्या लगेगा कि मैं बस यही बात दोहरा रहा हूँ। यही बात दोहरा रहा हूँ तो आपको ऊब हो जाएगी। नहीं वही बात तो बार-बार बोलते हैं। मैं वही बात नहीं बोल रहा। आप बस वही बात सुन रहे हो क्योंकि यहाँ पर जो खेल होता है वो सब्जेक्टिव होता है। बहुत सब्जेक्टिव होता है।
यहाँ बात ऐसी नहीं है कि इसका आकार इसके आकार से बड़ा है। तो पहले आचार्य जी ने ये दिया और फिर आचार्य जी ने ये दिया तो देखो इस बार मुझे बड़ी चीज दे दी। ये चूँकि बस मटेरियल है तो इसीलिए आप जैसे हो आपके रहते हुए भी आपको ऐसा लगेगा कि ये छोटा था फिर मुझे ये बड़ा मिल गया। मैं तो बड़ी नहीं हुई पर मुझे कुछ बड़ा मिल गया। मैं तो बड़ी नहीं हुई पर पिछले सत्र में आचार्य जी ने ये दिया था। इस सत्र में ये दिया देखो ज्यादा बड़ा कुछ दे दिया। मैं तो बड़ी नहीं हुई। पर फिर भी मुझे कुछ पहले से ज्यादा बड़ा मिल गया।
नहीं जब खेल भीतरी होता है तो आप जितना बड़े होते जाते हो सत्र से आपको उतना ज्यादा मिलता जाता है। ये लगभग वैसी बात है कि बारिश हो रही है। आपको कितना मिला वो इस पे निर्भर करेगा कि आप छोटी सी कटोरी हो कि, गिलास हो कि, लोटा हो कि, पूरा टब हो या बहुत बड़ी टंकी हो। बारिश वही है। पर छोटी सी कटोरी को कितना मिला? ओ! एक चम्मच को कितना मिला? हम तो ना कटोरी हैं ना चम्मच हैं। हम तो छेद वाली छन्नी हैं। उसको कितना मिला? और छेद वाली छन्नी भी ठीक है। चलो वो इतना ही बोलती है कुछ नहीं मिला।
हम में से बहुत लोग तो छोटी-छोटी गंदी कटोरियां है जिनमें पुराना कीचड़ बैठा हुआ है जमा हुआ है तो उनमें जब पानी भी पड़ता है तो क्या होता है? वो पानी भी गंदा हो जाता है। और जो गंदा पानी है वो मेरे माथे चढ़ा देते हैं। कहते हैं ये आपने दिया है। भाई ऊपर से जो बरसा था वो कुछ और था। तुम्हारी कटोरी में पड़ के कुछ और हो गया है। तुम्हारी कटोरी में गंदगी जमा थी पहले की। इन बातों को सुनकर के इनको जीना पड़ेगा। और आप अपने आप को सब समझते हो। बहुत चतुर, चालाक, स्मार्ट। आप कहते हो नहीं मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। और साथ ही साथ मैंने गीता सीख ली। मैंने गीता सीख ली। मैं भी हो गई लेडी आचार्य। मैंने गीता सीख ली। ऐसे नहीं होता। हर सत्र के साथ आपको अपने आप को बदलना होता है। नोइंग अगर बीइंग नहीं बनती तो नोइंग भी नहीं रह जाती।
जाना हुआ जीना पड़ता है। नहीं तो फिर कुछ जाना भी नहीं।
फिर बस ऊब पैदा होगी कि वही वही बात बार-बार बोल रहे हैं। अब मैं आपको हर सत्र में बताऊं कोई चीज मान लीजिए कुछ मैं आपको बता रहा हूँ एक प्रकार के मैं रेसिपी बताता हूँ हर बार। मैं बता रहा हूँ ये ना ये ऐसी होती है। थोड़ी चटपटी होती है, ये फीकी होती है, सादी होती है, नमकीन होती है, मीठी होती है, ये ऐसी ऐसे आप कितना सुनोगे? दो चार बार सुन के कहोगे हर बार वही दो चार बातें करते हैं। नमक, शक्कर, मीठा, फीका, कड़वा, तीखा। आप उसको पी तो रहे नहीं ना। मैं जो दे रहा हूँ आप उसको जेब में डाल रहे हो या स्मृति में डाल रहे हो। उसको जीवन में नहीं डालते। जीवन आपको अपने सिद्धांतों के अनुसार चलाना है। आपको मैं एक उदाहरण देता हूँ। ठीक है? उदाहरण कह लीजिए। उदाहरण नहीं है। ये एक तरह का परीक्षण है। यह एक लिटमस टेस्ट है। ठीक है?
