प्रश्नकर्ता: सर, पिछले दिनों आपने एक जगह पर कहा था कि 2025 एक निर्णायक साल होने वाला है। सबसे खतरनाक साल होने वाला हैं।
आचार्य प्रशांत: खतरनाक साल।
प्रश्नकर्ता: तो मैं आपसे यह समझना चाहता हूँ की आपने ऐसा क्यों कहा था? 2025 हमारे लिए खतरनाक क्यूँ होने वाला है?
आचार्य प्रशांत: ये लोग तो हैप्पी न्यू ईयर कराने आए हैं सब। और शुरुआत में ही इससे हो गया कि 2025 आज तक का सबसे खतरनाक साल होने वाला है। स्केरी न्यू ईयर , हैप्पी न्यू ईयर की जगह। कारण कोई इधर एक, दो, दस साल के भीतर नहीं बैठा हुआ है। बहुत लम्बा चौड़ा कारण है और उसकी चोट शताब्दियों तक जानी है।
कोई घाव ऐसा होता है जो भर जाता है साल में चार साल में। तो हम नहीं कहते कि बहुत खतरनाक चोट लग गई है पर ऐसा एक रोग लगा है जिसका उपचार सौ-हज़ार सालों में उसको कहते हैं, सेंटेनियल और मिलेनियल टाइम स्केल्स उनमें भी संभव नहीं होने वाला। और घड़ी टिक-टिक कर रही है बहुत हमारे पास समय नहीं है। इसलिए मैंने कहा बहुत सोच समझ के जिम्मेदारी के साथ कि ये सबसे खतरनाक नववर्ष है मानव इतिहास का, आज तक का, 2025।
देखिए, यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज है। इसमें बीच, बीच में कुछ बातें बताऊंगा, जो जो सूचना जैसी है, उसको ले लीजिएगा। उसी से बात पूरी समझ में आएगी। तो उसके तहत हर साल लोग मिलते है। जैसे अभी मिले थे न बाकू में? सारे देश वहाँ पर बैठक करते हैं, उसे बोलते हैं, कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज, सीओपी। तो जो पन्द्रहवीं सीओपी हुई थी, पेरिस में, वहाँ पेरिस समझौता हुआ। पेरिस समझौता और पेरिस समझौते ने कहा 2015 में कि जितना अभी कार्बन एमिशन का स्तर है, इसको 45 प्रतिशत घटाना होगा 2030 तक और नेट जीरो पर आना होगा 2050 तक। क्यों आना होगा? ये आंकड़े क्यों निर्धारित करे गए? इसलिए निर्धारित करे गए ताकि किसी भी तरीके से जो तापमान में वृद्धि है, ग्लोबल टेम्प्रेचर राइज है, उसको 2 डिग्री सेंटीग्रेट से नीचे रोका जा सके। यह उद्देश्य था।
कहा कि डेढ़ डिग्री हम चाहते हैं, पर डेढ़ डिग्री न भी हो पाए; तो 2 डिग्री से ज्यादा आगे नहीं जाना चाहिए टेंप्रेचर राइज़। ये हमने 2015 में समझौता करा था, 195 देश मिलकर बैठे थे। और सबको ये बात समझ में आई थी कि 2 डिग्री पर इसको रोकना बहुत ज़रूरी है। तो लक्ष्य था टेम्प्रेचर राइज को रोकना, डेढ डिग्री का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
और उसके लिए जो रास्ता सुझाया गया वो ये था कि 2030 तक अपने एमिशन्स को लगभग आधा कर दो और 2050 तक नेट जीरो पर आ जाओ। नेट जीरो क्या होता है कि जितना एमिट कर रहे हो उतना प्राकृतिक रूप से इको-सिस्टम एब्जॉर्ब भी कर लें। तो कुल मिलाकर के ह्यूमन एक्टिविटी के द्वारा वातावरण में जरा भी कार्बन एडिशन न हो, ये नेट जीरो है। तो कहा गया कि नेट जीरो 2050 तक हो जाए और 2030 तक लगभग 45 प्रतिशत आप कम कर दो।
तो इसके लिए सब देशों ने मिल-बैठ कर के बड़ी लंबी चौड़ी नेगोसिएशन, खींचतान के बाद एनडीसी अपने अपने लिए निर्धारित करे, एनडीसी क्या है? नेशनली डिटरमेंड कॉन्ट्रीब्यूशन, हर देश ने अपने लिए लक्ष्य बनाया कि मैं अपना, अपना एमिशन इतना इतना कम करूँगा और लक्ष्य सबके अलग अलग थे क्योंकि सब देशों की आर्थिक भ्रष्टभूमि दूसरी होती है। कोई अमीर है, कोई गरीब है, किसी के एमिशन ज्यादा हैं जैसे भारत के पर पर कैपिटल एमिशन बहुत कम है। तो उसमें ये सब भी हुआ कि जो विकसित देश हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से ज्यादा एमिशन्स करे है, वो विकासशील देशों को पैसे भी देंगे, आर्थिक सहायता देंगे ताकि वो अपने एमिशंस कट कर सके, बहुत तरह की उसमें बातें हुई। पर उन सारी बातों का जो सार था वो ये था कि 2030 तक 45 प्रतिशत एमिशंस जीतने हैं, उनको कम करना है।
अच्छा, तो और वो एमिशनस कम होते रहे हैं, उस पर प्रगति होती रहे उसके लिए कहा हर साल मिलेंगे। और वो सीओपी होता है हर साल और हर 5 साल में जो आपने अपने लिए टारगेट बनाए हैं, उनको आपने कितना पाया, उसके हिसाब से अगले 5 साल के बनाए जायेंगे। तो 2015 में बने थे 2020 के लिए और फिर 2020 में बने हैं 2025 के लिए। अगले साल फिर से उसकी बजेटिंग होगी की किसको कहा जाना है, 2025 में अब हम फिर से वैश्विक स्तर पर सभी देश अपने अपने टार्गेट एमिशन्स का स्तर निर्धारित करने जा रहे हैं। ये होने जा रहा है 2025 में।
हमने कहा था कि हम 2030 तक 45 प्रतिशत कम करेंगे। खुशी मनाई थी, मिठाई बटी थी। अब मैं आपसे पूछ रहा हूँ क्या 2024 आ गया, दस साल हो ही जायेंगे। 2025 लगेगा तो 15 साल का हमने अपने आप को समय दिया था 2015 से 2030 के बीच में, उसमें से दस साल हमने बिता दिए हैं और अब इस साल हम फिर से अपने लिए बजट निर्धारित करने जा रहे हैं। और 2030 तक पहुँचने का आखिरी नेशनल बजट होगा सभी देशों का। तो बताइए हम कहाँ तक पहुँचे होंगे? हमें 45 प्रतिशत कम करने थे और जो अभी हमारा कर्व है, जो हमारी ट्रेजेक्टरी है, वो क्या बोल रही है हमने कितना काम करा है या क्या कर रहा है?
हमने यह करा है कि जो दुनिया भर के सारे देशों ने अपने लिए एनडीसी रखे हैं, अगर उनको आप हंड्रेड परसेंट शत प्रतिशत भी पा लो तो एमिशंस में बस 2 प्रतिशत की कमी आने वाली है। यह आपका बेस्ट केस सिनारिओ है। अभी यह नहीं है कि आपने जो टार्गेट बनाया है, वो अचीव्ह नहीं हो रहा है। पेरिस एग्रीमेंट ने बोल दिया कि इतना करना है 2030 तक। अच्छा इतना तो करना है। वो तो एक एग्रिगेट फिगर है। अब उस एग्रीगेट फिगर को सब देशों ने आपस में बांटा। 194 देश और 195 यूरोपियन यूनियन, इन्होंने आपस में बाटा, इतना, इतना, इतना, इतना करना। उन्होंने अपने अपने लिए लक्ष्य बनाए।
ये जो लक्ष्य बनाए गए हैं, इनको अगर पूरा भी हासिल कर लिया जाए तो जो एमिशंस हैं उनमें बस 2.6 प्रतिशत की कमी आने वाली है। अगर पूरा भी हासिल कर लिया जाए तो। और आपको क्या लगता है कितना हासिल किया जा रहा होगा? जिन्होंने जितने लक्ष्य बनाए हैं, ज्यादातर देश अपने लक्ष्यों का आधा भी नहीं हासिल कर रहे हैं। और जब हम प्रतिशत लेते हैं टार्गेट कम्पलीशन का तो उसमें जो देश सबसे पीछे हैं, उनमें भारत का भी नाम है। यह अलग बात है कि आपने अपने लिए जो बनाया है लक्ष्य टारगेट एनडीसी, आप उसको अगर पा भी लो तो कुल मिला कर के कितनी कमी कर पाओगे? 2 परसेंट की, करनी कितने की थी? 45 प्रतिशत की कमी करनी थी। और आप अगर अपने द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय लक्ष्य पूरी तरह भी पा लो कार्बन रिडक्शन का, अगर पा भी लो तो भी कितनी कर पाओगे 2 प्रतिशत और हम यह 2 प्रतिशत भी नहीं कर पा रहे हैं।
तथ्य यह है कि कार्बन एमिशन रिडक्शन छोड़ दीजिए, कार्बन एमिशन साल दर साल बढ़ रहे हैं और उन्हें कितनी तेजी से कम करने की जरूरत है, ये इसी से समझ लीजिए कि हमने कहा था कि 2030 में हमको उनको लगभग आधा कर देना है, हम 1 इमरजेंसी पर खड़े हैं, ये बात हमें 2015 में ही पता थी, 2015 में हमने कहा 2030 तक आधा करो और 2050 तक नेट जीरो करो। पहली बेईमानी ये करी कि वहाँ एग्रीमेंट तो हो गया, वहां से वापस आ गए। उसके बाद हर देश ने जब अपने अपने लिए अलग अलग लक्ष्य बनाये तो लक्ष्यों में ही बेईमानी कर दी। वो लक्ष्य ही ऐसे थे कि उनको पूरा पा लो तो भी कुछ हासिल नहीं होने वाला। और उसके बाद वो जो बनाए भी थोड़े बहुत, उनको भी दूर दूर तक पाने के कोई आसार नहीं है।
कार्बन एमिशन हमें इतनी तेजी से कम करने है, थोड़ा सा कम तेजी से भी कम करोगे तो भी कुछ बहुत भयावह घटने वाला है, हमें इतनी तेजी से कम करने है। अगर आप इतनी तेजी से भी कम करोगे, जो डिक्रीज है, उसका जो स्लोप है, ढलान है, वो थोड़ा भी कम होगा तो भी एक तरह की प्रलय है। और यहाँ तो ये छोड़ो कि कितनी तेजी से काम हो रहा है, कम नहीं हो रहा, बढ़ रहा है। बढ़ रहा है और बढ़ रहा है।
आप अगर ग्लोबल टेम्प्रेचर राइज़ का कर्व देखेंगे तो वो है इनक्रीजिंग एटन इनक्रीजिंग रेट, न सिर्फ बढ़ रहा है, हमें कम करना है और न सिर्फ बढ़ रहा है, बल्कि एक्सेलरेट कर रहा है, बढ़ तो रहा ही है, यह बढ़ने की दर भी बढ़ रही है। हम यहाँ पर खड़े हुए हैं। क्यों पेरिस एग्रीमेंट ने कहा कि डेढ़ डिग्री पर रोक देना भाई? क्यों कहा? क्योंकि डेढ़ डिग्री पर कुछ बहुत खास है जो शुरू हो जाता है डेढ़ से दो डिग्री के बीच में, वैसे ये तो पता होगा न की डेढ़ डिग्री का जो लक्ष्य हमने लोन निर्धारित करा था की हम ग्लोबल वार्मिंग को हमेशा के लिए डेढ़ डिग्री पर रोक देना चाहते हैं। 2050 और 2050 के बाद भी वो डेढ़ डिग्री, सन 2024 में ही हमने तोड़ दिया ये खुशखबरी तो मिली होगी की नहीं मिली है?
