आँसू कमज़ोरी की निशानी है? || आचार्य प्रशांत (2024)

Acharya Prashant

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आँसू कमज़ोरी की निशानी है? || आचार्य प्रशांत (2024)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। प्रश्न मैं छोटा ही रखूँगा लेकिन उससे पहले मैं कॉंटेक्स्ट (प्रसंग) देना चाहूँगा ताकि मैं बात ढंग से समझा सकूँ। आचार्य जी, मैं काफ़ी टाइम (समय) से सुन रहा हूँ आपका आपने जो समझाया भी है, और मेरा मैं कुछ अचीवमेंट्स (उपलब्धियाँ), ये भी है कि मैं धीरे-धीरे पतला भी हो रहा हूँ, घर भी छोड़ रखा है अपना, माँ-बाप के घर में रहता था। और पुराने रिश्ते भी जिस तरह से बने थे, वो खत्म करे हैं। लेकिन मुझे अभी भी लगता है मेरी हालत उस रानी जैसी ही है जो आपने कहानी में बताया था।

अब मैं आपसे प्रश्न पूछना चाह रहा हूँ कि आचार्य जी, कुछ समय से जो मैं बहुत ज़्यादा एक्स्ट्रीमली भावुक हो जाता हूँ, मैं ऑलमोस्ट (लगभग) रो पड़ता हूँ, हर दूसरे दिन। कुछ ऐसी सिचुएशन्स (स्थितियाँ) हुई हैं कि जब मैं किसी की, कोई मदद माँग रहा होता है, मैं तब भी रो जाता हूँ कि उसकी हालत ऐसी क्यों है और कोई मुझे अपना टाइम (समय) देता है थोड़ा बहुत, तो मैं उसमें भी भावुक हो जाता हूँ कि वो मेरी बात सुन रहे हैं। और तीसरे टाइप में, मैं उस स्थिति में हो जाता हूँ जब आप कोई चीज़ समझाते हैं तो वो जो प्यार की गहराई दिखती है, तो उसमें भी रो जाता हूँ। तो मैं इतना कमज़ोर कैसे हो रहा हूँ?

मुझे लगता है कि मुझे भी बहुत प्यार चाहिए। और मैं सोचता हूँ कि मैं इतना कमज़ोर इसलिए भी हो रहा हूँ और अकेलापन इसीलिए बढ़ रहा है…। (आचार्य जी बीच में ही पूछते हुए)

(संशोधन उपरान्त सम्भावित प्रश्न) प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। प्रश्न मैं छोटा ही रखूँगा लेकिन उससे पहले मैं प्रसंग देना चाहूँगा ताकि मैं बात ढंग से समझा सकूँ। आचार्य जी, मैं काफ़ी समय से सुन रहा हूँ आपने जो समझाया भी है और मेरी कुछ उपलब्धियाँ, ये भी हैं कि मैं धीरे-धीरे पतला भी हो रहा हूँ, घर भी छोड़ रखा है अपना, माँ-बाप के घर में रहता था। और पुराने रिश्ते भी जिस तरह से बने थे, वो खत्म करे हैं। लेकिन मुझे अभी भी लगता है मेरी हालत उस रानी जैसी ही है जो आपने कहानी में बताया था।

अब मैं आपसे प्रश्न पूछना चाह रहा हूँ कि आचार्य जी, कुछ समय से जो मैं बहुत ज़्यादा भावुक हो जाता हूँ, मैं लगभग रो पड़ता हूँ, हर दूसरे दिन। कुछ ऐसी स्थितियाँ हुई हैं कि जब कोई मदद माँग रहा होता है, मैं तब भी रो जाता हूँ कि उसकी हालत ऐसी क्यों है और कोई मुझे अपना समय देता है थोड़ा बहुत, तो मैं उसमें भी भावुक हो जाता हूँ कि वो मेरी बात सुन रहे हैं। और तीसरे मैं उस स्थिति में हो जाता हूँ जब आप कोई चीज़ समझाते हैं तो वो जो प्यार की गहराई दिखती है, तो उसमें भी रो जाता हूँ। तो मैं इतना कमज़ोर कैसे हो रहा हूँ?