हर सत्र में डेढ़ दशक से मैं सिर्फ एक चीज़ की बात कर रहा हूँ ना। एक चीज़ वही एक चीज़ है जो असली है, महत्वपूर्ण है। बस उसी का मूल्य है। क्या? आत्मा बोलते हैं, सत्य बोलते हैं। उसके अलावा तो कुछ नहीं। उसके अलावा किसी चीज का भी मूल्य नहीं है। उसके अलावा किसी को भी हम नहीं कह सकते ऊंचा है, अद्भुत है, कीमती है, महान है। तो ऐसे कर लीजिए कि आपकी जिंदगी में आपको जो भी कोई मूल्यवान या महान लगता है उसका संबंध बोध से है क्या? और अगर नहीं है तो वो अभी भी कैसे मूल्यवान और महान है? कैसे? आप लोग इतने सालों से सुन रहे हो। एकमात्र कौन सी चीज जिसका मूल्य होता है? बोध का, सत्य तो कोई चीज है नहीं जिसे जाना जा सकता हो। पर बोध हमारे हाथ में होता है। वो एक प्रक्रिया है। बोध का महत्व होता है। बोध का ही मूल्य होता है। वही महान है। आप बताओ ना आप अपने जीवन में किन-किन चीजों को मूल्य दिए बैठे हो? किन-किन चीजों को, किन-किन लोगों को।
अगर आप सत्रों को सचमुच जी रहे होते तो सबसे पहले तो नकार उठा होता ना नकार ये खेल ही सारा नकारने का है। छोड़ने का है। आपने क्या छोड़ा है? और जब नहीं छोड़ा है पुराना, तो गीता का नयापन आपके पास आए कैसे? बोलो और आप समझ ही नहीं पाते हो। आपको लगता है गीता तो बस एक क्षेत्र है। जैसे कई बार ये इंटरव्यूअर आते हैं अनाड़ी पूछने, तो आप इस फील्ड में कैसे आए? उनको लगता है कि जैसे इंजीनियरिंग, कॉमर्स, आर्ट्स ये फील्ड्स होते हैं। वैसे ही अध्यात्म भी कोई फील्ड होता है। तो उनको लगता है मतलब फील्ड जैसे या आप क्या? हम रियलस्टेट में हैं। आप किस में हैं? नहीं जी हमारा जी गारमेंट्स का है। आपका जी, हमारा स्पिरिचुअलिटी का है। तो इनको लगता है यह उस तरह कोई फील्ड वगैरह है। वैसे ही आपको लगता है फील्ड का अर्थ होता है एक ऐसा क्षेत्र जो दूसरे से कटा हुआ है। असंप्रृक्त है कि हमारी एक दूसरी दुनिया है वो तो वैसे ही चलेगी जैसी चल रही है। और साथ ही साथ एक गीता की दुनिया है जो बिल्कुल अलग चल लेगी, अनरिलेटेड।
भई गीता जिंदगी में आएगी तो आपके जितने भी जहान हैं आपके जितने कारोबार हैं उन सब में उथल-पुथल मचनी चाहिए। आप वो सब कैसे वैसे ही रखे चल रहे हो जैसा चल रहा था। आप जिनको अपना आदर्श 5 साल पहले मानते थे आप उनमें से बहुतों को आज भी आदर्श मान रहे हो। कैसे मान रहे हो? उनका संबंध है बोध से कुछ, तो आदर्श कैसे हो गए? आप उन्हें महान कैसे बोल देते हो? लोग इधर-उधर से लाकर के कुछ पोस्टर्स डाल देते हैं। समस्या ये नहीं होती कम्युनिटी पर। समस्या ये नहीं है कि पोस्टर डाल दिया। समस्या है ये कि तुम जो डाल रहे हो तुम्हें पता भी नहीं तुमने क्या डाल दिया है। तुम्हें दिख भी नहीं रहा है कि तुम अपने अतीत के ही सारे संस्कार अभी भी महान और पूज्य मानकर एक कम्युनिटी पर भी डाल रहे हो। अपनी तरफ से तुमने अच्छा काम करा है। तुम सोच रहे हो मैंने अच्छी चीज ही तो डाली है। तुम देख भी नहीं पा रहे हो कि तुम जो चीज डाल रहे हो उसका बोध से तो कोई आता ही नहीं है। तो अच्छी कैसे हो गई? अच्छी की तो परिभाषा ही यही है। ना सिर्फ एक क्या? सत्यम शिवम सुंदरम। इसके अलावा अच्छाई की कोई परिभाषा है? तुम जो डाल रहे हो उसका सत्य से क्या ताल्लुक है? तो वो अच्छा कैसे हो गया? पर तुमको हमेशा से वो अच्छा लगा है तो यहाँ आज भी डाल देते हो। तो गीता ने तुमको बदला क्या फिर।
