आत्म-छवि खोने का डर || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

12 min
61 reads
आत्म-छवि खोने का डर || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

आचार्य प्रशांत: इमेज की परवाह करने का मतलब होता है कि ये जो आस-पास के लोग हैं, ये बड़े महत्त्वपूर्ण हैं मेरे लिए। कि ये क्या कहेंगे मेरे बारे में, वो बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है।

आदमी छोटी बातों में तो दूसरों से ज्ञान ले सकता है क्योंकि ज्ञान किसी का भी पूरा नहीं होता। मैं नहीं जानता हूँ कि तुम्हारे कॉलेज में कौन सा डिपार्टमेंट किधर है, कौन सी लैब किधर है। तो मैं तुम्हारे कॉलेज आया हूँ, तो मुझे तुमसे ही ज्ञान लेना पड़ेगा न कि मुझे बता दो लाइब्रेरी किधर है। ये सब छोटी बातें हैं, इसमें ज्ञान लिया जा सकता है दूसरों से। मैं तुमसे पूछूँ कि बता दो लाइब्रेरी किधर है, चलेगा। मुझे तुम्हारी बात माननी पड़ेगी, तुम्हारी बात का सम्मान करना पड़ेगा क्योंकि तुम ज़्यादा जानते हो।

मैं तुमसे पूछूँ कि मेरे कुर्ते का रंग क्या है, तो भी चल जाएगा। हो सकता है कि मेरी आँखों में कोई बीमारी आ गई हो, मैं रंगों को साफ़-साफ़ न पहचान पा रहा हूँ, तो भी चल जाएगा। तुम यह नहीं कहोगे, यह आदमी पागल है। पहला सवाल मैंने पूछा, “लाइब्रेरी कहाँ है कॉलेज में?” उसमें कोई दिक़्क़त ही नहीं थी, तुम बता दोगे। फिर मैं पूछूँगा, “मेरे कुर्ते का रंग क्या है?” तुम्हें थोड़ा सा अजीब लगेगा लेकिन फिर भी तुम बता दोगे। तुम कहोगे, “हो सकता है यह आदमी कलर-ब्लाइंड हो, न जान पा रहा हो।“

लेकिन अगर मैं तुमसे पूछने लग जाऊँ कि मैं कौन हूँ भैया, तो तुम बहुत ज़ोर से भागोगे। तुम कहोगे, यह आदमी ख़तरनाक पागल है, यह कुछ भी कर सकता है। जो आदमी यह सवाल पूछ रहा हो औरों से कि मैं कौन हूँ, वो बड़े ही ज़बरदस्त किस्म का पागल है।

छोटे मामलों में बाहर वालों के ओपिनियन (राय) को तवज्जो दी जा सकती है। मैं कौन हूँ? मेरी जगह क्या है? मेरी हसियत क्या है? — इस बात के लिए दूसरों का मुँह नहीं देखा जाता। तुम वही गलती कर रहे हो। तुम ऐसी बात में दूसरों के मत की परवाह कर रहे हो जहाँ दूसरों के लिए कोई स्थान होना ही नहीं चाहिए।

तुम्हें इस पंखे के बारे में जानना है, बेशक किसी और से पूछ लो। तुम्हें यह भी अगर पता करना है कि पंखे का कौन सा ब्रांड ख़रीदूँ, बेशक किसी स्पेशलिस्‍ट से पूछ लो, कोई दिक़्क़त नहीं है। तुम्हें किसी जगह का पता चाहिए, पूछ लो। पर अगर तुम यह भी दूसरों से पूछ रहे हो कि प्रेम किससे करूँ, तो बड़ी दिक़्क़त है। क्योंकि ये बड़ा आंतरिक, निजी और गहरा मामला है, इसमें किसी और से नहीं पूछा जाता।

तुम कह रहे हो कि मैं खड़ा होता हूँ बोलने के लिए तो मुझे इस बात का बड़ा ख़याल रहता है, बड़ी सतर्कता रहती है कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे, क्या बोलेंगे।

तुम कहाँ खड़े होना चाहते हो, दूसरों से पूछ लो कोई दिक़्क़त नहीं है। लेकिन अगर वाकई तुम जो बोल रहे हो, वो तुमने समझा है तो अब तुम्हें इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं करनी चाहिए कि दूसरे तुम्हें ताली दे रहे हैं कि गाली दे रहे हैं। बिलकुल भी नहीं अगर वाकई समझ कर बोल रहे हो। लेकिन चूँकि हम समझ कर नहीं बोल रहे होते हैं इसीलिए हम डरे होते हैं। इसीलिए हम लगातार सतर्क होकर के, डरकर के झाँक रहे होते हैं — उसको मेरी बात पसंद आ रही है? उसको मेरी बात ठीक लग रही है कि नहीं लग रही है। कहीं इनकी नजरों में मेरी छवि तो नहीं गिर जाएगी?