मुझे लगता है कि मुझे भी बहुत प्यार चाहिए। और मैं सोचता हूँ कि मैं इतना कमज़ोर इसलिए भी हो रहा हूँ और अकेलापन इसीलिए बढ़ रहा है…।

आचार्य प्रशांत: (प्रश्न के बीच टोकते हुए) ये रोने और कमज़ोरी में तुक कैसे जोड़ा आपने?

प्र: कमज़ोर लोग रोते हैं आचार्य जी।

आचार्य: किस फ़िल्म में सुना कि जो कमज़ोर होते हैं वो रोते हैं? रोने का आप विरोध कर रहे हो, ये आपकी समस्या है। और आप ऐसा भारी विरोध कर रहे हो कि आप उस समस्या को यहाँ तक ले आए। और ये बात आपको लोक-संस्कृति ने और फ़िल्मों ने और साधारण किस्म की बातचीत ने सिखा दी है कि रोना तो कमज़ोरी का लक्षण होता है। रोना किसी बात का लक्षण नहीं होता है।

बात कुछ समझ में आयी। आँखों से आँसू बहने लगते हैं, उसमें कुछ विशेष है ही नहीं। पर उसका विरोध करोगे तो लगेगा, ‘अरे! कुछ गड़बड़ हो गयी। कुछ विशेष हो गया, कुछ खास हो गया, अरे! मैं रो पड़ा। चलो जल्दी से चलते हैं, सवाल पूछते हैं, ये दुर्घटना क्यों हुई, यह त्रासदी क्यों हुई कि मैं रो पड़ा? इसमें क्या है, रो पड़े तो रो पड़े। पता भी नहीं चलना चाहिए, रो पड़े।

मैं इतनी बार सत्रों के बीच में रो पड़ता हूँ, कभी पता भी चला? कभी आवाज़ काँप गयी होगी तो थोड़ा आप जान गये होगे कि कुछ हुआ है, नहीं तो पता भी नहीं चलता होगा। न मुझे पता चलता है, न आपको पता चलता, न मुझे; क्योंकि कोई विशेष बात है नहीं।

बड़ी भारी बात बता दी, ‘मैं हर दूसरे दिन एक बार रो पड़ता हूँ।‘ मैं हर दिन पाँच बार रो पड़ता हूँ, मुझे ही नहीं पता चलता। गाड़ी चल रही होती है, साथ में कोई बैठा होता है, मैं कहीं जा रहा हूँ, बाहर देख रहा हूँ, बाहर देखते-देखते, ये हो गया (आँखों की तरफ़ आँसू निकलने का इशारा करते हुए), कुछ है ही नहीं विशेष। इतना होता है कि पता ही नहीं चलता। उसमें क्या ऐसा खास है? इंसान हो। जानवर ऐसे नहीं रोते। इंसान हो तो रोओगे।

कुछ दिखता है, जीवन का कोई सत्य उद्घाटित होता है, उसमें चेतना का और आँखों का होगा कोई रिश्ता। आँखें थोड़ी सी बारिश कर देती हैं। उसमें इतनी क्या खास बात है कि उसको समस्या बना लिया?

