आप जिसको चेतन समझ रहे हैं, वो भी जड़ ही है || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

Acharya Prashant

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आप जिसको चेतन समझ रहे हैं, वो भी जड़ ही है || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रिय आचार्य जी प्रणाम। गीता आदि ग्रन्थों को दूर से ही पढ़ने का मन करता है, क़रीब से पढ़ने पर शान्ति की जगह अशान्ति मिलती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि संसार का मूल कृष्ण ही है। कबीर साहब भी कहते हैं:-

कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढे वन माही। घटघट राम हैं दुनिया देखे नाहीं।।

पर ये बात मेरे दैनिक जीवन में उतर नहीं पाती। बुरा लगता है कि जो शान्ति सर्वत्र ही है वो मेरे जीवन में क्यों नहीं दिखती। कह रही हैं इसी प्रकार अन्य श्लोकों में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरी ये त्रिगुणमयी माया अति दुष्कर है परन्तु जो केवल मुझको ही भजते हैं, वो इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं, वो इस माया को जीत जाते हैं।

तो आचार्य जी, सर्वत्र भी हैं और ढके भी हैं, कृपया इस बात को, और निरन्तर भजने की बात को ज़िन्दगी के तल पर लाकर समझाइए, ठीक?

आचार्य प्रशांत: प्रश्न का सार समझ गये हैं (श्रोताओं से पूछते हुए)? पूछा है कि अगर हैं सर्वत्र तो मुझे ही क्यों नहीं दिखते और कहा है कि निरन्तर भजना क्या होता है। कह रही हैं, ‘जितना शास्त्रों को पढ़ते हैं उतना खीझ उठती है, किस बात पर, कि शास्त्र कहते हैं कि वो ही वो है, तत्व-ही-तत्व है मात्र। कृष्ण तत्व के अलावा अन्यत्र कहीं कुछ नहीं।‘ और कह रही हैं, ‘मैं तो माया में फँसी हूँ, मुझे तो श्रीकृष्ण कहीं दिखते नहीं, तो ये बात कुछ जमी नहीं!’

प्र२ : सातवें अध्याय का तेरहवाँ श्लोक:-

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ।।

आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, श्रीकृष्ण ने तो माया को भी अपना कहा है और उससे तरने की भी बात कर रहे हैं। कितनी सरलता से श्रीकृष्ण को माया और सत्य अलग-अलग दिखायी दे रहे हैं, अलग-अलग समझ आ रहे हैं। तो आचार्य जी मेरा प्रश्न है कि मुझे माया तो बहुत साफ़-साफ़ दिखायी देती है पर कभी भी, कहीं भी श्रीकृष्ण क्यों नहीं दिखायी देते?

आचार्य: कुछ महत्वपूर्ण श्लोक हैं जिनको अगर भज लिया तो तर जाएँगे, उनको मैं आपके सामने कहता हूँ। जिन श्लोकों को मैं अभी कहूँगा, उनको ध्यान में रखिएगा आज की पूरी चर्चा में, वो बार-बार प्रासंगिक सिद्ध होंगे।

तीसरा श्लोक, सातवें अध्याय का है:-

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये। यतातम अपि सिद्धानां कश्चिन माम् वेत्ति तत्वतः।

हज़ारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है।

एक की बात कर दी गयी। नौ-सौ-निन्यान्वे क्या कर रहे हैं, ये भी याद रखिएगा। एक क्या करता है, श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए यत्न करता है। नौ-सौ-निन्यान्वे को तो इस श्लोक में उल्लेख के लायक़ भी नहीं समझा गया पर हमारे आपके लिए ज़रूरी है कि हम याद रखें कि वो नौ-सौ-निन्यान्वे क्या कर रहे हैं (हँसते हुए)?

हज़ार में से कोई एक तो है जो सच्चाई और मुक्ति के लिए यत्न करता है और निश्चित रूप से वो सुपात्र है उसका उल्लेख श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में कर दिया, नौ-सौ-निन्यान्वे? ये एक तो बहुत दूर का तारा है, पता नहीं, नौ-सौ-निन्यान्वे को याद रखिएगा। उसको ग़ौर से देख लिया तो उस नौ-सौ-निन्यान्वे वाली भीड़ से अलग होना सम्भव हो पाएगा।

और फिर उन यत्न करने वालों में से भी कोई एक मुझे जान पाता है, अर्जुन।

हज़ारों में कोई एक होता है जो यत्न करता है और उन यत्न करने वालों में से भी यदा-कदा ही कोई मुझे जान पाता है, इसको याद रखेंगे। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश इनको आप जानते हैं, ये क्या हैं?

श्रोता: पंचभूत।

आचार्य: पंचभूत, ठीक। श्रीकृष्ण पाँच पर नहीं रुक रहे, वो तीन और जोड़ रहे हैं— मन, बुद्धि और अहंकार। एक ही श्रेणी पर ला दिया, एक ही तल पर खड़ा कर दिया सबको। कह रहे हैं, ‘ये मेरी आठ अंगों वाली प्रकृति है।’ अष्टांग, और कुछ आपको याद रहे-न-रहे, आठ अंगों वाली इस प्रकृति को याद कर लीजिए। इसको श्रीकृष्ण नाम देते हैं — अपरा प्रकृति या हीन प्रकृति, पाँच को नहीं आठ को।

आठ में क्या-क्या शामिल हैं — मन, बुद्धि, अहंकार। मन, बुद्धि, अहंकार किसके तुल्य खड़े हैं, मिट्टी, धूल, पानी, आग, हवा ये क्या कह गये श्रीकृष्ण! बुद्धि पर तो नाज़ है आपको, हर चीज़ में दिमाग़ लगाते हैं, बात-बात में खोपड़ा घुमाते हैं, और क्या बता गये श्रीकृष्ण? ये जो तुम्हारा अहंकार है, चित्त है पूरा, मन, बुद्धि, अन्तःकरण के सब भेद, ये किस कोटि के हैं?

श्रोता: पंचभूत।

आचार्य: पंचभूत न बोलो, ऐसा लगता है कोई बड़ी दूर की, बड़ी शास्त्रीय, बड़ी महिमावान बात कह दी है। बोलो— धूल, मिट्टी, कीचड़, हवा, पानी, आग, आकाश, पत्थर अलग नहीं हैं, एक हैं। और फिर कहते हैं, ‘ये सब तो प्रकृति ही है।‘ और प्रकृति में भी कौनसी प्रकृति है? निचले तल की, अपरा प्रकृति। फिर कहते हैं, ‘एक दूसरी भी प्रकृति है जिसको तुम पुरुष नाम से जानते हो।’ उसको वो कह रहे हैं, परा प्रकृति।

गीता में बहुत कुछ है, जो चमत्कारिक है। गीता में बहुत से श्लोक हैं जो गीता की पहचान ही बन गये हैं, पर श्रीकृष्ण के इस उद्घाटक वक्तव्य को अभी तक हम वो महत्त्व दे नहीं पाये हैं जिसका ये अधिकारी है, हमारी अज्ञानता है ये। जो बात यहाँ श्रीकृष्ण समझा रहे हैं, अगर हम समझ जाएँ तो ये जो प्रश्नों का ढेर है, बचेगा कहाँ!

और जिसको हम संसार कहते हैं, और संसार की समस्याओं का जो पूरा पहाड़ है वो बचेगा कहाँ! दोहराइए मेरे साथ, मन, बुद्धि, अहंकार क्या हैं? मिट्टी और धूल, और पानी, आग और हवा अर्थात् जड़ पदार्थ। जिसको आप चैतन्य समझ रहे हो वो चैतन्य है ही नहीं, वो जड़ है बिलकुल, अपरा है वो। ‘अपरा’ समझते हो, अभिन्न। किससे अभिन्न, जड़ से ही अभिन्न।

अब तीन कोटियाँ हो गयीं, तीन श्रेणियाँ हो गयीं। तीन श्रेणियाँ किसके लिए? ये किसके लिए की बात बहुत महत्वपूर्ण है। मुझसे जब भी चर्चा करें तो ये पूछते रहा करें स्वयं से भी और मुझसे भी— किसके लिए। किसके लिए तीन श्रेणियाँ हैं, अहम् के लिए, आपके लिए। वो जो कहता है, ‘मैं’, क्या कहता है, ‘मैं’, उसके लिए। उसके लिए तीन श्रेणियाँ हो गयीं, निम्नतम श्रेणी कौनसी हुई?

