आपको सुनकर कुछ और याद आता है || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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आपको सुनकर कुछ और याद आता है || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! जैसे कल आप बोल रहे थे, तो मैंने पूर्व में जैसे ओशो साहब को पढ़ा है, कृष्णमूर्ति साहब पढ़ रहा हूँ, रमण महर्षि साहब पढ़ रहा हूँ, मेरे याददाश्त में नहीं है वो। लेकिन जब आप बोल रहे थे तो वो अन्दर से निकल रहा था, वैचारिक फॉर्म (रूप) में नहीं! जैसे आपने इनविटेशन (आमंत्रण) बोला, तब मुझे समझ में आया ओशो साहब क्या कहना चाह रहे थे इनविटेशन (आमंत्रण) से। तो जब आप बोल रहे हैं, तो इस तरह अन्दर से आ रहा है, तो क्या ये सही है?

आचार्य प्रशांत: ऐसा होगा। उसको सही-गलत कहना कोई बहुत फायदे की बात नहीं है। वैसा होगा! अचानक से बात कौंध जाएगी। कोई चीज़ पहले पढ़ी हुई है, वो लगता था कि स्पष्ट थी, और स्पष्ट रही भी होगी, पर अर्थ का एक नया आयाम खुलता है। तो वो पुरानी चीज़ तो कौंध ही जाती है, उसमें सही-गलत कुछ नहीं है।

देखिए, कोई सौ-पचास सत्य तो होते नहीं। कोई बात तो है नहीं कहने की, करने की। तरह-तरह से, तरीके-तरीके से, मन को बस हिलाया-डुलाया जाता है। जहाँ वो जमकर बैठ गया होता है, वहाँ से उसको थोड़ा सा हटाने की कोशिश की जाती है। तो ले-देकर के काम तो सभी ने एक ही किया है। किसी भी मन्त्र से पहुँचें, कोई भी वाक्य हो, कोई उदाहरण हो, अगर वो सटीक बैठा है तो दो-चार और बातें याद आ ही जाएँगी। क्योंकि ले करके तो सब आपको एक ही जगह जा रहे हैं न।

बल्कि ज़्यादा प्रश्न की बात तब होती, अगर आपको समानताएँ या एकताएँ दिखायी न पड़ती। अगर ऐसे ही लगता रहता कि इधर एक बात है, इधर दूसरी बात! इधर तीसरी बात! नहीं, बात तो है सब अलग-अलग ही, लेकिन सब बातों का उद्देश्य और औचित्य एक ही है। जो भी आपसे कहा गया है, आपको उठाने के लिए, आपकी भलाई के लिए ही कहा गया है, तो यही उद्देश्य है। और भलाई इसमें निहित होती है कि भीतर जिन बातों पर जकड़ है, जहाँ बहाव जम गया है, उसको हटाया जाए, पिघलाया जाए।तो काम तो सब एक ही कर रहे हैं।

जब ऐसी हालत आ जाये कि एक को सुनकर दूसरा याद आने लगे, एक ग्रन्थ हो पूरब का, एक हो पश्चिम का, एक कोई दार्शनिक या वक्ता हों आज के, एक हों चार हज़ार साल पहले के, और उनकी बातें एक सी लगने ललगें, शब्द आपस में खोने लगें, तो ये लक्षण अच्छा ही है। ये जब नहीं होता है तो फिर कट्टरता जैसी चीज़ पैदा होती है, जिसमें एक वाक्य को सही माना जाता है और बाकी सब बातों को गलत माना जाता है। जबकि अगर किसी धर्म-वाक्य को समझा गया है तो बाकी सब भी उसकी अनुगूँज जैसे ही पता चलेंगे। फिर धार्मिक विद्वेष और किसी चीज़ को श्रेष्ठ, किसी चीज़ को हीन मानने का सवाल नहीं रह जाएगा।

ये मैं इस मान्यता पर कह रहा हूँ कि आप जिन ग्रन्थों को ले रहे हैं, जिन वाक्यों को ले रहे हैं, हैं वो सब एक ही तल के। तो इसमें यह सावधानी रखिएगा कि ये न हो कि जो चीज़ एक तल की है उसकी छवि आपको दिखने लग गयी किसी ऐसी चीज़ में जो बिल्कुल ही निचले तल की है। बस इसके प्रति सावधान रहिएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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