हमने कहा था कि डेढ़ डिग्री वो अधिकतम राइज है, जिसके बाद टर्म यूज होती है- लिवेबल प्लेनेट बचेगा। डेढ़ डिग्री के बाद प्लैनेट लिवेबल नहीं रह जाएगा, किस वजह से नहीं रह जाएगा, उस कारण पर भी आ जाएंगे। पर वो जो हमने अपने लिए लॉन्ग टर्म एक लिमिट निर्धारित करी थी डेढ़ डिग्री की। वो लिमिट हमने 2024 में ही पार कर दी है: 1.54 पर हम आ चुके हैं। बस इतनी सी बात है कि अभी उसको फॉर्मली एकनॉलेज नहीं किया जाएगा। क्योंकि ये डेटा 1 2 साल का है। 2023, 2024, उसको फॉर्मली एकनॉलेज करा जाता है। इस क्लाइमेट में लॉन्ग टम ट्रेंड लिए जाते हैं। तो दस साल, 20 साल तक जब देखा जाएगा की लगातार डेढ़ डिग्री से ऊपर है, तब जा कर के उसको आधिकारिक, ऑफिशियल स्वीकृति मिलेगी कि हाँ, माना की डेढ़ डिग्री पर वो हो चुका है।
यह सबको स्पष्ट था कि डेढ़ डिग्री पर कुछ बहुत खतरनाक होता है, बहुत खतरनाक। एक टिपिंग पॉइंट है डेढ़ डिग्री। क्या होता है ऐसा? अच्छा, मैं पूछूँ क्या होता है ऐसा? उससे पहले यह तो स्पष्ट है न कि डेढ़ डिग्री वाली बात अब बहुत पीछे छूट गई। अब हम उसको रोक नहीं सकते। वो छूट गया। पेरिस में हमने अपने साथ मजाक करा था। पेरिस में। हमने कहा था 2030 तक हमें 45 प्रतिशत एमिशन कम करने है। और 2050 तक हमें नेट जीरो पर आ जाना है। वो हमने मजाक करा था अपने साथ। कम करना तो छोड़ो हमने और बढ़ा दिया है, ये स्पष्ट हो रहा है?
क्या होता है डेढ़ डिग्री पर? डेढ़ से दो डिग्री के बीच में फीडबैक साइकल्स सक्रिय हो जाते हैं, जिसके बाद अब आपके हाथ में नहीं रह जाता किसी भी तरीके से तापमान वृद्धि को रोकना। अब आप नहीं रोक सकते। मीटरोलॉजी एग्जैक्ट साइंस नहीं है। तो हम यह नहीं कह सकते कि वो बिल्कुल डेढ़ पर होगा या 1.62 पर होता है या कुछ साइकल्स होते हैं जो डेढ़ डिग्री पर सक्रिय होते हैं कुछ 1.8 पर होते हैं। पर वैज्ञानिकों का मानना है कि ये सारे साइकल्स मैं अभी आपसे उनकी बात करूंगा। ये सारे साइकल्स डेढ़ से 2 डिग्री के बीच में सक्रिय होना शुरू हो जाते हैं। और ये साइकल्स म्यूचुअली रीइनफोर्सिंग भी होते है मतलब एक साइकिल शुरू हुआ तो उसके शुरू होने की वजह से ही दूसरा साइकिल शुरू हो जाता है। कैसे होते है ये साइकल्स समझेंगे
इनमें से एक दो ऐसे हैं जिनकी मैं आपसे कई बार बात कर चुका हूँ। तो आपको पता है कुछ और आपको नए नए आज सुनाऊँगा नव वर्ष की खुशी में।
तो सबसे पहले तो जो आइस है, आर्केटिक आइस हो गई, ग्लेशियल आइस हो गई, उससे संबंधित। तो बर्फ़ सफेद रंग की होती है। है न? तो उस पर जब धूप पड़ती है, रेडिएशन पड़ता है तो क्या करेगी उसको वो उसको रिफ्लेक्ट बैक कर देती है, रिफ्लेक्ट बैक कर देती है तो हीट एब्सऑप्शन नहीं होता, है न?
तो ये काम बर्फ करती थी, पर तापमान वृद्धि के कारण बर्फ रही है पिघल। जब बर्फ पिघलती है तो बर्फ के नीचे से क्या एक्सपोज हो जाता है। पत्थर या सेडीमेंट्स या कभी कभी मिटटी स्योइल ये किस रंग के होते हैं? ये गाढ़े रंग के होते हैं। जब ये गाढे रंग के होते हैं तो ये क्या करते हैं, ये रेडिशन को एब्जॉर्ब करते हैं जब ये एब्जॉर्ब करेंगे तो ये क्या हो जाएंगे, गर्म। जब ये गर्म हो जाएंगे तो इनके ऊपर जो बर्फ है या इनके बगल में जो बर्फ है वो और ज्यादा, जब और ज्यादा, बर्फ पिघलेगी तो और ज्यादा, ये जो रॉकी मैटर है, डार्क ये और ज्यादा एक्सपोज होगा। जब ये और एक्सपोज होगा तो और गर्म होगा और गर्म होगा तो और बर्फ पिघलेगी, और बर्फ पिघलेगी तो और एक्सपोज होगा, और एक्सपोज होगा तो और गर्म होगा और गर्म होगा तो और बर्फ पिघलेगी। अब आप इसको नहीं रोक सकते, अब आप इसको नहीं रोक सकते।
अब ये साइकिल शुरू हो गया तो हो गया। आप इसको नहीं रोक सकते। और ये कहाँ तक जाएगा, इस बारे में दुनिया के नेता अपने अपने लोगो से कुछ बोलते नहीं हैं, चुप रहते हैं। और ये 6 डिग्री, 7 डिग्री, 8 डिग्री, पता नहीं कहाँ तक जा सकता है। बात करना भी व्यर्थ है क्योंकि वो बात करने के लिए कोई बचेगा नहीं। हम बहुत नाजुक लोग हैं, विशेषकर जो हमारी मनुष्य प्रजाति है, होमो-सेपियंस। एक बहुत नैरो टेम्प्रेचर रेंज के भीतर ही हम जी सकते हैं। हम जंगल पर आश्रित नहीं हैं, हमें फसले उगानी होती है। वो जो हमारी फसलें हैं वो भी कुछ खास जगहों पर ही उगती हैं। कुछ खास तरीके की वो बारिश मांगती हैं, कुछ खास तरीके का वो तापमान मांगती हैं। वो ये भी मांगती है कि अगर हवा भी चले तो कितनी चले, कितनी न चले, बारिश हो भी तो किस मौसम में हो, किस मौसम में न हो। तो इंसान बहुत जबरदस्त तरीके से आश्रित है, प्रकृति पर और आबादी भी हमने इतनी बढ़ा ली है कि उसको खिलाना एक बड़ा संवेदनशील मुद्दा है। तो बहुत कुछ ऐसा हो जाएगा जैसे ही ये साइकिल सक्रिय होते है की उसकी चर्चा ना हीं करी जाए तो बेहतर है। और साइकिल पर आते हैं बहुत सारे।
बर्फ की बात हम कर रहे हैं। तो परमा फ्रोस्ट, परमा फ्रोस्ट क्या होता है परमाफ्रोस्ट साइबेरिया अलास्का कैनाडा इन जगहों की वो चट्टान होती है या मिट्टी होती है जो लगातार जमी ही रहती है। और जब ये जमी रहती है तो ये अपने भीतर बहुत सारा कार्बन रोके रहती है, बांधे रहती है। परमा फ्रोस्ट में कितना कार्बन है। जितना पृथ्वी के पूरे वातावरण में कार्बन है उससे 2 गुना। लेकिन ये अभी तक सिक्वेस्टर था, बंधा हुआ था, लॉक्ड था, क्यों लॉग्ड था क्योंकि इसके ऊपर बर्फ चढ़ी हुई थी, इसके ऊपर बर्फ चढ़ी थी। जैसे जैसे बर्फ पिघलती जा रही है, ये कार्बन ऑक्सीजन के संपर्क में आता जा रहा है और एटमॉस्फेयर में वातावरण में रिलीज होता जा रहा है कार्बन डाईऑक्साइड बन के।
जब ऑक्सिजन मिल जाता है ऑर्गेनिक मैटर को, तब तो फिर भी कम नुकसान होता है उससे सिर्फ कार्बन डाईऑक्साइड बनती है। लेकिन जब वो ऑर्गेनिक मैटर जो मिट्टी में हैं, चट्टान में है, जब उसको पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलता तो उसका एनएरोबिक ऑक्सीडेशन होता है और तब कार्बन डाईऑक्साइड नहीं बनती है तब मिथेन बनती है। और मिथेन का जो ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल होता है वो कार्बंडाईऑक्साइड की अपेक्षा 85 गुना होता है। मतलब कार्बनडाई आक्साइड के 85 मॉलिक्यूल जितनी हीट ट्रैप करेंगे उतनी ही मिथेन का एक अकेला मॉलिक्यूल करता है। यह परमा फ्रोस्ट जो है यह पिघल रहा है और बहुत तेजी से पिघल रहा है। और इसके पिघलने से कार्बन डाईऑक्साइड और मिथेन दोनों ही वातावरण में रिलीज हो रहे हैं। समझ में आ रही है बात ये?