श्रोता: अपरा प्रकृति।

आचार्य: अपरा प्रकृति। ‘मैं’ का काम क्या? साथी तलाशना। मैं का काम क्या? जुड़ने के लिए कोई पहचान तलाशना, तो ‘मैं’ को तीन कोटियाँ उपलब्ध हैं जुड़ने के लिए, जिसमें से निम्नतम है ‘अपरा प्रकृति।‘ ‘मैं’ जुड़ सकता है आग से, पानी से, मन, बुद्धि, अहंकार से। उससे ऊपर की कोटि है, परा प्रकृति। परा प्रकृति है दृष्टा मात्र होना, जुड़ना नहीं। दृष्टा मात्र होना, अलग हो गये पर हो अभी भी प्रकृति।

देखना भी काम किसका, प्रकृति का। जिसको अवलोकन कहते हो वो भी साक्षित्व नहीं है, वो भी काम किसका है, प्रकृति का। बस वो ज़रा ऊँचे दर्जे की प्रकृति है तो उसको नाम दे दिया?

श्रोता: परा प्रकृति।

आचार्य: श्रीकृष्ण के देखे पुरुष कोई है ही नहीं, एक ही पुरुष है और उसका नाम है ‘श्रीकृष्ण’, बाक़ी सब प्रकृति-ही-प्रकृति है। जिसको आप प्रकृति बोलते हो वो तो प्रकृति है ही, जिसको आप पुरुष बोलते हो वो भी प्रकृति मात्र है। पर आप चूँकि प्रकृति-पुरुष का खेल चलाते हो, तो श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘देखो, है तो दोनों ही प्रकृति, पर चलो तुम्हारे लिए एक को कह दो अपरा प्रकृति और एक को कह दो परा प्रकृति।‘ तो ‘मैं’ का दूसरा ठिकाना है परा प्रकृति, ‘मैं’ का तीसरा ठिकाना है?

श्रोता: श्रीकृष्ण।

आचार्य: श्रीकृष्ण मात्र, कृष्ण तत्व — जिसको सत्य कह लो, जिसको कृष्ण तत्व कह लो, जिसको आत्मा कह लो, जिसको ब्रह्म कह लो, और बुद्ध में आस्था हो तो जिसको कह दो, ‘कुछ नहीं, शून्य मात्र, मौन।‘ ‘मैं’ को जुड़ने के लिए तीन कोटियाँ अर्थात् तीन विकल्प उपलब्ध हैं, बोलो कौन-कौनसे? निचला सबसे, अपरा प्रकृति। अपरा प्रकृति में क्या-क्या आ गया?

श्रोता: पंचतत्व और मन, बुद्धि और अहंकार।

आचार्य: पंचतत्व आ गये तुम्हारे और साथ में वो आ गया जिससे तुम हमेशा ही जुड़े रहते हो, मन, बुद्धि, अहंकार। उससे ऊँचे उठे तो ‘मैं’ किससे जाकर जुड़ सकता है?

श्रोता: साक्षी।

आचार्य: साक्षी नहीं, दृष्टा से। उस दृष्टा को श्रीकृष्ण क्या कह रहे हैं, परा प्रकृति। उसमें कम-से-कम इतना वैराग्य तो आया है कि वो जड़ को जड़ की तरह देख पाता है, मन को मन की तरह देख पाता है, कह पाता है कि बुद्धि काम कर रही है, ये नहीं कहता कि मैं काम कर रहा हूँ।

वो कह पाता है, ‘अरे! अहंकार को बड़ी चोट लग रही है।’ नहीं कहता है कि मुझे चोट लग रही है। पर ये कह पाना भी अध्यात्म का शिखर नहीं है, ये भी मात्र दूसरी कोटि है। उच्चतम कोटि तब है जब अहम् श्रीकृष्ण में ही, आत्मा में ही पूरी तरह से लीन हो जाए।

समझ रहे हैं बात को?

हममें से अधिकाँश लोग किस तल पर वास करते हैं?

श्रोता: अपरा प्रकृति।

आचार्य: हम बिलकुल निचले तल्ले पर रहते हैं, क्यों रहते हैं ये भी समझ लीजिए। हमें दिखायी ही नहीं देता कि मन पत्थर है, हमें दिखायी ही नहीं देता कि मन पानी है, हमें दिखायी ही नहीं देता कि मन धुआँ और बादल है।

क्रान्तिकारी वक्तव्य है श्रीकृष्ण का जब वो मन, बुद्धि, अहंकार को भी धुआँ, बादल, पानी, पत्थर के तल पर रख देते हैं। जब वो तोड़ ही देते हैं हमारा भ्रम, तोड़ ही देते हैं हमारी धारणा कि हम चैतन्य हैं। हम चैतन्य नहीं हैं, हम पत्थर हैं।

हम अगर अहम् के तल पर जी रहे हैं, मन के तल पर जी रहे हैं, बुद्धि के तल पर ही जी रहे हैं, तो हम किसके तल पर जी रहे हैं, पत्थर और पानी के तल पर, तो फिर हमें अधिकार क्या है ये कहने का कि पत्थर और पानी तो जड़ हैं और मैं चेतन हूँ। पर हम ऐसा ही कहते हैं न! ना।

पत्थर और पानी माने क्या, पदार्थ। पदार्थों में क्या होती हैं, मात्र रासायनिक घटनाएँ और वैसा ही हमारा हाल है। हम रसायन के तल पर ही तो जीते हैं। हम जिसको चेतन मान बैठे हैं वो चेतन है ही नहीं। बुद्धि चेतन नहीं है, बुद्धि पदार्थगत है। बुद्धि पत्थर-पानी है, बुद्धि अणु-परमाणु का खेल है, बुद्धि कोशिकाओं में निहित सूचना है, बुद्धि चैतन्य कैसे हो गयी भाई!

समय वो दूर नहीं है जब तुम्हारे मस्तिष्क की सारी जानकारी को निकाल करके किसी हार्ड डिस्क या किसी क्लाउड पर रखा जा सकेगा। ये क्या हो गया! मस्तिष्क की सारी जानकारी निकाल ली गयी और उसको क्या कर दिया गया? स्टोर कर दिया गया। सिद्ध हो गया कि नहीं कि तुम्हारे चित्त में जो कुछ है स्मृति रूप में, वो पदार्थ ही था!

हार्ड डिस्क को जीवन्त बोलते हो क्या, कि ज़िन्दा है, चैतन्य है, बोलते हो! तो वैसा ही ये है (सिर की तरफ़ संकेत करके)। देखा है कभी कोई स्टोरेज डिस्क गिर जाए कई बार, तो उसकी स्मृति ग़ायब हो जाती है और तुम भी गिर जाओ कई बार खोपड़े के बल, लग गयी चोट तो क्या होता है, स्मृति ग़ायब हो जाती है। दिखायी नहीं देता कि यहाँ मामला सारा पदार्थगत है।

यही बात श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘अरे! सब एक है भाई, ये पंचभूत ही है तुम्हारी मन, बुद्धि और अहंकार, इनमें भेद क्यों करते हो। मत कहो कि तुम पंचभूतों के दृष्टा हो, कहो पंचभूत ही है दृष्टा भी मेरा।‘

पत्थर को देखने वाला भी पत्थर मात्र ही है, बस वो पत्थर से भी ज़्यादा बुद्धू है। पत्थर कम-से-कम ख़ून के आँसू नहीं रो रहा है अपनी ज़िन्दगी में, पत्थर को कुछ हानि-लाभ नहीं हो रहा है। पत्थर, पत्थर है, संज्ञा शून्य। ये जो देखने वाला है ये अपनेआप को संग्य मानता है, चैतन्य मानता है और ख़ूब दुख पाता है।

जो कुछ भी घटना घट रही हो आपके साथ, उसके साथ आप चेतना शब्द ज़रा हटा दीजिए, लगाइए मत और फिर देखिए कितना आसान हो जाता है सबकुछ, इसको एक सूत्र की तरह मानिए।

नुस्ख़े या विधियाँ आमतौर पर मैं सुझाता नहीं, या बताता भी हूँ तो बड़े सूक्ष्म और गुप्त तरीक़े से। आज बात प्रकट हुई जा रही है। चढ़ रही है कामना, ज़्यों ही ध्यान धरेंगे कि कामना नहीं चढ़ रही, ये कोई केमिकल है जिसका स्तर बढ़ रहा है और कुछ नहीं हो रहा — त्यों ही आप तीसरे तल से उठकर दूसरे तल पर आ गये। और तीसरे तल पर बने रहने का तरीक़ा क्या है, कि कामना उठी और आपने कहा, ‘मुझे कामना उठी है।’ कामना सताती है? मोह सताता है? क्रोध सताता है? होता है ये सब?

