आनंद और सुख में अंतर || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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आनंद और सुख में अंतर || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सुख और आनन्द में क्या अन्तर है? कभी-कभी यह आभास होता है कि आनन्द है और कभी-कभी यह आभास होता है कि आनन्द सिर्फ़ क्षण भर था, अब चला गया।

आचार्य प्रशांत: आनन्द आता नहीं, आनन्द होता है। ये आने-जाने वाले सारे काम मन की लहरों के हैं। जो आये, चला जाये, उसको सच्चा नहीं माना जाता। कबीर साहब को ही गाते हो न तुम लोग— “न आवे, न जावे” कौनसा है वो?

श्रोतागण: कहें कबीर सत्य वह पथ है, जहाँ फिर आना और जाना नहीं। ~ कबीर साहब

आचार्य: “जहाँ फिर आना और जाना नहीं” और तुमने क्या बोल दिया? आनन्द आता है, और फिर चला भी जाता है। दो-दो बातें गड़बड़ बोल रहे हो इसमें, पहली बात तो ये कि वो आया और चला गया, दूसरी बात ये कि वो आया और चला गया, और हमें पता लग गया। माने आनन्द को देखने के लिए तुम मौज़ूद थे, कहीं अलग खड़े थे और देख रहे थे कि आनन्द आया और चला गया। कौन है आनन्दवक्षी! कि दरवाज़ा खोलकर अन्दर आएगा और तुम बैठे-बैठे देख रहे हो, थोड़ी देर इधर-उधर घूमेगा, ढूँढेगा जूता नहीं मिल रहा उसका। फिर जब नहीं मिला तो निकल ही जाएगा, या मिल गया तो हाँथ में उठाये जूता चला जाएगा, और तुम कह रहे हो, ‘आनन्द जा रहा है, हमने देखा।‘

दो बातें समझ लेना — न आता है न जाता है, दूसरी बात — जब होता है तो तुम नहीं होते हो। आनन्द भी है, तुम भी हो, तो तुम कोई फर्ज़ी खेल ही खेल रहे हो। आनन्द का मतलब ही है तुम मिटे। तुम अभी हो ये पता करने के लिए, जानकारी करने के लिए, रजिस्टर करने के लिए कि मैं आनन्दित हूँ, तो इसका मतलब कि तुम सिर्फ़ प्रसन्न हो। और ये प्रसन्नता थोड़ी देर के लिए है, थोड़ी देर बाद विदा ही हो जाएगी।

आनन्द का कोई सम्बन्ध खुशी से नहीं है, बिलकुल कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, एक दूर, बहुत दूर का नाता तुम ज़रूर जोड़ सकते हो कि आनन्द और खुशी दोनों में ही दुख का अभाव होता है। खुशी को भी तुम ऐसे ही परिभाषित करते हो कि जब मैं दुखी नहीं हूँ तो मैं सुखी हूँ, यही कहते हो न? और आनन्द में भी दुख नहीं होता, पर आनन्द में, बेटा, सुख भी नहीं होता, पर तुम दुख से इतने आतंकित हो कि हर वो स्थिति जिसमें दुख नहीं होता, तुम उसको एक बराबर ही मान लेते हो।

हर वो स्थिति जिसमें दुख नहीं होता तुम उसको एक बराबर ही मान लेते हो। ये ऐसी सी बात है कि दो के सामने बोतलें रखी हों और दोनों ख़ाली हों, और तुम दोनों ही स्थितियों को एक ही मान लो। ये भी हो सकता है न कि एक की बोतल इसीलिए ख़ाली है क्योंकि उसने सबकुछ पी लिया, और दूसरे की ख़ाली है क्योंकि ख़ाली ही पड़ी है। दोनों ही स्थितियों में दोनों बोतलों में वस्तु का अभाव है, जल का अभाव है, पर वो अभाव मात्र यह नहीं सिद्ध कर देता कि दोनों स्थितियाँ एक हैं।

दो ख़ाली बोतलें हैं, पर एक बोतल प्यास की निशानी हो सकती है और दूसरी बोतल पूर्णता की। एक बोतल ख़ाली इसीलिए है क्योंकि वो ख़ाली ही रही है, और दूसरी ख़ाली इसीलिए है क्योंकि उसने अब किसी की प्यास बुझा दी है। तो आनन्द और सुख दोनों में ही एक अभाव साझा है। क्या अभाव? दुख का अभाव। लेकिन इसके अलावा दोनों में कोई समानता नहीं है।

