प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। जैसे पानी के अन्दर शुगर (चीनी) डाल दें तो वो मिल जाती है तो उसका एक अनुभव ही होता है मुझे, जब मैं पीता हूँ तो। तो उसी तरीक़े से मुझे कन्फ्यूज़न (उलझन) हो रहा था कि सुख, दुख, पीड़ा इन सबका भी अनुभव होता है, आनन्द का भी अनुभव होता है। तो किस तरीक़े से इसको डिस्टिंग्विश (भेद) करें?
आचार्य प्रशांत: नहीं। आनन्द अनुभव की चीज़ नहीं होती। बहुत-बहुत फ़र्क है। मैंने अभी कुछ ही दिन पहले किसी से कहा था कि दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं। एक जो सुख के पीछे भागते हैं। दूसरे, जो आनन्द के प्रेमी हैं। इन दोनों में बहुत अन्तर है। अहंकार जलता रहता है। जलन में दुख पाता है। अपने दुख का जब वो कुछ मूर्खतापूर्ण इलाज ढूँढता है, उसको कहते हैं सुख। सुख क्या है? दुख का बेढंगा इलाज।
दुख क्या है? हमारी प्राकृतिक स्थिति जिसके साथ हम जन्म ही लेते हैं। हर बच्चा जन्म लेता है एक अधूरेपन के साथ, डर के साथ, परेशानी के साथ। पैदा होते ही रोता है, नहीं तो रुलाया जाता है। उसके बाद सौ तरीक़े के उसके साथ झमेले लगे रहते हैं। कितने ही बच्चे पैदा होते हैं, उन्हें पैदा होते ही पीलिया हो जाता है। ऐसा तो होता ही नहीं है कि कोई बच्चा इतना स्वस्थ पैदा हुआ है कि उसे डॉक्टर की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। और फिर एक के बाद एक उसको इंजेक्शन लगेंगे, वैक्सिनेशन (टीकाकरण) होगा। इतने लम्बे, कई सालों तक उसे माँ की देखभाल की ज़रूरत पड़ती है और वो देखभाल न मिले तो चल ही नहीं पाएगा। मृत्यु भी हो सकती है उसकी। तो दुख ही जन्म लेता है।
ये जो बातें अभी बतायी बच्चे के बारे में, ये आपको पूर्णता के, सुख के लक्षण लग रहे हैं? कोई बच्चा हो छोटा, उसे बस दो-चार दिन देखभाल न मिले तो खेल ख़त्म हो सकता है। सुख तो उसकी स्थिति नहीं होगी न? इतना पराश्रित है वो, उसे कोई दूसरा चाहिए और दूसरा उसे दो-चार दिन — कई बार ऐसा भी हो सकता है कि चार घंटे ही उसको कोई देखने वाला नहीं था, तो उसके लिए ये बात बड़ी गड़बड़ सिद्ध हुई। ऐसे जीव की स्थिति सुख की तो नहीं हो सकती न, कि होगी? होगी?