जो भी भावोदय हो रहा हो भीतर, मन की जो भी लहर आपको अपनी गिरफ़्त में ले रही हो, अगर उसकी गिरफ़्त में बने रहना है तो कहिए, ‘मुझे क्रोध आ रहा है, मुझे कामना आ रही है, मुझे भय आ रहा है।’ जितना ज़्यादा आप कहेंगे, ‘मैं डरा हुआ हूँ’ उतना ज़्यादा जो भी हो रहा है वो आगे बढे़गा। जो हो रहा है उसको अब आपकी ऊर्जा मिल गयी, आपका समर्थन मिल गया। और अगर उस सब से हटना है, बचना है जिसके शिकार हम सब हैं, तो कहिए, ‘ये जो भी कुछ हो रहा है, हवा, पानी, आग, मिट्टी है, पंचभूतों का खेल है, कोई रसायन है, भीतर कोई ग्रन्थि है आज सक्रिय हो गयी है। कल रात लगता है कुछ ऐसा खा लिया कि आज ख़ून में किसी द्रव्य का अनुपात थोड़ा बढ़ गया है और कोई बात नहीं है।’

चार घंटे प्रतीक्षा कर लो, जिस भी चीज़ का स्तर बढ़ा है थोड़ी देर में गिर जाएगा, सामान्य हो जाएगा। ये जो अभी आग उठ रही है कामना की अपनेआप शान्त हो जाएगी क्योंकि आग, आग जैसी है। आग में प्राण होते हैं क्या? आग में चेतना होती है क्या? आग का कोई ‘मैं’ होता है क्या? तो वैसे ही हमें भी जो आग उठती है, चाहे वो शोक की हो, चाहे हर्ष की हो, चाहे राग की हो, चाहे द्वेष की हो वो आग मात्र है, उसमें ‘मैं’ कहीं नहीं है।

कुछ खाया है, कुछ पिया है, कुछ सूँघ लिया है, कुछ देख लिया है, कोई सूचना मिल गयी है, कुछ पढ़ लिया है, इन्द्रियगत तल पर कुछ ऐसा हो गया है, भौतिक, पदार्थगत तल पर कुछ ऐसा हो गया है कि दूसरे पदार्थ सक्रिय हो रहे हैं, कि निष्क्रिय हो रहे हैं, कि उनका घनत्व बढ़ रहा है, घट रहा है। जो कुछ भी हो रहा है पूरी तरीक़े से जड़ है, उसका ‘मैं’ से कोई लेना-देना नहीं। जिसने ये नुस्ख़ा पकड़ लिया और श्रद्धापूर्वक अभ्यास करा, वो बहुत दूर तक जाएगा।

जो हो रहा है वो बस हो रहा है, तुम्हें नहीं हो रहा है। बारिश हो रही है बाहर, बारिश हो रही है या तुम्हें बारिश हो रही है!? तब तो आसानी से कह देते हो, ‘बारिश हो रही है।’ ये थोड़े ही कहते हो, ‘मुझे बारिश हो रही है।’ या ऐसे कहते हो? और भीतर भी तो बारिश होती है, भीतर बारिश होती है कि नहीं होती है?

कभी भीतर बाढ़ होती है और कभी रेगिस्तान। किसी दिन धूल का बवंडर हो तो तुम कहते हो, ‘मुझे धूल हो रही है!’ तो किसी-किसी दिन ऐसा भी होता है न कि भीतर सब धूल-धूसरित ही हो जाता है, क्या है भीतर आज? बस धूल, रेत उड़ रही है, जलती हुई रेत, सब शुष्क, मरुता ऐसी कि फटने को तैयार, होता है न?

ये मत कहो कि वो मेरे साथ हो रहा है, वो बस हो रहा है। जैसे बाहर देखकर कह देते हो बस हो रहा है, वैसे ही जब तथाकथित तौर पर भीतर हो रहा हो, तब भी यही कहो कि ऐसा बस हो रहा है। ऐसा आनन्द आएगा, अपूर्व! कभी स्वाद पहले नहीं चखा होगा। बहुत-बहुत-बहुत भीतर से दुख उठ रहा है, कष्ट, दर्द उठ रहा है और तुम बस कह दो, दुख है, दर्द है, ठीक वैसे जैसे बारिश है, मुझे नहीं है। बारिश मुझे नहीं है, दर्द भी मुझे नहीं है। अब तुम वो हो गये जिसे श्रीकृष्ण कहते हैं क्षेत्रज्ञ। क्षेत्र से तो ऊपर उठ गये।

तुम कौन हो गये, क्षेत्रज्ञ। कौन हो गये तुम, क्षेत्रज्ञ। क्षेत्र से ऊपर उठ गये। क्षेत्र से अब तुम्हारा तादात्म नहीं रहा, एका नहीं रहा। ये क्षेत्रज्ञ ही है जो आगे जाकर श्रीकृष्ण में समाएगा, श्रीकृष्ण को पाएगा। इसने क्षेत्र को तो जानना शुरू किया न। क्षेत्रज्ञ, क्षेत्र का ज्ञानी हो गया। क्षेत्र क्या है? निचला तल, वो है क्षेत्र। क्षेत्र माने फैलाव, एक विस्तार, संसार, समय और आकाश, उसको कहते हैं ‘क्षेत्र’।

ज्योंही उससे ऊपर उठे, दूसरे तल पर आये, दूसरा तल किसका था, दृष्टा का। प्रकृति के संदर्भ में, परा प्रकृति। वो जो वहाँ आकर बैठ गया वो कहलाया क्षेत्रज्ञ। वो क्षेत्र को जान रहा है पर दृष्टि अभी भी उसकी किस पर ही है, क्षेत्र पर। क्षेत्र को जानने लग गया पर शान्ति उसे अभी नहीं मिलेगी। शान्ति पाने के लिए उसे ज़रा अपने ऊपर देखना पड़ेगा और ऊपर देखेगा ही, वो उसकी मजबूरी है क्योंकि अहम् को क्या चाहिए, साथी।

वो जो निचले तल पर था उसको तो छोड़ आये, बीच के तल्ले पर बैठ गये हैं और वो भी अकेले, अब करोगे क्या? जो नीचे बैठे हैं सब, कितने बैठे हैं नीचे? आठ। अरे! शाबाश! फिर दस हज़ार। नीचे कितने बैठे हैं, आठ। इस आठ से कितने हैं, आठ-सौ। उस आठ-सौ से कितने हैं, आठ-सौ-करोड़, पृथ्वी की आबादी।

तो जो नीचे बैठे हैं वो तो अब सुहाते नहीं। दिख गया कि इनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं, अब अकेले आकर बैठ गये हैं दूसरी मंज़िल पर। नीचे जा नहीं सकते तो कहाँ जाना पड़ेगा, ऊपर ही जाना पड़ेगा। ऊपर कौन बैठे हैं, महाराज ख़ुद बैठे हैं, हँस रहे है देखकर, जाओगे कहाँ!

बात समझ में आ रही है?

