वैन गॉग: कला, संघर्ष और वेदान्त

Acharya Prashant

26 min
48 reads
वैन गॉग: कला, संघर्ष और वेदान्त

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। आपने पढ़ने के लिए एक किताब सुझाई था जिसका नाम था ‘लस्ट फ़ॉर लाइफ़’ बाय इरविन स्टोन, जो कि विन्सेंट वैन गॉग जी की बायोग्राफ़ी थी। सर, उन्होंने जो संघर्ष किया अपनी पूरी ज़िन्दगी में और वो बहुत कम आयु पर ही चले गये थे। क्या उनका संघर्ष आप वेदान्तिक दृष्टिकोण से बता सकते हैं? और जैसा कि हमें इतिहास से पता चलता है कि उनका भारत से, भारत के किसी भी फिलोसॉफ़ी से, न वेदान्त से, न किसी और से कोई सम्बन्ध नहीं था, फिर भी उन्होंने एक कोट कहा था कि ‘आइ पुट माइ हार्ट ऐंड माइ सोल इंटू माइ वर्क। ऐंड हैव लॉस्ट माइ माइंड इन द प्रोसेस‘ (मैंने अपना दिल और अपनी आत्मा अपने काम में लगा दी है, और अपना मन इस प्रक्रिया में खो दिया है)। तो सर, इसमें आपका वेदान्तिक दृष्टिकोण चाहिए था कि कैसे उन्होंने इतना महान संघर्ष किया था जिससे वो पेंटिंग की दुनिया में बहुत बड़ा नाम हैं और आपने उनकी पेंटिंग भी आज पीछे प्रदर्शित कर रखी है।

आचार्य प्रशांत: देखो, मिट्टी को ही अपने लिए आखिरी बात मान लेना बहुत आसान होता है। यही है और इसी में मुझे सन्तुष्टि पानी है। यही जो कुछ चल रहा है वही अंतिम है और प्रथम भी है, ये निष्कर्ष बड़ी आसानी से आ जाता है। और यही निष्कर्ष समाज और लोकधर्म सब हमारे ऊपर थोपना चाहते हैं अलग-अलग तरीकों से। ज़्यादातर लोग इस बात को स्वीकार कर लेते हैं, सिर झुका देते हैं, घुटने टेक देते हैं कि हाँ, ठीक है, ये दुनिया है और दुनिया ही बड़ी ऊँची बात है। दुनिया ऊँची बात है और दुनिया की बात को बहुत ऊँचा मानना है।

कुछ लोग होते हैं जिन्हें इसमें दिक्कत हो जाती है। सारी सच्ची कला उसी दिक्कत की अभिव्यक्ति होती है। सारी सच्ची कला एक विषमता की अभिव्यक्ति होती है। जो मुझे दिख रहा है, जो मुझे बताया जा रहा है, जो मुझे पढ़ाया जा रहा है, जो मुझ पर थोपा जा रहा है उसमें मुझे चैन नहीं मिल रहा है।

अब ये इसका नाम जानते हैं आप ये पीछे जो है? (पेंटिंग के बारे में पूछते हुए) ’स्टारी नाइट्स।’ यहाँ पर भी वो क्या कहना चाह रहें हैं? वो कह रहे हैं, ‘मेरी आँखें मुझसे कह रही हैं कि ये जो तारे और चाँद और नक्षत्र हैं रात के आकाश में, वो बहुत छोटी चीज़ हैं।‘ हैं न? इन्द्रियाँ यही बता रही हैं न? आकाश इतना बड़ा है और कालिमा इतनी विस्तृत है, उसमें तारे वगैरह तो सब क्या हैं? बिन्दुवत हैं। और एक बड़े क्षेत्र के सामने कुछ बिन्दुओं की क्या औकात होती है? कुछ भी नहीं।

ये भी एक बेचैनी का, एक विद्रोह का प्रदर्शन है। वो कह रहे हैं, ‘नहीं, उनकी भी बहुत बड़ी औकात होती है।‘ इतनी बड़ी। ये जो आप देख रहे हो, ये सूरज जैसे जो लग रहे हैं ये वास्तव में क्या हैं? तारे हैं। ये विन्सेंट के तारे हैं। बोल रहे हैं, ‘तुम्हारे लिए रात बड़ी होगी, मेरे लिए तारे बड़े हैं। मेरे लिए तारे बड़े हैं तो मैं अपनी पेंटिंग में तारे छोटे नहीं दिखाऊँगा।‘ ये बगावत है उनकी। वो कह रहे हैं, तुम कैमरे से फ़ोटो खींचोगे, जिस भी तरह का कैमरा उस समय हो सकता था; तुम उससे खींचोगे तो उसमे तारे कितने बड़े आएँगे? तारे क्या उसमें तो चाँद भी छोटा सा ही आता है।