गीता आपके पुराने जगत का विस्तार थोड़ी है कि मैंने पुराना सब चल रहा था उसमें एक और चीज जोड़ दी, कि गाड़ी पहले ही चल तो रही थी उसमें एक एक्सेसरी लगवा दी है बस गीता। गीता कोई एक्सेसरी थोड़ी होती है। गीता जिसकी जिंदगी में आई है उसकी जिंदगी पहले जैसी ही चल रही है। तो गीता आई ही नहीं है। जेब में रख ली होगी आपने। क्या बदला है? फिर बोध माने क्या होता है? बोध माने एक शार्पनेस होता है। कितनी बार बोला आप लोगों से सत्य को तो नहीं जाना जा सकता। अध्यात्म का मतलब होता है माया को जानना। ठीक? माया को जानना माने जो बाहर सब जोड़तोड़ है, धोखेबाजी है, दंदफंद है। इसको जानना। उस दंदफंद के शिकार तो आप आज भी हो बिल्कुल खुलेआम। आपको कुछ समझ में ही नहीं आता दुनिया में चल क्या रहा है। जो दुनिया में चल रहा होता है, जीना तो दुनिया में है ना, या अध्यात्म माने अपने ही भीतर घुस जाना चूहे जैसे बिल में घुस जाता हो जिओगे तो इसी दुनिया में और दुनिया में जो चल रहा है उस पे आप जो कमेंट्री करते हो लाजवाब हो जाता हूँ मैं अच्छा ये ये हो रहा है आपके अनुसार आपको समझ में ही नहीं आता ये क्या हो रहा है।
गीता जीवन में आई होती तो कुछ शार्पनेस आई होती ना पैनापन दृष्टि में झूठ को भेद जाने वाली नजर। आप तो झूठ को अभी भी देखते हो और आप उसकी चपेट में आ जाते हो तो कौन सी गीता आपकी जिंदगी में आई है, भोंदू बन के आज भी घूम रहे हो पहले की तरह ये आपका जो अच्छा होना है अच्छी लड़की है अच्छा आदमी है गोलू-गोलू-गोलू-गोलू ये आपकी अच्छाई के दम पर ही दुनिया में सारा इविल कायम है। एक से एक इविल कॉरपोरेशंस में आपके जैसे अच्छे लोग ही काम करते हैं। आपके दम पे ही वो चल रहे हैं। जाकर के कभी किसी भी पॉल्यूटिंग इंडस्ट्री में या क्रुलिटी बेस्ड काम करने वाली कंपनी के सामने शाम को खड़े हो जाना। जब उनके एम्प्लाइज सब बाहर निकलते हैं। हैं और उनकी शक्लें देखना। वो सब ऐसे गोलू-गोलू अच्छे-अच्छे लोग हैं। यू नो आई एम अ डिसेंट फैमिली मैन विद वेरी स्ट्रांग मोरल वैल्यूस एंड अ नाइस अपब्रिंगिंग। माय पेरेंट्स टॉट मी ऑल द गुड थिंग्स। बिल्कुल ऐसे ही। वो किसी की फीलिंग्स नहीं हर्ट करते। वो अपना टैक्स पे कर देते हैं थोड़ा बहुत चोरी के साथ। ज्यादा चोरी भी नहीं कर पाते। डर लगता है। वो अच्छे लोग हैं। आप भी अच्छे लोग हो। आपको समझ में ही नहीं आ रहा है कुछ।
ये दुनिया आपको बेवकूफ बनाए जा रही है और आप अच्छा आदमी बन के बेवकूफ बने जा रहे हो। आपको कुछ नहीं समझ में आता। कोई आपको एक तस्वीर दिखा दे आप बहक जाते हो। कोई आपको एक वाक्य पढ़ा दे आप उतेजित हो जाते हो। कोई आपको एक फिल्म दिखा दे आप बिल्कुल ताथैया करने लग जाते हो। आपको कुछ नहीं समझ में आता इसके पीछे कौन है। आप विचार ही नहीं करना चाहते। कौन सा दृग दृश्य विवेक है। अगर आप नहीं देख पा रहे हो कि वो जो दृश्य आपको दिखाया गया है, उस दृश्य के पीछे कौन है? वो दृश्य ऐसे नहीं दिखाया गया है। दिखाने वाले बहुत चालाक लोग हैं।
आध्यात्मिक होने का मतलब होता है चालाकों से ज्यादा चालाक होना। लेकिन अपनी चालाकी को हल्के में लेना। अपनी चालाकी का कोई दुरुपयोग नहीं करना। लेकिन चालाक इसलिए होना ताकि दूसरे की चालाकी के फेर में ना आ जाओ। इसे समझदारी कहते हैं। मैं तुम्हारी चालाकी पूरी तरह समझ सकता हूँ। पूरी तरह से। जितनी भी तुम चालाकियां कर रहे हो, मैं सब देख लेता हूँ। जितना तुम अपने आप को समझते हो, मैं उससे ज्यादा तुम्हारी चालाकी समझता हूँ। लेकिन फिर भी मैं जरूरत नहीं समझता खुद चालाक होने की। इसको कहते हैं समझदारी।