बोलते हैं, ‘चार तरीक़े के लोग हैं जो मुझे भजते हैं’, कौन-कौन? एक जो रोगी हो शरीर से, ‘हाय! हाय! पीठ टूट गयी है।‘ कह रहे हैं, ‘ये मुझे बहुत भजते हैं अर्जुन। ये कृष्ण-कृष्ण करते ही रहते हैं।‘ बोलते हैं, ‘और कौनसे लोग हैं जो मुझे भजते हैं?’ बोले, ‘जिनको कामनाएँ बहुत ज़्यादा हैं। ख़ुद ही कहते हैं, ‘बीवी चाहिए, बच्चा चाहिए, सम्पत्ति चाहिए, यश चाहिए, ये मुझे बहुत भजते हैं।‘ बोले, ‘ये दूसरे तरीक़े के हैं जो कृष्ण-कृष्ण ख़ूब करते हैं।’

बोले, ‘एक तीसरे तरीक़े के हैं, मुमुक्षु, जो हैरान परेशान हो गये दुनिया से।’ कह रहे हैं, ‘मुक्ति दो, मुमुक्षा बहुत उठी है मुक्ति चाहिए।‘ मुक्ति की तीव्र इच्छा का ही नाम होता है ‘मुमुक्षा’। ये वो हैं जो दुनिया के सताये हुए हैं, कह रहे हैं, ‘तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं, वापस बुला ले।’

और फिर कह रहे हैं, ‘चौथे हैं ज्ञानी।‘ ज्ञानी माने जिनके लिए अब श्रीकृष्ण के अलावा कोई ज्ञेय वस्तु रही नहीं, जिनका अब दुनिया के ज्ञान से मन आगे आ गया। श्रीकृष्ण की भाषा में ज्ञानी वो नहीं जिसे दुनिया की बहुत ख़बर है। कृष्ण की भाषा में ज्ञानी वो है जो बस अज्ञेय से सम्बन्ध रखता है।

ये बात कितनी विरोधाभासी है! जिसे जाना नहीं जा सकता, जो उसे जान जाये सो हुआ श्रीकृष्ण का ज्ञानी। पर उसे जाना तो जा नहीं सकता तो ये जान कैसे गये? उसको त्यागकर जिसके रहते जाना नहीं जा सकता था। किसके रहते नहीं जाना जा सकता था? अपनी हस्ती के, अपने वजूद के, अपनी अस्मिता के। अपनी अस्मिता के रहते नहीं जाना जा सकता था, बात बिलकुल ठीक थी।

तो हमने उसको ही छोड़ दिया जो जानने में बाधा था। जानने की ऐसी ललक थी, ऐसी भूख थी कि जो बाधा बन रहा था जानने में हमने उससे कहा, ‘अब तू हट, हमें जानने दे।’ और जिसको हमने हटा दिया उसका नाम क्या था? वो जो हमारा नाम है। वो जो था जो मेरा नाम लेकर चलता था वही तो मुझे जानने नहीं दे रहा था, उसको जो मैं हूँ। तो हटा ही दिया मैंने उसको जो मेरा नाम लेकर चलता था और जान गया उसको जो मैं हूँ, ये है ज्ञानी।

क्षेत्रज्ञ कौन हुआ? जो क्षेत्र से ऊपर उठ आया है, कुछ-कुछ मुमुक्षु के समतुल्य हुआ, दुनिया से ऊपर उठ आया है। दुनिया से ऊपर उठ आया है पर अभी भी वो ज्ञाता किसका है? याद रखना, क्षे-त्र-ज्ञ, ‘ज्ञ’ माने ज्ञान। जान वो अभी भी किसको रहा है? क्षेत्र को ही जान रहा है। दूर से जान रहा है, ऊपर वाली मंज़िल में बैठकर जान रहा है। ऊपर से नीचे देख रहा है पर देख अभी भी किसको रहा है, सम्बन्ध उसने अभी भी नीचे से ही जोड़ रखा है, बस ज़रा दूर का।

जब आप अवलोकन करते हैं तो आप किस तल से करते हैं, दूसरे तल से। जो लोग संस्था से कुछ दिनों से जुड़े हुए हैं वो भलीभाँति जानते हैं कि अवलोकन क्या है। कितने लोगों ने लिखे आज तक अवलोकन? कुछ लोगों को छोड़कर सभी ने, सभी जानते हैं। वो किस तल का काम हुआ? वो दूसरे तल का काम हुआ।

और फिर लिखते-लिखते-लिखते, अभ्यास-अभ्यास-अभ्यास, एक स्थिति ऐसी भी आती है कि आप कहते हो, ‘जिसके बारे में लिखवा रहे हो आचार्य जी, उसमें ऐसा रखा क्या है कि उसके बारे में लिखवा रहे हो और जिसमें कुछ रखा है, जिसका कुछ मूल्य है, उसके बारे में तो कुछ लिखा जा नहीं सकता आपके इन व्हाटसअप ग्रुप्स पर!’

‘जिसके बारे में आप लिखवा रहे हो उसके बारे में लिखते-लिखते ऊब गये। जिसके बारे में आप लिखवा रहे हो वो कौन था, अरे! वो जो मेरा नाम लेकर चल रहा है।‘

यतेन्द्र किसके बारे में लिख रहे थे लगातार? यतेन्द्र के बारे में। यतेन्द्र बोले, ‘ये यतेन्द्र बहुत फूहड़ है, इसके बारे में लिखते-लिखते ऊब गया, इसके बारे में और लिखवाओगे तो निढाल हो जाऊँगा, यहीं ढुलक जाऊँगा। इसमें कुछ रस ही नहीं है। मेरा इससे ऐसा नाता टूटा है कि इसकी ओर देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं होती। इसका मतलब ये नहीं कि मुझे इससे बैर है कि द्वेष है, मुझे इससे बस ऊब है, अनिच्छा है। द्वेष नहीं है, राग हटा है वैराग्य है, अन्तर समझना। मुझे यतेन्द्र से घृणा नहीं हो गयी है, बस इतना है कि पहले यतेन्द्र से राग था अब वैराग्य है। ये नहीं हुआ है कि पहले राग था अब द्वेष है। मुझे कोई ग्लानि इत्यादि नहीं है। मुझे अपने ऊपर कोई चिढ़ नहीं है, मुझे स्वयं से कोई ग्लानि नहीं है, मुझे अपने ऊपर कोई शर्म इत्यादि नहीं आ गयी है। मुझे बस स्वयं से अरुचि हो गयी है, रुचि नहीं बची। किसी भी तरह की रुचि नहीं, राग भी रुचि है और द्वेष भी। न मुझे राग की रुचि बची है, न मुझे द्वेष वाली रुचि बची है। बस आचार्य जी माफ़ करो, यतेन्द्र की ओर देखने का अब मन नहीं करता। मुझे तो ये नहीं समझ में आता आचार्य जी, आप कैसे यतेन्द्र की ओर देखे ही जाते हो, देखे ही जाते हो! आपने उसको इतना देख लिया बड़ी बात! हमसे अब नहीं देखा जाता हमें माफ़ करो।‘

एक स्थिति वैसी आ जाती है पर वो बहुत दूर की स्थिति है, उसकी आमतौर पर मैं चर्चा करता नहीं। जो पहले तल पर बैठा हो उससे तीसरे तल की बात करना उचित नहीं होता। जो पहले तल पर बैठा हो उससे बात मैं लगातार किसकी करता हूँ? दूसरे तल की।

तो मैं कहता हूँ, अपनेआप को देखो, क्षेत्रज्ञ बनो-क्षेत्रज्ञ बनो-क्षेत्रज्ञ बनो, दृष्टा बनो। दृष्टा रहे आये-रहे आये-रहे आये-रहे आये तो कौन जाने एक दिन इतने मिट जाओ कि साक्षी हो जाओ। याद रखना तुम साक्षी नहीं हो जाओ, तुम्हारा मिटना साक्षी हो जाएगा, दोनों बातों में बहुत अन्तर है। अधिकाँश लोग जो साक्षी की साधना करते हैं इसीलिए असफल रहते हैं, वो साक्षी हो जाना चाहते हैं। तुम साक्षी कभी नहीं होते, तुम्हारा मिटना साक्षित्व कहलाता है।

हम चाहते हैं हम बने रहें और हमारा नाम हो जाए साक्षी। नहीं-नहीं-नहीं, तुम साक्षी कभी नहीं हो पाओगे। आपने भी साक्षी के बारे में बहुत बार प्रश्न करे हैं (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए), साक्षी होना सम्भव ही नहीं है, साक्षी न होना सम्भव है अन्तर समझना। जब आप नहीं हैं?

