आत्मा अनेक नहीं है, और एक भी नहीं

Acharya Prashant

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आत्मा अनेक नहीं है, और एक भी नहीं
आत्मा न अलग-अलग है, न एक-जैसी है। नहीं कहा जा रहा है कि वो अलग-अलग है, नहीं कहा जा रहा है कि वो एक-जैसी है; नहीं कहा जा रहा है वो एक भी है। क्योंकि अगर वो एक है तो आत्मा नहीं हो सकती; वो होगा कोई मानसिक विचार, होगी कोई धारणा। इतना ही समझ लीजिए कि हम सबका अलग-अलग प्रतीत होना भ्रम है; पर वहाँ तक मत जाइए कि हम सब एक हैं। न ही अलग हैं, और एक भी नहीं हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: 'सबका आत्मा एक ही होने के कारण वह सभी प्राणियों में स्थित है। यद्यपि आत्मा एक है किंतु जल में चंद्रमा के प्रतिबिंबों की भांति नानावत भासता है।' इसमें सबका आत्मा एक ही है या एक-जैसा है?

आचार्य प्रशांत: तीन-चार तलों पर भ्रम हो सकता है।

पहला भ्रम तो ये है कि आत्मा, मतलब एसेंस (मूलतत्व) अलग-अलग है सबका; आमतौर पर हम इसी भ्रम में जीते हैं। आपने अपनी जितनी व्यक्तिगत पहचान बनाई है, आपके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा ये स्वीकारना कि आपकी और जिसको आप दूसरे का नाम देते हो उनकी सत्ता मूलभूत रूप से एक है, क्योंकि अगर मूल-रूप से एकत्व है तो फिर अलग पहचान का सवाल नहीं उठता। अलग पहचान अगर नहीं है तो अहंकार नहीं हो सकता, तो एक आम मन जो अहंकार में जीता है वो तो यही मानेगा कि हम पूरी तरह से दुनिया से और दूसरों से अलग ही हैं। तो उससे आप कहेंगे, 'सब अलग हैं?' 'हाँ, सब अलग हैं।' शब्दों में भले वो ये मान ले कि आत्मिक रूप से एक हैं, पर गहरी धारणा उसकी यही है कि आत्मिक रूप से भी मैं अलग ही हूँ। तो ये तो निम्नतम तल का भ्रम हो गया, कि 'सब-कुछ अलग है, आत्मा भी अलग है।'

जब रंगभेद की नीति चलती थी, उन दिनों में आप अगर किसी गोरे से कहते कि तेरी और काले की आत्मा एक है, तो कहता, 'नहीं है।' विश्वयुद्ध के दिनों में बहुत दिनों तक ये भ्रम बना रहा, और ये भ्रम फैलाया गया कि खून भी अलग-अलग होता है; ये बात भाषा में आज तक है, आप कहते हो, 'खानदानी खून है।' तो ये बात जब सामने आई थी कि खून तो बिल्कुल एक ही होता है और उसके जो भेद होते हैं वो भी बस गिने-चुने ही हैं तो ये बात बहुत लोगों को पसंद नहीं आई थी, कि 'गोरे और काले का, हिन्दू का, मुसलमान का खून एक-जैसे कैसे हो सकता है? आदमी और औरत का खून एक कैसे हो सकता है? अलग-अलग होना ही चाहिए।' जब बाद में ये पता लगा कि आदमी का और चिम्पांजी का डी.एन.ए. भी करीब-करीब निन्यानबे-प्रतिशत एक जैसा है, तो भी आदमी के मन को बड़ी असुविधा हुई, कि हम और चिम्पांजी निन्यानबे-प्रतिशत एक जैसे हैं! आत्मा के अलग होने का सवाल छोड़िए, शरीर भी निन्यानबे-प्रतिशत एक-जैसा है।

बहुत दिक्कत होगी आपको ये मानने में कि आप जिससे नफ़रत करते हैं, आपका और उसका मूल एक ही है, आत्मा एक ही है; बहुत दिक्कत होगी। मान लिया तो नफ़रत का आधार खत्म हो जाएगा, दिख गया तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी, अहंकार को गलना पड़ेगा; अहंकार तो अलग-अलग होने पर ही पलता है। तो हमारे लिए ये निम्नतम तल का भ्रम पकड़े रहना बहुत ज़रूरी है कि 'हम अलग हैं, निश्चित रूप से अलग हैं;' उसी से हमारे अहं को पोषण मिलेगा, उसी धारणा से।