और जिसको किसी की चालाकी समझ में ही ना आए वो कहलाता है गधहवा। उसको कुछ नहीं समझ में आ रहा। वो खड़ा हुआ है। उसको नचा लो जैसे भी नचाना हो। वो सड़क के बीच में खड़ा हो जाता है। मैंने बहुत प्रयोग करे इन पे। मैंने एक बार यहाँ तक करा था। उस किसी ने बेचारे ने उसके जो पीछे वाले पाँव थे उसको रस्सी से बाँध दिया था। तो सड़क पे खड़ा हुआ है। मैं हॉर्न मार रहा हूँ। वो हटे नहीं। मुझको लगा ये इसलिए नहीं हट रहा है कि पीछे इसके बांध दिया है। तो गाड़ी से चाकू निकाल करके मैं गया और दुलत्ती खाने का खतरा उठाते हुए मैंने उसकी रस्सी काटी। सचमुच करा। मैंने कहा इसलिए नहीं हट रहा था इस सड़क से। बिल्कुल बीचों बीच खड़ा हो गया था। और ऐसे देख रहा था मुझे एकदम। एनलाइटन्ड हो के कोई भाव ही नहीं चेहरे पे निष्प्रह, निष्काम चेहरा निष्प्रयोजन।
मैंने कहा ऐ महात्मा यहाँ तुम फँस गए हो कोई शारीरिक क्षति कर देगा सचमुच जाकर के उसका मैंने कहा अभी आजाद है अब हटेगा ये करके मैं जाके गाड़ी में बैठ गया वो काहे को हटे मुझे दर्शा रहा था कि उसके बंधन बाहरी हैं ही नहीं। वो वही खड़ा है अभी भी। मैं घुमा के ले गया। मैंने कहा दोबारा किसी के नहीं काटूँगा। मुझे क्या पता था कि मनुष्य रूप में भी वो मेरा पीछा करेगा। कितना भी काट दो बंधन। इनको समझ में ही नहीं आता कुछ। कुछ नहीं समझ में आता तो गीता काहे के लिए है? मैं पूछ रहा हूँ। कृष्णमूर्ति के सामने श्लोक बांचोगे? इससे तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा? या गीता इसलिए होती है कि जिंदगी में आजाद खुलकर जी पाओ और जीवन तुम्हें बेवकूफ ना बना पाए। बोलो किस लिए होती है गीता? जिंदगी जब रोज-रोज तुम्हें बेवकूफ बना ही रही है। व्यवहारिक जगत में तुमसे कोई काम ठीक से किया नहीं जाता। हर जगह ठोकर खाते हो, चोट खाते हो, हार पाते हो, तो काहे की गीता? गीता तो जिनको मिली थी उन्होंने अपने से लगभग दुगनी बड़ी सेना को धराशाई कर दिया।
अर्जुनों के लिए होती है गीता कि भिड़ गए लड़ गए जीत भी गए। जितना चाहा नहीं था लक्ष्य नहीं था जीत। पर गीता मिली है तो जीत पीछे-पीछे आ जाती है स्वयं ही।
आपकी जीत तो मुझे कहीं नहीं दिखाई दे रही। आप तो बस यही अरे! मैं आज फिर बैठ गया। अरे मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता। कुछ दिनों में मुझे गीता समझ में आनी ना बंद हो जाए। मेरी माया आप हो। आप मेरी श्रद्धा हिलाई दे रहे हो। क्योंकि मैंने तो ये जाना था कि जिस तक गीता पहुँचती है वो बिल्कुल अनस्टोपेबल हो जाता है। और ऐसा कुछ दिखाई तो दे नहीं रहा। कृष्ण ने क्या बोला अर्जुन को जंगल चला जा पीतांबर धारण कर ले, दिगंबर हो जा, फल फूल कंद मूल पे जिया कर, ये है संदेश? तो तुमको दुनिया में जीतना क्यों नहीं आ रहा? जिसको देखो वही अपने पिटने की कथा सुना रहा है। आप लोगों की इतनी पिटाई देख के यह ना हो कि मुझे लगने लग जाए कि मैं आपको नाहक खतरे में धकेल रहा हूँ। बच्चों को थोड़े ही युद्ध भूमि में धकेला जाता। वो नैतिक अपराध हो जाएगा ना। छोटे-छोटे बच्चों को धकेल दिया। वो तैयार ही नहीं थे लड़ने के लिए। वो पिटपिटा गए, मरमुरा गए। आप अपनी यही दशा दिखाते रहोगे कि हम तो छोटे से बच्चे हैं। हम किसी छोटे से संघर्ष के काबिल भी नहीं है। मैं फिर आपसे काहे के लिए कुछ बोलूंगा? आप फ्रस्ट्रेट हो रहे हो इधर मैं भी हो रहा हूँ।