श्रोता: तब साक्षी है।

आचार्य: जब कुछ नहीं है तो साक्षित्व मात्र है। जब तक कुछ भी चल रहा है, तब तक या तो दृष्टा हैं आप, या सहभागी हैं, प्रतिभागी हैं। साक्षी कहाँ से हो गये? साक्षी वो जिसकी कुछ देखने में भी रुचि नहीं। क्षेत्रज्ञ को या दृष्टा को साक्षी नहीं कहते। जब आपकी देखने में भी रुचि न बचे, तो हुए आप साक्षी।

तो साक्षी कौन? ये न कहो, ‘वो जो सब कुछ देखता है वो साक्षी।‘ कहो, ‘जो कुछ नहीं देखता है वो साक्षी।‘ हमारी प्रचलित परिभाषा क्या है? जो सब कुछ देखे वो है साक्षी। साक्षी वो जो कुछ नहीं देखे। साक्षी वो जिसकी आँखें बन्द हो गयी हैं, या कम-से-कम आधी बन्द हो गयी हैं जैसे किसी कबीर की, किसी नानक की, किसी बुद्ध की। वो हुआ साक्षी, उसको दिख ही नहीं रहा है अब, उसको अरुचि हो गयी।

वो नहीं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा है ऐसे। जब देखा है कुछ बहुत, कोई बहुत उत्सुक हो जाता है किसी विषय में तो कहते हो ये दीदे फाड़-फाड़कर क्या देख रहे हो, कहते हो कि नहीं कहते हो? तो संसार में लिप्तता का प्रमाण है अति सक्रिय इन्द्रियाँ, आँखें फाड़कर देख रहे हैं, या खरगोश के कान। ये संसार में लिप्तता का प्रमाण है, चल क्या रहा है? साक्षी वो जिसे कोई मतलब ही नहीं कि चल क्या रहा है। अरे! चल रहा होगा, जो चल रहा है, हम वहाँ हैं जो अचल है, जो कभी चलता ही नहीं।

समझ में आ रही है बात?

तीसरे तल की छोड़ दो, दूसरे तल की बात समझ में आ रही है?

प्र२: आचार्य जी, सबकुछ जानते हुए भी हम पहले तल पर ही क्यों फँसे रह जाते हैं?

आचार्य: तीन और पाँच में भेद कर दिया है। तुम फँसे इसलिए हो क्योंकि तुम तीन को पाँच से अलग समझते हो, और तीन और पाँच?

श्रोता: मिट्टी हैं।

आचार्य: फिर से दोहराओ। तीन और पाँच?

श्रोता: मिट्टी हैं।

आचार्य: अध्यात्म माने तीन बराबर?

श्रोता: पाँच।

आचार्य: तीन बराबर

श्रोता: पाँच।

आचार्य: तीन और पाँच को अलग-अलग नहीं देखना है। ये खम्बा नहीं है, ये क्या है? अरे! मेरी अकड़ है। भीतर की जड़ता को बाहर की जड़ता से भिन्न नहीं मानना है, ये आठों एक हैं भाई! तीन और पाँच को अलग-अलग मत समझना, ये आठों एक हैं। तीन बराबर?

हमारी ग़लती ये है कि हम तीन और पाँच को अलग-अलग मानते हैं। हम इसको (खम्भे को इंगित करते हुए) खम्भा मानते हैं और इसको (शरीर को इंगित करते हुए) इंसान मानते हैं, ये (शरीर) भी खम्बा ही है, चलता-फिरता खम्बा।

बात समझ में आ रही है?

तो वो जो बाहर है वो कीचड़, वो कीचड़ क्या है?

श्रोता: ‘मैं’।

आचार्य: ‘मैं’ नहीं, भेज़ा है मेरा। वो कीचड़ क्या है? और ये बात काव्यात्मक नहीं है, ये बात तथ्यात्मक है। वो भी जड़ है ये भी जड़ है, दोनों में ही कोई चेतना नहीं है। मस्तिष्क की किसी गतिविधि में चेतना नहीं है। चिकित्साशास्त्र आपको बताता है कि चेतना का निवास मस्तिष्क में है। अध्यात्म आपको बताता है कि मस्तिष्क जड़ है, जड़ माने पत्थर, जड़ माने मशीन, जड़ माने हवा-पानी, जड़ माने पंचभूत।

तो चिकित्सा शास्त्र आपको बता देगा कि मस्तिष्क में कौन बसती है, चेतना। है न? श्रीकृष्ण तुमसे कह रहे हैं, ‘मस्तिष्क में चेतना नहीं बसती, मस्तिष्क भी ठीक वैसा ही है जैसे सामने पड़ा पत्थर।’ तुम्हारे शरीर में बहुत कुछ है, जैसे बाक़ी सब कुछ है वैसे ही मस्तिष्क है। तुम अपने थूक को चैतन्य बोलते हो क्या? तुम मस्तिष्क में बह रहे रक्त को चैतन्य क्यों बोल रहे हो, वहाँ भी तो बिना रक्त के कोई काम नहीं होगा, कि होगा?

मस्तिष्क जो कुछ भी है सबसे ज़्यादा उसमें क्या है, रक्त। रक्त चैतन्य होता है क्या? नहीं होता न। मस्तिष्क भी चैतन्य नहीं है। जब मस्तिष्क चैतन्य नहीं तो मस्तिष्क से सम्बन्धित जो भी तुम्हारे उद्वेग हैं, संवेग हैं वो चैतन्य कैसे हो गये? बुद्धि चैतन्य कैसे हो गयी? भावनाएँ चैतन्य कैसे हो गयीं? डकार मारते हो तो कहते हो क्या कि जो हुआ अभी वो बड़ा मूल्यवान था? वो तो तुम कहते हो शारीरिक घटना है, है न? शारीरिक घटना है न?

शारीरिक घटना है। पेट में गैस बढ़ गयी तो मुँह से डकार आ गयी। ठीक वैसे ही आँसू हैं, मात्र शारीरिक घटना हैं। भावों में कोई चेतना नहीं। ये बात सुनने में बड़ी बुद्धि विरुद्ध लगेगी पर बुद्धि तो ख़ुद ही जड़ है। कोई बात नहीं, बुद्धि विरुद्ध हो कोई बात तो होती रहे, हमें क्या लेना-देना। डकार मारकर कभी कहते हो क्या कि कोई बड़ी विशिष्ट घटना घटी है, नहीं कहते न? तो वैसे ही तुम्हें प्रेम लगता हो, मोह लगता हो, मत कहा करो कोई विशिष्ट घटना घटी है ये क्या है, डकार।

पर हम अजीब लोग हैं, डकार की तो हम उपेक्षा कर देते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे तथाकथित प्रेम या मोह का आदर किया जाए। कर दूँगा पर फिर मैं तुम्हारी डकार की भी पूजा करूँगा। कोई हमारे सामने डकार मार दे, हम पर आमतौर पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं — पड़ सकता है अगर सामने जो बैठा है उसे तुम प्रेमी या प्रेमिका मानते हो फिर तो बहुत पड़ सकता है, जानू ने डकार मार दी! लेकिन तुम्हारे सामने कोई रो दे तो तुम पर बड़ा प्रभाव पड़ जाता है, पड़ जाता है न? माथे से तुम्हारे पसीना छलकता है तो कहते हो क्या, अरे! देखो कुछ ख़ास हो रहा है, कहते हो? तो आँखों से आँसू छलकते हैं उसको ख़ास क्यों मानते हो? श्रीकृष्ण समझा रहे हैं इसीलिए फँसे हुए हो और कोई वजह ही नहीं है तुम्हारे फँसने की।

तुमने पसीने और आँसू को अलग-अलग मान लिया। तुम जड़ को चेतन माने बैठे हो। जो आठ एक हैं, उनमें से तीन को तुमने चैतन्य मान लिया है, उनमें से तीन को तुमने परा मान लिया है, वो आठों एक है। तुम गड़बड़ ये कर रहे हो कि पाँच को तीन से अलग समझ रहे हो।

वो तीन भी पाँच जैसे ही हैं, बिलकुल पाँच ही हैं वो। तुम इसीलिए फँस रहे हो क्योंकि तुम तीन को पाँच से अलग देख ही नहीं पा रहे। जिसने उस तीन को पाँच जैसा देख लिया, उसके तीन शुद्ध हो जाते हैं और पाँच को वो ठिकाने लगा देता है। तीन शुद्ध हो जाते हैं और पाँच को वो पाँच की जगह पहुँचा देता है।