प्र: आचार्य जी, अन्दर से लगता है कि मैं कहीं कमज़ोर तो नहीं हो रहा हूँ।

आचार्य: तो मैं तुमसे दस गुना ज़्यादा कमज़ोर हूँ फिर। इसमें कमज़ोरी कहाँ से आ गयी। कमज़ोरी नहीं है एक सिद्धान्त है जो पकड़ लिया है कि रोने में बड़ी कोई बुराई हो गयी हो। कुछ नहीं हो गयी। क्यों विरोध कर रहे हो? और जीवन की ऊँचाइयों के साथ कुछ है ऐसा कि वहाँ पर अहम् पिघलने लगता है। ऐसा भी कह सकते हो कि अहम् ही पिघलता है तो आँखों से थोड़ा सा बह निकलता है।

ये है ऐसा, इसमें क्या करोगे? एकदम कोई घटिया फ़िल्म होगी, मैं देख रहा होता हूँ, उसमें कुछ भी नहीं होता, एकदम बेकार फ़िल्म, पर उसमें बीच में कोई बात किसी ने कुछ ऐसी बोल दी, मैंने न जाने उसका क्या अर्थ कर लिया और हो गया (आँसू निकलने का इशारा करते हुए)। उसमें विशेष क्या है।

हाँ, बस ये न करना कि हक्का फाड़कर रो पड़े और अगल-बगल वालों को दुखी कर दिया। छाती पीट रहे हैं और आर्तनाद कर रहे हैं। चुपचाप गरिमा के साथ आँसू बहा लो, आगे बढ़ जाओ। खुद को भी न पता लगे। रोने का अनिवार्य सम्बन्ध दुख से नहीं है। दुख में तो बेहोश लोग भी रो लेते हैं। रोने का अनिवार्य सम्बन्ध चेतना से है।

और उसकी कार्यप्रणाली समझ में आये, ये ज़रूरी नहीं है। आप समझते रहो उसके साथ जो कुछ हो रहा है, वो हो रहा है। आपको क्या पता है जब आप समझते हो बोध, अडरस्टैंडिंग , तो शरीर में और क्या-क्या होता है, आपको कुछ पता भी है? नहीं पता न। जब नहीं पता तो शिकायत करने भी नहीं आते।

जब आप समझ रहे होते हो न, तो आपकी ब्रेन वेव्स (मस्तिष्क तरंगे) भी बदल जाती हैं, उसकी शिकायत करने आए क्या कभी? तो वो भी तो एक शारीरिक ही परिवर्तन हुआ न कि आप मौन थे, आप ध्यान में थे और भीतर, यहाँ (सिर की तरफ़ इशारा करते हुए) जिस तरीके से मस्तिष्क में सर्किटरी ऑपरेट (विद्युत-परिपथ तन्त्र संचालन) करती है और वेव्स चलती हैं, वो चीज़ें बदल गयीं। उसकी कभी शिकायत करी, नहीं करी, क्योंकि वो दिखाई नहीं देता और ऐसे पता नहीं चलता कि आँसू है।

बहुत कुछ बदलता है शरीर में। चेतना जब ऊपर चढ़ती है न, शरीर में बहुत कुछ बदलता है। हम अभी बात तो कर रहे थे कि आँखें बदलती हैं। आँखें बदलती है, मस्तिष्क बदलता है। कहने वालों ने कहा है, ‘पूरा शरीर बदलता है।’ तो उस बदलाव में एक अंश ये भी है कि आँखें थोड़ी सी वर्षा करने लग जाती हैं।

वो कोई बहुत महत्व देने की बात नहीं है। वो कुछ ऐसा नहीं है कि हाय-हाय! आज कुछ बहुत खास हो गया। क्यों? यू नो टुडे आइ वेप्ट (तुम्हें पता है आज मैं रोया)! वेप्ट क्या है इसमें? कुछ नहीं है। जैसे भीतर कुछ सफ़ाई हो रही है और यहाँ से (आँखों से आँसू बहने का इशारा करते हुए) वो सारा जो माल है, साफ़ हो रहा है, वो निकलता जा रहा है।