योगा: कर्मसु कौशलम्। कौन सी कुशलता है किसी काम में? जो ही काम उठाना है। उसमें ही बिल्कुल चित होकर के गिर जाना है। है..नहीं होगा। आचार्य जी गोदी में ले लो। आज वापस से नहीं हुआ जैसे छोटे बच्चे नहीं होते हैं। वो अपना रिपोर्ट कार्ड लेके आते हैं – मम्मी ये देखो। तो मम्मी कहती है कोई बात नहीं बेटा आजा उठा ले बैठ जा। मुझे ये तक भरोसा नहीं है कि मैं आपको डांटूंगा। तो उस डांट से ही आप बिखर नहीं जाओगे। आपको तो मैं खुल के डांट भी नहीं पाता। यह तो मैं अभी सहला रहा हूं। आपको तो डांटते हुए भी डर लगता है कि बिल्कुल ही भरभरा के बिल्कुल ढेर ना हो जाए। फैसले होते हैं। मैं आपकी कमजोरी को नहीं इंगित कर रहा। मैं आपके फैसलों से परेशान हूँ।
ताकत कोई गुण नहीं होता। एक चुनाव होता है। चुनिए उसको।
और ताकत कोई जोश की बात नहीं होती है कि भरभरा के जोश दिखा दिया। हमने क्या बोला था? क्या एकमात्र चीज मूल्यवान है? बोध। बोध ही ताकत है। समझिए, समझिए, बहिए मत। समझिए, रुकिए, पूछिए, समझने की कोशिश करिए। फिर देखिए उससे कितना बल आता है। यह क्या कर रही हैं? आपने रोना शुरू किया है अभी। तो नाक क्यों बह रही है? जुखाम मुझे है। नाक आप सुड़क रही हैं। ये सब करके आप यही संदेश दे रहे हो कि हमें डांटा भी मत करो। तो ठीक है।
प्रश्नकर्ता: नहीं सर।
आचार्य प्रशांत: चलिए छोड़िए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी जैसे। जब मैं आई थी ना गीता फीड में तो मेरा ऐसा था कि आपको भी सुनना है और अपनी जिंदगी भी लेके चलनी है। जब में तीन चार महीने जुड़ी तो मुझे समझ में आ गया कि जो आप जो बोल रहे हो और जो मेरी जिंदगी चल रही है वो एक साथ तो नहीं चल सकती है। और, ये बहुत जल्दी समझ में आ गया। फिर मैं और आपको सुनने लगी और और सुनने लगी। अभी ऐसी कंडीशन आ गई जैसे फ्रस्टेटिंग मैं आपको सुनने से नहीं होती। फ्रस्टेटिंग खुद से होती हूं कि मैं अभी आपको सुनके जो जा रही हूं उसको मैं सही डायरेक्शन दूँ। सही चीज करूँ फिर जब मैं देखती हूँ ना कि ये चीज कर रही हूँ तो उसमें वो चीज नहीं मिल रही है जो मुझे जो ऊर्जा जब मैं और कुछ जैसे काम करती हूँ तो पढ़ती हूँ या कुछ लिखती हूँ तो उसमें मुझे बहुत ऊर्जा आती है। फिर वही जब उसको डायरेक्शन दे देती हूँ।
आचार्य प्रशांत: बेटा जिंदगी में जो सही काम होता है ना उसके साथ कोई पहले से निशान थोड़ी लगा होगा कि ये सही काम है। वो भी दिखने में साधारण ही लगेगा। लगभग वैसे जैसे आपके परीक्षा में विकल्प आते हैं। जब विकल्प सामने आते हैं तो उसमें किसी में कोई निशान छोटा सा लगा होता है। यह वाला सही है। ऐसा लगा होता है क्या? सब एक बराबर लगते हैं। वो तो बाद में पता चलता है ना कि किसने सही करा था, किसने गलत। वैसे ही जिंदगी में भी जो सही रास्ते होते हैं वो भी उतने ही साधारण लगते हैं जितने कि गलत रास्ते। आप सही रास्ते पर चलोगे तो ऐसा थोड़ी होगा कि वहां इधर-उधर से अनारदाना फूटेगा और लोग तालियां बजाएंगे और ढोल नगाड़ा होगा। बधाई हो बधाई। हो अभी-अभी आपने एक सही विकल्प चुना है। सही विकल्प भी उतना ही साधारण लगता है जितना कि गलत विकल्प। तो ठीक उसी समय पर कोई आपको बधाई देने या प्रमाण देने नहीं आएगा कि तुमने बिल्कुल ठीक काम किया।