पत्थर है पत्थर की औकात में रह। तू पानी है अमृत नहीं हो गया। जड़ है जड़ की जगह रह, चैतन्य नहीं हो गया तू। आँसू बह रहे हैं, तुम कहोगे, ‘है क्या ये?’ पानी। पर हमारी संस्कृति, हमारी शिक्षा इन्होंने हमें क्या सिखाया है? आँसुओं को बड़ा भाव देना। भीतर से कामना उठी, हम उसको नाम क्या दे देते हैं, प्रेम का।

पाँच को तुरन्त तीन से अलग कर दिया। तीन को उठाकर के हम किस दर्जे पर रख देते हैं? तीन हमें श्रीकृष्ण बता रहे हैं किस दर्जे के अधिकारी हैं? निचले, थर्ड क्लास (तृतीय श्रेणी)। वो अधिकारी किस तल के हैं? तृतीय तल के, तीसरे दर्जे के और उनको हम दर्जा कौनसा दे देते हैं? दूसरा। तो दूसरा है, आशिक़ लोग पहला दे देते हैं।

साहिल भाई, आशिक़ लोग तो जो बिलकुल निचले तल्ले की चीज़ होती है उसको आसमान की चीज़ बना देते हैं। कहते हैं, ‘परम प्रेम हुआ है मुझे।‘ उन्हें समझ में ही नहीं आता कि तुम्हें जो हो रहा है वो क्या था? मिट्टी, पानी, कीचड़, आग, उसको तुमने पूजना शुरू कर दिया।

साधारण झाड़ में आग लगी थी उसको तुमने जीवन की ज्योति बना लिया। साधारण झाड़ की आग है जीवन की ज्योति नहीं है, साहिल।

समझ में आ रही है ये बात?

झाड़ की आग को जीवन की ज्योति नहीं कहते। झाड़ में आग तो लगेगी, गर्मी बहुत है, और ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापमान वृद्धि), झाड़ जले न तो झाड़ कैसा, पर उसे तुम ज़िन्दगी का प्रकाश मत समझ लेना।

जिसने ये कर लिया वो पहले ही तल पर रह जाएगा, तीसरा छोड़ दो दूसरे पर भी नहीं आ पाएगा। आओगे कैसे भाई, तुमने तो पहले को ही बना दिया दूसरा भी और तीसरा भी। जिसने पहले को ही दूसरा और तीसरा समझने की भूल कर दी वो कैसे आएगा कभी दूसरे और तीसरे पर! क्या आ सकता है?

तीसरे दर्जे में सफ़र करा है? अरे थ्री टायर में? उसमें ख़तरनाक बात होती है बहुत, वैसे ही उसको तीसरा दर्जा नहीं बोलते। उसमें ख़तरनाक बात ये होती है कि उसमें डब्बे के भीतर ही तीन तल्ले होते हैं और मैंने अजब नज़ारा देखा है कि उसी डब्बे के तीसरे तल्ले पर जो बैठा हुआ है वो अपनेआप को नीचे वालों से श्रेष्ठ समझ रहा है (श्रोता हँसते हुए), ये हमारा हाल है।

हम सब तीसरे तल्ले के खिलाड़ी हैं, पर तीसरे तल्ले में भी हम चढ़ गये हैं ऊपर वाले पर और हम सोच रहे हैं हम नीचे वालों से श्रेष्ठ हो गये। वो ऐसे नीचे देख रहे हैं बिलकुल तिरस्कार की दृष्टि से, कह रहे, ‘ये घटिया लोग, छी!’ उन्होंने क्या करा है? उन्होंने किसी ऐसे को उच्चतम मान लिया है जो है तीसरे के ही तल का।

बात समझ में आ रही है?

हो तुम अभी तीसरे दर्जे में ही लेकिन थोड़ा सा ऊपर चढ़ गये हो तो तुम्हें लग रहा है कि तुम पहले दर्जे में आ गये। ऊपर वाली बर्थ मिल गयी है तो तुम सोच क्या रहे हो कि शायद हम फर्स्ट एसी में आ गये। थर्ड टायर के ऊपर वाली बर्थ को तुमने क्या बना लिया, प्रथम वातानुकूलित और क़ीमत अदा करी नहीं है।

मैं तो वहीं पर आकर अटकता हूँ। दाम चुकाये हैं? दाम चुकाये नहीं तो क्यों सोच रहे हो कि पहले दर्जे में आ गये। यही बात श्रीकृष्ण समझा रहे हैं, ‘दाम तुमने चुकाये नहीं और बातें तीसरे की। दाम चुकाने के समय तो ठनठन गोपाल और बातें गोपाल की। गोपाल उनके लिए हैं जो दाम चुकायें।‘

समझ में आ रही है बात?

अब मैं थोड़ी कड़ी बात कहूँगा, कहनी ज़रूरी है। घिसिएगा अपने हाथ को, गर्मी भी है उमस भी है। देर तक घिसेंगे तो पाएँगे गर्म ही हो गया और थोड़ी मैल है, होगा? हथेलियाँ भी ज़ोर से देर तक घिसते रहो तो थोड़ी मैल, आबोहवा का असर है, क्या कर सकते हो, कितनी भी बार हाथ धोओ, घिसोगे तो(मैल दिखेगी ही )। इसे हम क्या कहते हैं? मैल।

मैल को ही कहा गया है ‘रज’, जानते हो? मैल के लिए ही पर्याय है ‘रज’। स्त्री और पुरुष के जननांगों से जो द्रव्य प्रवाहित होते हैं उन्हें भी कहा गया है ‘रज’, ‘शरीर का मैल।‘ वही मैल हथेली पर है तो तुम्हें दिख जाता है कि मैल है, उसको तुम हटा देते हो पर वही मैल जब सन्तान बनकर सामने आ जाता है तो तुम उसको तीसरे दर्जे का क्या पहले दर्जे का स्थान देने लग जाते हो, है न?

दिखायी ही नहीं पड़ता कि रज मात्र है और कुछ नहीं, मैं किस चक्कर में पड़ रही हूँ, तब समझ में ही नहीं आता। श्रीकृष्ण की सलाह का उल्लंघन कर दिया न। वो कह रहे हैं, ‘तीन बराबर पाँच।‘ और आपको लग गया कि तीन बराबर न जाने क्या।

शरीर का सामान्य साधारण उत्सर्जन है, जैसे पसीना, जैसे मैल, रज। रज मात्र है पर बड़ा मोह का धागा जोड़ लिया और जब पहले ही तल पर इतना मोह बैठा लिया तो दूसरे और तीसरे को तो भूल ही जाओ। भूल जाओ क्या, भूल जाते हो, भूल गये हो।

बात आ रही है समझ में?

और इतनी ही नहीं है, ये बात कितनी कठोर लग रही होगी पर करूँ क्या श्रीकृष्ण पर बोल रहा हूँ, जो बार-बार कहते हैं, ‘दो ही चीज़ें हैं जो तुम्हें मारे डाल रही हैं, एक अहंता, दूसरी ममता।’ और गुणों में उन्होंने सर्वोपरी बताया है ‘निर्ममता’ को। कहते हैं, ‘निर्मम हो अर्जुन, उसके बिना कोई काम नहीं चलेगा।’

बीमारियों में उन्होंने ऊँची-से-ऊँची बीमारी बतायी है ‘ममता’ और गुणों में उन्होंने सर्वोपरि बताया है ‘निर्ममता’ को, मम का भाव मत रखो।

तो अगर श्रीकृष्ण साथ हैं तो उन्हीं की भाषा में कुछ बातें करनी पड़ेंगी, मुझे मालूम है वो थोड़ा कठोर लगेंगी। शिल्पी के प्रश्न से आज हमने शुरुआत करी थी, अगर शिल्पी सुन रही होंगी तो समझ रही होगी कि क्यों फँसी हुई हैं।

बार-बार कह रही हैं, ‘दुनिया में सर्वत्र माया दिखायी देती है, श्रीकृष्ण क्यों नहीं दिखायी देते?’ यही प्रश्न गीतिका ने पूछा। गीतिका जब निचले तल वाले को ही ऊपर का समझ लिया तो ऊपर वाले की सम्भावना ख़त्म हो गयी न बिलकुल? हो गयी कि नहीं हो गयी? बोलो। अपनी भावनाओं को, अपने विचारों को, अपने अहंकार को, अपनी बुद्धि को, अपनी योजनाओं को इन सबको पाषाण जानो — पाषाण माने पत्थर।