और इसको आप रोक नहीं सकते। उसने एक बार पिघलना शुरू किया तो क्या करेगा वो? हवा में क्या डालेगा? मिथेन और मिथेन जैसे ही जाएगी वातावरण में वो क्या करेगी और तापमान बढ़ाएगी। जब और तापमान बढ़ाएगी तो परमा फ्रोस्ट और पिघलेगा जब और पिघलेगा तो तो वातावरण में और क्या जाएगी। मिथेन जब वो जाएगी और तापमान बढ़ाएगी तो और पिघलेगा इसको आप रोक नहीं सकते।
आप नेट जीरो कर भी दीजिये तो भी नहीं रुकेगा। नेट जीरो का मतलब है कि ह्यूमन एक्टिविटी से हम अब कोई अतिरिक्त एडिशनल कार्बन डाईऑक्साइड एटमॉसफेयर में नहीं जोड़ेंगे। आप मत भी जोड़ो तो भी ये साइकिल सक्रिय हो गया तो अब पछताए होत क्या? अब आपको जो करना है कर लो। तापमान। तो अब इसको बोलते हैं रन अवे क्लाइमेट चेंज जिसको आप रोक नहीं सकते। इसी के लिए शब्द इस्तेमाल होता है कार्बन बॉम्ब जिसको आप रोक नहीं सकते, उसका चेन रिएक्शन होता है। अब वो शुरू हो गया तो अब हो गया आप उसको नहीं रोक पाओगे।
इसी तरह से होते हैं, पीटलैंड। पीटलैंड क्या होते हैं? और क्यों उनकी बात कर रहे हैं। क्योंकि परमा फ्रास्ट के बाद सबसे ज्यादा कार्बन इन्होंने ही अपने भीतर हमेशा दबा रखा होता है। ये कौन सी जगह होती है, वेटलैंड्स जानते हैं न आप वेटलैंड्स क्या होते है?
फ्लडेड जगह, जहाँ पर जमीन के ऊपर या पत्थरों पे, मिट्टी पे या ऑर्गेनिक मैटर। पर लगभग हमेशा पानी चढ़ा रहता है, लगभग हमेशा वहां पर पानी चढ़ा रहता है। जब वहाँ लगभग हमेशा पानी चढ़ा रहता है तो वहाँ पर ऑक्सीजन कम रहती है न? ऑर्गेनिक मैटर है और उसके ऊपर लगातार पानी चढ़ा हुआ है जैसे वेटलैंड होता है। तो अब जब पानी चढ़ा हुआ है तो नीचे जो ऑर्गेनिक मैटर है उसे ऑक्सीजन तो बहुत मिलेगी नहीं की मिलेगी?
थोड़ी बहुत मिलेगी वो भी जो पानी में घुली रहती है तो उसका जो डीके होता है वो एनारोबिक होता है। बहुत सारी वहाँ पर मिथेन स्टोर हो जाती है। कितनी मिथेन स्टोर करते हैं पीटलैंड। पृथ्वी के सारे जंगल जितनी कार्बन डाईऑक्साइड स्टोर करते हैं, उससे ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड इक्विवेलेंट पीटलैंड में स्टोर्ड है। और ये जो पीटलैंडस हैं, इनकी ड्राइंग हो रही है। जैसे जैसे पृथ्वी गर्म होती जा रही है, ये सूखते जा रहे हैं। सूखने के कारण?
सिर्फ यही नहीं है कि पृथ्वी गर्म हो रही है यह भी है कि आप वहां पर जाकर के अर्बन डेवलपमेंट कर देते हो। या जो पीट होती है उसके कई तरीके के इस्तेमाल होते है, हार्टीकल्चर में होता है, फ्यूल में होता है। आप वो पीट निकाल लेते हो। तो ये पीटलैंड सूखते जा रहे हैं। तो पानी के नीचे जितने मीठे और कार्बन डायआक्साइड दबी हुई थी, अब वो क्या हो रही है, वो एक्सपोज हो रही है, वो एक्सपोज हो रही है तो कहाँ जा रही है? वो वातावरण में जारी जब वातावरण में जाएगी तो तापमान को और बढ़ा रही है। जब और बढ़ा रही है तो जो पीटलैंड है, यह और ज्यादा सूख रहा है। और इनमें से परमा फ्रोस्ट से और पीटलैंड से इतनी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है, जितनी कि ह्यूमन एक्टिविटी से तो कभी निकल भी नहीं सकती।
ह्युमन एक्टिविटी से इतनी निकली है कि इंडस्ट्रियल एज आने के बाद से 1750 से अभी तक हमने 280 पीपीएम से लगभग 430 पीपीएम कर दिया है। यह हमारा काम है पर यह करके हमने एक ऐसे दानव को जगा दिया है जो हमारी एक्टिविटी से कहीं ज्यादा कार्बन अब एटमॉस्फियर में छोड़ रहा है। और ये सब कुछ शुरू हो चुका है। लेकिन दुनिया के नेता अपनी अपनी जनता से यह बात बिल्कुल नहीं कर रहे हैं। यह बात छुपाई जा रही है, क्यों छुपाई जा रही है? क्योंकि कार्बन एमिशन टार्गेट्स अगर आपको मीट करने हैं तो आपकी जो विकास की अवधारणा है और जिस तरीके से चुनावी सपने बेचे जाते हैं, जनता को वो रोकने पड़ेंगे। तो कोई नेता खुल करके अपने देश की जनता को नहीं बता रहा है कि आप प्रलय के कितने पास आ चुके हैं। कोई नहीं बता रहा।
अमेरिका में ट्रंप जैसे नेताओं ने तो 2020 में बाहर ही कर दिया था अमेरिका को पेरिस समझौते से ही, फिर वो वापस किया 2021 में। पर वो अभी भी यही कह रहे हैं कि नहीं हम मानते नहीं कि एन्थ्रोपोजेनिक हैं, क्लाइमेट चेंज को। जहाँ मान भी लिया गया है, वहाँ मैंने आपको बताया ही कि जो राष्ट्रीय लक्ष्य हमने चुने हैं, रिडक्शन के वो कितने बचकाने है। जैसे चुटकुला हो कि उन लक्ष्यों को पा भी लो तो हमने क्या कहा कितना परसेंट रिडक्शन हो जाएगा 2 परसेंट और करना कितना था 45 परसेंट।
कोई नेता, कोई राजनेता अपने देश से सच नहीं बोल रहा है, क्योंकि ये जो सच है, यह बहुत, बहुत कड़वा होगा। ये सच हमसे कहेगा की अपने बाकी सारे धंधे छोड़ो, अपनी बाकी सारी वरीयताएँ पीछे रखो सीधे सीधे तुम्हारे अस्तित्व का सवाल है खासकर अगर तुम अभी युवा हो और तुम्हारे बच्चे वगैरह है तो। तुम अपने बच्चों के लिए बिल्कुल नर्क की आग छोड़ के जा रहे हो। आज तुम्हारे बच्चे को जरा सी धूप लग जाए, या गर्मी लग जाए। तो तुम कहते हो अरे अरे यह क्या हो गया, बिजली चली जाए ऐसी न चले तुम्हारा बच्चा परेशान हो जाता है। और तुम अपने बच्चे के लिए सीधे सीधे हेलफायर छोड़के जा रहे हो।
लेकिन यह बात कोई नेता बताएगा नहीं, मीडिया इसको कवर नहीं कर रहा है क्योंकि कवर करने का मतलब होगा यह जलजलासा आएगा बिल्कुल। तो सब एक फूल्स पैराडाइस में है। फूल्स पैराडाइस समझते हैं? बेवकूफ आदमी जो सोच रहा है सब ठीक है और वो सिर्फ बेवकूफ ही नहीं है, वो बेईमान भी है। इस कदर बेईमान हैं। अगर कोई आके उसको सच बताए तो सच को अस्वीकार करेगा और सच बताने वाले का ही मुह नोच लेगा। ये चल रहा है पूरी दुनिया में, भारत में भी।
हम फीडबैक साइकिल्स की बात कर रहे थे। समुद्र पर आते हैं। तीन-चार तरह के फीडबैक साइकिल्स हैं जो सीधे सीधे समुद्र से संबंधित है। बिल्कुल समुद्र की सतह से शुरुआत करते है। जब तापमान बढ़ता है तो जाहिर सी बात है कि ज्यादा पानी भाप बनेगा, वाष्पीक्रत होगा। और ये जो वाटर पेपर है ये अपने आप में एक जबरदस्त ग्रीन हाउस गैस होती है। आपको ताज्जूब होगा ये जान के कि दुनिया का आधे से ज्यादा ग्रीन हाउस इफेक्ट कार्बन डाईऑक्साइड से नहीं वाटर वेपर से है। क्योंकि वाटर वेपर वातावरण में बहुत प्रचुरता से मौजूद है। 70 प्रतिशत तो हमारा सर्फेस एरिया ओशन्स का है न? तो वहां पर वाटर वेपर बहुत मौजूद रहती है।
और जब तापमान बढ़ेगा तो वाटर वेपर भी बढ़ेगी ज्यादा वेपोराइज होगा न। वो और क्लाइमेट चेंज को बढ़ाएगा। जब क्लाइमेट चेंज बढ़ेगा तो उसका वाष्पीकरण वेपोराइजेशन भी बढेगा तो भाप बढ़ेगी, भाप बढ़ेगी तो और गर्मी होगी और गर्मी होगी तो और भाप बढ़ेगी और भाप बढेगी तो और गर्मी होगी। और ये सब चल रहा है। ये सतह पर होता है।