पहली बात: मुझे पता होना चाहिए कि मैं क्या कह रहा हूँ। उस बात में कितना दम है, यह मेरी चेतना निर्धारित करेगी। है न? और अगर मैंने अभी तक समझा नहीं है तो फिर मुझे बोलने का हक़ भी नहीं है। मेरे लिए बेहतर यह है कि मैं कह दूँ कि अभी यह टॉपिक मुझे समझ में ही नहीं आया, मुझे थोड़ा समय चाहिए। समझूँगा तब बोलूँगा।

दूसरी बात: उनकी नज़रों में मेरी क्या छवि है, इससे मुझे क्या अंतर पड़ना है? मैं कौन हूँ, यह मुझे जानना है न? याद है न, मैंने क्या कहा था अभी? कि अगर तुम किसी से जाकर पूछते हो कि मैं कौन हूँ, तो उसे तुरंत भाग जाना चाहिए, ये बड़ा ख़तरनाक पागल है। तो, तुम कौन हो, तुम कैसे हो, तुम्हारा क्या वजूद, क्या हस्ती है, इस चीज़ के लिए तुम दूसरों से पूछने क्यों जाते हो? कि दूसरे अगर कह दें कि एकांश(प्रश्नकर्ता का नाम), तू बड़ा होशियार, बड़ा बुद्धिमान, तो एकांश ने कहा, “वाह! मुझसे ज़्यादा होशियार कोई हो नहीं सकता।“ और दूसरों ने कह दिया कि एकांश तू पगला और बेवकूफ़। तो एकांश ने कहा कि न, न, यह तो मैं गिर गया, मैं बचा ही नहीं।

कहने दो न, जो दूसरे कह रहे हैं। तुम्हें फ़र्क नहीं पड़ेगा अगर तुम्हारे भीतर एक आश्वस्ति है अपनी, आंतरिक।

देखो हम छोटी बातों में भी जब कुछ ठीक-ठीक पता होता है तो हम परवाह नहीं करते कोई हमें क्या कह रहा है। तुम एकांश हो और मैं तुम्हे बार-बार, बार-बार राहुल कहकर पुकारूँ, तो क्या तुम्हें शक हो जायेगा कि तुम राहुल हो? क्‍योंकि तुम्हें ठीक-ठीक पता है कि तुम्हारा नाम एकांश है। तो इसमें तुम क्यों नहीं कहते, फिर बाहर जाकर रोने लगो कि मैं बर्बाद हो गया — आया एकांश था, हो राहुल गया। क्या रोओगे? क्यों नहीं रोओगे? क्‍योंकि तुम्हें पता है कि तुम कौन हो या कम-से-कम तुम्हारा नाम क्या है। है न?

तो ठीक यही रवैया तुम तब क्यों नहीं रखते, जब कोई तुमसे कह देता है कि तुम बहुत होशियार या तुम बहुत बेवकूफ़ हो? जब कोई तुम्हें राहुल बोल देता है, तब तुम्हारी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता न? तो जब कोई तुम्हें बेवकूफ़ बोल देता है, तब तुम पर असर क्यों पड़ जाता है? जैसे तुम्हें यह पता है कि तुम राहुल नहीं हो, वैसे ही तुम्हें यह भी तो पता होना चाहिए कि तुम बेवकूफ़ नहीं हो। कि नहीं पता होना चाहिए?