अपने भीतर के सारे शोर को, सारे कोलाहल को, सारी गतिविधि को मात्र रासायनिक प्रक्रिया जानो। भीतर गुड़-गुड़-गुड़-गुड़ क्यों उठ रही है, कहाँ, पेट में नहीं दिमाग़ में, क्यों हो रही है। अरे! दो कैमिकल जाकर के मिल गये हैं और कुछ नहीं हो रहा है, बहुत महत्व देने की ज़रूरत नहीं है।

साहब कह रहे हैं, ‘आज शाम से ही, जब से घटा गहराई है आकाश में, दिल ज़रा ग़मगीन है।' ये ज़रूर कोई फोटो केमिकल रिएक्शन (फोटो रासायनिक अभिक्रिया) हुआ है। जानते हो न बहुत सारी रासायनिक प्रक्रियाएँ मात्र प्रकाश की उपस्थिति में हो सकती हैं, उनको क्या बोलते हैं? फोटो केमिकल रिएक्शन। प्रकाश बढ़ता है तो प्रतिक्रिया हो जाती है और नहीं होता प्रकाश तो नहीं होती। उसके उलट भी होता है, प्रकाश हो तो नहीं होगी, अन्धेरा कमरा हो तो हो जाएगी।

तो वैसे ही देखा है, कई बार होता है कि नहीं होता है। बिलकुल काली घटा घिर आयी, उधर आसमान में काली घटा घिर आयी, इधर तुम्हारे भीतर फोटो केमिकल हुआ और लगेगा ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है, वही आग सीने में फिर जल उठी है', अरे! ये फोटो कैमिकल काम चल रहा है भाई! तुम किस चक्कर में फँस रहे हो। अभी बादल छटेंगे सूरज निकलेगा तुमको फिर याद आ जाएगी पंसारी की दुकान। कहोगे, ‘भक्क! लौंग और धनिया तो रह ही गया।’ और फिर वो जो तुम्हारी एक्स है वो बहुत पीछे छूट जाएगी।

‘कुछ ऐसे ही दिन थे कि जब हम मिले थे’ और देखा है रात गहराते ही ऐसे-ऐसे विचार आने लगते हैं जो दिन में नहीं आते। तुम्हें दिखायी नहीं दे रहा कि सारा खेल पदार्थ का है। कई फूल होते हैं, दिन में खिलते हैं रात में बन्द हो जाते हैं, तुम्हें क्या लगता है ये उनका ‘मैं’ है जो निर्णय कर रहा है, बोलो। उनकी अस्मिता निर्णय कर रही है क्या कि अब खिलना है अब बन्द होना है। वो कैसे खिल रहे हैं, कैसे बन्द हो रहे हैं?

प्रकाश आया, रासायनिक प्रक्रिया हुई वो खिल गये और बन्द हो गये। वैसे ही हमारा भी होता है, ‘बेला महका रे महका आधी रात को, दिल क्यों बहका रे बहका आधी रात को’ (श्रोता हँसते हुए) अरे! ये लोचा सनलाइट (सूर्य प्रकाश) का है और कोई बात नहीं है, इसमें शायरी, आशिक़ी की कोई ज़रूरत ही नहीं है। ये बात समझ में नहीं आती। अभी हँस रहे हो पर अभी जैसे ही बारह बजेंगे रात के, देखना। कहोगे, ‘आचार्य जी, अब थोड़ा सा जाने दो न।’

बात समझ में आ रही है?

आम का पेड़ चार साल, पाँच साल का हो गया, फिर उस पर क्या लगे?

श्रोता: फल।

आचार्य: अब पहले ही साल से तो नहीं लग जाते! नहीं लग जाते न! और ये भी जानते हो कि यूँही नहीं लगते, वहाँ भी निषेचन की पूरी प्रक्रिया होती है। निषेचन समझते हो, क्या?

श्रोता: फर्टिलाइजेशन (निषेचन)

आचार्य: पॉलिनेशन (बहुरूपण) फिर फर्टिलाइजेशन (निषेचन) सब पूरा होता है वहाँ पर। तो वहाँ तो तुम नहीं कहते कि आम के पेड़ ने तय किया है कि अब फैमिली (परिवार) बनानी है, कहते हो क्या? कि आई एम प्लानिंग ए फैमिली नाओ, आफ्टर ऑल आइ एम जस्ट एन आम ट्री अन्य आम वृक्षों की तरह मैं भी अब एक परिवार बनाना चाहता हूँ।

वहाँ तो बस आम लग जाते हैं, लटक जाते हैं, तुम तोड़ लेते हो, चूस लेते हो। तुम ये थोड़े ही कहते हो कि इसका परिवार ख़राब कर दिया मैंने या कि अब ये वंशहीन हो जाएगा, ऐसा तो कुछ नहीं करते। रस चूसा गुठली उछाल दी, यही करते हो। यही काम तुम्हारे साथ होता है। एक उम्र आती है उसके बाद तुम्हारे भी आम तैयार हो जाते हैं, पर तुम मानते ही नहीं कि ये जो हो रहा है ये उम्र का खेल है।

रासायनिक है बिलकुल आम की तरह। तब तुम्हें आम-आम और गुठली-गुठली नहीं नज़र आते, तब तुम्हें लगता है जन्नत का छत्ता है, उसमें से शहद बरस रहा है। तब तुम शायरी करते हो। ये शायरों ने बड़ी ऐसा… ऐसा….! सबके साथ हुआ है न ऐसा? हुआ है न।

और जब वो सब कुछ हो रहा होता है तब बिलकुल नहीं समझ में आता अमराई है, अमिया है छोटी तो खट्टी है, थोड़ी देर में मीठी हो जाएगी। ये सब पदार्थगत बात है, मीठा माने क्या? कुछ भी नहीं, सुक्रोज, फ्रक्टोज, मीठा माने क्या? मीठा माने न हर्ष, न प्रसन्नता, न प्रेम, न परिवार। मीठा माने सुक्रोस, ये बात हमें नहीं समझ में आती।

नहीं आती न!

मैं जब पहले कॉलेज जाता था, लड़कों से कहता था कि बेटा, तुम इतना प्रेम-प्रेम करते हो, एक इंजेक्शन तुमको अभी लगा दें तुम बिलकुल भूल जाओगे प्रेम को। तुम्हें प्रेम से कोई मतलब ही नहीं रहेगा। तुम कहोगे, ‘ये चीज़ क्या होती है?’ क्योंकि वो खेल ही सारा थोड़े से रस का था। उस रस से तुमको विरस कर दिया अगर तो कोई प्रेम बचने नहीं वाला।

और उसका विपरीत भी उतना ही सत्य है। जो रस तुमको अभी संचालित कर रहा है उसी रस के तुम्हें दो इंजेक्शन अभी ठूंस दें तो यहाँ जितनी लड़कियाँ हैं सबको बचाना मुश्किल हो जाएगा, उन्हें घेरकर के बाहर ले आना पड़ेगा, ऐसे उद्दंड होकर उछलोगे।

यहाँ बगल के कमरे में एक खरगोश सो रहा है। आज ही अनु ने उसकी न्यूटरिंग (नसबन्दी) करायी है, बहुत उदास है लेकिन उसकी उदासी बस आज की है। अब उसे याद ही नहीं रहना कि प्रेम इत्यादि क्या होता है।

हम सोचते हैं बात दिल की है, बात दिल की नहीं, बात पंचभूत की है। तो दिली इन सब बातों को किसका दर्जा देना है। पंचभूत का ही, मिट्टी, पत्थर, पानी का ही, उससे ज़्यादा चीज़ों की हैसियत नहीं, यही श्रीकृष्ण का सूत्र है।