इसी तरीके से ओस्यिंस की जो कार्बन कैरिंग कैपेसिटी होती है वो टेम्प्रेचर से इनवर्सली प्रपोर्शनल होती है। तापमान जब बढ़ता है तो पानी के लिए कार्बन डाईऑक्साइड सोखना मुश्किल होता जाता है। तो हमारे समुद्र जितने गर्म होते जाएंगे जो कार्बन सिंक्स का वो काम करते थे। दो तरह के कार्बन सिंक होते हैं प्रकृति में ज्यादा बड़े वाले, एक होता है ओशंस और दूसरा होता है जंगल। तो हमारे ओशंस जो कार्बन सिंक का काम करते हैं वो काम उनका कमजोर पड़ता जा रहा है। तापमान बढ़ेगा तो उनमें जो कार्बन डायऑक्साइड कॉन्सन्ट्रेशन है उनकी कैरिंग कैपेसिटी कम होती जाती है। कार्बन डायऑक्साइड कम सोकते हैं और वाटर वेपर ज्यादा बनती है। दोनों तरीकों से आप मारे गए। ये हुई हरकत समुद्र की सतह पर, हम फीडबैक साइकिल्स की बात कर रहे हैं।
अब आप समुद्र में थोड़ा सा नीचे चलिए। जब आप नीचे चलते हैं तो आप कोरल्स को जानते हैं। जीवाश्म, जो रीफ बनाते हैं वो सुन्दर सुन्दर जिन की तस्वीरें आती हैं। पहले ज्यादा सुन्दर आती थी, अब आता है कि देखो बर्बाद हो गई। कोरल रीफ्स। तो ये जो कोरल्स होते है इनकी एक्टिविटी तापमान बढ़ने के साथ मंद, शिथिल पड़ने लगती है क्योंकि प्रकृति ने इनको एक खास तापमान पर काम करने के लिए बनाया है तो इन्होंने जितना ऑर्गेनिक काम कर रखा होता है पहले से, वो भी टूटने बिखरने लगता है, उसका ऑक्सिडेशन होने लगता है और उससे कार्बन डाईऑक्साइड और मिथेन दोनों जनरेट होते हैं। ये समुद्र के बीच में होता है। ये भी एक साइकिल है। जितना आपका समुद्र गर्म होता जायेगा, उतना कोरल रीफ समाप्त होते जाएंगे और वो जितना समाप्त होते जाएंगे उतना वो कार्बन एमिट करते जाएंगे।
अब समुद्र में नीचे चलते है। समुद्र के तल पर मीथेन के हाइड्रेट्स पड़े होते हैं, समुद्र का जो हमारा तल है उसमें मीथेन के हाइड्रेट्स है और वो एक टेम्प्रेचर पर स्टेबल रहते है। केमिस्ट्री का साधारण सा सूत्र होता है भाई कि हर कम्पाउंड, हर टेम्प्रेचर पर स्टेबल नहीं होता, बहुत सारे होते हैं जिन्हें सिर्फ गर्म कर दो तो टूट जाते हैं। जानते हैं न हम ये? तो ये जो मीथेन के हाइड्रेट्स हैं, ये समुद्र के तल पर पड़े रहते हैं ओशन फ्लोर पर और वहाँ ये अपना स्टेबल रहते हैं। पर जैसे से तापमान बढ़ रहा है ये टूट रहे हैं। और ये मीथेन छोड़ रहे हैं। और वो मीथेन वातावरण में पहुंच रही है।
70 प्रतिशत पृथ्वी का जो क्षेत्र है सर्फेस एरिया, वो ओशन्स का है। तो सोचो कि कितने सारे एरिया पर ये हाइड्रेट्स पड़े हुए हैं। और वहां से जो मिथेन निकल रही है वह किस क्वान्टिटी की होगी। और ये सब अभी लगातार चल रहा है, लगातार चल रहा है, समझ में आ रही है बात ये? बहुत दूर की लग रही हैं? अच्छा, ओशन दूर का है। तो यह जो मिट्टी है न हमारी ये मिट्टी भी जब गर्म होती है तो इसमें जो ऑर्गेनिक मैटर होता है उसका ऑक्सीडेशन होता है। ये मिट्टी खुद कार्बन डाईऑक्साइड एमिट करने लग जाती है जैसे जैसे तापमान बढ़ता है।
हमने बर्फ की बात करी, हमने समुन्द्र की बात करी, हमने मिट्टी की बात करी, अब हम जंगलों की बात करे? कि जंगलों में ये फीड बैक साइकिल कैसे सक्रिय हो रहे हैं? एक पेड़ होता है जो कार्बन डाईऑक्साइड सोखता है यह तो हम सब जानते हैं। तो अगर इको सिस्टम हरा भरा है, प्राकृतिक है, स्वस्थ है तो पेड़ का काम होता है कार्बन डाईऑक्साइड सोखते जाना, इसको बोलते है उसकी सिक्वेस्टरिंग। देखो वो कार्बन डाय ऑक्साइड जो वातावरण में रहती तो घातक हो सकती थी, पेड ने उसको क्या बना दिया, पेड़ ने उसको तना बना दिया, पत्ती बना दिया, फल बना दिया, सब्जी बना दिया। तो पेड़ बड़ा जादू करता है। वो कार्बन डायऑक्साइड को लेकर उससे अच्छी अच्छी चीजें बना देता है। लेकिन वही पेड़ जब गिर जाता है तो उसका जो ऑर्गेनिक मटीरियल है वो तना है वो डिकम्पोज होगा और जब वो डिकंपोज होगा डिकंपोजिशन आप सब जानते हैं ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया होती है। जब वो डिकम्पोज होगा तो वो कार्बन डाईआक्साइड छोडेगा।
एकदम उल्टा हो जाएगा मामला। कहाँ तो वो कार्बन डाईऑक्साइड सोखा करता था और अब वो कार्बन डाईऑक्साइड एमिट कर रहा है। वो कार्बन सिंक होता था, जंगल वो कार्बन सोर्स बन गया है। अमेजन में कांगो बेसिन में और जो हमारे साउथ इस्ट एशिया के ट्रॉपिकल फॉरेस्ट हैं, उनमें ये हो रहा है। उनके बहुत बड़े बड़े इलाके हैं इस वक्त जो नेट कार्बन सोर्सेज बन चुके हैं। मतलब उस जंगल के होने से कार्बन और ज्यादा एमिट हो रहा है क्यों?
फोरेस्ट-फायर आ गई, आपने तापमान इतना बढ़ा दिया दुनिया के सब देशों में, 2022 में, 2023 में किस कदर फॉरेस्ट फायर हुई थी, वो सब आप जानते ही है। जब फॉरेस्ट फायर लगेगी तो क्या होगा? जलेगा सब कुछ, जब सब कुछ जलेगा तो क्या होगा? कार्बन डायआक्साइड एमिट होगी। इसके अलावा जब हीट बढ़ती है एटमॉसफियर में, तो उससे तमाम तरीके के एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स होते हैं। जैसे ज्यादा बारिश हो गई, ज्यादा बारिश हो गई, तो पेड़ को क्या होगा? गिरेगा जब गिरेगा तो डिकम्पोज होगा। जबरदस्त तूफान आ गया, जबरदस्त तूफान आयेंगे, तो पेड़ो का क्या होगा? गिरेंगे जब गिरेंगे तो डिकम्पोज होंगे।
तो वही पेड़ जिन्होंने दुनिया भर की कार्बन अपने भीतर समा रखी है, उन्ही पेड़ों के लिए हमने ऐसा माहौल, ऐसा मौसम तैयार कर दिया है कि वही पेड़ उल्टे अब कार्बन एमिट कर रहे हैं। जिएगा तो सोखेगा और गिरेगा या जलेगा तो उत्सर्जित करेगा, एमिट करेगा। और यह चल रहा है।
जितना आप टेम्प्रेचर बढ़ाते जा रहे हो, उतने साइक्लोन्स बढ़ते जा रहे हैं, साइक्लोन्स बढ़ते जा रहे हैं, तो पेड़ों को क्या होता जा रहा है, गिरते जा रहे हैं। इसके अलावा जैसे जैसे वेदर चेंज होता है, वैसे वैसे एक पेड़ के लिए अपनी पूरी ऊँचाई पाना असम्भव मुश्किल होता जाता है। एक जबर्दस्त किस्म का चक्रवात आ जाए, न जाने कितने पेड़ उखड़ जायेंगे। बारिश का जो पूरा पैटर्न है, वो बदल जाए तो कहाँ से पेड़ खड़ा होगा? पहले तो खड़ा नहीं होगा माने, जो सूखने का काम था, कार्बन डाईऑक्साइड वो नहीं करेगा। दूसरे, जितना वो पेड़ है भी, उतना भी नहीं रहेगा वो गिर जाएगा। जब गिरेगा तो और ज्यादा एमिशन करेगा।