सुख में दुख नहीं है ऐसा बस प्रतीत होता है। सुख में भी दुख का अभाव है तो नहीं, पर मैं कह रहा हूँ कि वो अभाव बस एक प्रतीत होने वाली चीज़ है। भासता है ऐसा, ऐसा आभास होता है कि दुख नहीं है, पर सुख के साथ दुख लगा ही रहता है। सुख से पहले भी दुख है, सुख के बाद भी दुख है, और सुख को पलटकर देखो तो भी दुख है।

सुख(एक वस्तु की ओर इशारा करते हैं), तो इसको हमने मान लो पहली बार उछाला, क्या आया हाँथ में? दुख। पहली बार क्या आया? दुख। ये दूसरी बार उछाला, क्या आया हाँथ में? सुख। हमने फिर तीसरी बार उछाला, अब क्या आया हाँथ में? दुख। इससे पहले क्या आया था? दुख। इसके बाद क्या आया? दुख। और जब ये भी हाँथ में आया तो इसके पीछे क्या था? दुख। तो सुख का ये है— सुख के पहले भी दुख है, सुख के बाद भी दुख है, और जब लगे कि सुख है तब भी उस सुख को पलटकर देखोगे तो दुख ही दिखायी देगा। आ रही है बात समझ में?

हाँ, अब ये हो सकता है कि जो काम मैंने तुम्हें तीन कड़ियों में ही दिखा दिया, वो तीन कड़ियों की जगह तेरह कड़ियों में हो। ये हो सकता है कि तुम इसे एकबार पलटो तो सुख आ जाये, दूसरी बार करो तो भी सुख आ जाये, तीसरी बार करो तो भी सुख आ जाये लेकिन तुम भलीभाँति जानते हो कि सिक्का चार बार उछालो तो चार बार चित्त आ सकता है, लेकिन अगर चार-सौ बार उछालोगे तो सम्भावना यही है कि दो-सौ बार चित्त और दो-सौ बार पट्ट आएगा।

प्रॉबेबेलिटी (प्रायिकता) ऐसे ही काम करती है न? कि ये तो हो सकता है कि चार बार उछाला और चारो बार क्या आ गया? चित्त आ गया या चारो बार पट्ट आ गया, हेड्ज़ आ गया चार बार। तो ऐसा चार बार में तो हो सकता है कि चार बट्टा चार हेड्ज़ आ गया, लेकिन चार-सौ बार नहीं हो सकता। चार बार संयोग तुम्हें मदद कर सकता है, चार-सौ बार नहीं करेगा। चार-सौ बार उछालोगे, तो चार-सौ में से दो-सौ, दो-सौ का ही खेल निकलेगा। दो-सौ, दो-सौ का नहीं निकलेगा तो एक-सौ-नब्बे, दो-सौ-दस का निकलेगा, इससे ज़्यादा फ़र्क़ नहीं आने का।

अब आनन्द क्या होगा?

आनन्द ये है(वस्तु को उछालते हुए) सुख आ गया! दुख (आ गया)!— ये आनन्द है। आनन्द क्या है? आनन्द क्या है? ये आ रहा है, जा रहा है, हम मज़े में हैं। इधर कुछ चल रहा होगा, हमको पता है कि क्या चल रहा है, दुख भी आया है तो ठीक है, दुख है। क्या चल रहा है आजकल? आजकल दुख चल रहा है।

आजकल क्या चल रहा है? पूछो मत, लगी हुई है, ये आनन्द है। आनन्द में भी दुख है, पर आनन्द इतना बड़ा है कि दुख उसे रंजित नहीं कर पाता। आनन्द इतना बड़ा है कि दुख उसमें वैसे ही घूम-फिर कर के लौट जाता है जैसे आसमान में बादल। कभी बारिश हो गयी तो भी बादल हैं, कभी बारिश नहीं हुई तो भी बादल हैं। आसमान को फ़र्क़ पड़ ही नहीं रहा बारिश हो, बादल हो, कुछ भी न हो, बहुत धूल हो, प्रदूषण ही प्रदूषण हो। आनन्द वो आसमान है उसपर फर्क़ नहीं पड़ता, बहुत सारी चीज़ें आती-जाती रहती हैं।

अध्यात्म में एक ये बड़ा भ्रम है, इससे बचकर रहना— आनन्द की प्राप्ति— आनन्द की कोई प्राप्ति नहीं होती। आनन्द इसमें है कि प्राप्ति हो गयी तो बढ़िया बात, और प्राप्ति नहीं हुई, और भी बढ़िया बात। कुछ और मत याद रखो, वही जो पाँत है न, जो अभी ही गायी, अभी ही गायी, उसी को बिलकुल भीतर गुंजित होने दो— “जहाँ फिर आना और जाना नहीं(गुनगुनाते हुए)।“ जो आये, सो जाये, सबको ऐसे ही देखो— बादल आये, बादल गये। हम वहाँ के जहाँ पर कोई आना-जाना होता नहीं।

प्र: आचार्य जी, आनन्द की स्थिति को कैसे बनाये रखें?

आचार्य: ये स्थिति नहीं है। वो स्थिति होती तो बदल जाती, हर स्थिति बदलती है। आनन्द या जाग्रति स्थिति नहीं होते, वो कुछ भी नहीं होते; वो एक ख़ालीपन हैं। जो कुछ भी है वो तो कभी-न-कभी मिटेगा। आनन्द भी अगर है तो मिट जाएगा, आनन्द को बेहतर ऐसे कहो कि वो नहीं है। क्या है? ये माइक है, ये पानी है, ये चाय है, ये सभा है, ये जगह है, ये रात है, ये मुलाक़ात है, ये सब हैं, और जो कुछ है वो मिटेगा। आनन्द कोई स्थिति नहीं होती। हर स्थिति का अनुभव होता है, आनन्द का कोई अनुभव नहीं हो सकता। और जब तुम ये जान जाते हो कि जो असली चीज़ है उसका अनुभव नहीं हो सकता, तो फिर तुम सारे अनुभवों के प्रति ज़रा उदासीन हो जाते हो, यही आनन्द है। आनन्द को भी अनुभव बना लिया तो अनुभवों के पीछे-पीछे फिरोगे भिखारी की तरह, चिपके-चिपके। बहुत घूम रहे हैं, अध्यात्म का जगत ऐसे लोगों से भरा हुआ है जिन्हें अलौकिक, पारलौकिक अनुभव चाहिए— आनन्द के, परमात्मा के, जाग्रति के, प्रेम के। वो कहते हैं, ‘अनुभव मिल जाये किसी तरीक़े से।‘

आनन्द अनुभव नहीं है। आनन्द समस्त अनुभवों के बीच तुम्हारी अस्पर्शित स्थिति है, यही तो आनन्द है। न जाने कितनी चीज़ें आसपास घूम रही हैं हमें अनुभव देने के लिए, अनुभव देकर हमें रिझा लेने के लिए, और हम कुछ ऐसे हैं कि अनुभव ले भी लेते हैं और फिर भी हम पर कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं, ये आनन्द है।

प्र: यदि कोई व्यक्ति ऐसा हो जाये, तो क्या वो हमेशा इसी स्थिति में रहेगा?

आचार्य: ऐसा करो वो पीछे वाले कमरे में चले जाओ, वहाँ पूरा डेमो (प्रदर्शन) मिलेगा, फिर पसन्द आये तो लेना, न पसन्द आये तो छोड़ देना। आनन्द की बात कर रहे हो या कपड़े ख़रीदने आये हो! कि इसको पहन लेंगे तो कैसा लगेगा फिर आगे ! नयी गाड़ी ख़रीदनी है, विवाह के लिए लड़की ढूँढ रहे हो, आगा-पीछा सब जानना है, पता करना है, ‘जी, क्या आप शादी के बाद भी नौकरी करती रहना चाहती हैं?’ पहले ही सब पता लग जाये अच्छे से, आगा-पीछा सब जान लें, पूरा उसका फेसबुक प्रोफ़ाइल छान लें फिर ‘हाँ’ या ‘न’ बोलेंगे।

अध्यात्म उनके लिए नहीं होता जो पहले ही जिज्ञासा करते हैं कि परमात्मा के यहाँ आरओ (रिवर्स ऑस्मोसिस) वाला पानी मिलेगा या नहीं मिलेगा, नहीं स्वर्ग तो पहुँच जाएँ पर पता चले कि मिनरल वॉटर ही नहीं है वहाँ, तो पहले सब बता दो कि वहाँ का हाल-चाल क्या है। प्रदर्शन कर दो, डेमन्स्ट्रेशन दे दो, गारंटी दे दो, फिर हम कुछ बोलेंगे। आनन्द, समाधि, सत्य उनके लिए हैं जिनके पास प्रेम हो, और प्रेम इतने सवाल पूछता नहीं बेटा, कि फिर क्या होगा? जिसने ये दो-चार बार पूछ लिया कि फिर क्या होगा, वो तो कर चुका मोहब्बत।

क्योंकि ऐसे डरावने जबाव आएँगे कि फिर क्या होगा, डरावने जबाव क्यों आएँगे समझना— क्योंकि तुम डर जाओगे, जो डर जाए उसके लिए ही तो कोई चीज़ डरावनी होती है। भाई, वस्तु तो डरावनी होती नहीं, जो डर जाए उसके लिए हुआ न कुछ डरावना? और तुम तो डरे हुए हो ही, डर का प्रमाण ये है कि तुम इतने सवाल पूछ रहे हो। तुम तो डरी हुई अवस्था से ही सवाल पूछ रहे हो न? मतलब डरे हुए हो ही, तो जो उत्तर आएँगे उनके सामने भी तुम कैसे रहोगे? डरे हुए। तो उत्तर तुम्हें कैसे लगेंगे? डरावने। और तुम कहोगे, ‘बाप रे बाप! आगे का मामला इतना डरावना है तो हम तो आगे नहीं बढ़ेंगे।‘

ये लाखों साल से होता आया है। जो आगे की बात पूछ-पूछ कर आगे बढ़ना चाहते हों, जान लो कि उन्हें कभी आगे बढ़ना है ही नहीं। तुम ये कह रहे हो कि तुम आगे बढ़ भी जाओगे तो भी तुम क्या वही रहोगे, जो आज ये सवाल पूछ रहा है। ये ऐसी सी बात है कि कोई ज़रा सा बच्चा हो, उससे पूछा जाए कि बेटा, दसवीं के बाद विज्ञान लोगे या कॉमर्स? और अभी वो है किस कक्षा में? दूसरी में।

और वो कह रहा है, ‘जहाँ टॉफी मिलती होगी वो लेंगे।‘ सवाल ये है कि जब तुम वहाँ पहुँचोगे तब भी क्या तुम वही रह जाओगे जो टॉफी के आधार पर जीवन के निर्णय करता है? दूसरी कक्षा के बच्चे के लिए तो पैमाना ही यही है न कि जिधर टॉफी मिलती होगी, उधर चले जाएँगें। तो उससे जाकर तुम पूछोगे कि तुझे इंजीनियर बनना है, या डॉक्टर बनना है? तो तुमसे क्या पूछेगा? ‘टॉफी किधर मिलती है?’ डॉक्टर को टॉफी मिलती है तो हम डॉक्टर बन जाएँगे, इंजीनियर को टॉफी मिलती हो तो हम इंजीनियर बन जाएँगे।

तुम समझ पा रहे हो क्या इस बात को कि जब तुम वास्तव में डॉक्टर, इंजीनियर बनने के क़ाबिल होओगे, तब टॉफी तुम्हारी नज़रों में अहमियत नहीं रखेगी। इसी तरीक़े से आज तुम पूछते हो कि क्या समाधि की दिशा आख़िरी होती है, क्या वो व्यक्ति जो समाधि को प्राप्त हो जाता है, संतुलित रह कर जीवन के अन्य काम भी कर पाता है? ये सारे सवाल किसके लिए प्रासंगिक हैं? दूसरी के बच्चे के लिए जो तुम आज हो।

दूसरी के बच्चे को यही बात बहुत बड़ी लग रही है कि मैं पूछ लूँ कि समाधि के बाद मैं अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ निभा पाऊँगा या नहीं। मैं संतुलन रखकर के कमा पाऊँगा या नहीं। ये प्रश्न तुम्हारे मन में आज उठ ही क्यों रहा है? क्योंकि तुम दूसरी के बच्चे हो। जब तुम पहुँचोगे वहाँ तब ये प्रश्न तुम्हारे लिए व्यर्थ हो जाएगा न, फिर तुम्हें याद दिलाया जाएगा कि बेटा, कभी न तुम ये पूछा करते थे कि समाधि के बाद क्या व्यक्ति संतुलित रहकर के अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर पाता है। तुम हँसोगे।

ठीक वैसे जैसे मेडिकल के किसी छात्र से कहो कि जब तू पाँच साल का था तो तू कहता था कि मैं मेडिकल कॉलेज में प्रवेश तब ही लूँगा जब मेडिकल कॉलेज में टॉफी मिलती हो, तो वो हँसता है न। लेकिन ख़तरनाक बात हो जाती है, कई बार बच्चे इसी आधार पर अपने भविष्य का निर्णय ही कर डालते हैं कि टॉफी कहाँ मिलेगी। समाधि का अर्थ ही यही है कि जो सवाल आज तुमको बड़े अर्थपूर्ण लग रहे हैं, वो तुम्हें तब निरर्थक लगने लगेंगे।