सही विकल्प चुनने और उसका परिणाम या प्रमाण पाने में एक फेज लैग होता है। उसको संयम या धैर्य बोलते हैं। सही विकल्प चलो, गलत विकल्प चलो। दोनों ही विकल्पों में तत्काल कोई परिणाम नहीं मिलना है। बाहरी परिणाम कोई नहीं मिलना है। परिणाम जब तक आए और आपको भरोसा दे पाए कि हां सही काम किया था। उसमें महीना भी लग सकता है, साल भी लग सकता है, 10 साल भी लग सकते हैं। उतने समय तक चुपचाप सही काम बस करना होता है। और दुनिया में ऐसा कोई नहीं होता जिसको बिल्कुल ना पता हो अपनी जिंदगी में कि अगर मेरे पास यह पांच विकल्प हैं किसी भी क्षेत्र में तो इन पांचों में थोड़ा ऊपर कौन सा है? थोड़ा नीचे कौन सा है? एब्सोलटली राइट तो किसी को भी नहीं पता होता ना पता हो सकता है। हमेशा आपको जो रिलेटिवली राइट है वो चुनना होता है। पांच विकल्प हैं उसमें से आपको इतना तो पता होता ना थोड़ा सा ये ऊपर है, थोड़ा सा नीचे है, थोड़ा जो रिलेटिवली राइट है, जो थोड़ा सा बेहतर है उसको चुनो। और जब चुनोगे तो मैं कह रहा हूं कोई ढोल नगाड़े नहीं बजेंगे कि आपने महान काम कर दिया। पर यही जो रिलेटिवली राइट चीज है इसको आप जब लगातार चुनते जाते हो तो उसमें एक तरह का कंपाउंडिंग इफेक्ट होता है। उसमें एक चक्र वृद्धि आप पाते हो कि बढ़ोतरी हो रही है।
लगभग वैसे जैसे आप जिम जाओ। पहले दिन दो लोग थे। एक जैसे दिखते थे। एक जिम गया, एक जिम नहीं गया। कोई अंतर दिखाई देगा उनमें। दूसरे दिन एक गया दूसरा नहीं गया कोई अंतर दिखाई देगा तीसरे दिन यह और हो सकता है जो नहीं जा रहा था वो अपना मजे में घूम रहा है जो जा रहा है वो कह रहा है यहाँ दर्द हो रहा है वहां दर्द हो रहा है तो ऐसा भी लगे तो अंतर दिखाई देना छ: महीने बाद शुरू होगा और ऐसा तो नहीं है कि आपकी जिंदगी में आप कहो कि पर मैं जानती ही नहीं कि मैं क्या काम चुनूं। अरे भाई फिर बोल रहा हूं सर्वोच्च सर्वश्रेष्ठ ऐसा कोई काम किसी को उपलब्ध नहीं होता। लेकिन सबके सामने थोड़े-थोड़े थोड़े-थोड़े विकल्प होते हैं। उन विकल्पों में ही तुलनात्मक रूप से जो बेहतर हो उसको चुना जाता है। और जब बार-बार आप एक तुलनात्मक रूप से बेहतर विकल्प चुनते हो तो कुछ समय बाद आप पाते हो कि आप बहुत आगे निकल आए हो।
एक रास्ते पे जा रहे हो उस पर श्रेय है दो यूनिट और एक रास्ते पर जा रहे हो उस पर श्रेय है तीन यूनिट बहुत बड़ा अंतर तो नहीं है हम जिस तरह रहते हैं हम कहते हैं क्या फर्क पड़ता है 19-20 दो तीन 19-20 दो तीन कोई इतना तो अंतर है नहीं हम उसी दो को आप जब बार-बार चुनोगे तो वह कंपाउंड करेगा पहली बार चुनोगे तो कहोगे दो और तीन का ही अंतर था दूसरी बार चुनोगे तो चार और नौ हो जाएगा तीसरी बार चुनोगे तो 8,27,16,81 पांच गुने का अंतर हो गया चार ही बार में। तभी मुझे अजीब लगता है जो लोग पूछते हैं व्हाट वास द टर्निंग पॉइंट व्हेन यू डिसाइडेड टू एंटर दिस फील्ड? ये बड़ा अपमानजनक प्रश्न है।
वो ये कहना चाह रहे हैं कि बस एक क्षण था जब कीमत अदा करी होगी कि बस एक क्षण था जब कोई फैसला लिया होगा। भाई मैंने वह फैसला एक लाख बार लिया है। रोज लेता हूं। जिंदगी माने विकल्प। चेतना माने चुनाव। मेरे सामने रोज़ ये विकल्प उपलब्ध होता है कि मैं कह दूँ आज मुझे सत्र नहीं लेना। आज मुझे फलाना काम नहीं करना। आज ये नहीं करना, वो नहीं करना। जो काम मेरे नहीं है, मैं दिन भर वो करता हूँ। जो काम मुझे छूने ही नहीं चाहिए। जो काम मेरी गरिमा से मेरे मेरे मेरे स्थान से नीचे के हैं। मैं वो सारे काम कर रहा हूँ पूरे दिन तो मैं सत्र क्यों लूँ? मेरे भीतर भी कोई बच्चा बैठा है जो कहता है दिन भर ये कराया है ना नहीं जा। रोज चुनना पड़ता है और कोई पूछे व्हाट वास द पर्टिकुलर टर्निंग पॉइंट? तो मैं क्या पर्टिकुलर टर्निंग पॉइंट बताऊं? एवरीडे इज द टर्निंग पॉइंट। हर दिन चुनना पड़ता है।