मोमबत्ती होती है न, मोमबत्ती — शमा, वो जब तक प्रज्वलित नहीं हुई थी, कभी आपने उसको आँसू बहाते देखा और एक बार उसको लौ लग जाए, फिर देखिए वो कैसे रोती है? और जितना वो रोती है, उतना वो मिटती है। देखे हैं न मोमबत्ती के आँसू? दोनों ओर से गिर रहे होते हैं, गरमा-गरम आँसू। जब तक प्रकाश नहीं था तब तक आँसू भी नहीं थे।

ये सब मत कर लीजिएगा कि रो पड़े तो कमज़ोरी आ गयी, कुछ हो गया। कुछ नहीं हो गया। क्या हो गया? इन आँसुओं का रिश्ता अगर दुख से है भी तो ये बड़ा खास दुख है। ये वो वाला दुख है कि:-

“दुखिया दास कबीर है, जागे और रोय।”

और अगर चेतना के रास्ते पर आगे बढ़ना है तो ये सब फ़िल्मी सिद्धान्त छोड़ दीजिए कि रोने से नामर्दगी पता चलती है। तो पौरुष और मर्दानगी किसमें है कि घूँसा मारते चलो दूसरों को। ये क्या है, कुछ नहीं। जितना आप आगे बढ़ोगे न इस यात्रा में, उतना आप पाओगे कि बहुत कोमल होते जा रहे हो। ये विचित्र बात है! क्योंकि एक ओर तो हम बात करते हैं उस सूरमा की जो छाती पर तीर खाता है।

“सम्मुख सहना तीर”

जो सिर पहले कटाता है, बाद में मैदान में जाता है और दूसरी ओर हम कह रहे हैं कि जैसे-जैसे आप बोध-यात्रा पर आगे बढ़ते हो, वैसे-वैसे सुकोमल होते जाते हो। हाँ, होते जाते हो। वो कोमलता संवेदनशीलता है, सेंस्टिविटी है।

जो बातें आपको पहले पता ही नहीं चलती थीं, आपके मानस-पटल पर अंकित ही नहीं होती थीं, रजिस्टर (दर्ज) नहीं होती थीं, वो बातें अब आपको दिखाई देने लगती हैं। यही तो है प्रज्ञा-नेत्र का खुलना (माथे के मध्य इशारा करते हुए)।

और जब कुछ पता चलने लगता है, दिखाई देने लगता है, तो आँखें फिर झरना बनती हैं बीच-बीच में।

समझ में आ रही है बात?

वो साधारण दुख नहीं है कि मेरा कुछ छिन गया तो दुखी हो गये, किसी ने कुछ बुरा बोल दिया तो दुखी हो गये, अपमान हो गया; यही सब बातें। आशा लगायी थी, आशा टूट गयी तो दुखी हो गये। ये वो वाला रोना नहीं है। इस रोने का कारण आवश्यक नहीं है कि आप जान पायें। आपको बड़ा विचित्र लगेगा कि इसमें आँसू बहाने की क्या बात है, आप अपनेआप से पूछोगे, कोई उत्तर मिलेगा नहीं। पर अब आँसू हैं, वो बह रहे हैं, अब क्या?

धीरे-धीरे करके आपके लिए ये चीज़ इतनी साधारण हो जाएगी कि आप खुद ही कोई सवाल पूछना छोड़ दोगे। आप कहोगे, ‘इनका तो काम है दिन में चार बार बहना। तो ये अपना बहती रहती हैं, हम क्या करें इनका?’ ये कुछ गा रहे होते हैं अचानक हो जाता है अपना, आँखें गीली हो गयीं, ठीक है। खरगोश को, जाइए, ऐसे हथेली पर उठाइए, उसको देखिए, एक मिनट देखिए लगता है कि कुछ हो गया, ठीक है।

माया के सामने आध्यात्मिक आदमी जितना वज्र सा कठोर होता जाता है, अपने आन्तरिक जगत में वो उतना ही कोमल होता जाता है। जहाँ उसको नहीं झुकना वो झुक नहीं सकता, सिर काट लो। और बाकी वो पूरा झुका-झुका, मिटा-मिटा ही घूमता है। जैसे बहुत कोई कोमल पत्ती हो कि उस पर एक बूँद भी पड़े तो वो झुक जाए। वो इतना कोमल हो जाता है। इसे संवेदनशीलता बोलते हैं न।