लेकिन उसके पीछे भी एक राज़ है। राज़ क्या है? राज़ यह है कि हमें बहुत अच्छा लगता है जब कोई हमारी तारीफ़ करता है। तारीफ़ें हम लिए चले जाते हैं; तारीफ़ें हम खूब स्वीकार करते हैं; हम तारीफ़ों पर ही जीते हैं। तुम आते हो और कोई कॉम्प्लीमेंट देता है सुबह-सुबह, “गोर्जीयूस, फ्रेश, हैंडसम और ब्यूटिफुल” , तुम्हें कितना अच्छा लगता है। तुम भूल ही जाते हो कि तुम उस आदमी के गुलाम ही बन गए क्योंकि तुमने उसे अनुमति दे दी है यह निर्धारित करने की कि तुम कौन हो, और कैसे हो।

अब वही व्यक्ति शाम को तुमसे मिलेगा और कहेगा, “अगली, डिज़ास्ट्रस, डेवस्टेटेड” , तो तुम कहोगे, “अरे बाप रे! मैं बर्बाद हो गया, लुट गया।“ तुम समझे ही नहीं कि तुमने जिसको तारीफ़ करने का हक़ दे दिया, अब तुमने उसे यह भी हक़ दे दिया कि वह मेरी निंदा कर सके। अगर तुम तारीफ़ पर खुश हो लिये तो अब जब बुराई होगी तो तुम्हें दुखी भी होना ही पड़ेगा। तुमने खुद मरने का इंतज़ाम कर लिया अपने। पर तारीफ़ो पर हम पलते हैं। और हमारी पूरी व्यवस्था ऐसी रही है जो हमें कहती है कि तुम तारीफ़ के लिए काम करो।

कोई स्टूडेंट खड़ा होता है, अच्छा आंसर देता है तो टीचर क्या कहते हैं? “ताली बजाओ।“ जिस बच्चे के लिए एक बार तालियाँ बज गयी, वो फँस गया। क्यों? क्योंकि अब वो तालियों के लिए ही काम करेगा और जिस दिन उसे ताली मिलेगी नहीं उस दिन वो उदास हो जाएगा। बात सीधी है कि नहीं है? वो दूसरों का गुलाम हो गया। अब वो कुछ बोलेगा तो इस बात का ख़याल रखेगा कि तालियाँ मिलनी चाहिए। होगा कि नहीं होगा?

टीचर्स होते हैं, वो बच्चे आते हैं, उनको असाइंमेंट है, होमवर्क है, उसमें स्टार बनाएँगे — वन स्टार, टू स्टार, थ्री स्टार, फोर्थ.. , बहुत छोटे बच्चों के साथ, पहली-दूसरी क्लास के साथ। अब वो बच्चा क्या कर रहा है? वो उन स्टार्स के लालच में काम कर रहा है। टीचर ने तो यह सोचा कि मैं बड़ा मोटिवेशन दे रही हूँ। उन्होंने जाना ही नहीं कि मोटीवेशन सिर्फ़ बीमारी है। मोटिवेशन का अर्थ ही है लालच।

तमाम तरीक़े से हमारे आसपास का माहौल, यह पूरा समाज, हमें इमेज कांशियस होना ही तो सिखा रहा है।

किसी को कोई मेडल , तमगा, पदवी मिल जाती है, यह क्या किया जा रहा है? सबके सामने उसे सम्मानित किया जा रहा है। आप आइए, ऊपर पोडियम पर चढ़िए, आपके गले में फूलों का हार डाला जाएगा। अब आप ये हो गए, वो हो गए, पदमश्री हो गए। उसका मतलब ही यही है कि अब उसे अपनी सम्मानीयता, रिस्पेक्टिबिलिटी बचाकर रखनी होगी; अपनी इमेज को ध्यान में रखकर काम करना होगा। और इमेज को ध्यान में रखकर काम करना बहुत बड़ा बंधन है। क्योंकि अब तुम्हें वही काम करने पड़ेंगे, जो दूसरों के मन में तुम्हारी इमेज है। तुम्हारा अपना सत्य नहीं, दूसरों के मन में तुम्हारी छवि; और हम करते भी तो यही हैं।

एक छोटा-सा उदाहरण ले लो, अभी प्रयोग कर लो। तुममें से जिन लोगों ने सवाल पूछे हैं, अभी तक चार-पाँच लोगों ने बात कर ली है। अगर इस कमरे में और कोई न होता, वही चार-पाँच लोग होते, तो वो दूसरे शब्दों में बात करतें। अभी तुमने जो बोला भी है न, वो नाप-तौल कर बोला है क्योंकि कई लोग सुन रहे हैं। और दूसरे छोर पर बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन्होंने मुँह ही नहीं खोला है। जो यहाँ पर ऐसे बैठे हैं जैसे मूवी देखने आये हों। ये दूसरे लोग भी चुप इसलिए नहीं हैं कि इन्हें चुप रहना ही है। ये चुप इसलिए हैं क्योंकि यहाँ बहुत सारे दूसरे मौजूद हैं। दूसरे हट जाये, वो बोलना शुरू कर देंगे या कम-से-कम उनका व्यवहार बदल जाएगा।