आप को भी हर दिन ही चुनना पड़ेगा। पर्टिकुलर टर्निंग पॉइंट में ऐसा लगता है कि उस दिन उन्होंने तय करा कि आज वो अपना महल त्याग देंगे। फिर देवता वहां पर प्रकट हो गए। उन्होंने पुष्प वर्षा करी। कितना स्पेक्टकुलर लगता है नाटकीय ड्रामेटिक बिल्कुल। तो हम सुनना चाहते हैं। फिर जब मैं ये बता दूँ तो उसका एनिमेशन और लगा देंगे वीडियो में। कितना वो? उसमें और बता दूँ मैं कि मैंने जितने भी कॉर्पोरेट कपड़े थे वो त्याग दिए थे। और मैं भभूत मल के निकला था अहमदाबाद से। कितना अच्छा लगेगा एकदम बिल्कुल सेंसेशन 10 मीडिया वाले यहीं खड़े हो जाएंगे माइक लेकर के बस एक बार भूत बन के दिखाइए पर वैसा कुछ है ही नहीं। आज भी दिन के पांच फैसले लेने होते हैं और पांचों को सही लेना होता है। आज से 25 साल पहले भी यही था। अंतहीन यात्रा है। आपको भी करनी है। उस यात्रा में आपको कदम-कदम पर कोई आकर के प्रशस्ति पत्र नहीं देगा। वेल डन! राइट चॉइस! आपका जो जो गीता एग्जाम होता है उसमें तो फिर भी है आपको कि एक घंटे बाद आपको पता चल जाता है क्या सही था, क्या गलत था। जीवन में तो ऐसा कोई रिजल्ट भी नहीं डिक्लेअर होता। आप बस सही चुनाव करते चलिए श्रद्धा के साथ और पूछिए नहीं कि परिणाम क्या मिलेगा? आगे चलके धीरे-धीरे बिना मांगे परिणाम अपने आप प्रकट होने लगते हैं।
ये छोटे-छोटे ही निर्णयों से सब कुछ है। मैं क्यों नहीं समझा पा रहा हूँ आपको? एक छोटा सा निर्णय है। आपको बोला गया है आज आपको सत्र में बैठना है। आप टट्टी आ रही है। मैं नहीं जाऊँगा। कहोगे तो छोटा ही सा तो निर्णय है। इतना ही तो करा कि एक सत्र छोड़ दिया। ऐसे ही होता है। कोई बड़े भारी चौराहे आपको नहीं मिलेंगे जीवन में। यही छोटी-छोटी बातें होती है। सही जो फैसला कर रहा है उसकी जिंदगी बदल जाएगी। जो गलत फैसला कर रहा है वो बर्बाद हो जाएगा। पिक्चर की स्क्रिप्ट थोड़ी ही है। वँहा पे हीरो होता है। वँहा हीरो इसलिए बनता है कि उसके सामने मौका था। किसी ने 10 करोड़ उसको दिए कि तू 10 करोड़ ले ले और थोड़ी बेईमानी कर दे।
और उसने कहा नहीं मैं एक बहुत बड़ा फैसला कर रहा हूं कि मैं 10 करोड़ नहीं लूंगा और बेईमानी नहीं करूंगा। आपके सामने ऐसा नहीं होगा क्योंकि जिंदगी फिल्मी नहीं होती। आपके सामने पता है क्या होगा? कहीं पे आप ₹10 का घपला कर सकते होंगे और आप कहेंगे मुझे घपला नहीं करना। फिल्म में दिखा देंगे कि एक बार 10 करोड़ ठुकराना होता है। जिंदगी में ऐसा नहीं होता। जिंदगी में एक करोड़ बार 10 बार ₹10 ठुकराने होते हैं। जिंदगी में एक करोड़ बार निरंतर फैसले करने होते हैं और ₹10 ₹10 का घपला करने से बचना होता है। और इसलिए घपला हो जाता है क्योंकि एक करोड़ का घपला करें तो भीतर आपके कुछ ग्लानी उठेगी। ₹10 घपला करने में आप कहते हैं छोटा सा तो घपला किया है। छोटा सा तो घपला किया है। आप ये नहीं देखते कि वो छोटा घपला आपने एक करोड़ बार कर दिया। आपने 10 करोड़ घपला कर दिया।
ये जो सूक्ष्मता है ना माया की यही खा जाती है। बड़ी बेईमानी करने से तो ज्यादातर लोग बचेंगे। यह जो रोज-रोज की निरंतर छोटी बेईमानियां हैं ये खा रही हैं आपको। आधा घंटा उठने में देरी, काम में गए हैं वँहा छोटी-छोटी-छोटी-छोटी लगातार चोरियाँ कोई रिपोर्ट भेजनी है, वो 45 मिनट देरी से भेज दी। खत्म। कोई फलानी चीज मना है नहीं खानी चाहिए थोड़ा सा खाया है लाओ। कोई काम है जो रोज़ करना है रोज़ करने की जगह हफ्ते में तीन दिन ही करा और का करते तो हैं अल्टरनेट डेज पे कर लेते हैं ये जो छोटी बेईमानियां है आपको ये खा रही हैं। झीनी माया यही है। बड़ा बेईमान कँहा देखा? कोई देखा है? बड़ा भारी बेईमान। बड़ा भारी बेईमान तो फिर वो भी बिरला होता है।
हम छोटे बेईमान है जो लगातार बेईमानी करते हैं। छोटी-छोटी और वो सब मिलकर एग्रीगेट होकर, कंपाउंड होकर बहुत बड़ी बेईमानी बन जाती हैं। हिमालय पर्वत देखे हैं ना आपको क्या लगता है वो कैसे ऐसे खड़ा हो गया? अचानक एक दिन सोया पड़ा था ऐसे खड़ा हो गया। कैसे ऐसा कैसे हो गया? वो समतल जमीन थी। उसको उठने में करोड़ करोड़ों साल लगे हैं। वो हर साल इतना-इतना उठा है। इतना उठते-उठते वो इतना ऊँचा हो गया जितना वो है अभी और वो अभी भी इतना उठ रहा है हर साल। कुछ इंच अभी भी हिमालय ऊपर उठ जाते हैं। और ये उठने की प्रक्रिया करोड़ों सालों तक चली है। तब जाके वो इतने ऊँचे हुए हैं। नहीं तो वँहा पर भी सपाट मैदान था।
अगर हिमालय कोई व्यक्ति होता जिसके ऊपर जिम्मेदारी होती कि तुम बस चपटे ही पड़े रहना। ऊपर उठना गलत है। तो कहता ऊपर कितना उठा? साल भर में 4 इंच ही तो ऊपर उठा। पर साल भर में 4 इंच की बेईमानी करने का नतीजा ये देखो बेईमानी का क्या तुमने महापर्वत खड़ा कर दिया। ये और बड़ी समस्या है। मेरा शुभचिंतक बनने की। मेरा शुभचिंतक मेरे हिसाब से बनोगे या अपने हिसाब से अगर मेरे शुभचिंतक हो तो सब भली-भांति जानते हो कि क्या उचित है मैं क्या चाहता हूँ। जानते हो ना तो वो काम करो ना हाँ मुझे ज्यादा बोलना पड़ेगा मेरे इस बिंदु पर आकर शुभचिंतक मत बनो मुझे अब ज्यादा बोलना पड़ेगा क्योंकि तुमने मुझे ऐसी जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है कि अगर मैं ना बोलूँ तो मिशन नहीं आगे बढ़ेगा पहले तो तुम ऐसे हालात पैदा करो कि मुझे अपना गला फाड़ के भी बोलना पड़े और फिर जब मैं बोलूँ तो कहो अरे नहीं आचार्य जी आप आराम करिए तो मैं करूँगा क्या आराम? ये मेरे प्रति शुभेच्छा है या पाखंड है
आप भलीभाँति जानते हो कि कौन सी चीजें हैं जिनके कारण मुझे उतनी मेहनत करनी पड़ रही है जितनी इतिहास में इसमें तो किसी को ना करनी पड़ी हो। आप वो सारे कारण जानते हो और अभी भी जानते हो कि उन कारणों का संबंध आपसे ही है। आप उन कारणों को तो पकड़ के बैठे हो उनको नहीं हटाओगे पर मुझे लिख के भेजोगे कोई लिख के आचार्य जी आज सत्र मत लीजिए ना आचार्य जी तो सत्र नहीं लेंगे उसके बाद एनरोलमेंट तुम करा लाना तब तो तुम्हारा देखता हूँ कि कितने लोगों को एनरोल कराया तो आचार्य जी आप इतना क्यों परेशान होते हैं लोग रजिस्टर नहीं कर रहे तो इनको छोड़ दीजिए ना मैं तो उनको छोड़ दूँगा वो तो छूटे ही हुए थे तो फिर मिशन किस लिए है मिशन नहीं भी होता तो वो छूटे ही हुए थे, बर्बाद हो ही रहे थे।
मैं उनको अभी भी छोड़ दूँ तो ये मिशन किस लिए है? अगर तुम सचमुच मेरे शुभचिंतक होते तो मुझसे ये नहीं बोलते कि तुम मेहनत नहीं करो। तुम कहते आप तो करेंगे ही हमें पता है, अब आप नहीं रुकेंगे। हाँ आपकी मेहनत कम हो सके इसीलिए आप जितनी मेहनत करते हो आपके बराबर हम भी करेंगे। तुम ये नहीं कहते कि आप मेहनत कर रहे हो साथ में हम भी करेंगे। तुम कहते हो ना हम करेंगे ना आप करिए, तुम शुभचिंतक हो मेरे?