वृक्ष का तना होता है, भारी तना और उस तने पर क्या है, बहुत सारा छिलका, छाल, बार्क। उस पर कितनी भी बूँदें गिरे, कुछ पता चलता है, कुछ अंकित नहीं होता, कुछ रजिस्टर नहीं होता। और एक सुकोमल नयी कोपल होती है, उस पर एक छोटी सी बूँद गिरती है, क्या होता है, वो ऐसे (हाथ से काँपने का इशारा करते हुए) काँप जाती है।

आध्यात्मिक आदमी उस पत्ती की तरह हो जाता है, एक अर्थ में और उस तने की तरह हो जाता है, दूसरे अर्थ में। जब स्थितियाँ और प्रतिकूलताएँ उस पर वार करते हैं तो वो तना बनकर खड़ा रहता है। ‘मैं कौन हूँ?, हम तने हुए हैं। मैं तना हूँ।’ और प्रेम में वो कैसा होता है, किसलय। एकदम नयी-ताज़ी पत्ती देखी है, कैसी होती है? उसका हरा रंग भी अलग होता है, अभी-अभी बिलकुल, कुँवारा हरा रंग उसका, वैसा होता है। कि जो, जो बात दूसरे के लिए किसी महत्व की ही न हो, वो उस बात पर कम्पित हो जाता है। तने जैसा अकम्प, अजीब बात है!

एक ओर तो इतना अकम्प, आप उसको हिला नहीं सकते, अडिग! अटल! और दूसरी ओर जीवन के प्रति इतना प्रस्तुत कि छोटी-से-छोटी बात में भी संवेदनशील।

प्र: जी, आचार्य जी। वास्तव में यही संशय हो रही थी मेरे साथ कि कुछ-कुछ चीज़ों में मैं हो गया हूँ पहले से बेहतर, और एक जगह पर मैं देखता हूँ कि मैं ऐसा हो गया हूँ। इसीलिए मैंने कोशिश करी कि अपनी ज़िन्दगी में थोड़ा सा और विज्ञान लाऊँ, तो मैंने सायकोलॉजी ऑफ़ फिलोसॉफी (विज्ञान मीमांसा, दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जो ज्ञान का अध्ययन करती है) पढ़ना शुरू किया कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर कहीं मेरे साथ कुछ सदमा वाली दिक्कत तो नहीं? कहीं उसकी वजह से? लेकिन आप से ये ही पूछ रहा था कि क्या हो रहा है।

तो आपने मुझे आज समझाया कि ये कमज़ोरी नहीं है, ये कोमलता है, संवेदनशीलता है।

आचार्य: आगे बढ़ो, ठीक है। आगे बढ़ो! इन सब बातों का बहुत संज्ञान नहीं लेते। और इस तरह की बहुत चीज़ें होंगी, उनको विशेष मत मान लेना। लोग फँस जाते हैं। लोग अध्यात्म में एक-दो कदम आगे बढ़ते हैं और उनको कुछ शारीरिक अनुभव होने लग जाते हैं, उनको लगता है बहुत कुछ खास हो गया। बहुत कुछ खास हो गया!

