आरक्षण का सामना क्यों करना पड़ता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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आरक्षण का सामना क्यों करना पड़ता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्न : मेरा प्रश्न यह है कि भारत के संविधान में जब यह उल्लेखित है कि समानता का अधिकार सभी को प्राप्त है, तो फिर मुझे मेरी जाति के आधार पर आरक्षण का दंश क्यों झेलना पड़ा

आचार्य प्रशांत : नाम क्या है तुम्हारा?

श्रोता : लोकेन्द्र

वक्ता : लोकेन्द्र, क्या तुमने सच में भारत का संविधान पढ़ा है?

श्रोता: वास्तव में नहीं।

वक्ता : तुम्हारा क्या मतलब है, “वास्तव में नहीं” से? या तो तुम पढ़ते हो या नहीं पढ़ते हो। क्या तुमने कभी ऐसा कहा है कि मैंने फिल्म ‘वास्तव में नहीं’ देखी। या तो तुमने फिल्म देखी है या नहीं देखी है। क्या तुमने वास्तव में पढ़ा है? तुममें से कितनों ने भारत का संविधान वास्तव में पढ़ा है?

श्रोता : सर, जब हमें बराबर अवसर प्राप्त हैं तो ये जाति भेद क्यों?

वक्ता : मैं उसपर आऊँगा, आऊँगा मैं उसपर। तुम देखो तुम बोल क्या रहे हो, तुम्हारा नाम क्या है?

श्रोता : अपूर्वा।

वक्ता : अपूर्वा, जो तुम बोल रही हो, वह ऐसा मुद्दा है जो बहुत ही आखिरी चरण में आता है। शुरुआत में मैं प्रशनकर्ता का मन देख रहा हूँ। पहले तो यह कि जो भी हम बोल रहे हैं, न सिर्फ इस क्षण में बल्कि जीवन के हर आम क्षण हम जो भी कहते हैं कि ऐसा है, एक तथ्य की तरह, जिस चीज को भी हम तथ्य की तरह प्रस्तुत करते हैं, हमें उसकी कोई जानकारी नहीं होती। हमनें कभी परेशानी ही नहीं उठाई कि वास्तव में जाकर तथ्यों को देखें। हम विचारों में और कल्पनाओं में जीते हैं। वस्तुस्थिति क्या है, यथार्थ क्या है, उससे हमारा कोई सम्पर्क नहीं रहता।

अब, अगर तुम वास्तव में जानना चाहते हो कि भारत का संविधान क्या कहता है, सारे प्रयास कर के उस तक जाओ। और ये कोई बहुत मोटा ग्रन्थ नहीं है। इतना सा, पतला सा है, भारत का संविधान। और जिन उल्लेखों की हम बात कर रहे हैं, जहाँ पर सारे अधिकार उल्लिखित हैं – वो मूल अधिकारों की बात कर रहा है – उल्लेख इक्कीस से शुरू होता है, और उल्लेख तीस या बत्तीस पर ख़त्म हो जाता है। सिर्फ दस उल्लेख पढ़ने हैं, और हर उल्लेख दो वाक्य है, बस। इससे ज्यादा नहीं है। और कितना मज़ा आता अगर तुमने पढ़ ही रखा होता। क्या वह सच में एक महत्वपूर्ण परिज्ञान नहीं होता। सोचो इसके बारे में। तुम्हें चालीस हज़ार पन्ने नहीं पढ़ने हैं। जितने मूल अधिकार हैं वो तीन-चार पन्नों में ख़त्म हो जाते हैं। और बहुत साधारण भाषा में लिखी हुई है।

तो, पहली बात तो ये कि जो बात का आधार है, वो ठीक नहीं। दूसरी बात, हम किस सब के बारे में शिकायत करने जा रहे हैं? क्या मैं इस बात की शिकायत कर सकता हूँ कि कुछ लोग बैठे हैं जिनका ध्यान नहीं बन पा रहा?