आदमी थोड़ा उससे ऊपर उठता है, थोड़ी उसकी बुद्धि शुद्ध होती है, थोड़ी उसमें वैज्ञानिक चेतना आती है तो वो एक दूसरी बात कहना शुरू कर देता है, कि 'आत्मा अलग-अलग नहीं है, एक-जैसी है सबमें।' वो एक तल ऊपर आ गया, ये एक प्रकार की मानसिक प्रगति है। वो थोड़ा बेहतर सोचने लग गया है, पहले तो ये कहता था कि आत्मा भी अलग-अलग है; अलग-अलग ही नहीं, ये तक कहता था कि कुछ में है और कुछ में नहीं है। आज भी आपके लिए ये स्वीकार करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा कि पत्थर में आत्मा होती है। चीन में बहुत समय तक ये माना गया कि औरतों में आत्मा होती ही नहीं है।

तो वो निम्नतम तल था, कि आत्मा भी अलग-अलग है। उससे ऊपर का तल क्या हुआ, कि 'अलग-अलग तो नहीं है, पर एक-जैसी है; अलग-अलग तो नहीं है, पर एक भी नहीं है।' ठीक है! सुविधा हो गई! एक-जैसी है, पर पूर्ण-एकत्व नहीं है, 'भई, एक-जैसी ही है, कुछ सूक्ष्म अंतर है।' तो अब आप एक प्रकार के समाजवादी हो गए, आपने मान लिया कि सब बराबर हैं, पर आपने थोड़ा-सा फ़र्क कर देने का रास्ता छोड़ दिया। आपने इतना ही तो कहा न, 'एक-जैसे हैं,' थोड़ा फ़र्क तो अभी भी हो सकता है; अहंकार जाकर उस थोड़े-से फ़र्क में छुप गया। आपने कहा, 'जानते हो थोड़े-से फ़र्क से क्या हो जाता है? चिम्पांजी और आदमी के डी.एन.ए. में एक प्रतिशत का ही तो फ़र्क होता है, और उस एक प्रतिशत के फ़र्क से आदमी आदमी है और वो बन्दर है।' तो आपने अब अपने लिए बड़ी सुविधा जुटा ली।

आपने ये भी मान लिया कि मैं बड़ा लिबरल (उदारवादी), बड़े खुले विचारों का हूँ और मैं मान रहा हूँ कि मूल-रूप से हम सब एक-जैसे हैं, पर आपने अपने अहंकार को छुपाने के लिए एक जगह भी तैयार कर ली, कि 'एक प्रतिशत अंतर है,' और दिल-ही-दिल में आपने कहा, ‘उस एक प्रतिशत अंतर से क्या हो जाता है वो तो हम जानते हैं न। उस एक प्रतिशत अंतर से कोई बन्दर हो जाता है, कोई इन्सान हो जाता है!' तो ये जो प्रगति थी वो मानसिक प्रगति थी, ये बस एक प्रकार की चालाकी-भर थी।

आदमी थोड़ा और आगे बढ़ा, उसने धर्म में प्रवेश किया, विज्ञान से आगे आकर; पर ये धर्म बस शास्त्रों-भर का धर्म है, कुछ बातें पढ़ ली गईं हैं। तो उसने कहना शुरू किया कि 'आत्मा एक-जैसी भी नहीं, एक है। हम सब एक हैं, हमारा स्त्रोत एक है।' यही है हमारा सामान्य प्रचलित धर्म, जो बार-बार आपको बताता है, 'ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम,' जैसे कि कोई एक सत्य है, हम सब एक हैं। ठीक है न? और इस बात को यूँ प्रचारित किया जाता है जैसे ये बड़ी जानी-समझी बात हो, जैसे इसमें वैधता हो ही, और अपने निजी प्रज्ञान से निकली हो, 'ईश्वर एक है, सत्य एक है, प्रेम एक है।' इतना ही नहीं, अध-पढ़े लिखे लोगों ने इसी बात को अद्वैत का नाम भी दे दिया, कि 'दो नहीं, एक है, हम सब की आत्मा एक है।' तो निम्नतम तल से ऊपर, और फिर थोड़ा और ऊपर। और ज़्यादातर लोगों ने सोचा कि 'यही तो आखिरी बात है कि सब एक हैं, और यहीं अटक जाओ, आखिरी बात ये ही है।' नहीं! ये आखिरी बात नहीं है। यहाँ पर वही अटकेगा जिसकी चेतना उधार की है, जिसने बस अष्टावक्र को पढ़ लिया है, जो अष्टावक्र हुआ नहीं है; यहाँ अटकने का कोई कारण नहीं है।

आत्मा न अलग-अलग है, न एक-जैसी है। नहीं कहा जा रहा है कि वो अलग-अलग है, नहीं कहा जा रहा है कि वो एक-जैसी है; नहीं कहा जा रहा है वो एक भी है। क्योंकि अगर वो एक है तो आत्मा नहीं हो सकती; वो होगा कोई मानसिक विचार, होगी कोई धारणा। बुद्धों ने इसीलिए थोड़ा शोधन किया, और कहा, 'एक मत बोलना, शून्य बोल देना।' पर शून्य कहना भी कोई मज़ेदार बात नहीं है, वो एक के आस-पास की ही बात है, उसमें कोई तरक्की नहीं हो रही है। इतना ही समझ लीजिए कि हम सबका अलग-अलग प्रतीत होना भ्रम है; पर वहाँ तक मत जाइए कि हम सब एक हैं। न ही अलग हैं, और एक भी नहीं हैं। मन कोई निष्कर्ष चाहता है, मन एक उत्तर चाहता है, मन किसी गड्ढे में जाकर बैठ जाना चाहता है, छुप जाना चाहता है। जैसे ही आप उससे एक सहारा छीनेंगे, आप उससे कहेंगे, 'नहीं! अलग-अलग नहीं हैं,' तो वो तुरंत विपरीत-ध्रुव पर बैठ जाएगा, छुपेगा, वो कहेगा, 'अलग-अलग नहीं हैं तो एक होंगे।'। नहीं! एक भी नहीं है। ईश्वर दो नहीं है; एक भी नहीं है।

परम सत्य दो तो हो भी नहीं सकते, वो तो है ही बात बेवकूफ़ी की; एक भी नहीं हो सकता। जिन्होंने भी उसे एक कहा है, उन्होंने सिर्फ़ युद्धों को आमंत्रण दिया है। सारी लड़ाइयाँ ही इसीलिए हैं – 'परम एक है, एक तेरा वाला, एक मेरा वाला,' ये मेरा वाला और तेरा वाला अब भिड़ेंगे। युद्ध कैसे शरू होते हैं?

'हाँ, परम सत्य एक ही है।'

'कौन-सा एक?'

'जो मैं बता रहा हूँ।'

क्या किसी प्रकार ये संभव है कि किसी एक विचार पर — और वो बिलकुल एक ही हो, उसमें ज़रा भी दाएँ-बाएँ, हेर-फेर न हो — सब एक-साथ पहुँच सकें? नहीं पहुँच सकते न? नहीं पहुँच सकते। हमारे सामने अभी एक कोई वस्तु रख दी जाए, एक वस्तु भी क्या हम सबकी नज़रों में एक चीज़ दिखेगी? दिखेगी क्या? ‘आप’ जो देख रहे होंगे, ‘ये’ जो देख रहे होंगे उससे बिल्कुल अलग होगा। अभी मैं आपसे एक शब्द कहूँ, क्या फिर भी मैंने आप सबसे एक ही शब्द कहा? तो आत्मा एक है ये कहना क्या दर्शा पाएगा? इसे क्या कहा जा सकता है? कुछ भी नहीं! मत कहिए कि एक है; क्योंकि जो एक है वो मन में जाकर अनेक बनता ही है, बनेगा ही। मन के लिए जैसे एक शब्द है ‘अनेक’, उसी प्रकार एक शब्द है ‘एक’, और मन में ‘एक’ (पूरा) कभी कुछ होता नहीं, मन तो एक भीड़ है; ‘एक’ भी भीड़ के रंगों में रँग ही जाएगा, ये संभव ही नहीं है कि ‘एक’ रहा है और उसमें रंग ना हों।

'आत्मा एक है,' ये कहना भी उचित नहीं होगा। हाँ, बेहतर है वो आदमी, जो कह रहा है 'आत्मा एक है,' उस व्यक्ति से जो कह रहा है कि 'आत्माएँ ही अलग-अलग हैं।' निश्चित-रूप से तल उठे हैं, निश्चित-रूप से एक मानसिक यात्रा हुई है, प्रगति हुई है, लेकिन अभी परम सत्य में मन नहीं बैठा, अन्यथा ‘एक’ नहीं बोल पाता।

प्रश्नकर्ता: सर (महोदय), जब अष्टावक्र कह रहे हैं, 'द वाइज़ डस नॉट सी सेपरेट थिंग्ज़, ओनली द टाइमलेस सेल्फ़,' (प्रज्ञावान व्यक्ति अलग-अलग वस्तुओं को नहीं देखता, सिर्फ़ समयातीत आत्मा को देखता है।) ये शायद इसी बात से संबंधित है, कृपया इस पर प्रकाश डालें।

आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र कह रहे हैं, 'द वाइज़ डस नॉट सी सेपरेट थिंग्ज़, ओनली द टाइमलेस सेल्फ़।' दो अलग-अलग आयामों की बातें हैं। जब भी देखा जाएगा तो अलग-अलग ही दिखाई देगा, वैविध्य ही दिखाई देगा। जो समयातीत आत्म है उसे देखा नहीं जाता; उसमें हुआ जाता है। तो ये मत समझिएगा कि वही मन रखते हुए, जिससे हम अलग-अलग वस्तुओं को देखते हैं, उसी मन से जो अकाल, समयातीत आत्मा है उसको भी देखा जा सकता है; आँखें तो सिर्फ़ विविधता ही दर्शाएँगी। मन वहाँ डूबा हो जहाँ इस सारी विविधता से ज़रा भी फ़र्क न पड़ता हो, तब ऐसा होगा कि अलग-अलग कुछ नहीं रहेगा। ध्यान रखिएगा, मैंने कहा, 'अलग-अलग के बीच भी कुछ अलग-अलग नहीं रहेगा,' ये नहीं कहा कि अलग-अलग के बीच कुछ एक रहेगा; अलग-अलग तो नहीं ही, एक भी नहीं।

बहुत अंधविश्वास पैदा हुए हैं ये मानने से कि आत्मा एक है, बल्कि यूँ कहें कि आत्मा ‘है’। हमने आत्मा को भी विषयगत कर दिया है, क्योंकि आप ‘है’ उसको ही बोलते हैं न जो मानसिक होता है? उसके अलावा और आप किसको कहते हैं कि ‘है’, अस्तित्वमान है? ज्यों ही आप कहते हैं कि 'ब्रह्म है,' 'अल्लाह है,' आप तुरंत उसको भी एक वस्तु ही बना देते हैं, एक विषय ही बना देते हैं, क्योंकि ‘है’ शब्द का प्रयोग ही वस्तुओं के लिए किया जाता है। चादर है, दीवार है, कमरा है। तो आप फिर कैसे कह सकते हैं कि आत्मा ‘है’, और सत्य ‘है’? ‘है’ शब्द का प्रयोग दोनों के साथ आप एक-साथ कैसे कर सकते हो? तो बड़ी दिक्कतें पैदा हुई हैं जैसे ही आपने कहा है 'आत्मा है।'

आत्मा दीवार बन गई है, आत्मा चादर बन गई है, आत्मा बिस्कुट बन गई है, आत्मा कमरा बन गई है। परम सत्य के साथ भी तो हमने यही किया है, उसे 'है, है' कह कर के कभी हमने उसको मूर्ति बना दिया है, कभी खयाल बना दिया है। भले हम यही कहते हों कि हम निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं, लेकिन जैसे ही हमने ‘है’ का प्रयोग किया, वैसे ही वो मन के दायरे में आ जाता है; इसीलिए 'एक है' कहना भी उचित नहीं है। 'वो एक है' कहना मन की साज़िश है। मन चाहता है कि परम को भी अपनी गिरफ्त में ले ले, इस कारण ये इसकी आखिरी चाल है, कि 'एक है।'

लेकिन आपको भ्रम होगा, अक्सर आपको पढ़ने को मिलेगा कि 'एक है।' जब भी आप पढ़िए कि किसी ग्रन्थ में ऐसा लिखा है, या किसी संत ने ऐसा कहा है, किसी विद्वान ने ऐसा कहा है, तो बस ये समझ लीजिएगा कि जब वो कह रहा है कि 'एक है,' तो इतना ही कहना चाहता है कि 'दो नहीं है।' तो 'एक है' सिर्फ़ एक तरीका है ये कहने का कि 'दो नहीं है।' पर 'एक है' इससे ये मत समझ लीजिएगा कि 'एक है,' न। 'दो नहीं है' ये कहना चाहता था वो, इसलिए कह दिया कि 'एक है।' इसीलिए ‘अद्वैत’ बड़ा सुन्दर शब्द है, वो इतना ही कहता है कि 'दो नहीं है;' नहीं कहता कि 'एक है।'

प्रश्नकर्ता: सर , इन दोनों बातों में फ़र्क क्या है: 'दो नहीं है' और 'एक है'?

आचार्य प्रशांत: जब भी ‘एक’ आएगा, ‘दूसरा’ आ ही जाएगा; क्या एक हो सकता है बिना दूसरे के?

प्रश्नकर्ता: एक हो सकता है।

आचार्य प्रशांत: कैसे हो सकता है? कुछ भी ऐसा बताइए जो यहाँ पर एक हो और दूसरा न हो? यदि सिर्फ़ एक होगा, तो एक भी नहीं होगा; एक के होने के लिए दूसरा आवश्यक है।

प्रश्नकर्ता: सर, जिसको हम सेल्फ़ बोलते हैं उसका तो कोई नॉन-सेल्फ़ जैसा कुछ होता नहीं, लेकिन दुनिया में जो भी वस्तु है उसका द्वैतात्मक-विपरीत तो उपस्थित है, ये कैसे?

आचार्य प्रशांत: अगर कोई नॉन-सेल्फ़ नहीं है, सिर्फ़ सेल्फ़ ही सेल्फ़ है, तो फिर सेल्फ़ भी कहाँ है? कुछ होने के लिए उसकी सीमाएँ होनी चाहिए न? यदि सिर्फ़ वही है तो उसकी सीमा नहीं है; और जिसकी सीमा नहीं है उसे जाना नहीं जा सकता। आप जिस भी चीज़ को कहेंगे 'है,' उसकी कहीं-न-कहीं सीमा होगी, तभी कह पाएँगे 'है;' सीमा के कारण ही कुछ होता है। आपके होने का कारण ही यही है कि आपकी एक सीमा है कहीं-न-कहीं, अगर सीमा नहीं है तो कैसे हो आओगे आप?

प्रश्नकर्ता: सर , ये नहीं कह सकते कि ये इनफ़ाइनाइट (अनंत) को एक कहने की कोशिश की जा रही है?

आचार्य प्रशांत: पर जैसे ही आप इनफ़ाइनाइट बोल देते हो, वैसे ही वो फ़ाइनाइट (सीमित) हो जाता है! अगर वास्तव में इनफ़ाइनाइट है तो कैसे बोल पाते हो कि इनफ़ाइनाइट है, वो कैसे समाता आपकी खोपड़ी में? इनफ़ाइनाइट कह दिया माने इनफ़ाइनाइट को जान लिया, तभी तो कह रहे हो न? या तो ये बोलो कि बिना जाने बोल रहे हैं, तब फिर ठीक है, फिर उसका मतलब ये है कि हम बकवास कर रहे हैं। आप बोल देते हो इनफ़िनिटी (अनंतता), पर क्या इनफ़िनिटी को जाना जा सकता है? तो फिर बोला भी कैसे जा सकता है इनफ़िनिटी?

तो हम जब भी इन शब्दों का प्रयोग करते हैं – अखंड, असीमित– ये शब्द ही बड़े मूढ़ता के हैं, ये शब्द बोले तब ही जा सकते हैं जब आपने उनको जाना न हो। जो असीमित हो उसको असीमित कह कैसे दिया, ये बताओ? असीमित को असीमित कह कैसे रहे हो? असीमित को असीमित कह रहे हो इसका मतलब तुमने कहीं-न-कहीं उसकी सीमाएँ देखी हैं, और अगर सीमाएँ देख लीं तो वो असीमित कहाँ है? और यहाँ पर बात सिर्फ़ शब्दों की नहीं है, कि इसको नाम दिया जाए या नहीं दिया जाए; मन बातों पर ही चलता है, बात पूरे-पूरे मन की है। और मन अगर एक गलत धारणा लेकर बैठ जाएगा तो कभी सत्य में, समझ में उतर नहीं पाएगा।

जिन्होंने भी ये धारणा बनाई कि 'सत्य एक है, परम एक है,' वो हमेशा अंधविश्वासों में जिएँगे फिर; उन्हें जीना ही पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता: मतलब सर , 'एकोऽहं' और अद्वैत एकदम अलग-अलग बातें हैं?

आचार्य प्रशांत: अलग हैं। देखने में लगते हैं एक-जैसे, 'एकोऽहं' और अद्वैत, पर अलग हैं।

'एकोऽहं' जब भी पढ़िए तो यही समझ लीजिएगा कि यही कहा जा रहा है कि दूसरे का इनकार है; ‘एक’ पर ज़ोर नहीं है, ज़ोर इस बात पर है कि 'दो नहीं हैं।' 'मैं एक हूँ, दो नहीं।' तो इसमें ज़ोर से ये बात कही जा रही है, 'दो नहीं;' 'मैं एक हूँ' ये सिर्फ़ थोड़ा समझाने के लिए कह दिया है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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