रात के आकाश में चाँद भी कितना बड़ा बना लोगे? वो कह रहे हैं, ‘ऐसा नहीं है। आँखों का नियम एक तरफ़, मेरा नियम एक तरफ़, क्योंकि मैं आँख नहीं हूँ।‘ ये वेदान्त है। तो ये जो आप पीछे देख रहे हो ये विशुद्ध वेदान्त है। ये कह रहे हैं, “नाहं देहास्मि।” उन्होंने पढ़ा नहीं वेदान्त। पर वेदान्त किसी एक पुस्तक में थोड़े ही समाया हुआ है।

अहम की छटपटाहट का नाम वेदान्त है। मुक्ति की पुकार का नाम वेदान्त है। वो पुकार भारत में उठे, यूरोप में उठे, अमेरिका में उठे, अफ्रीका में उठे, किसी और ग्रह में उठे, पचास हज़ार साल पहले उठे, एक लाख साल बाद उठे। क्या फ़र्क पड़ता है! उसका नाम वेदान्त है। वेदान्त का सम्बन्ध किसी एक समुदाय से थोड़े ही है बस। ये जो पीछे है, ये ‘कोहम’ का आरम्भिक उत्तर है। वेदान्त का केंद्रीय प्रश्न क्या है? कोहम। तो ये बगावत का पहला स्वर है। मुझे नहीं मालूम मैं कौन हूँ, पर मैं आँखों की तानाशाही से इनकार करता हूँ, ‘द टेरेनी ऑफ़ द आइज़।’ इन आँखों ने तो सितारों की हैसियत ही कम कर दी। तारों की हैसियत उतनी है जितनी मैं दिखा रहा हूँ। ये है।

अगर ये पीछे एक फ्लेक्स बोर्ड नहीं होता, अगर ये एक स्क्रीन होती जिस पर प्रोजेक्ट हो सकता, तो मैं आपको उनकी बाकी पेंटिंग्स भी दिखाता। और वहाँ आप पाते हैं कि विन्सेंट कह रहे हैं कि मेरी आँखों को जो खूबसूरत लगता है, मेरे लिए वही बहुत बड़ा है।

एक बड़ा खेत है या बाग है, उसमें फूल खिले हैं। अब हमारी आँखों को फूल कितने दिखते हैं? बहुत बड़ा फूल है मान लो सूरजमुखी का है, तो वो भी कितना बड़ा हो गया? इतना ही तो हो गया। और विन्सेंट जब देखते हैं तो बोलते हैं, ‘नहीं, उतना बड़ा नहीं है। मेरे लिए फूल-ही-फूल है, बाकी सब किसी काम का नहीं है।‘

अंजन सकल पसारा रे।

लेकिन मेरा दिल तो निरंजन के साथ है। चारों तरफ़ विस्तार किसका है? अंजन का। पर मेरी आँखें किसके प्रेम में हैं? कौनसी आँखें? ये हाड़-माँस वाली नहीं, इनको तो अंजन-ही-अंजन दिखेगा। भीतर एक और आँख है। भारत ने इसीलिए उसको तीसरी आँख बोला। तो ये जब तीसरी आँख से तारों को देखो तो वो ऐसे दिखते हैं। जब तीसरी आँख से फूलों को देखो तो वो फिर विन्सेंट के फूल हो जाते हैं।

समझ में आ रही है बात?