हम जो कुछ भी करते हैं, वो दूसरों की मौजूदगी को देखकर के करते हैं। और ये बहुत गहरी गुलामी है कि तुम एक-एक कदम ऐसे रख रहे हो कि आस-पास देख-देखकर कि लोग क्या कहेंगे, और तुम्हें अभी पता भी नहीं होगा। पर तुम ईमानदारी से अपनेआप से पूछोगे कि मैं सवाल क्यों नहीं पूछ रहा या क्यों नहीं पूछ रही, तो तुम्हें दिखाई देगा कि इस कारण नहीं पूछ रहें क्योंकि कई और लोग हैं जो सुन रहे हैं। ये लोग न हो तो तुम्हारा व्यवहार बदल जाएगा। और अगर इसी जगह पर पचास या सौ और लोग आ जाएँ, तब तो तुम्हारा व्यवहार और बुरी तरह बदल जाएगा। क्योंकि इतने सारे लोग हैं, देखने वाले। अब तो उन सबकी नजरों को सँभाल-सँभाल कर देखना होगा, एक-एक कदम फूँक-फूँककर उठाना होगा, रखना होगा।

यह बचपन से ही हमें सिखाया गया है और अब हमारी आदत बन गया है। इससे मुक्त होने का उपाय बहुत सीधा है। कभी भूलना मत कि तुम अपनेआप में पूरे हो। छोटे मामलों में मदद ली जा सकती है, पर जहाँ कहीं भी ये प्रश्न आये, 'मैं कौन हूँ? मैं कैसा हूँ?', न किसी से पूछने की ज़रूरत है न इसके कोई दो उत्तर होते हैं।

तुम बढ़िया हो, भले-चंगे हो और मस्त हो। तुम अच्छे तरीक़े से प्रेजेंटेशन दो तो भी तुम बहुत अच्छे हो, और तुम गड़बड़ कर दो तो भी तुम बहुत अच्छे हो; तुम हर हालत में बहुत अच्छे हो; तुम किसी दौड़ में शामिल हो, तुम जीत गए, तुम तो भी अच्छे हो; और तुम सौ बार हार गए तो भी तुम अच्छे ही हो। तुम्हें ख़याल करने की ज़रूरत ही नहीं कि दूसरे क्या कर रहे हैं, मुझे तालियाँ मिल रही हैं कि नहीं, मेरे गले में मैडल पड़ रहा है कि नहीं पड़ रहा है। पड़ गया तो भी तुम अच्छे हो, नहीं पड़ा तो भी अच्छे हो।

बिलकुल न सोचो कि खड़ा हूँ तो ये सब क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं। अपना ख़याल रखो न! बस ये पूछो कि मैं जो बोल रहा हूँ, ईमानदारी से बोल रहा हूँ कि नहीं बोल रहा हूँ। फिर बात बनती है।

साधारणतः स्वस्थ और सामान्य दिखने वाले लोग भी गहरी हीनता के भाव में जीते हैं, इन ए डीप इन्फिरियोरिटी कॉम्प्लेक्स। इफ़ यू आस्‍क ए रिसर्चर इन साइकॉलजी, ही विल वेरीफाई दिस फैक्ट।

अभी तुम लोग यहाँ बैठे हुए हो, तुम से कहा जाएँ, “क्या तुम्हें कोई हीन भावना है, इन्फिरियोरिटी कॉम्पलेक्स? , तुम कह दोगे, “नहीं है।“ पर थोड़ा तुम्हारें मन का विश्लेषण किया जाएँ अभी, तो निकल कर आएगा कि तुम गहरे हीनता के भाव में जी रहे हो जिसकी कोई ज़रूरत नहीं है, व्यर्थ है क्योंकि हीन तुम हो नहीं, तुम मस्त हो, भरपूर हो।

लेकिन अकारण ही दुनियाभर के माहौल की वजह से, मीडिया की वजह से, परवरिश की वजह से और शिक्षा की वजह से हममें एक हीनता की भावना घर कर जाती है। उसकी कोई ज़रूरत नहीं है, उसको छोड़ दो, बिलकुल छोड़ दो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories