आचार्य प्रशांत: भावनाओं से ख़बरदार रहना, ख़ासतौर पर स्त्रियों के लिए बड़े-से-बड़ा झंझट होती हैं भावनाएँ। बात-बात पर आँसू निकल पड़े, भावनाओं पर कोई समझ ही नहीं, कोई बस ही नहीं और फिर इसीलिए स्त्रियाँ ग़ुलाम हो जाती हैं। आपकी भावनाएँ बहकाकर के कोई भी आपको नियंत्रित कर लेता है, गाय बना देता है। (श्रोता बीच में कुछ कहते हैं) तो वो तो है ही, आप दुनिया को देखिए न! बेचारी स्त्रियाँ किसी क्षेत्र में अग्रणी नहीं हो पायीं। राजनीति में देखिए, नहीं दिखाई देंगी। कला में देखिए, कम दिखाई देंगी। विज्ञान में देखिए, कम दिखाई देंगी। वो घरों में बस दिखाई देती हैं और इसमें बहुत बड़ा योगदान भावनाओं का है। वो भावुक ही पड़ी रह जाती हैं और कुछ नहीं कर पाती ज़िन्दगी में।
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”
औरत के लिए यही पंक्तियाँ हैं, क्या? “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी।” इन दो चीज़ों के अलावा स्त्रियों के पास कुछ होता ही नहीं— दूध और आँसू।
प्र: आँसुओं से बाहर कैसे निकला जाये और स्वयं को मज़बूत कैसे किया जाये?
आचार्य: ये देखिए तो कि आप उन्हीं के साथ अटकी हुई हैं। अटकी इसलिए हुई हैं क्योंकि उन भावनाओं को ही अपना बल मानती हैं। भावनाओं को बल न मानें तो भावनाओं को पोषण क्यों दें।
प्र: हम उन्हें ज़्यादा इम्पॉर्टेन्स (महत्व) देते हैं।
आचार्य: बिलकुल, इम्पॉर्टेन्स (महत्व) भी देते हैं, दर्शाते भी हैं, उन्हीं का उपयोग करके अपने काम भी बनाते हैं।
प्र: और वास्तव में भावनाओं के माध्यम से ख़ुद को ही प्रताड़ित भी करते हैं।
आचार्य: बिलकुल, काम कितने बनते हैं भावना दिखा-दिखाकर! ‘मैं रूठ गयी, मैं गुस्से में हूँ या मैं दुख में हूँ।’ काम बन जाता है। औरतों से मुझे जितनी शिकायत है उतना ही उनको लेकर के दुख भी है। उनको देखता हूँ, बहुत दुख लगता है। और शिकायत इस बात की है कि वो अपने दुख का कारण स्वयं हैं।
औरतों की जो ख़राब हालत है उसका कारण वो ख़ुद हैं। भावना को वो अपना हथियार समझती हैं, देह को वो अपनी पूँजी समझती हैं। देह सजाएँगी-सँवारेंगी, भावनाओं पर चलेंगी और सोचती हैं कि हमने ये बड़ा तीर मार दिया। और इन्हीं दो चीज़ों के कारण – देह— देह माने तन और भावना माने मन। इन्हीं दो के कारण वो इतिहास में लगातार पीछे रही हैं और गुलाम रही हैं। जबकि स्त्री को प्रकतिगत कुछ विशेषताएँ मिली हुई हैं जो पुरुष के पास नहीं होती हैं। धैर्य स्त्री में ज़्यादा होता है। महत्वाकांक्षा स्त्री में कम होती है। ये बड़े गुण हैं।
अगर स्त्री संयत रहे तो खुलकर उड़ सकती है, आसमान छू सकती है पर वो इन्हीं दो की बन्धक बनकर रह जाती है — तन की और मन की। “आँचल में है दूध,” माने तन और “आँखों में पानी” माने मन, भावनाएँ बस इन्हीं दो की बन्धक है वो।
यही दो काम करने हैं उसको — दूध और पानी, दूध और पानी। और उसी को मैंने उस लेख में लिखा है कि औरत दो ही जगह पायी जाती है, बेडरूम और रसोई। बेडरूम माने दूध और रसोई माने पानी। और इसी को वो अपना फिर बड़ा बल समझती है।
वास्तव में स्त्री में जो एक विशेष गुण होता है वो उसे पुरुषों से बहुत आगे ले जाये और वो गुण उसमें होता है समर्पण का, डिवोशन का। औरत पुरुष की अपेक्षा थोड़ी भोली होती है। और एक बार वो समर्पित हो गयी किसी चीज़ के प्रति तो समर्पित रहती है, ये बड़ी बात है।
इस गुण के कारण वो किसी भी काम में बहुत आगे जा सकतीं हैं क्योंकि निष्ठा से करती हैं काम। मैंने देखा है, जितनी निष्ठा से एक लड़की काम करती हैं उतनी निष्ठा से लड़के को करना मुश्किल पड़ता है। लेकिन फिर वही, आँचल का दूध और आँखों का पानी, यही आड़े आ जाते हैं और फिर सब ख़त्म, बर्बाद।