पूरे तरीक़े से पराश्रित है, जो चाहता है गोद में उठा लेता है, जो चाहता है रख देता है नीचे। छोटे बच्चे की हालत ये होती है कि बिल्ली तक उसे अपना शिकार बना सकती है। बच्चा पड़ा हुआ है पालने में, एक बिल्ली तक उसे अपना शिकार बना सकती है। इस जीव की स्थिति सुख की तो नहीं होगी, होगी? जो इतना पराश्रित है।
उसमें इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि आप उसे भोजन दे दीजिए तो वो कर लेगा। भोजन भी उसे बड़ी विधि से माँ को कराना पड़ता है, तब वो जाकर के किसी तरह आहार पाता है। इस तरह की हालत आपकी हो जाए तो आप बड़े सुख में रहेंगे? बोलिए। तो वो भी जो जीव पैदा होता है, वो कोई बहुत अच्छी स्थिति में तो नहीं होता। काफ़ी ख़राब हालत में होता है। समझ में उसको कुछ आता नहीं, बोल नहीं सकता, रोने के अलावा कोई तरीक़ा नहीं है उसके पास, कहीं दर्द हो रहा है शरीर में बता नहीं सकता। तो दुख में हम पैदा ही होते हैं तो हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि किसी तरह से इस दुख को मिटाया जाए।
दुख को मिटाने के बेढंगे प्रयत्न को सुख कहते हैं। दुख को मिटाने की बेढंगी विधियों को सुख कहते हैं। उनमें क्या होता है? उनमें दुख मिट जाता है इस तरीक़े से कि पलटकर और बलवान होकर लौटकर आता है। वहाँ दुख को ऐसे मिटाया जा रहा है कि मिट तो जाएगा, पर अब और ज़ोर से वापस आएगा।
आपको हाथ में यहाँ (बाजुओं को) खुजली हो गयी और जब खुजली होती है तो ये कोई बहुत सुख की बात तो होती ही नहीं। कैसा लग रहा होता है? शरीर में एक तनाव बना हुआ है। एक जगह पर बेचैनी बनी हुई है और फिर आपने क्या किया उसको बिलकुल रगड़कर के? खुजा दिया। पाँच मिनट के लिए लगता है कि वो खुजली चली गयी। लेकिन आपने उसको जितना रगड़कर खुजाया होता है वो उतनी ज़ोर से वापस आती है। ये सुख है। दुख को खुजलाने का नाम सुख है। ज़्यादा ज़ोर से खुजलाया तो खून आ जाएगा, फिर खुजलाने की और ज़रूरत पड़ेगी।
बात समझ में आ रही है?
आनन्द क्या है फिर? आनन्द दुख का ऐसा उपाय है, ऐसा उपचार है कि सुख की ज़रूरत ही न पड़े। क्योंकि सुख की ज़रूरत ही पड़ती है जब दुख होता है। इसीलिए आनन्द दुख-सुख दोनों से बहुत अलग चीज़ होती है, बहुत अलग।
दुख के विपरीत जाने में सुख है, दुख से ऊपर उठ जाने में आनन्द है। दुख और सुख की जो घटनाएँ होती हैं, वो बिलकुल एक दूसरे के विपरीत होती है कि नहीं? ये मिला तो सुख मिला (चाय का कप अपनी ओर करते हुए), तो ये छूटा तो दुख मिला (चाय का कप अपने से दूर रखते हुए)। दुख और सुख एक दूसरे के विपरीत होते हैं। आनन्द है दुख से ऊपर उठ जाना। दुख से संघर्ष करना आनन्द नहीं है, दुख को मिटाने की चेष्टा करना आनन्द नहीं है।
दुख और सुख इस तल पर हैं (द्विआयामी सतह), ये प्रकृति का तल है। आप ऊपर ही उठ गयें। आपने कहा ये तो चलता ही रहेगा। पैदा हुए हैं तो ये झेलना ही पड़ेगा। आप ऊपर उठ गये। अब दुख अपनी जगह पड़ा रहता है। बीच-बीच में सुख को भी अगर चक्कर लगाना होता है वो भी लगा जाता है। आप इन दोनों से ऊपर बैठे हुए हैं। दुख आये, सुख आये, आप अपने में मग्न है। और जब दुख-सुख की बात होगी तो इन दोनों में आएगा तो देखो ज़्यादा दुख ही। दुख और ज़्यादा बढ़ जाएगा अगर सुख की चेष्टा करोगे।
