आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जाना जा सकता है।
~ विवेक चूड़ामणि, आदि शंकराचार्य
प्रश्नकर्ता: मेरा प्रश्न तो कम है, मेरी जिज्ञासा है। अभी सुबह जब मैं गया था तपोवन घाट पर, तो विवेक चूड़ामणि पढ़ रहा था उस समय। उसमे ये दिया हुआ है स्पष्ट तरीक़े से कि 'आत्मा को केवल आत्मा के द्वारा ही जाना जा सकता है।' तो इसका आशय क्या है? किसलिए है ये?
और उसमें ये भी स्पष्ट लिखा है कि वेदों के अध्ययन के द्वारा भी हम आत्मा को नहीं जान सकते। और स्वयं के द्वारा भी नहीं जान सकते। हम शरीर के द्वारा भी नहीं जान सकते, इन्द्रियों के द्वारा भी नहीं जान सकते। उसमें स्पष्ट ये लिखा है कि 'आत्मा के द्वारा ही आत्मा को जाना जा सकता है।' तो इसका आशय क्या है?
आचार्य प्रशांत: इसका आशय यह है कि आत्मा की बात करना छोड़ दो। क्योंकि तुम तो आत्मा हो नहीं। आत्मा को छोड़ दो, माया को जानो। आत्मा को तो आत्मा ही जान पाएगी। जो जिस तल का होता है, उसी तल पर जो कुछ है उसको जान सकता है।
एक इमारत की पाँचवीं मंज़िल पर हो तुम, सातवीं मंज़िल पर क्या चल रहा है, जान सकते हो क्या? लेकिन मैं तुमसे पूछूँ कि 'तुम्हारे तल पर क्या चल रहा है?' ये तुम मुझे बता दोगे। तुम कहोगे, 'फलाने कमरे में प्रिंटर रखा हुआ है, वहाँ प्रिंटआउट निकल रहे हैं। एक कमरे में कोई किसी से फ़ोन पर बात कर रहा है। कहीं कोई मीटिंग हो रही है।' ये तुम मुझे बता दोगे; है न? मैं पूछूँ, 'बताओ सातवें तल पर क्या हो रहा है', बता पाओगे?
आत्मा का कौन-सा तल है?
प्र: आख़िरी तल।
आचार्य: पता नहीं कौन-सा वाला। जो वहाँ हो, वो उसका बताए। और साथ-ही-साथ धीरे से ये भी बोल दिया जाता है कि वहाँ कोई नहीं होता। क्योंकि आत्मा असंग है, वो किसी की संगति करती नहीं, तो वहाँ कोई नहीं होता। वहाँ कोई नहीं होता। तो उसकी बात करना छोड़ दो। किसकी बात करनी है? जो कुछ हमारे तल पर है, उसकी तो बात कर लें। क्योंकि वही है जो हमें रोक रहा है?
आपको ऊपर उठने से क्या रोक रहा है? वो सबकुछ जो आप जानते नहीं? वो सब लोग जिनसे आपका परिचय नहीं? वो सब मान्यताएँ जो आपके पास हैं नहीं? क्या है जो आपको इस ऊर्ध्वगमन से रोकता है? क्या रोकता है?
प्र: हमारी इन्द्रियाँ, हमारा शरीर।
आचार्य: जो कुछ भी आपके माहौल का है, आपकी ज़िंदगी का है, आपके घर का है, वही है जो आपको ऊपर उठने से रोकता है।
कबीर साहब कहते हैं गिनाते हुए कि कौन-कौन सी ताक़तें हैं जो आपको सही काम से रोकती हैं।
"साधु दरस को जब चलें, ये अटकावे आनि।"
कौन-कौन सी ताक़तें हैं?