जैसे आँसू कह रहे हो न, वैसे और बहुत चीज़ें होती हैं। विचार बदलते हैं, रिश्ते बदलते हैं। और बहुत अनुभव होते हैं, उनका उल्लेख करना मैं ज़रूरी नहीं समझता। करूँगा, तो जो अनुभव नहीं हो रहा होगा, वो भी आपको होने लगेगा। हम बड़े मायावी लोग हैं न, ज़बर्दस्ती के अनुभव कर लेते हैं।

तो बहुत सारी चीज़ें होती हैं, आप जब आगे बढ़ते हो। पर उनमें कुछ विशेष नहीं है। तो उनको ऐसा नहीं मानना होता कि कुछ हो गया, कुछ हो गया। मानोगे कुछ हो गया, तो आगे नहीं बढ़ पाओगे और। लोग पूछा करते हैं, नहीं कुछ तो — पन्द्रह साल से — नहीं, आप अपने कुछ एक्सपीरियंसेज़ (अनुभव) बताइए। ‘क्या बताएँ?’ रोज़ ही ये होते हैं। हज़ार तरह के होते हैं। पर उसमें इतना कुछ खास है नहीं कि हम आपको बताएँ।

वो चाह रहे होते हैं जो विशेष स्पिरिचुअल एक्सपीरियंसेज़ (आध्यात्मिक अनुभव) होते हैं न, वो सुनना चाहते हैं कि ये हुआ था, वो हुआ था। क्या बताएँ? और वो बताने से आपको कुछ लाभ होता हो तो बताएँ। और उनका अपना कोई महत्व हो तो बताएँ। वो तो मील के पत्थर की तरह है। आगे बढ़ते रहोगे तो उस तरह होता रहता है।

लेकिन इतना जान लीजिए कि जो व्यक्ति उन बातों को विशेष समझे और उनकी डुगडुगी बजाये, वो व्यक्ति आगे नहीं बढ़ रहा है। जो व्यक्ति बार-बार यही बताये कि मुझे अमुक तरह के आध्यात्मिक अनुभव हुए और मुझे ऐसा हुआ, फिर मुझे वैसा हुआ, फिर मुझे ऐसा लगा; ये जान लीजिए ये आगे नहीं बढ़ा है। ये कहीं अटककर रह गया है और इसकी बात सुनोगे तो हानि हो जाएगी।

ये सब होता रहता है, अपन इन मील के पत्थरों के लिए थोड़े ही चल रहे हैं। हम तो प्रेम में चल रहे हैं। हमारी मंज़िल ऊपर है, उधर, शिखर। बीच के इन पत्थरों का हम क्या गाना शुरू कर दें?

प्र: एक आचार्य जी, बस लास्ट (आखिरी) ये था कि जो मैं आपसे बात कर ही रहा था कि मुझे प्रेम चाहिए। ये जो प्रेम की चेष्टा भी हो रही है ये एक और रीज़न (कारण) लगता था कि मुझे तो प्रेम ऊपर जाने से होना चाहिए। मैं क्यों चाह रहा हूँ कि मुझे गहरा प्रेम मिले। ये क्यों चाह रहा हूँ मैं कि मुझे आपसे या फिर, ऐसे-वैसे प्रेम की बात नहीं कर रहा हूँ आचार्य जी, जो रोमांटिक (कल्पित) वाला है, बट (लेकिन) गहरे वाला प्रेम। इसकी चेष्टा क्यों आ रही है, बढ़ क्यों रही है वो?

आचार्य: नहीं, वो भी वैसा ही है जैसे वो आँसू वाली बात थी। एक सिद्धान्त है जिसको आप प्रेम बोल रहे हो। नहीं तो आप यहाँ अभी घण्टे भर बैठकर के मेरी बात सुन रहे थे, वो प्रेम ही है। मैं नहीं भी बोल रहा होता, यहाँ आप ‘सन्त कबीर’ को सुन लें, आप ‘लाओ त्ज़ू’ को सुन लें, आप ‘श्रीकृष्ण’ को सुन लें, वो प्रेम ही है। तो आप कैसे शिकायत कर सकते हो कि प्रेम नहीं मिला।