प्र: यही होता है न, मतलब चाहते हुए भी हम उनमें से निकाल नहीं पाते।
आचार्य: सब निकल जाएँगी, निकल जाएँगी, सब निकल जाएँगी लेकिन बीच-बीच में आपको भावनाओं से फ़ायदा मिल जाता है न, तो आप बहक जाती हैं। आपको लगता है भावना तो बढ़िया चीज़ है, अभी फ़ायदा मिला तो। रोये तो नया हार मिल गया, अब काहे को रोना बन्द हो! तन दिखाया, तन सजाया तो बड़ा सम्मान मिल गया, ज़माने ने कहा, ‘वाह-वाह! क्या सुन्दर है!’ पति पीछे-पीछे आ गया, जैसे ही मैंने ज़रा तन को आकर्षक बनाया तो फिर बिलकुल बहक जाता है मन स्त्री का।
प्र: नहीं, जैसे ये सोच से भी परे हैं, जैसे जो आपने अभी उदाहरण दिया मैं उनसे भी परे हूँ।
आचार्य: अब आदत बन गयी न, पुरानी आदत है, आदत बन गयी है। आदत को बनने ही नहीं देना चाहिए। छोटी बच्चियों में सजावट की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए और माँओं को मैं देखता हूँ कि वो छोटी बच्चियों को ही परियाँ बना रही होती हैं। और इतनी सी बच्ची है, उसको परी बनाकर घुमाएँगी। और वो छोटी बच्ची है वो टीवी पर भी यही देख रही है कि परी-परी। अब वो अभी से सजने-सवँरने लग गयी अब वो कहाँ बचेगी।
मैं देख रहा हूँ — छः-छः साल की बच्चियाँ लिपस्टिक लगाकर घूम रही हैं, बर्बाद! और पुरुष का स्वार्थ रहा है कि औरत को शरीर ही बना रहने दो तो वो तारीफ़ भी ख़ूब करेगा। औरत अगर सरल, साधारण, संयमित रहे देह से तो पुरुष उसकी कोई तारीफ़ नहीं करता। और यही एक सजी-सँवरी, छैल-छबीली निकल जाये तो जितने पुरुष होंगे सब तालियाँ बजाएँगे, वाह-वाह करेंगे और वो औरत को लगता है कि हमारी तो बड़ी इज़्ज़त बढ़ गयी। हमारा तो बड़ा मान, बड़ा मूल्य बढ़ गया। वो पागल है, वो जानती भी नहीं कि उसका शोषण किया जा रहा है।
प्र: जब हम सजते-सवँरते हैं ताकि हमें देखे इसलिए, अगर नहीं करेंगे तो एक असुरक्षा रहती है।
आचार्य: अरे, तो भाई! आपके पास देह के अलावा और कोई गुण नहीं है क्या? ये आप समझ रहे हो क्या कर रहे हो? आप कह रहे हो, ‘मेरे पास और तो कोई गुण हैं नहीं कि पति मुझे देखे, और तो न मुझे कला आती, न ज्ञान है, न मैं किसी क़ाबिल हूँ तो मेरे पास एक ही पूँजी है,’ क्या? शरीर। ‘तो फिर शरीर के ही बल पर पति को आकर्षित करती हूँ।’ ये कितनी ज़लील बात है न?
हज़ार तरीक़े हो सकते हैं अपना मूल्य बढ़ाने के। अरे, कोई कला सीख लीजिए। किसी नयी चीज़ का निर्माण करिए, स्थापना करिए, अपने व्यक्तित्व में ऐसी रोशनी लाइए कि दुनिया को आपकी ओर देखना पड़े। उसकी जगह आप कह रहे हैं कि मुझे तो दुनिया में अपना स्थान बनाने का एक ही तरीक़ा आता है, क्या? शरीर। और ये करके आप और कुछ नहीं करते, पतियों में भी कामवासना का संचार करते हो। फिर पति पशु बनकर झपट्टा मारे, तो कहते हो, ‘ये देखो, दरिंदा! जब देखो तब एक ही बात सूझती है इसको।’ और उसको बहका कौन रहा है? उसको उत्तेजित कौन कर रहा है? ये सब पतिजन सहमत हैं, सत्संग में पहली बार जान आयी है। (श्रोतागण हँसते हैं) कह रहे हैं, ‘इतनी देर में गुरुजी ने असली बात बोली।’
हम नहीं जानते शिकारी कौन है और शिकार कौन है। शिकार करने की चेष्टा मत करिए, शिकार हो जाएँगी। आप स्थूल रूप से शिकार हो जाती हैं क्योंकि सूक्ष्म रूप से शिकार करने की आपकी भी मंशा होती है। इस बात को स्वीकारिए। हाँ, स्त्री सूक्ष्म रूप से शिकार करती है तो किसी को दिखाई नहीं देता, पुरुष स्थूल रूप से शिकार कर लेता है तो पता चल जाता है।
जिसे शिकार न बनना हो, वो शिकारी भी न बने। ये खेल ऐसा है जिसमें शिकारी का ही शिकार हो जाता है।