और ये मैं अभी एंथ्रोपोजेनिक एमिशन की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं नहीं बात कर रहा हूं कि हमारा जो एनर्जी और ट्रांसपोर्ट सेक्टर है, वो कितनी कार्बन एमिट करता है। मैं नहीं बात कर रहा हूं कि हमारी फूड इंडस्ट्री और एग्रीकल्चर कितना कार्बन एमिट करते हैं। मैं बात कर रहा हूं नेचुरल फीडबैक साइकिल्स की जो एंथ्रोपोजेनिक है भी नहीं, जो अब हमारे कंट्रोल में, नियंत्रण में है भी नहीं। माने आप बिल्कुल साधू बन जाइए। अब कहिए मैं सुधर गया, मैं सीधा आदमी हो गया। अब मैं कोई कार्बन नहीं मिट करूंगा गलती हो गई, माफ कर दो, आप ये कर भी दो, तो भी अब मामला नहीं रुकने का। तीर छूट चुका है। और ये तो तब है जब आप साधु बन जाओ। साधु बनने की हमारी कोई तैयारी है नहीं।
अब बताइए स्वैग से करें 2025 का स्वागत? इस साल फिर सारे देश भारत भी अपने आप को धोखा देने के लिए 2030 के लिए नए लक्ष्य बनाएंगे। कैसे बना लोगे? 2015 से 2025 तक हद दर्जे की बेईमानी और मक्कारी करी है हमने। अब 2025 से 2030 में कैसे जादू कर लोगे छोटा काम ही नहीं करा गया तो बड़ा काम कैसे कर लोगे? ये लगभग ऐसी बात है कि 1 आदमी को 3 दिनों में 3 किलोमीटर चलना था। ठीक है, वो इतना आलसी और मक्कार है कि दो दिन में चला 50 मीटर, 3 दिन में कितना चलना था? 3 किलोमीटर, माने 3000 मीटर, 2 दिन में वो चला है 50 मीटर। और कहा कोई बात नहीं, आखिरी दिन 2950 चलूँगा। यह हो सकता है? तुम अगर इतना चल सकते तो तुमने पहले 2 दिन ही कुछ चल लिया होता।
2025 में सब देश मिल कर के फिर से एक दूसरे से और स्वयं से झूठ बोलेंगे, कोई तरीका नहीं है कि 2030 में एक प्रतिशत भी रिडक्शन हो पाए, 45 प्रतिशत तो दूर की बात है। हमारा कार्बन एमिशन का स्तर हर साल और बढ़ रहा है। जितनी पीपीएम सीओटू है एटमॉस्फियर में, उसमें हम हर साल इजाफा कर रहे हैं, कम नहीं कर रहे हैं।
और प्रकृति ने अब बात अपने हाथ में ले ली है, वो कह रही है, अब मैं देख रही हूँ, अब फीडबैक साइकिलस प्रकृति के पास है, हमारे पास नहीं है। और ये सब फीडबैक साइकिल एक दुसरे को भी रीइनफोर्स करते है। उदाहरण के लिए अगर पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है तो ओसियन का भी वेपोराइजेशन बढ़ रहा है, एक साइकिल दूसरे साइकिल को रिइनफोर्स कर रहा है। और आपस में ये सब एक दूसरे को एक तरह का कंपाउंडिंग इफेक्ट दे रहे हैं। और इस पूरी प्रक्रिया में जो हम कार्बन डाईऑक्साइड ऐड कर रहे हैं, वो तो अलग है, हम जितनी जोड़ रहे हैं, वो तो अलग ही है।
पृथ्वी के भीतर बहुत जबरदस्त तरीके का कार्बन भरा हुआ है। जितना कार्बन पृथ्वी की सतह पर है। और सतह माने इतना ही नहीं कि जहाँ मिट्टी होती है थोड़ा गहराई तक, वायुमण्डल में, वातावरण में तो उसका एक बहुत छोटा सा प्रतिशत है। ये जो कार्बन हमारे एटमोस्फेयर में भर गया है, ये कहाँ से आया है? मंगल ग्रह से आया है क्या? कहाँ से आया है? यह पृथ्वी की सतह से ही तो आया है न। और हम अपनी हवस की पूर्ति के लिए पृथ्वी को हर तरीके से लगातार खोदते जा रहे हैं। हर तरीके से।
पृथ्वी का ही कार्बन है इस मिट्टी का, इसके नीचे की चट्टानों का यही कार्बन है, जो ऊपर जा रहा है। नीचे से सीधे सीधे मिथेन और कार्बन डाईऑक्साइड भी निकाल सकते हैं या नीचे से फ्यूल ऑयल गैस निकाल सकते हैं जिनको जब आप जलाते हो तब वो कार्बन डाय ऑक्साइड बन जाते हैं पर वातावरण में जितना भी कार्बन डाय ऑक्साइड है, वो आया पृथ्वी से ही है। और पृथ्वी से वो अपने आप नहीं आया, हमने निकाला है, हम अपनी हवस के लिए, वहाँ पृथ्वी को खोदते जा रहे हैं, हर तरीके से बर्बाद करते जा रहे हैं और उसका जो कार्बन है, वो यहाँ आता जा रहा है।
मानव इतिहास के 16 कौनज़िक्युटिव 16 सबसे गर्म महीने अभी चल रहे हैं। अभी ये जो पिछले 16 महीने है न? 1 2 नहीं पिछले 16 महीने क्रमशः क्रमवार मानव इतिहास के सबसे गर्म महीने हैं, अब सोचना भी नहीं पड़ता। अब हमें पता है कि जो अगला महीना आएगा, वो भी मानव इतिहास का सबसे गर्म महीना होगा। और हमें ये भी पता होता है कि वो बहुत ठंडा महीना होगा। उदाहरण के लिए जब जनवरी 2025 की बात करो, वो बड़ा गर्म होने वाला है। जैसे दिसम्बर गर्म हैं ये, ये दिसम्बर है, इसमें जो औसत तापमान हैं, वो भी ज्यादा है और जो औसत वृष्टि है, प्रेसिपिटेशन है, वो भी बहुत ज्यादा है। न इतनी बारिश होती है दिसम्बर में, और न माहौल, इतना गर्म रहता है दिसम्बर में।
हमारी जो इंडस्ट्री है न, ऊनी कपड़े, बेचने वाले, हीटर बेचने वाले, ये सब घाटे में जा रहे हैं। बड़ा गर्म दिसम्बर है, और बारिश और हो रही है, छाते वालों को नहीं, समझ में आ रहा है कि हम क्यों चूक गए, हीटर वाले कह रहे हैं, हम छाते के बिजनेस में आ जाए तो चलेगा? ये जो हमारा दशक ही चल रहा है, ये मानव इतिहास का आज तक का सबसे गर्म दशक है।
वर्ल्ड मेटरोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन के होमपेज पर ही, इंडस्ट्रियल एक्टिविटी जब से शुरू हुई है, तब से आज तक का क्लाइमेट चेंज का कर्व है। वो कर्व एक बार दिखाओ सबको या कहीं भी, और भी मिलेगा वह कर्व ऐसा नहीं है कि वो ऐसा है, वो ऐसा है। (हाथ से कर्व को समझाते हुए)
हम अपने आप को इंटेलिजेंट स्पीशीज बोलते है। शायद हम इस पृथ्वी की पहली प्रजाति होंगे, जिसने सेल्फ डिस्ट्रक्ट करा हैं, इंटेलिजेंट। हम बाकी प्रजातियों को कहते हैं, उनके पास बुद्धि नहीं है, ज्ञान नहीं है, चेतना नहीं है। मनुष्य इस पृथ्वी की पहली इकलौती प्रजाति होने जा रहा है, जिसने स्वयं को ही वाइप आउट कर दिया। और उस पर तुर्रा ये कि अभी भी बहुत मिलेंगे, फन्ने ख़ान, जो कहेंगे ये सब तो होक्स है। बताओ कहाँ कोई गर्मी है, इतनी तो ठंडी है, इतनी गर्मी है। तो तुमने यह क्यों पहन रखा है उतार दे।
ट्रम्प जब पिछली बार थे अमेरिका के राष्ट्रपति, तो एक दिन बहुत ठंड पड़ी, एक दिन बहुत ठंड पड़ी। तो बोलते हैं, कहाँ है क्लाइमेट चेंज, इतनी तो ठंड पड़ रही है, कौन सी ग्लोबल वार्मिंग? तो भारत की एक बच्ची थी उत्तर पूर्व की, उसने कहा कि अंकल पहले तो आप क्लास फोर में जाओ और वेदर और क्लाइमेट का अंतर पढ़ो डेफिनिशन नहीं पता है आपको। बात एक व्यक्ति की नहीं है, ऐसी बातें कर-कर के दुनिया के सबसे विकसित मुल्क में राष्ट्रपति का चुनाव जीत लिया गया।
खतरनाक बात यह है कि अगर चुनाव जीतने हैं तो ऐसी बातें करनी जरूरी है। खतरनाक बात यह कि दुनिया में जो भी लोग चुनाव जीत रहे हैं, वो ऐसी ही बातें करके जीत रहे हैं। पिछले 6 7 सालों से दुनिया भर में राइट विंग बहुत मजबूत होती जा रही है। और राइट विंग का क्लाइमेट चेंज पे या तो इनडिफ्रेंस का स्टैंड हैं या डेनायलिज्म का, क्लाइमेट डेनायलिज्म समझते हैं न? हो ही नही रहा, कुछ नहीं है ऐसा, ये सब वैज्ञानिक झूठ बोल रहे हैं। और जो लोग जो नेता जितनी ऐसी बातें करते हैं, उन्हे उतने ज्यादा वोट मिलते हैं।
[ग्राफ्स के लिए पूछते हैं] है कुछ?