"मात पिता सुत बांधवा, आलस बंधु कानि।।"
ये हैं जो आपको ऊपर उठने से रोकते हैं। माँ-बाप, सुत—माने बेटा, आलस, दोस्त-यार और कानि—कानि माने आना-कानी, माने हिचक की बात। "साधु दरस को जब चलें, ये अटकावे आनि।" जब भी आप कोई सही काम करने चलेंगे तो यही हैं जो आपको रोक लेंगे।
हम उस मुद्दे पर नहीं जाना चाहते अभी। बात कुछ और कर रहे हैं।
बात ये है कि आपको आपके ही तल का माहौल रोकता है। तो मैं उस बारे में कल्पना करूँ जो आख़िरी तल की चीज़ है? जो आख़िरी तल पर है, जिसका मुझे वैसे ही पता नहीं? जिसका मुझे पता हो ही नहीं सकता, क्योंकि एकदम मूलभूत सिद्धान्त की बात है, मैं सिर्फ़ वही जान सकता हूँ जो मेरे तल का है। तो मैं उसकी बात करूँ जो अनंत मुक्ति है या उसकी बात करूँ जो मेरे तल का बंधन है और जो मुझे मुक्ति से बाँधता है, रोकता है? जल्दी बोलो।
मैं अपने तल के बंधनों से ग्रस्त हूँ, मेरे सारे बंधन मेरे ही तल के हैं। मैं अपने तल के बंधनों में बंधा हुआ, किसी दूर की मुक्ति की कल्पना करूँ या इन बंधनों की खोजबीन करूँ कि 'ये बंधन क्या चीज़ हैं? मुझे कैसे पकड़े हुए हैं?' जल्दी बोलो।
तो आत्मा की बात नहीं करनी है, माया की बात करो। और माया कहाँ है? कहीं दूर की नहीं है माया। माया तुम्हारे निकट की है। तुम्हारी ज़िंदगी माया है। वो सब कुछ जो तुम्हें अभी पकड़े हुए है, वो माया है। उसकी बात करनी है।
अध्यात्म किसी गुह्य आत्मतत्व का विश्लेषण करने के लिए नहीं है। हम कहते हैं उसे ब्रह्मविद्या, मगर बार-बार समझाने वालों ने कहा है कि जानना माया को है। ब्रह्म तो अज्ञेय है, उसे कौन जान सकता है! जानना माया को है। तुम चूँकि माया को नहीं जानते, इसीलिए अपने ब्रह्म स्वभाव से इतनी दूर हो।
और ब्रह्म की बात कर-करके ब्रह्म नहीं मिलने का—"नायं आत्मा प्रवचनेन लभ्यो"—न सुन-सुन के मिलने का। वो तो माया को काट के ही मिलेगा। जो माया को समझ गया, वो माया से बच गया। माया ठीक अभी है, यहीं है। और उसको जाना भी ठीक अभी जा सकता है। सैद्धान्तिक तौर पर नहीं कि 'अच्छा! तो फलानी चीज़ को माया कहते हैं'; ऐसे नहीं।
अभी पकड़ना होता है। देखो अभी-अभी लालच उठा, पकड़ लिया न। देखो अभी-अभी कोई आया, आँखों में आँसू भर के, प्रेम के डोरे डाल के चला गया, बोलकर चला गया, 'नहीं-नहीं-नहीं-नहीं, (गुरु के पास) नहीं जाना है।'
यहाँ चल रहे हैं कि "साधु दरस को जब चलें", और तभी वह आए, 'तने न जाने दूँगी सैंयाँ।' अरे चले जाओ, जाकर दिखाओ! बात कर रहे हैं, 'आत्मा-आत्मा-आत्मा।'
यहाँ पर कुछ सीटें ख़ाली पड़ी हैं, कैसे पड़ी हैं ख़ाली? कैसे पड़ी हैं? क्योंकि यहाँ ठीक उतनी कुर्सियाँ हैं जितने लोगों ने रजिस्टर किया है। और रजिस्ट्रेशन यूँ ही नहीं होता, हम बहुत जाँच-पड़ताल करते हैं। तीन-चार चरण की प्रक्रिया होती है। सबसे पहले तो हम यह पूछते हैं कि आपने संस्था के लिए आज तक किया क्या है, कितने सालों से जुड़े हैं। और जिन्होंने जितनी मेहनत करी होती है उनको उतनी आसानी से और उतने सम्मान के साथ आमंत्रित करते हैं, सबसे आगे बैठाते हैं। जैसे — दस साल से हैं, संस्था में सहयोग कर रहे हैं, वॉलिंटियरिंग कर रहे हैं, बहुत कुछ है।
जो नये लोग जुड़ना चाहते हैं, उनसे पूछते हैं, बताओ आज तक जाना क्या? पढ़ा क्या? तो बड़ी मेहनत से किसी ने यह कुर्सी अर्जित करी होगी। और अब यह ख़ाली पड़ी है। ख़ाली कैसे हो गई, कैसे ख़ाली हो गई? "साधु दरस को जब चले… मात-पिता सुत बांधवा, आलस बंधु कानी"—पकड़ लिए गए पीछे से, धर लिए गए एकदम।
बोल रहे हैं, "देखो जाने दो, टिकट के पैसे भी लगे हैं, संस्था को योगदान भी दे दिया है, उसमें भी पैसे लगे हैं, होटल भी बुक करा लिया, उसमें भी पैसे लगे हैं। जाने दो, हमारा मन भी बहुत है जाने को।" "काहे को जाने दो? तने ना जाने दूँगी सैंयाँ।"
और तुम आत्मा-आत्मा कर रहे हो?
बड़े आध्यात्मिक आदमी हैं, वहाँ बैठकर आत्मा-आत्मा कर रहे हैं। घर की माया नहीं दिख रही है, तो आत्मा-आत्मा करके क्या होगा? क्या होगा? माया, माया कहो।
मैं कहता हूँ, दुनिया में प्रेम लायक तो 'आत्मा' से भी ज़्यादा 'माया' है। सही में, मेरा उसी से है, क्योंकि भिड़ंत वहीं पर होती है न। भिड़ंत तभी होती है जब कोई नज़दीक का होता है। नज़दीक की तो वही है। रोज़ भिड़ती है। हमेशा गले पड़ी रहती है। एकदम कटीली है। बड़े पैने तेवर हैं उसके, उसी से जूझने में मज़ा भी है। आत्मा क्या है? आत्मा तो एक अंत है।
यात्रा तो माया के साथ है। उससे निपट के दिखाओ, तो मज़ा आता है। और लड़ाई-झगड़ा ऐसे नहीं जीत पाओगे उससे, उससे तो प्यार वाली तकरार करनी होती है।