पहली बात तो ये कि प्राकृतिक तौर पर ये निश्चित कर दिया गया है कि दुख ही ज़्यादा मिलना है सुख की अपेक्षा। और दूसरी बात, हम दुख का भी बेढंगा इलाज करके और निश्चित कर देते हैं कि दुख दस गुना बढ़ जाए, ऐसे जैसे कि प्रकृति ने तय कर रखा हो कि दुख और सुख में दस और एक का अनुपात होगा और फिर हम भी आ जाएँ अपना अहंकार लेकर, हम कहें, दुख मिटाना है। और दुख मिटाने की चेष्टा में हम दुख को बढ़ा दें दस गुना और, तो जो अनुपात दस और एक का था वो फिर हो जाता है सौ और एक का।
आनन्द में आप उस दस और एक के अनुपात को पड़ा रहने देते हो। आप कहते हो, ये चलेगा ये ऐसे ही चलेगा। इससे लिपटना-झपटना, संघर्ष करना कोई समझदारी की बात नहीं, तुम ऊपर उठो। तुम क्या करो? ऊँचा काम। क्या करो? ऊँचा काम। दुख-सुख पड़े रहेंगे, तुम ऊँचा काम करो और ऊँचा काम करने में जो आता हो आने दो, झेलो। तमाम तरीक़े के अनुभव होंगे। अनुभवों का क्या, अनुभवों को हम बहुत महत्त्व देते नहीं। किसी दिन बहुत अच्छा लग सकता है, किसी दिन बहुत बुरा लग सकता है, लगे तो लगे। हम वो करेंगे जो हमें करना है। दुख-सुख चलते हैं, चलते रहें।
इसका मतलब ये नहीं है कि हम सुपरमैन बन गयें। दुख आएगा तो बुरा तो लगेगा ही न, वरना वो दुख कहाँ हुआ फिर? अब मुँह लटका रहेगा, ऐसे हो गये (उदास चेहरा बनाते हुए), तो मुँह लटकाकर काम करो। सुख आएगा तो अच्छा तो लगेगा ही वरना फिर उसका नाम ही सुख नहीं। सुख आएगा तो ऐसे बाँछें खिली हुई हैं, मुस्कुरा रहे हैं, हाय, हेल्लो। तो ठीक है आज हँसते-हँसते काम करो।
दुखी हो तो रोते-रोते करो, सुखी हो तो हँसते-हँसते करो। पर जो सही है, वही करो; आनन्द है।
समझ में आयी बात?
प्र: यानी मैं जो समझा सर नेति-नेति ही करते रहना है, भले ही सुख हो कि दुख हो। एक समभाव रखते हुए जो भी विचार आ रहे हैं, जो भी थॉट-प्रोसेस (चिंतन-प्रक्रिया) हो रहा है उसको मिथ्या जानकर, परमानेंट (स्थायी) न जानकर, उसकी नेति-नेति और जीवन को आगे...
आचार्य: जीवन परीक्षा है। आपको परीक्षा देने जाना है, परीक्षा से गुज़रना है। घर से आप निकलते हैं। आप छात्र हैं अभी और साधारण परिवार से हैं। आप घर से निकलते हैं, आपको बड़ी गाड़ी में लिफ़्ट मिल गयी, तो आप बड़ी गाड़ी में एयर कंडीशनर में बैठकर जाइए परीक्षा तक। पर परीक्षा तक तो जाना है, ये नहीं है कि बड़ी गाड़ी मिल गयी है तो कहेंगे चलो आज पब (शराबख़ाना) चलते हैं। जाना तो परीक्षा तक ही है, जीवन परीक्षा है।