जब तक स्लाइड्स रही हैं तो बताता हूँ, एक मजेदार बात। 4 5 कर्व्हस हैं, यह आप लोग अपने लिए एक्टिविटी की तरह करिएगा।
ह्यूमन पोपुलेशन ग्रोथ, कॉन्सेंट्रेशन ऑफ एटमॉस्फेरिक सीओटू, ग्लोबल जीडीपी ग्रोथ, ग्लोबल इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन और ऑब्वियस्ली एटमॉस्फेरिक टेंप्रेचर राइज़।
इनके कर्व्हस अगल बगल रख के देखिएगा, क्या पता चलता है? इनके सबके दुनिया की जीडीपी ग्रोथ, दुनिया की जनसंख्या ग्रोथ और दुनिया की कार्बन डाई ऑक्साइड और टेम्प्रेचर की राइज़। ये सारे कर्व्हस जब आप अगल बगल रख के देखेंगे 1750 से लेकर के 2020 तक तो आपको क्या दिखाई देगा? ये सारे कर्व्हस बिल्कुल एक है, एकदम एक है।
बात बहुत सीधी है, 2 चीजें हैं जो मार रही हैं। हमारे ग्रह को, हमारी प्रजाति को, सारी, प्रजातियों को। पहला जनसंख्या और दूसरा कंजम्शन, पॉपुलेशन एंड कंजम्शन। इतना सीधा मामला है। बहुत ज्यादा इसमें साइंस चाहिए भी नहीं है। हमारी स्पीशीज ने अपनी आबादी बढ़ा बढ़ा के, बढ़ा बढ़ा के और भोग भोग के, सब कुछ बर्बाद कर डाला। तो जाहिर सी बात है अगर कुछ समाधान अभी भी हो सकता है जिस हद तक अब संभावना बची है, वरना एक बार फीड बैक साइकिल सक्रिय हो गए, तो बचने की संभावना कम होने लग जाती है।
अगर कुछ सम्भावना भी है बचने की, तो वो यही है कि यही दोनों चीजें कम करो। क्या आबादी और कंजमशन। और आबादी और कंजमशन भी दो अलग अलग चीजें नहीं हैं। वो दोनों इंसान की एक ही वृत्ति से निकलती है। क्या? भोगो भोगो।
जो मूल अहंता है, जो गहरा अज्ञान है, वही ये दोनों काम करता है। और इसलिए जो लोग ये काम करते हैं, अक्सर दोनों काम करते है। नहीं, मिलेगा व्यक्ति जो दोनों में से एक ही काम कर रहा है।
आम आदमी की दोनो ख्वाइशें होती है। हम बहुत सारे हो जाए और हम बहुत सारा भोगे, क्योंकि ये दोनो ख्वाहिशें एक ही है। let me consume and let me consume from as many hands, as many bodies, as many mouths as possible.
आपकी संस्था जो काम कर रही हैं, वो समाधान है, वो एकमात्र समाधान है। और ये बहुत विवशता की स्थिति होती है जब आप जानते हो कि समाधान क्या है, पर उस समाधान को कार्यान्वित करने का, एग्जीक्यूट करने का आपके पास कोई तरीका नहीं होता। मेरे पास एक ही तरीका है कि मैं आपको बता रहा हूँ, बार बार जितने तरीकों से हो सके। इसके अलावा न तो नीति निर्धारण में मेरा कोई दखल है, न आपके निर्णयों पर।
(ग्राफ दिखाते हुए)
ये है, इसको 1750 से दिखाओगे तो और क्लियर रहेगा। पर ये समझ में आ रहा है न? और ये 400 पीपीएम नहीं है अभी; अच्छा 2018 तक का है, 2018 तक में 400 पीपीएम है, अभी 430 पीपीएम है।
प्रकृति अपना काम जानती है, कर्व फ्लैट है, दिख रहा है, कब से फ्लैट है, न जाने कब से फ्लैट है ये। नीचे एक्स एक्सेस का बताओ तो है क्या एक्स एक्सेस, कैसे पता चलेगा लोगों को?
ये ठीक, ये देखो। और यही जो कर्व है ये ह्यूमन पॉपुलेशन ग्रोथ का भी कर्व है माने इंसान पैदा होता ही है कार्बन एमिट करने के लिए।
कुछ ऐसे कर्व्स हैं जिनमें पहले का डेटा उपलब्ध नहीं है। पर जहाँ से उपलब्ध है वहां से देखो तो बिल्कुल कर्व सारे एक से दिखाई देंगे। हमारी जो जिंदगी की अंडरलाइन फिलोसॉफी है वही इन सारे कर्ज का कारण है। हमारी अंडरलाइंग फिलोसॉफी है, खुद को नहीं जानो, बाहर जाकर के भोगो अपनी तरफ नहीं देखो। बाहर जो कुछ भी है उसे कंज्यूम करते चलो उसने यह कर दिया है और वर्ल्ड पॉपुलेशन और कार्बन डाय ऑक्साइड जो पहले 2 कर्व से उनको ध्यान से देखिये, मजा आया?
एकदम 1 हैं न। लोग कहते हैं कैसे कम करें सीओ टू कानसंट्रेशन ये रहा देख लो। इसी तरीके से जो फोरेस्ट लॉस है और जो पॉपुलेशन का कर्व है वो देखो आप पैदा होते हो। जब मैंने कहा की एक बच्चा अगर आज पैदा होता है तो हजारों लाखों पौधों और पशुओं और पेड़ों की लाश पर पैदा होता है तो लोगों को बड़ा बुरा लगा। बोला ऐसे क्यों बोल रहे हैं। हमारा बच्चा पैदा होगा तो वो क्या लाखों पेड़ काटेगा, लाखों जानवर काटेगा वो देखो, पहला कर्व देखो और आखिरी कर्व देखो। पहला और आखिरी कर्व देखिये और बताइए क्या मैंने गलत कहा कि आज अगर बच्चा पैदा होता है तो एक बच्चे के पैदा होने का मतलब है कि आपने लाखों जानवर मार दिए और लाखों पेड़ काट दिए। क्या मैंने गलत कहा? पहला और आखिरी कर्व देख लीजिए।
इसमें आप और भी कर्व्हस एड कर सकते हैं। मटीरियल प्रोडक्शन, हम कितना इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन कर रहे हैं प्रतिवर्ष। वो कर भी बिलकुल ऐसा ही है। वही अज्ञान की वृत्ति जो हमें मजबूर करती है और बच्चे पैदा करो और बच्चे पैदा करो। वही वृत्ति हमें कहती है कि अब भोगो भी तो और चीजें होनी चाहिए। अब 3 4 बच्चे हो गए हैं तो घर बड़ा लेना पड़ेगा। इतने सारे लोग क्या है एक स्कूटर में बैठ के चलेंगे तो अब गाड़ी भी लेनी पड़ेगी। जिसको हम कहते हैं न फैमिली इज द यूनिट ऑफ सोसाइटी, थोड़ा सब्र से सोचिएगा, फैमिली इज द यूनिट ऑफ कंजम्शन।
हमारी पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था बनी ही इसलिए है कि हम अपनी तादाद बढ़ाएं और खुशहाली के नाम पर और ज्यादा पृथ्वी को बर्बाद करे। वो चल गया था एक लंबे अरसे तक वो चल गया था, लगभग 1850 तक भी चल जाता, 1900 तक भी चल रहा था, अब नहीं चल सकता तो कोई ये तर्क न दे की अरे हजारों सालों से जो व्यवस्था चली आ रही है वो तोड़ दे क्या? हजारों सालों से यह नहीं हो रहा था। अब जो हुआ है, यकायक हुआ है और बहुत जबरदस्त हुआ है तो हजारों सालों का तर्क और हजारों सालों की दुहाई मत दो, आज तुमको जीने के नए तरीके चाहिए अगर जीना चाहते हो तो।
पुराने तरीकों से नहीं जी सकते। पुराने अरमान अब नहीं चलेंगे पढ़ाई, क्यों की है, ताकि पैसा आ जाए, ताकि घर खरीदूं, ताकि ये करूं, वो करूं, 50 काम करूं। नई इंडस्ट्री लगानी है, जंगल काटने, है मैंस कांकेस्ट ऑफ नेचर, ये सब करके दिखाना है। और हैप्पी लाइफ का मतलब यह है कि देखो, मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी हूं तो मेरे 12 बच्चे हैं 5 औरतों से। ये तुम आज से 2000 साल पहले के जानवर हो, वो ये सब काम करता था। आज का जरा भी सजग आदमी होगा, वो ये देखेगा न।
ये सब आँकड़े हैं या मैं बस बकवास ही करता रहता हूँ। हम इनसे बहस कर सकते हैं और आप बहस कर के मुझे रोक सकते हो। जो फीडबैक साइकिल सब एक्टीवेट हो गए उनको रोक लोगे क्या? रोक लोगे? हमने कहा फौरेस्ट सबसे बड़ा सिंक होता है। अगर हम यहाँ पर एक कर्व और दिखा पाए कि पृथ्वी के पूरे क्षेत्रफल का कितना हिस्सा जंगलों द्वारा आच्छादित था, सोलहवीं शताब्दी, सत्रहवी शताब्दी और वर्तमान में तो आपको एक बड़ी जबरदस्त चीज देखने को मिलेगी। 50 प्रतिशत, एक बहुत लंबे अरसे तक पृथ्वी के 50 प्रतिशत क्षेत्र पर जंगल थे। फिफ्टी परसेंट। अभी कितने है 30।
50 से नीचे ये पृथ्वी चली नहीं सकती। अगर वैसे समझो तो इंसान अगर बत्तमीजी न करे। तो पृथ्वी में कितने क्षेत्र पर जंगल होंगे? 2 क्षेत्रों को अगर तुम हटा दो 2 तरह के डेजर्ट होते हैं, 1 कोल्ड डेजर्ट और 1 हॉट डेजर्ट। उनको हटा दो तो हर जगह जंगल ही जंगल होगा। लगभग पूरी पृथ्वी ही जंगल से भरी होगी। जो सबसे ठंडी जगह होती है, वहाँ भी बड़े जबर्दस्त जंगल होते है, उन्हें बोरियल फॉरेस्ट बोलते है। जो साइबेरियन, फॉरेस्ट, कोनीफेरस, फॉरेस्ट, ये सब होते हैं, वहाँ भी जंगल होते है।
इंसान की बत्तमीजी से पहले लगभग पूरी पृथ्वी की जंगल थी। रेगिस्तान को हटा दो और जो एकदम ही बर्फ से ढके हुए क्षेत्र हैं, उनको हटा दो। तो उसको घटाते घटाते हम 30 प्रतिशत पर ले आए हैं और 30 प्रतिशत भी सरकारी आंकड़ा है। इसमें क्वालिटी ऑफ़ जंगल जब तुम शामिल करते हो तो और ज्यादा धक्का लगता है। सरकारें किसी तरह अपना पिंड छुड़ाने के लिए कहीं पर जहाँ बहुत कम ट्री डेनसिटी हो, उसको भी क्या डिक्लेयर कर देती है? ये तो फॉरेस्ट है। कहीं पर यूनीकल्चर, मोनोकल्चर कर दिया, उसको भी क्या बोल देते हैं कि यह तो फॉरेस्ट है, फॉरेस्ट ही नहीं है तो कौन सोखेगा कार्बन और फॉरेस्ट हो नहीं सकते।
आप आबादी बढ़ा रहे हो, वो कहाँ रहेगा? उसके खाने के लिए अन्न उगाना पड़ेगा न, खेत कहाँ से आयेंगे। जंगल काट के ही तो खेत बनेगा। और हमारा फोरेस्ट कवर हर साल और कम होता जा रहा है। कुल 4000 मिलियन हेक्टेयर हमारे पास फोरेस्ट है पृथ्वी पर। और लगभग पिछले दस सालों में ही हमने उसमें से 500 हटा दिया। हम इतनी जल्दी में है, कमौन बेबी मेक इट फ़ास्ट। हम बहुत जल्दी में है। सबसे ज्यादा कहाँ हटाया जाता है मालूम है? गरीब देशों में जैसे भारत। 2015 से 2020 के बीच में जिन देशों में सबसे ज्यादा फारेस कवर हटाया गया, उनमें से 1 भारत है। जल्दी से जल्दी डेवलपमेंट, मांगता।
और सबसे वेल् प्रिजर्व फोरेस्ट कौन से हैं? जो आपके टेम्परेट फॉरेस्ट से हैं, यूरोप वगैरह के, और जो और ऊपर के आपके साइबेरियन फॉरेस्ट वगैरह है, वो फिर भी बचे हुए हैं। सबसे ज्यादा काटे कहाँ जा रहे हैं? ब्राजील में, अफ्रीका में, भारत में, मलेशिया, इंडोनेशिया में।
जो अमीर हुआ है, यूं ही अमीर थोड़ी हुआ है। वो अमीर इसलिए तो हुआ है न कि अपनी मौज करेगा, मर्जी चलाएगा, दूसरे को भोगेगा। तो जैसे एक अमीर आदमी दूसरे गरीब के ऊपर चढ़ कर बैठता है, वैसे एक अमीर देश भी तो गरीब देशों पर चढ़के बैठेगा न? क्या समाधान है इसका जब तक हम इनसान को नहीं बदलेंगे, हम देश को कैसे बदल सकते हैं, बदल सकते हैं? हम इंसान को नहीं बदलेंगे तो पॉलिसीज़ बदलने वाली है। क्या कौन बदलेगा पॉलिसीज? वेदांत पूछता है न? कर्ता कौन है? डूअर कौन है? डूअर को बदले बिना डीड बदल सकती है क्या?