तुम्हारे इन प्रश्नों का विसर्जन ही तो समाधि है। समाधि तुम्हारे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं है, वो इन प्रश्नों का विसर्जन है। आज ये बातें तुम्हें बड़ी क़ीमती लगती हैं कि वो जो समाधिस्थ आदमी होता है, वो कमाता खाता है कि नहीं, क्योंकि तुम हो दूसरी कक्षा में(हाँथ से दो का इशारा करते हुए)। ये उससे जाकर पूछो कि उसे ये बात महत्वपूर्ण लगती भी है क्या। वो कहेगा, ‘जब नासमझ थे, जब बच्चे थे तब ये सवाल मन में आते थे, अब हमें नहीं आते ये सवाल।‘

लेकिन बहुत लोगों की यात्रा शुरू ही नहीं हो पायी क्योंकि वो इन्हीं सवालों में उलझकर और इनसे डरकर रह गये। वो यहीं पर डर गये कि जो लोग अध्यात्म की तरफ़ जाते हैं वो फिर कमाते थोड़े ही। और जो लोग अध्यात्म की तरफ़ जाते हैं वो किसी और दुनिया के हो जाते हैं। फिर उनको चाय मीठी नहीं लगती, नीम कड़वी नहीं लगती, नमक नमकीन नहीं लगता।

फिर बड़ी भीतर से दहशत उठती है कि हैं! समाधि के बाद मज़े नहीं आते क्या। नहीं, नहीं साहब, समाधिस्थ आदमी तो उदासीन हो जाता है, निरपेक्ष हो जाता है, विरक्त हो जाता है। अच्छा! तो माने चाट में मसाला डले या न डले कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ेगा! नहीं, नहीं हमें चाहिए ही नहीं ऐसी समाधि। चाट मसाले पर ज़िन्दगी क़ुर्बान है। और लानत है ऐसी समाधि पर जिसके बाद चाट में मज़ा न आये।

तुम्हारी चाट तुम्हारे ही बगल में खड़ी होती है, चटने को तैयार। वो और बोलेगी कि समाधि महाबेकार चीज़ है, उसके बाद तुम चाटोगे ही नहीं। तुम वही थोड़े ही रह जाओगे जो अभी हो, तो फिर तुम्हारे प्रश्न भी क्या वही रह जाएँगे जो अभी हैं? बोलो। तो अपने इन प्रश्नों को इतनी गम्भीरता से क्यों लेते हो। ये सवाल ही तो तुम्हें परेशान कर रहे हैं। ये दो बहुत अलग-अलग बातें होती हैं— सवालों का उत्तर खोज़ना, और सवालों को तिरोहित कर देना। सवालों का उत्तर खोज़ करके तुम सवालों को बहुत ज़्यादा सम्मान दे देते हो। और जिस मेहमान को तुमने इतना सम्मान दे दिया वो कभी जाएगा ही नहीं।

इन सवालों के उत्तर नहीं खोज़े जाते, इन सवालों को रुख़सत किया जाता है। ‘अच्छा! आपने क्या बेहतरीन सवाल पूछा हैं। ऐसा करिए उधर न पेड़ पर ऊपर देखकर आइए, शायद वहाँ उत्तर हो, और बाहर निकलिएगा, और चप्पल लेकर जाइए, बाहर।‘ इनके उत्तर नहीं खोज़े लग जाते। सवालों का कोई अन्त नहीं है, कहाँ तक जबाव देते फिरोगे।

स्पिरिचुएलिटी (अध्यात्म) आर्म चेयर इंट्रोस्पेक्शन थोड़े ही है कि आज हम बैठकर फ़ैसला करेंगे कि हमें परमात्मा चाहिए कि नहीं चाहिए। तो गये, कुर्सी पर बैठे, तय किया, क्या मिलेगा और क्या खोएगा। और ऐसा ही चल रहा है मामला। वो ये तक कहते हैं कि पाँच साल बाद अध्यात्म शुरू करेंगे, पाँच साल बाद। बिलकुल अभी-अभी बुद्धि लगाकर पता करा है कि पाँच साल बाद सही समय आएगा।

ये बेटा, दिल का खेल है राजा, इसमें ऐसे नहीं होता कि बैठकर के एक्सल शीट पर ग्राफ़ बना रहे हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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