क्या मैं इस बात की शिकायत कर सकता हूँ, कि कुछ लोग बैठे हैं, जिनका ध्यान नहीं बन पा रहा? क्या मैं ये शिकायत कर सकता हूँ, कि मैं अधिक वज़नी हो गया हूँ? क्या मैं ये शिकायत कर सकता हूँ, कि आज गर्मी ज़्यादा है? क्या मैं ये शिकायत कर सकता हूँ, या तुम लोग कर सकते हो, कि एक एक बेंच पर तीन-तीन, पाँच-पाँच लोगों को बैठना पड़ रहा है, और मैं जानता हूँ कि ये असुविधाजनक होगा। पसीना भी आ रहा होगा, और जगह भी कम पड़ रही होगी। हम जीवन में किस किस के बारे में शिकायत करेंगे? शिकायतों का कोई अंत नहीं है। क्योंकि कल्पनाओं का कभी कोई अंत नहीं हो सकता, स्थिति जैसी भी हो उसके बेहतर होने कि कल्पना तो कि जा सकती है ना?

मान लो तुम्हारे पास दस हज़ार रूपये हैं।

तुम आसानी से कल्पना कर सकते हो और उसमें एक जोड़ सकते हो। और आप कह सकते हो, कि मेरे पास दस हज़ार एक रुपये होने चाहिए थे। मुझे शिकायत करने दो कि मेरे पास एक हज़ार दस रुपये क्यों नहीं हैं? आप के पास दस करोड़ हों भी आप उसमें एक रुपया जोड़ के शिकायत कर सकते हो कि वो दस करोड़ एक रुपये क्यों नहीं है मेरे पास? हम अपना जीवन कैसे जीने जा रहे हैं – शिकायतों में या बोध में?

याद रखो, हर शिकायत कल्पना उपजाती है। समझो इस बात को। यहाँ यह है जो वास्तविकता है। तुम शिकायत कैसे करोगे? इस वास्तविकता को किसी कल्पना से तुलना कर के। और फिर आप कहते हो, वास्तविकता ठीक नहीं। पर जो है, वो तो सिर्फ वास्तविकता है, कल्पना का तो अस्तित्व ही नहीं है। कल्पना का तो अस्तित्व ही नहीं है, या है? कल्पना तो अपने मूल स्वभाव से अवास्तविक है।

श्रोता : जी सर।

वक्ता : और कल्पना का कोई अंत नहीं है। आप कल्पना करते रह सकते हैं और वास्तविकता से अतृप्त रह सकते हैं। तुम्हारे सवाल को दो तलों पर समझना होगा। पहला तल है तथ्यों का तल कि आरक्षण अस्तित्व में क्यों है? क्या आरक्षण के अस्तित्व में रहने का कोई औचित्य है। वास्तव में भारत में ये जाति का सवाल है क्या? क्या इसे सैंतीस प्रतिशत या इकतालीस प्रतिशत या इक्यावन प्रतिशत के तल पर होना चाहिये था? एक तो ये है जिसको की ताथ्यिक तल पर संबोधित किया जाए। वैसे भी समझ सकते हो। अगर वैसे समझना चाहो, तो भी कुछ बातें समझ में आएँगी। उसमें ये नहीं निकल कर आएगा कि मुझे स्वीकार करना है, या अस्वीकार करना है।

समझ बनेगी, समझ। ये समझ क्या होती है? स्वीकार या अस्वीकार करके तो समझ बन ही नहीं सकती। आपने मान ही लिया कि संविधान बढ़िया है, इसे समझने में असफल होने के बावजूद भी। क्योंकि पहले से ही मान के बैठे हो। और अगर पहले से ही अस्वीकार कर दिया कि ये बेकार चीज़ है, तब भी आप समझ नहीं पाएँगे। क्योंकि पहले से ही अस्वीकार कर के बैठ गए हो।

जब तुम तथ्यों में जाते हो तो तुम्हें मिलती है ‘समझ’। वो एक तल है। दूसरा तल है और दूसरा अधिक आवश्यक है।दूसरा अधिक आवश्यक है। दूसरा है प्रश्नकर्ता के मन को देखना। मेरे मन में ये सवाल उठ क्यों रहा है? आज तुम यहाँ बैठे हुए हो, तुम्हारे सामने मौका है, तुम कुछ भी बात पूछ सकते थे जो तुम्हारे विषय में होती। पर मेरा मन ऐसा है, जो अन्तरावलोकन नहीं कर सकता। वो खुद को नहीं देख सकता, तो वो क्या करता है? वो किसी बाहरी स्थिति को देखता है।

और मैं आपसे वादा करता हूँ कि बाहरी स्थितियाँ कभी भी परफेक्ट नहीं रहेंगी। जीवन में कभी भी ऐसे मुकाम पर नहीं आओगे जब तुम कह सको कि यह एक परफेक्ट स्थिति है, यह एक परफेक्ट कानूनी व्यवस्था है, ये एक परफेक्ट आर्थिक व्यवस्था है, यह एक परफेक्ट काम करने की जगाह है। आप कभी भी परफेक्ट स्थित के सामने नहीं आ पाएँगे। और मज़े की बात ये है, कि जहाँ स्थिति परफेक्ट होगी तो वहाँ तुम क्या कर रहे हो?

(छात्र हँसते हैं)

तुम सबसे बड़ी कमी बन जाओगे वहाँ पर।

परफेक्ट सिचुएशन इसीलिए इम्पर्फिक्ट बन जाएगी क्योंकि तुम हो वहाँ पर। परफेक्ट स्थिति, तुम्हारे होने से ही इम्पर्फिक्ट बन जानी है। तुम किस परफेक्शन की तलाश कर रहे हो? तुम्हारे लिए सिचुएशन की इम्पेर्फेक्शन ये है कि तुम्हारा पड़ोसी तुम से बहुत सट के बैठा है और तुम्हें पंखे की हवा नहीं आ पा रही है। गर्मी लग रही है। और तुम्हारे पड़ोसी के लिए इम्पेर्फेक्शन ये है कि तुम उसके बहुत क़रीब बैठे हो। तो यानी कि अगर इम्पेर्फेक्शन हटाना है तो शायद तुम्हें ही गायब होना पड़ेगा। आप जीवन ऐसे स्टेज में हैं जब बहुत सारी बड़ी चुनौतियाँ आपका इंतज़ार कर रही हैं। तुम परिस्थितियों को प्रतिकूल कह सकते हो। अगर आप गलतियाँ ढूँढने के मोड में चले जाते हैं, परिवेश के साथ, परिस्थिति के साथ, अवस्था के साथ तब आप अपने जीवन को सिर्फ उलाहना में ही बिता देंगे।

इसीलिए मेरी सलाह दो परती हैं – तथ्य को देखो। देखो कि जिन्होंने जो शुरू किया, आरक्षण और ये सारी बातें, उनका अभिप्राय क्या था? जब शुरू किया, तब उसकी क्या प्रासंगिकता थी, और वो प्रासंगिकता अब बची है क्या? उसको समझो। ध्यान से समझो, बोध से समझो, तुम्हारे पास बुद्धि है, विवेक है, समझने के लिये।

इन सब का प्रयोग करो और तुम इसे समझ जाओगे। तुम इसके पीछे की राजनीति को समझ जाओगे, तुम इसके पीछे का सोच-विचार समझ जाओगे। तुम सब कुछ समझ जाओगे।

मंडल कमीशन के रिपोर्ट्स को पढ़ो कि क्या कहते हैं और क्यों कहते हैं। और जो उन्नीस सौ इक्यानवे में कहा गया था, क्या वह प्रासंगिक है। खोजो, खुद के लिये खोजो।

दूसरों पर निर्भर मत रहो। और यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। यदि यह प्रश्न तुम्हारे लिए इतना महत्वपूर्ण है, तो चार घंटे इंटरनेट पर बिताओ और तुम्हें सारे तथ्य पता चल जाएँगे। ये प्रश्न महत्वपूर्ण है, तभी तो पूछ रहे हो ना? अगर महत्वपूर्ण है, तो चार घंटे लगाओ, इंटरनेट पर। और तुम बहुत कुछ जान जाओगे।

पहली बात तो यह, और दूसरी जो मैंने सलाह दी – अपने मन की और देखो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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