प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, भगवान कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीरों को प्राप्त होता है। तो ये जीवात्मा कौन है? सूक्ष्मशरीर है, मन है? और सूक्ष्मशरीर को अहम्-वृत्ति और तादात्म्य के सम्बन्ध में कैसे समझें? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: जिसे जीवात्मा कह रहे हैं कृष्ण वो वही है जिसे जीव आत्मा समझता है। आत्मा माने? 'मैं', जो तुम वास्तव में हो। तुम्हारा असली नाम, तुम्हारी असली पहचान, उसका नाम है आत्मा। पर जीव आत्मा में तो जीता नहीं, जीव का केंद्र क्या होता है?
प्र: वासना।
आचार्य: वासना, अहम्। तो जीव जिसे आत्मा समझे वो हुआ जीवात्मा, अहम्। तो आत्मा और जीवात्मा बहुत दूर-दूर की बातें हैं। आत्मा और जीवात्मा को एक मत समझ लेना। आत्मा परम सत्य है और जीवात्मा परम भ्रम है। और चूँकि जीव अहम् को ही आत्मा का नाम देता रहता है; कहता रहता है न "मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ।" तो उसने तो 'मैं' के साथ न जाने क्या-क्या जोड़ दिया; अहम् को ही आत्मा बना डाला।
तो इसीलिए फिर महात्मा बुद्ध को कहना पड़ा था कि, "आत्मा झूठी बात है।" वो वास्तव में यह कह रहे थे कि जिसको तुम आत्मा समझते हो वो झूठी बात है क्योंकि तुम तो अहम् को ही आत्मा समझते हो। तुम तो अहम् को ही पकड़े बैठे हो और यही सोच रहे हो कि यही तो आत्मा है मेरी, यही तो सच्चाई है मेरी।
तो जीवात्मा जब आत्मा बनने लग गई तो बुद्ध को कहना पड़ा 'अनात्मा' और यही दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है। जीवात्मा बनी बैठी है आत्मा। देखा नहीं है हम किस तरह के मुहावरे, अभिव्यक्तियाँ इस्तेमाल करते हैं? हम कहते हैं, "मेरी आत्मा रो रही है, मैं तुमको आत्मा से प्यार करता हूँ।" कोई मर जाएँ तो कहेंगे, "उसकी आत्मा की शांति के लिए सभा रखी गई है।" आत्मा की शांति के लिए! आत्मा अशांत कैसे हुई भई? और आत्मा तो निर्वैयक्तिक है, किसी की व्यक्तिगत कैसे हो गई आत्मा, कि उसकी आत्मा, मेरी आत्मा, तेरी आत्मा। आत्मा तो एक है, न तेरी है न तेरी है।
तो जीव ने क्या खेल चला रखा है? उसने अहम् को ही आत्मा का नाम दे रखा है। और आत्मा के साथ वो फिर इस तरह की बातें करता है — मैं तुझे आत्मा से प्यार करता हूँ, मेरी आत्मा की आवाज़ है कि आज पकौड़े खाना ही चाहिए, तुम मिलते हो तो मेरी आत्मा प्रफुल्लित हो जाती है। इन सब वाक्यों में अशुद्धि क्या है? जहाँ-जहाँ आत्मा कहा गया है वहाँ कहना चाहिए था?
प्र: जीवात्मा।
आचार्य: जीवात्मा या मन या अहम्। पर हमने मन को ही समझ रखा है आत्मा, इसीलिए तो हम मन को और अहम् को इतना सम्मान देते हैं। हम बोलते हैं दैट्स मी , वही तो मैं हूँ। तुरन्त बोल देते हैं, "मैं तो ऐसा हूँ मैं तो वैसा हूँ।" हमने अपने झूठ को ही सच्चाई का नाम दे दिया है, और जब झूठ को सच्चा बना दिया तो झूठ बड़ा सम्माननीय हो जाता है। फिर हम झूठ को बड़ा समर्थन देने लगते हैं।
तो इसीलिए ये जो दूसरा अध्याय है श्रीमद् भगवद्गीता का ये बड़ा प्रासंगिक है। एक श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं, "आत्मा का ना जन्म है ना मृत्यु है, ना तेरी है ना मेरी है।" और उसी श्लोक के तत्काल बाद कहते हैं कि "ये जो जीवात्मा है यही इधर-उधर भटकता रहता है, यही जनमता-मरता है, यही शरीर धारण करता है।" साफ़-साफ़ उन्होंने बता दिया है कि आत्मा (सच्चाई) का तो जन्म ही नहीं होता पुनर्जन्म क्या होगा। आत्मा तो सदा से अजन्मा है और अमर है, ना उसका जन्म है ना उसकी मृत्यु है। जन्म-मृत्यु तो मन की होती है। लेकिन फिर भी भारत में श्रीकृष्ण की बात को अधिकांश लोगों ने समझा नहीं। अभी भी बहुत लोग हैं जो कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि, "आत्मा पुराने वस्त्र छोड़कर नए वस्त्र धारण करती है।" श्रीकृष्ण ने आत्मा के बारे में कहा है या जीवात्मा के बारे में कहा है?
श्रोतागण: जीवात्मा के बारे में।
आचार्य: और आत्मा और जीवात्मा एक नहीं हैं, ज़मीन-आसमान का अंतर है भई। आत्मा के बारे में तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि ना जन्मती है, ना मरती है। जीवात्मा के बारे में कह रहे हैं कि ये इधर-उधर भटकती रहती है। हममें से बहुत लोग इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो इसीलिए आवश्यक है कि मैं पढ़ ही दूँ।
श्लोक क्रमांक उन्नीस, गीता का दूसरा अध्याय — "जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही कुछ नहीं जानते; क्योंकि आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है ना किसी के द्वारा मारा जाता है।"
श्लोक क्रमांक बीस — "आत्मा किसी काल में भी ना तो जन्मता है और ना मरता ही है तथा ना यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है। क्योंकि आत्मा अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी वह मारा नहीं जाता।"
तो फ़िर आगे कहते हैं, श्लोक क्रमांक बाइस — "जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।"
लेकिन हमारी हठ है कि हम कहे जाएँगे कि श्रीकृष्ण ने कहा है कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है।
फिर आगे आत्मा के बारे में ही कहा है (श्लोक क्रमांक तेईस, चौबीस, पच्चीस में) बार-बार कि "आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, आग नहीं जला सकती, जल गला नहीं सकता, वायु सुखा नहीं सकती।"
"क्योंकि यह आत्मा अच्छेध, अक्लेध और निःसंदेह अशोष्य है, नित्य है सर्वव्यापी है, अचल है स्थिर है सनातन है।"
"अव्यक्त है अचिंत्य है, विकार रहित है।"
ये बातें सब किसके बारे में कहीं? आत्मा के बारे में। और जन्म-मृत्यु किसकी बताई?
श्रोतागण: जीवात्मा की।
आचार्य: जीवात्मा की। जीवात्मा माने, दोहराएँगे हम —
श्रोतागण: संसार।
आचार्य: अहम्। और मन क्या है? अहम् स्वयं को केंद्र में रखकर अपने इर्द-गिर्द जो संसार खड़ा करता है उसका नाम है मन। मन माने संसार। संसार के केंद्र में जो 'मैं' बैठा है उसका नाम है अहम्। ये अहम् है जो जीवन-मरण, जीवन-मरण का चक्र खेलता रहता है; अभी है अभी नहीं है, अभी है अभी बदल गया।
मन बदलता रहता है न लगातार? मन के बदलाव की बात हो रही है। मन के केंद्र में है अहम्। शरीर क्या है? मन का ही स्थूल प्रतिबिंब। सूक्ष्म रूप से जिसको आप मन कहते हैं वही जब स्थूल हो जाता है तो शरीर और संसार कहलाता है। सूक्ष्म है तो मन, और स्थूल है तो शरीर और संसार, ठीक? तो अगर मन बदलेगा तो मन के साथ-साथ क्या बदल जाएगा?
श्रोतागण: शरीर।
आचार्य: शरीर और संसार बदल गए न। इसी बात को कृष्ण कह रहे हैं कि ये जीवात्मा बार-बार अलग-अलग शरीर ग्रहण करती है; क्योंकि जीवात्मा का काम ही है परिवर्तित होते रहना। जीवात्मा परिवर्तित होगी तो संसार तो परिवर्तित हो ही जाएगा न। जब केंद्र ही बदल गया तो वृत्त तो बदल ही जाएगा न। पर इसका अर्थ कुछ ऐसा लगाया गया है कि जब व्यक्ति मरता है तो उसके शरीर से आत्मा उड़ती है और फिर जाकर के किसी गर्भणी के गर्भ में प्रवेश कर जाती है। और इस तरह का बड़ा अंधविश्वास प्रचारित किया गया है, चित्र इत्यादि बनाए जाते हैं दिखाने के लिए कि पुनर्जन्म कैसे होता है।
क्या बता रहे हैं श्रीकृष्ण और नासमझों ने क्या समझा उसको।
तीन हैं, तीनों को समझिएगा। आत्मा — जिसका कोई जन्म नहीं होता। प्रकृति — जिसमें अनन्त जन्म और अनन्त मृत्यु है। और व्यक्ति — जिसका एक जन्म और एक मृत्यु है। आत्मा — ना जन्म ना मृत्यु। प्रकृति — अनन्त जन्म अनन्त मृत्यु। और व्यक्ति — जो आप हैं, उसका एक जन्म और एक मृत्यु। पर व्यक्ति अपनी क्षणभंगुरता के तथ्य से डरकर घोषित कर देता है कि या तो वो आत्मा है या फिर अपने-आपको बोल देता है कि, "मैं तो प्रकृति हूँ, मेरे तो अभी बहुत जन्म और बहुत मृत्यु होंगे।" दोनों में ही उसका स्वार्थ एक ही है —अपनी एक और आखिरी मृत्यु के तथ्य से बचना, छुपना, झुठलाना।
हमें इस बात से इतना खौफ़ है कि एक ही जीवन है और उसकी एक ही मृत्यु है, कि हम अपने डर से बचने के लिए श्रीकृष्ण की बात को भी तोड़-मरोड़ देते हैं। कभी हम कह देते हैं — मैं तो आत्मा हूँ, मैं अमर हूँ, मेरी मौत होगी ही नहीं। ये बात झूठ है, क्यों झूठ है? क्योंकि अपना जीवन देखो। आत्मा तो विकार रहित है और तुम्हारे जीवन में विकार ही विकार हैं, तुम आत्मा कैसे हो गए? आत्मा तो निर्लेप है, निर्मम है निर्मोह है, और तुम्हारे जीवन में लिप्तताएँ हैं और मोह है और ममता है, तुम आत्मा कैसे हो गए? पर जीवन में तमाम तरह के दोष, विकार, मोह-ममता भरे-भरे भी हम कहते हैं कि, "नहीं मैं तो आत्मा हूँ और मै अमर हूँ", ये झूठ हुआ न? और ये घातक झूठ है क्योंकि जब तक ये झूठ रहेगा तब तक आप जीवन में वृत्तियों को, विकारों को, मोह को, ममत्व को, अहंता को प्रश्रय दिए ही जाएँगे। आप कहेंगे — इनको रखे-रखे ही अगर अमरता मिली जा रही है तो इनको हटाएँ काहे को?
और फिर दूसरा झूठ हम ये बोल देते हैं कि, "श्रीकृष्ण ने बताया है न पुनर्जन्म होता है, तो मेरा भी पुनर्जन्म होगा।" नहीं आपका कोई पुनर्जन्म नहीं होगा। अस्तित्व में बहुत पुनर्जन्म होते हैं, प्रकृति में पुनर्जन्म होते हैं, व्यक्ति का कोई पुनर्जन्म नहीं होता।
अभी उस दिन मैं कह रहा था कि आज से कुछ वर्ष पहले भी यहाँ पर बहुत सारे खरगोश थे आश्रम में, और आज भी यहाँ बहुत सारे खरगोश हैं। और आप कुछ वर्ष पहले का चित्र देखें खरगोशों का और आज का कोई चित्र देख लें, कोई फ़ोटो ले लें, तो वो दोनों आपको एक जैसे लगेंगे। तीन साल पहले भी सफेद खरगोश थे आज भी सफेद खरगोश हैं, संख्या भी उनकी करीब-करीब उतनी ही है। प्रकृति ने पुनर्जन्म लिया है। तथ्य ये है कि कुछ साल पहले जितने खरगोश थे अब उसमें से एक भी बचा नहीं है; वो सब गए। उन जीवों का कोई पुनर्जन्म नहीं है, वो तो गए। लेकिन खरगोश अभी भी हैं। ये पुनर्जन्म है। खरगोश बाकी है, वो जो विशिष्ट खरगोश था वो बाकी नहीं।