तो आपके साथ आपकी संस्था इसी डूअर को, एक्टर को, कर्ता को बदलने का प्रयास कर रही है पर ऐसा लगता नहीं, हमारी गति पर्याप्त है। जिस पैमाने पर ये काम होना चाहिए उससे बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है। और समय नहीं है।
(ग्राफ को देखते हुए)
ये 39 पर कैसे रुक गया, 30 पहुँच गया लगभग। अच्छा 2015 ये ऐसे गिर रहा है। अब जो पॉपुलेशन वाला कर्व है, उसको उल्टा करके इसके ऊपर लगा दो तो दोनो कैसे हो जायेंगे, एकदम एक से हो जायेंगे। पॉपुलेशन बढ़ी फोरेस्ट घटा।
एक आपको, आकडा, दूं, कमजोर दिल वाले न सुने। या जिन्होंने ज्यादा खा-वा लिया, वो न सुने। उलट दोगे, पिछले 50 सालों में ही कुल मिलाकर के जितनी हमारी वाइल्ड पोपुलेशन थी, जंगलों के भीतर हम उसका 75 प्रतिशत समाप्त कर चुके हैं। मतलब दुनिया भर के जंगलों में कुल मिला कर के अगर 40 पशुपक्षी हुआ करते थे। तो सिर्फ 50 साल के अंदर हमने उसको दस कर दिया है। 75 प्रतिशत साफ कर दिए। ये है थलचर, जो रहते हैं जमीन पर। और जब उनकी बात करो, जो रहते हैं पानी के नीचे 85 प्रतिशत साफ़ कर दिए। कोई नहीं बच रहा इस पृथ्वी पर हमारे अलावा, हम किसी को भी नहीं छोड़ रहे हैं। एकदम ही नहीं कोई बच रहा है।
सोचिए न, 85 परसेंट पॉपुलेशन डिक्लाइन, मनुष्य की तादाद बढ़ती जा रही है। और दूसरों को पिछले 50 साल के अन्दर अन्दर हमने पिचासी प्रतिशत खत्म कर दिया। वो एकदम ही नहीं बचे कहाँ बचेंगे। यही तो रहते थे वो। वो, तो यही रहते। तो कैसे बचेंगे?
गीता इस वक्त इसलिए नहीं है की आपको स्वर्ग पहुँचा देगी। गीता इसलिए है कि वो शायद पृथ्वी बचा देगी। स्वर्ग वगैरह छोड़ दो अभी तो पृथ्वी बच जाए यही बहुत बड़ी बात है।
{Clapping}
कैसे रुकेगा? समाधान क्या है? आम आदमी ही समाधान है। क्योंकि दुनिया में जो देश सबसे ज्यादा एमिशन कर रहे हैं वो सब डेमोक्रेटिक है। जी ट्वेंटी आप जानते हैं न जी ट्वेंटी? वो दुनिया के 80 से 90 प्रतिशत कार्बन एमिशन का जिम्मेदार है और जी ट्वेंटी पूरा डेमोक्रेटिक है। मैं क्या कहना चाहता हूँ, बात किसके हाथ में है? बात आपके हाथ में है लेकिन आपको बेवकूफ बनाया जा रहा है, आपको ऐसे मुद्दों में उलझाया जा रहा है जो बिल्कुल नकली है ताकि आप ये बात न करो।
जो दुनिया के 6 देश हैं जो सबसे जयादा एमिशन करते हैं। यूएस चाइना, भारत, रशिया, यूरोपियन यूनियन, ब्राजील ये सब के सब या तो डेमोक्रेटिक है या कम से कम सेमी-डेमोक्रेटिक है। यह कोई एक राजनेता नहीं कर रहा है, ये जनता करवा रही है, ये हम करवा रहे हैं।
कोई सवाल इस पर?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे अब हम बुक स्टाल्स ऑर्गेनाइज करते हैं अपनी, अपनी सिटीज में। अब आपने इतना बड़ा ये इशू जो बताया है लेकिन जब ग्राउंड पर काम करते हैं न, तो पता नहीं ये जो हमसे ऊपर की एक जनरेशन है या हमारी भी यह थोड़ी अनअवेअर है चीजों को लेकर। तो हम फ्यूचर जनरेशन की तरफ कैसे फोकस कर सकते है। क्योंकि ये जो जनरेशन है यह बदलने को तैयार ही नहीं है। बचेंगे ही नहीं। तो बदलेंगे कैसे तो फ्यूचर की तरफ। हम संस्था के बाहर है, तो संस्था के बाहर रह के अपना पूरा जोर कैसे लगा सकते हैं। आप हमसे क्या एक्सपेक्ट करते हैं कि आपने हमें ये बात बता दी, हम कैसे अपने आसपास इस बात को और जोर हुए रेट बढ़ा दे उसका बहुत ज्यादा।
आचार्य प्रशांत: देखो, बात उम्र की भी इतनी नहीं होती है। वरना होने को ये भी हो सकता है कि कोई 70 साल का हो, यह मुद्दा बहुत सीधा है। इसमें कोई बड़ी जटिलता नहीं है कि किसी ने इंजीनियरिंग पढ़ी होगी या मैथस पढ़ी होगी या साइंस पढ़ी होगी या क्लाइमेट साइंस पढ़ा होगा तो यह समझेगा। इसमें ऐसा कुछ है नहीं।
प्रश्नकर्ता: नीयत।
आचार्य प्रशांत: बात नीयत की है और नीयत की खराबी मालूम है। क्या है मैं कुछ भी तब करूँ न जब मुझे उससे कुछ लाभ होता हो। इसमें मुझे क्या मिलेगा। मैं 70 साल का हो गया हूँ, मुझे पता है 5 साल में मर जाऊँगा तो मैं अपना कंजम्शन कट करूं। तो किसके लिए मान लो। मैं कह रहा हूँ की मैं आने वाली पुश्तों के लिए रोक रहा हूँ न। तो मैं तो मर जाऊंगा, उनसे मुझे क्या मिलेगा। मैंने उन्हें कुछ दे दिया, बदले मुझे क्या मिला? बात बस ये हैं, इतनी सी बात है।
इंसान के भीतर जो यह भाव है कि मैं एक इंसान हूँ जो पैदा हुआ है भोगने के लिए, जो दुनिया से अलग अपने हित साध सकता है, दूसरों को बर्बाद कर के खुशी पा सकता है, जब तक इंसान के भीतर ये चीज रहेगी तब तक इसका मुकाबला करना बहुत मुश्किल है। देखो और किसी तरीके से हो सकता है न बेटा तो मैंने करा होता। अध्यात्म के अलावा कोई तरीका नहीं है, कोई तरीका नहीं है। अब आपको यह तरीका मुश्किल लग रहा है तो क्या करें?
प्रश्नकर्ता: नहीं मुश्किल नहीं,
आचार्य प्रशांत: चुनौती मुश्किल है तो तरीके भी मुश्किल ही होंगे न। आसान तरीके होते तो सबसे पहले मैंने ले लिए होते।
प्रश्नकर्ता: हमें अभी सलूशन यही है कि जिनको ये बात थोड़ी समझ में आ रही है वो अपने डरों को बिल्कुल पीछे छोड़कर उतरना पड़ेगा।
आचार्य प्रशांत: उतरना पड़ेगा। आपको ये बात बोलनी पड़ेगी डंके की चोट पर बोलनी पड़ेगी आप बोल नहीं रहे हो, नहीं तो इसमें से काफी कुछ तो ऐसा है जो अलग अलग मौकों पर मैं पहले भी बता चुका हूँ। और ये सारी पब्लिकली अवेलेबल इंफॉर्मेशन है, आप खुद भी इसको लेकर के क्या करना है प्रिंट आउट ही तो निकालने है लेकर कहीं पर लगा दो या बांट दो और क्या करना है?