और किसी दिन आप घर से निकलते हैं, आँधी-तूफ़ान है, बारिश है। तो आँधी, तूफ़ान, बारिश से गुज़रकर के जाएँ परीक्षा देने, पर जाना तो परीक्षा तक ही है, परीक्षा से कोई छुटकारा नहीं। सुख है तो सुखी-सुखी जाएँगे परीक्षा भवन तक और दुख है तो दुखी-दुखी जाएँगे। पर जाएँगे तो वहीं जहाँ जाना है। ये नहीं करेंगे कि आज सुख बहुत है तो चलो पिकनिक और आज आँधी बहुत आ रही है तो जाएँगे ही नहीं परीक्षा देने। नहीं, परीक्षा से कोई रिहाई नहीं। ये रास्ते की चीज़ें हैं सुख-दुख, सब रास्ते की चीज़ें हैं।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी, मैं बैंगलोर से हूँ। मैं एक साल से आपको सुन रहा हूँ और जीवन में बहुत पॉज़िटिव चेंजेस (सकारात्मक परिवर्तन) आये हैं जैसे लालच कम हुआ है, क्रोध कम हुआ है तो ग़लत चीज़ें हटती जा रही हैं और बाहरी जीवन में भी बदलाव आया है जैसे जो जॉब (नौकरी) मैं कर रहा था वो छोड़ दी है मैंने और जैसे मैं अमेरिका से इंडिया शिफ्ट (स्थान-परिवर्तन) हो गया वापस। लेकिन दो-तीन महीने से ऐसे लग रहा है कि ये जो प्रोग्रेस (प्रगति) हो रहा था वो स्टॉल (रुक) हो गया है एक तरीक़े से। तो जो आप बोलते हैं कि ऊँची चीज़ आनी चाहिए, प्रेम आना चाहिए जीवन में, वो नहीं हो रहा है लेकिन ऐसा लग रहा है कि ग़लत चीज़ें तो हटती जा रही हैं।
आचार्य: बड़ी आफ़त चाहिए आपको, बड़ी आफ़त। ऊँची चीज़ माने ऊँची समस्या। आफ़त से ही तो प्रेम होता है, प्रेम ही तो आफ़त होता है। आपने वीडियो देख-देखकर कुछ लाभ पाया, वो लाभ मिल गया न। अब चेतना पुकार रही है, और लाभ चाहिए। और लाभ पाने के लिए और बड़े पहलवान से जूझना पड़ेगा। अब आप अगली श्रेणी में आ गए हैं। आप अन्डर-एलेवन खेले जाएँगे तो कैसे मज़ा आएगा? फेदरवेट लड़े जाएँगे तो कैसे मज़ा आएगा?
आपको क्या चाहिए अब? आपको अब एक ऊँची समस्या चाहिए, बड़ी समस्या। जाइए उसमें प्रवेश करिए। क़दम-दर-क़दम हमें किधर को बढ़ना है? हमें बड़ी चुनौतियों की ओर बढ़ना है। ये थोड़ी है कि जितना आगे बढ़ते जाएँगे, उतना चैन मिलेगा, आराम मिलेगा। रिटायरमेंट (सेवा-निवृत्ति) की ओर थोड़े ही बढ़ रहे हो। अध्यात्म सेवानिवृत्ति का नाम नहीं है। अध्यात्म का तो मतलब होता है जितना आगे बढ़े, उतना गुरुतर तुमने उपक्रम उठा लिया, उतना भारी वज़न उठा लिया।
अब आपकी आन्तरिक माँसपेशियाँ कुछ विकसित हुई हैं, वो और वज़न माँग रही है। आप जिम जाते हैं और आप दो-दो किलो उठाकर के बाइसेप्स (द्विशिर पेशी) करने लगें तो कैसा लगेगा? बोलो। दो किलो का वज़न उठाकर बाइसेप्स कर रहे हो, कैसा लगेगा? हाँ, तो आपको ऐसा ही लग रहा है। हल्का नहीं होना है, भारी होना है। ये सब जो बातें चलती हैं कि जीवन को हल्का रखो, इत्यादि इत्यादि, बेक़ार की बात है। सब भारी-भारी पकड़ो। हल्का कमज़ोरों के लिए है।
ठीक है?
अब जीवन आपसे एक बड़े उपक्रम की माँग कर रहा है, बिगर प्रोजेक्ट (बड़ी परियोजना)। ठीक है? वीडिओ देखकर के और कुछ बातें अपने जीवन में उतारकर के या जीवन से हटाकर के जितना लाभ होना था वो हो चुका और बहुत जल्दी हो गया। एक साल के अन्दर ही अगर आपकी ज़िन्दगी से लालच और गुस्सा कम हो गये हैं कुछ, तो ये बहुत-बहुत बड़ी बात है। अहंकार तो लालच पर ही चलता है। अगर आपका लालच कम हो गया है तो आपको करोड़ों का फ़ायदा हो गया। अब अगली चीज़, उसमें प्रवेश करिए तभी मज़ा आएगा।
ठीक है?
YouTube Link: https://youtu.be/7nU_Y63PGCk?si=rb8wQwouk4NEYsnS