थोड़ा सा करके देखिए, प्रयोग करके देखिए, शिविर के इन कुछ दिनों में ही कम-से-कम ये प्रयोग करिए। मन में जैसे ही कुछ बढ़े, जैसे ही कोई भाव चढ़े, तत्काल कहिए, ‘ज़रूर ये रसायन बीसीडी है।’ आप नाम नहीं जानते हालाँकि अगर आप वैज्ञानिक हों और मस्तिष्क की संरचना में आपकी शिक्षा हो, तो आप ठीक-ठीक बता भी पाएँगे कि ये कौनसा केमिकल है जो अभी आप पर चढ़ रहा है। आप नाम समेत बता देंगे। अभी आप नाम नहीं जानते लेकिन कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। जो भी केमिकल है वो है तो केमिकल ही, तो आप क्या दीजिए, ‘ये ज़रूर जे सी के है', तो अब जेसीके से बच गये आप।

लेकिन उस जेसीके को आपने अगर कह दिया मोह तो मारे गये। किसी पर बहुत क्रोध आ रहा है, तुरन्त क्या बोलना है? ‘अरे! एसटीएस हो रहा है मेरा’, क्या हो रहा है? एसटीएस हो रहा है। एसटीएस चढ़ा है आधा-एक घंटा लगता है एसटीएस उतर जाएगा। आधा-एक घंटा लगता है, इससे ज़्यादा लगता ही नहीं।

इच्छा की दुर्बलता ये है कि जैसे सब झूठ अनित्य होते हैं, इच्छा को भी तो अनित्य होना ही पड़ेगा न। तो वो आएगी अपने पूरे गति बल के साथ, आवेग के साथ आएगी, बड़ा उसमें मोमेंटम (प्रवाह) होगा और बड़ी ज़ोर की आपको वो लहर मारेगी, थपेड़ा। एक बार झेल जाओ बस, जीत गये।

वो जो उसका एक थपेड़ा होता है वो जीतना ही मुश्किल होता है। एक बार झेल जाओ वो दुर्बल पड़ जाएगी। एक बार झेलने का ही अभ्यास करना है इससे ज़्यादा कुछ नहीं करना है, यही सूत्र है। याद रखना इच्छा को तुम्हें मारने की ज़रूरत नहीं, वो अनित्य है स्वयं जाएगी। इच्छा सत्य थोड़े ही है कि बनी ही रहेगी, बनी ही रहेगी। कोई इच्छा है जो बनी ही रहती है कभी। है एक भी इच्छा ऐसी? तो इच्छा का काम है लहर की तरह आना और लहर की तरह गुज़र जाना। तुम्हें बस ये करना है कि जब उसका थपेड़ा आये-आये-आये, एक बार की झेल जाओ।

कभी जाकर समुद्र की रेत में खड़े हुए हो थोड़ा सा अन्दर समुद्र के, किसी बीच इत्यादि पर, हुए हो? लहरें आती हैं और थपेड़ा मारती हैं और उसको झेल गये तो वापस लौट जाती हैं। फिर अगली आती है, फिर थपेड़ा मारती है, वो थपेड़ा बस झेलना है और उसको झेलने की भी विधियाँ होती हैं।

जो लोग थोड़े अनुभवी तैराक हैं वो जानते हैं कैसे झेलना है। बस झेल जाओ, बह मत जाओ उसके साथ, उसके बाद सब आसान है। उसका प्रमुख हमला झेल जाओ, उस वक्त न तादात्म्य कर लो, न विरोध कर लो। न तादात्म्य कर लेना है और न विरोध इत्यादि करना है, क्या करना है? खडे़ रह जाना है, बस हो गया।

सूत्र स्पष्ट हो रहा है?

उस खड़े रहने के क्षण में तुम प्रोन्नति कर जाते हो दूसरे तल पर। जिस क्षण तुमने लहर के साथ बह जाने से इंकार कर दिया, ठीक उसी क्षण — देरी नहीं लगती — ठीक उसी क्षण तुम दूसरे तल पर पहुँच गये लेकिन वापस आने का रास्ता भी खुला हुआ है। अभ्यास अगर पूरा नहीं है तो दूसरे से फिसलकर के फिर पहले पर — पहले से मतलब मेरा वही तीसरा, निचला। अभ्यास अगर पूरा नहीं है तो निचले तल से उठकर दूसरे पर पहुँचोगे और फिर गिर जाओगे।

जैसा कि कई लोग बताते हैं कि आचार्य जी, आपको सुनते हैं तो ठीक है, हफ़्ते भर बाद तक भी ठीक है और उसके बाद ढाक के तीन पात। अभ्यास करना पड़ता है। गीता में आरम्भ में ही श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से, ‘देखो, अर्जुन दो बातें, वैराग्य और अभ्यास।’ अभ्यास बिना काम नहीं बनेगा।

जिसको श्रीकृष्ण अभ्यास कहते हैं, उसी के लिए मेरा पसन्दीदा शब्द है, क्या है? साधना। जिसे कहते हैं श्रीकृष्ण अभ्यास, उसे मैं कहता हूँ बार-बार साधना। बिना साधना काम नहीं चलेगा।

साधना के साथ मज़ेदार बात ये है, जब तक शुरू न करो तब तक बड़ी मुश्किल लगती है। जो साधना से जितनी दूर है, जो साधना के जितने आरम्भिक तल पर है, उसे साधना उतनी दुष्कर लगेगी और जैसे-जैसे जो साधना में आगे बढ़ता जाएगा, वो साधना को आसान पाता जाएगा।

अगर कोई कहे साधना तो बड़ी कठिन है, इसका मतलब है उसने अभी साधना शुरू ही नहीं करी। जिसने शुरू ही नहीं करी उसे बहुत कठिन लगेगी। जो शुरू करके आगे बढ़ता जाएगा उसे क्रमशः आसान लगती जाएगी।

बात समझ में आ रही है?

कुछ खुल रही है बात, अध्यात्म का गणित बताइए।

श्रोता: तीन बराबर पाँच।

आचार्य: तीन बराबर।

श्रोता: पाँच।

आचार्य: और तीन श्रीकृष्ण बोल गये मन, बुद्धि और अहंकार। आप उसकी जगह अपने चुनिन्दा तीन रख दीजिए। आपके तीन क्या हो सकते हैं? मद, मोह, तृष्णा। जिसके जीवन के जो तीन काँटे हैं वो रख ले वहाँ पर, वो सब मन, बुद्धि, अहंकार के ही समकक्ष हैं।

किसी के तीन हो सकते हैं महत्वाकांक्षा, उपलब्धि, प्रसिद्धि। महत्वाकांक्षा, उपलब्धि (प्राप्ति) और प्रसिद्धि, इन तीन को तुरन्त क्या मानना है? पाँच बराबर हैं, पाँच माने? मिट्टी, कीचड़, आग, धुआँ, बादल। जो भी तीन तुम्हारे अन्तर्जगत पर छाये रहते हो, तुम्हारे मन पर चढ़े रहते हो, घेरे रहते हो उनको तुरन्त क्या जानना है? वही पाँच, वही पाँच, वही पाँच।

जो इस बात को समझ गया, जो इन आठों को एक जान गया, उसने कर लिया अष्टांग योग। ये सबसे बड़ा अष्टांग योग है, इन आठ को एक जान लो।

कोट्स हमारी संस्कृति, हमारी शिक्षा, इन्होंने हमें क्या सिखाया है? आँसुओं को बड़ा भाव देना, भीतर से कामना उठी, हम उसको नाम क्या दे देते हैं, प्रेम का।

साधना से जितनी दूर है, जो साधना के जितने आरम्भिक तल पर है, उसे साधना उतनी दुष्कर लगेगी और जैसे-जैसे जो साधना में आगे बढ़ता जाएगा, वो साधना को आसान पाता जाएगा।

जिसको आप प्रकृति बोलते हो वो तो प्रकृति है ही, जिसको आप पुरुष बोलते हो वो भी प्रकृति मात्र है।

अधिकाँश लोग जो साक्षी की साधना करते हैं इसीलिए असफल रहते हैं, वो साक्षी हो जाना चाहते हैं। तुम साक्षी कभी नहीं होते, तुम्हारा मिटना साक्षित्व कहलाता है।

इच्छा की दुर्बलता ये है कि जैसे सब झूठ अनित्य होते हैं, इच्छा को भी तो अनित्य होना ही पड़ेगा न। तो वो आएगी अपने पूरे गति बल के साथ, आवेग के साथ आएगी, बड़ा उसमें मोमेंटम (प्रवाह) होगा और बड़ी ज़ोर की आपको वो लहर मारेगी, थपेड़ा। एक बार झेल जाओ बस, जीत गये।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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