मिल तो रहा है, रोज़-रोज़ मिल रहा है, बरस रहा है। पर आपके पास एक अलग सिद्धान्त है और जो आपको मिल रहा है वो उस सिद्धान्त से मेल खाता नहीं। तो सब कुछ पाकर भी आप अपनेआप को कह रहे हो कि मैं तो कोरा रह गया। मिल तो रहा है प्रेम, और कितना चाहिए? सब कुछ पाते हुए भी कह रहे हो, ‘नहीं मिल रहा।‘ तो फिर ऐसे की प्यास कैसे बुझे। जिसने हठ लगा रखी हो कि नहीं अभी भी पानी मिला नहीं। उसका तो फिर वही है:-

‘मोहे सुन-सुन आवे हाँसी।’

सबकुछ मिला हुआ है और फिर भी क्या शिकायत है, ‘पानी में मीन प्यासी।’ मीन कह रही, ‘पानी नहीं है।’ वाक़ई में पानी नहीं मिला, पानी नहीं मिला या वाटर क्राइसिस (जल संकट) चल रही है आजकल। और कितना प्रेम दें, पूरी गीता के सात सौ श्लोक क्या है, प्रेम वर्षा ही तो है।

प्र: जी, आचार्य जी अब समझ आ रहा है।

आचार्य: तो बस हो गया। फिर क्यों, कौनसा वाला चाहिए प्रेम फिर, कौनसा प्रेम चाहिए?

प्र: (मुस्कुराक) सबसे गहरा प्रेम।

आचार्य: नहीं, बताकर जाओ। चाहिए कौनसा वाला प्रेम?

प्र: इमोशनल (भावनात्मक) वाला जो पहले चाहिए था उसकी चेष्टा कम हुई है और मैं अगर देखता भी हूँ न कि मुझे अगर अपने पार्ट्नर (साथी) में कोई, पार्ट्नर नहीं है अभी, लेकिन देखता भी हूँ कुछ चाहिए प्रेम तो सबसे पहले मैं ये देखता हूँ कि मुझे काश उस लेवल (स्तर) का गहरा प्रेम मिल जाए जो मैं यहाँ पर भी देखता हूँ।

आचार्य: कैसे पता चलेगा वो मिल गया?

प्र: आचार्य जी, जब मैंने ‘गीता’ पढ़ी है, ‘कबीर’ जी को भी पढ़ा और उसमें ये होता है कि तुम्हारे सेल्फ़ (अहम्) को मिटा देते हैं वो, तुम्हारे सबसे ग्रेटर गुड (सबसे बड़ी अच्छाई) के लिए।

आचार्य: अच्छा! सेल्फ़ मिट गया तो पता किसको चलेगा कि सेल्फ मिट गया?

प्र: नहीं पता चलता, आचार्य जी ऐसे।

आचार्य: पर पता लगाने की पूरी तैयारी है और पूरा आग्रह है। आग्रह भी क्या है, पहले ही पता है कि किसको प्रेम बोलते हैं। एक छवि है उसको प्रेम बोलते हैं। ऐसा हो जाए तो इसको प्रेम बोलेंगे।

चलो रोमांटिक, इमोशनल प्रेम से ऊपर उठे तो आध्यात्मिक प्रेम की भी एक छवि है। कैसी छवि है, कि जैसे वो सूफी व्हिरलिंग (सूफ़ी ध्यान की विधि जिसमें शरीर को घुमाते हैं) होती है। वो गोल-गोल सूफी घूम रहे हैं तुर्की में या भारत में भी ऐसे ही हैं, वो गोल-गोल घूमते हैं, कहते हैं, ‘हमें आध्यात्मिक प्रेम हुआ है।’

तो वो छवि पकड़ ली है। छवि पकड़ लोगे तो प्रेम मिला हुआ होगा, फिर भी प्रेम से वंचित रह जाओगे।

प्र: जी, छवि छोड़नी पड़ेगी। (दोनों हाथ जोड़कर नमन करते हुए)

आचार्य: हाँ में सिर हिलाकर नमन के पत्युत्तर में हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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