आप बुक स्टॉल पर जाते हो, मैं उस उस बात से भी समझ रहा हूँ और जो बोलने में तेवर है उससे भी समझ रहा हूँ कि साहस है और वो साहस हमारे यहाँ भी बहुत कम लोगों में है, बहुत ज्यादा डरे हुए लोग हैं हमारे, वो ऐसा ही है, जैसा अभी है न की मैं इधर देख रहा हूँ और सब इधर देख रहे हैं। एक साथ नहीं देख रहे हैं किसी दिशा में।
प्रश्नकर्ता: मुझे तो अभी बस यही समझ में आता है की जान बिल्कुल हथेली पे रख के आपको बाहर ही।
आचार्य प्रशांत: वो नहीं है, सब वैसा नहीं है। अभी हम बहुत होशियार लोग है न, बचेंगे नहीं हम ने आप को है, हम अपने आप को बहुत स्मार्ट समझते हैं, कहते हैं कि नहीं नहीं फिफ्टी-फिफ्टी करके चलने का, रिस्क नहीं लेने का, इधर भी बना के चलने का, उधर भी नाराज नहीं करने का, तो वो उसके साथ ज्यादा कुछ हो नहीं सकता।
मैं व्यक्तिगत रूप से अपने आप को ये दिलासा दे लूँगा कि मैं अधिकतम जो कर सकता था मैंने करा। पर जब मैं ये सब देखता हूँ, इधर कहाँ चला गया। जब इधर देखता हूँ तो मुझे भी पता होता है कि .... और किसी को न सिर्फ, वो आंकड़े समझाने से भी नहीं होगा क्योंकि ये आंकड़े भी जिनको पता भी है, वो भी कोई अपना चाल-चलन ढर्रा थोड़े ही बदल रहे हैं। जब तक इंसान का केंद्र ही नहीं बदलोगे, उसका सेंटर ही नहीं बदलोगे, तब तक पहली बार तो वो ये आंकड़े जानना नहीं चाहेगा। और अगर जान भी गया तो कहेगा सो वॉट? मुझे क्या फर्क पड़ता है मौज करो।
अभी आपका ये चल रहा है कार्यक्रम, इसमें आप खुद ही आपको संस्था से कितने लोग दिखाई दे रहे हैं? ढाई सौ लोगों की संस्था हैं अभी, जिसमें से लगभग आधे लोग तो सिर्फ आपकी काउंसिलिंग का काम करते हैं। उनमे से आपको यहाँ 6 भी ना दिख रहे होंगे। देखिये कितने दिख रहे हैं? अपने अपने काउंसिलर खोजने की कोशिश करिए अगर मिल जाए तो। ये तो छोड़िए आप हमारे साथ हैं। आज 29 तारीख है, 29 तारीख को भी संस्था ये सेशन नहीं अटेंड कर सकती वो सब मिल कर के लगभग 40 प्रतिशत लोग हैं अभी भी, जो भागने को तैयार हैं वो उनका पीछा कर रहे हैं, फोन कर रहे हैं कि एनरोलमेंट कर लो, एनरोलमेंट कर लो। ऐसे थोड़े ही मिशन चलता है।
आप सोचिए न, आप इतनी दूर से यहां पर आए हैं और जो यहीं के हैं उनको यह गुंजाइश नहीं है कि वो यहां आके बैठ सके। मैं संस्था के लोगों की बात कर रहा हूँ, वो इस वक्त भी फोन पर लगे हुए है । और उससे क्या हो जाएगा? डेढ़ सौ करोड़ लोगो का देश है, साढ़े आठ सौ करोड़ लोगों का विश्व है ये। मेरे सौ, सवा सौ लोग कितने लोगों से संपर्क साध लेंगे और दस से संपर्क करो। तो 1 को बात समझ में आती है। यह बहुत बहुत छोटी संख्या है मैं जिसके साथ काम कर रहा हूँ, बहुत छोटी संख्या। और जिनको मेरे साथ होना चाहिए, वो साथ नहीं है, वो बोझ है, वो चुनौती है, वो बहुत बड़ा बोझ है, हर महीने उनको ढोना पड़ता है और बहुत श्रम जाता है संस्था का उनको साथ लेकर चलने में।
एक ही तरीका है। जैसे आपने समझा, वैसे ही कोई और समझ पाएगा और अगर कोई वैसे ही समझेगा जैसे आपने समझा उसी माध्यम से, उसी जरिए से तो आपको उसको वहाँ ही लाना पड़ेगा जहाँ आप खड़े हो। अब आप चाहो तो ये सोच लो की मैं अपने स्वार्थ के लिए बोल रहा हूँ, मुझे अपना कोई भव्य मकान, बंगला बनवाना है। या आप ये सोच लो की यही एक मात्र समाधान है जो मुझे दिख रहा है। आपको पूरी जान लगा के लोगों को गीता में लाना पड़ेगा। आप ये नहीं कह सकते कि आप ग्राहक हो और संस्था की दुकान है। आप आए आपने यहाँ से चीज खरीद ली है और आप चले गए।
नहीं नहीं नहीं। जो भी बात हो रही है, अगर समझ में आ रही है तो जाओ और लोगों को ले आओ, उन्हें पकड़ पकड़ के सत्र दिखाओ। भागने मत दो और नहीं कोई तरीका है। जब तक ये सौ डेढ़ सौ लोग ही संस्था की आवाज हैं और हाथ पाँव हैं, तब तक काम में बहुत गति नहीं आ पाएगी। और इन सौ डेढ़ सौ लोगों को भी बहुत विरोध झेलना पड़ता है आप लोगों से ही। तो ये भी टूट टूट कर के फिर बिखरते हैं। ये संख्या बढ़े तो फिर इनमें विरोध को झेलने का दम भी बढे। अभी तो इनको ये दिखाई देता है कि its us vs the world, its the 150 of us vs the entire world and in the entire world includes gita community also.
सबसे ज्यादा तकलीफ तो उनसे ही होती है। मेरी दृष्टि में इसके अलावा कोई तरीका नहीं है। हो सकता है कि मैं गलत फहमी में हूँ, बिल्कुल हो सकता है पर जितना मैंने इस मुद्दे को समझा है आपको मैं बहुत ऊपर ऊपर की बातें बता रहा हूँ जितना एक घंटे में समझाया जा सकता है पर इसमें गहराई में भी जाकर के दुनिया में और जितने तरीके काम हो रहे हैं उनको भी देखा है कि क्या पता वहाँ पर कोई समाधान सम्भव हो कहीं कोई समाधान नहीं है।
एक स्टार्ट अप है अभी वो कह रही है कि हम डीकार्बोनाइज कर देंगे एटमॉस्फेयर को उसके बारे मे विस्तार से पढ़ा तो पता चला कि ये जो कर रहे हो पूरा नकली काम है कुछ नहीं होने का इससे। बस फण्ड इकट्ठा कर लेंगे, बहुत सारे लोगों को बेवकूफ बना लेंगे और इस तरह की बहुत सारी बातें हो रही हैं टेक्नोलॉजिकल सॉल्यूशन निकाल देंगे, कुछ कर देंगे।
एक मात्र समाधान जो मुझे दिखाई दिया जो काम करता है कर रहा है और हमारे पास प्रूफ ऑफ कॉन्सेप्ट है। मैं अगर उन लोगों को लूं जो सचमुच मेरे साथ जुड़े हुए हैं तो उनका जो पर कैपिटल एमिशन है उनके वो सारे काम है जो पृथ्वी को नुकसान पहुंचाते हैं वो कम से कम 70-80 प्रतिशत कम हो जाते हैं। तो मेरे पास प्रूफ ऑफ कॉन्सेप्ट भी है।
जो गीता में आता है वो इस ग्रह के लिए सभी प्रजातियों के लिए वरदान बन जाता है।[Clapping] मैं जानता हूँ और ये सिद्ध होता है लगातार सिद्ध होता है लेकिन वो संख्या बहुत छोटी है सारी समस्या संख्या की आ रही है द नंबर्स, द नंबर्स, द रिसोर्सेज एंड द नंबर्स। वहीं पर सब अटक जा रहा है।
जो जानते है संस्था को, उन्हें ये बोलते हुए बिल्कुल भी झिझक नहीं होती कि आपकी संस्था इस वक्त दुनिया का सबसे जरूरी काम कर रही है। और शायद हम अकेले हैं जो उस काम को उस तरह से कर रहे हैं कि सफलता मिल रही है लेकिन यह जरूरी काम बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है क्योंकि बाकी लोग कहते हैं कि काम संस्था का है, हमारा थोड़ी है। आप जाने अपने आप को संस्था का ग्राहक समझते हैं क्या समझते हैं मालूम नहीं। मत करो भाई संस्था के नाम पर, अपने नाम पर कर लो पर करो।
(आचार्य जी को समर्पित, एक श्रोता द्वारा एक कविता।)
भटको भूलियो डर अब, दर्वजे पर दस्तक नहीं देतो भटको भूलियो डर अब दर्वजे पर दस्तक नहीं देतो मौज है गई प्रेमी मेरो गल बहिया ही रहतो मौज है गई प्रेमी मेरो गल बहिया ही रहतो पकड़ा पकड़ी घेरा घेरी को नाही यो खेलो भय जीव जगत एक है आत्म अब फैला यो उज्यालो साचो सुख बरनो नहीं जावे अंतस में गहराइयों साहस प्रेम गठ जोड़ कियो गुरु मंत्र यो दीप जलायो साहस प्रेम गठ जोड़ कियो गुरु मंत्र यो दीप जलायो
सर आपका एक है कि जहां प्रेम होता है वही साहस होता इसके ऊपर मन में आया।