समझना, खरगोश बचा है लेकिन गोलू खरगोश नहीं बचा, वो गया। हाँ खरगोश आज भी है, खरगोश पाँच-सौ साल पहले भी था और खरगोश - जहाँ तक समझते हैं अगर आदमी ने पृथ्वी ही नहीं उड़ा दी - तो पाँच-सौ साल बाद भी होगा। खरगोश तब भी था, आज भी है, पाँच-सौ साल बाद भी होगा। प्रकृति लगातार पुनर्जन्म ले रही है, ले रही है, ले रही है; उसके अनन्त पुनर्जन्म हैं। लेकिन गोलू लौट कर नहीं आएगा; उसका एक ही था।
इन तीनों का भेद समझना बहुत आवश्यक है। आत्मा — ना जन्म ना मृत्यु। जीव — एक ही जन्म और एक ही मृत्यु, और जीव का भला इसी में है कि वो उस एक जन्म का सदुपयोग कर ले पूरा-पूरा। आप जीव हैं और आपकी भलाई इसी में है कि आपको याद रहे कि एक ही जन्म है, मौत निकट आ रही है लगातार। और इस जन्म का, समय के एक-एक पल का आप सदुपयोग कर लें। और तीसरी — प्रकृति, प्रकृति का चक्र चलता रहता है, लोग आते हैं लोग जाते हैं, कोई आए कोई जाए लोग रह जाते हैं। वहाँ बहुत पुनर्जन्म हैं, पर कोई पुराना लौट कर नहीं आता। प्रकृति ही बार-बार लौटती है कोई पुराना नहीं लौट आता। वो जो व्यक्ति था वो नहीं लौटेगा, कितने भी खरगोश पैदा होते रहें गोलू नहीं लौटेगा; वो जो एक विशिष्ट व्यक्ति था वो नहीं लौटेगा। हाँ व्यक्ति बहुत सारे आते-जाते रहेंगे।
अंतर स्पष्ट हो रहा है?
अब इस विषय में कभी संशय नहीं होना चाहिए। ख़ासतौर पर गीता की आड़ लेकर के अपने पूर्वाग्रह कभी प्रसारित न करें। कभी ना कहें कि श्रीकृष्ण ने कहा है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। उन्होंने व्यक्ति के पुनर्जन्म की बात नहीं करी है, ना उन्होंने आत्मा के पुनर्जन्म की बात करी है। किसका पुनर्जन्म बताया है?
श्रोतागण: जीवात्मा का।
आचार्य: जीवात्मा का। और जीव कौन है? जिसने प्रकृति से साझा कर लिया है। जब मैं कह रहा हूँ आप जीव हैं तो मेरा आशय क्या है? आप वो हैं जो अपने-आपको देह समझते हैं। देह माने?
श्रोतागण: शरीर।
आचार्य: प्रकृति। जीवात्मा कौन? जिसने प्रकृति से अर्थात देह से तादात्म्य कर लिया है। तो पुनर्जन्म लगातार किसका होता है? हमने कहा था —
श्रोतागण: प्रकृति का।
आचार्य: प्रकृति का। और श्रीकृष्ण क्या बता रहे हैं कि कौन है जो नए-नए शरीर धारण करता है?
श्रोतागण: जीवात्मा।
आचार्य: जीवात्मा। बात समझ में आई? जीव माने वो जो प्रकृति से तादात्म्य कर चुका है, जो देहाभिमानी है, जो अपने-आपको देह समझता है सो जीव। जो अपने-आपको जीवित समझता है सो जीव। शरीर को ही तो कहते हो न जीवित है, शरीर को ही कहते हो मर गया।
स्पष्ट हुआ?
आप रहे ना रहें, जो लोग रहेंगे वो भी इंसान ही कहलाएँगे न? ये है पुनर्जन्म। डी.एन.ए. आगे बढ़ता रहेगा आप आगे लेकिन नहीं बढ़ेंगे। तो आप इस उम्मीद में बिलकुल मत रहिएगा कि फ़र्क क्या पड़ता है अभी तो लाखों जन्म मिलेंगे, एक-आध-दो ख़राब भी कर दिए तो क्या होता है। लाखों नहीं मिलेंगे; आपको एक ही है उसका सदुपयोग करिए।