वेदान्त माने विद्रोह, ये वेदान्त है। वेदान्त माने विद्रोह; विद्रोह किसके खिलाफ़? आँखों के खिलाफ़, मन के खिलाफ़, ये भीतरी; समाज के खिलाफ़, व्यवस्था के खिलाफ़ क्योंकि ये सब हमें ये मानने को मजबूर कर रहे हैं कि हमें मिट्टी की प्रक्रियाओं का गुलाम होकर जीना है, कि रासायनिक और यांत्रिक जीवन ही हमारी मजबूरी है, नियति है। मैं नहीं मानता।

जानते हो हमारे सारे ढर्रे, नियम-कायदे, मान्यताएँ, परम्पराएँ, ये सब कहाँ से आ रही हैं? ये केमिकल इक्वेशंस (रासायनिक समीकरण) हैं। हमारी एक-एक मान्यता के पीछे एक रासायनिक समीकरण बैठा हुआ है। मेरे भीतर कुछ है जो कह रहा है, ‘रसायन मेरी शुरुआत हो सकती है, रसायन मेरा अन्त नहीं है। मैं नहीं मानता रसायनशास्त्र को। मैं नहीं मानता।’

ये आपके लिए आज का काम है (प्रतिभागियों को गृहकार्य देते हुए)। पता करिएगा कि कैसे वो सब ढर्रे जो हम मानते चलते हैं, चाहे वो ढर्रे शरीर की सिफ़ारिश हो चाहे समाज की बन्दिश हो। उन सब ढर्रों के पीछे मुझे बताएगा कि रासायनिकता कैसे है। एक-एक ढर्रे के पीछे या एक-एक मान्यता, नियम-कायदा, जो भी बोलो, सब एक ही चीज़ है, उनके पीछे कैसे बस केमिस्ट्री है, ये बताएगा।

तो “कहे कबीर कोई बिरला जागे।” कुछ होते हैं बिरले इनके जैसे जो कहते हैं, ‘मुझे प्रेम शास्त्र जीना है। मुझे रसायन शास्त्र नहीं जीना।’ जीना किसी को भी रसायन शास्त्र नहीं है, पर वो केमिकल्स न कीमत माँगते हैं। वो कहते हैं, ‘हम चले जाएँगे, पहले हमारी मुट्ठी गरम करो।‘ जैसे किसी ने आपको पकड़ रखा हो और कह रहा हो, ‘तुम्हें छोड़ने के एवज में कुछ फिरौती लूँगा।‘ तो वो माँगते हैं। जो दे दे उसको छोड़ देते हैं, जो न दे उसको नहीं छोड़ते। छूटना सभी चाहते हैं, कीमत कोई नहीं देना चाहता।

तो समाज के लोग भी जीना प्रेम में ही चाहते हैं, पर प्रेम महँगी चीज़ है तो उसमें जीते नहीं। ऐसे में जब उन्हें कोई विन्सेंट जैसा दिख जाता है, तो उनमें घोर ईर्ष्या उठती है। वो कहते हैं, ‘जो हम माँगते और चाहते ही रह गये, वो इसने पा लिया।’ ज़बरदस्त भीतर आग लगती है, जलन। ‘हम भी यही चाह रहे थे जो ये जी रहा है, पर हम चाहत-चाहते मर गये, ये जी गया। ये खेल गया खिलाड़ी, हम देखते ही रह गये।’

तो फिर ऐसों को पागल कर दिया जाता है। कभी जेल में डाल देते हैं; और जेल में डालना बड़ी स्थूल बात होती है कि पकड़कर उसको तुम डाल दो जेल में ही। और स्थूल बात होती है कि पकड़कर उसको मार दो। वो खतरनाक हो जाता है, क्योंकि मार दोगे तो शहीद बन जाएगा, जेल में डाल दोगे तो वो शोषित कहलाएगा। तो समाज और कुत्सित चाल चलता है।

श्रोतागण: पागलखाने में डाल देगा।

आचार्य प्रशांत: पागलखाने में डालने के लिए पहले पागल करता है। पहले उसे पागल कर देता है। उस पर इतना दबाव डाल दो, उस पर इतना तनाव डाल दो कि वो पागल ही हो जाए। इनको अपने जीते जी कोई प्रसिद्धि, शोहरत थोड़े ही मिली थी बहुत। उसकी बात को फैलने मत दो, उसकी कला को स्वीकार मत करो। उसके लिए स्थितियाँ कठिन बना दो, उसे गुमनामी में ढकेल दो।

कलाकार को अपनी कला के लिए भी साधन तो समाज से ही चाहिए होते हैं न? और समाज कर सकता है ऐसा प्रबन्ध कि मैं साधन ही नहीं दूँगा। तू दिखा ले जिसको कला दिखाता हो, जंगल में मोर नाचा किसने देखा? तू बना ले बहुत अच्छी फ़िल्म, मैं रिलीज ही नहीं होने दूँगा।

अभी सुनने में आ रहा है, ये जो बनी है ‘क्रायस्पेरेसी’, इसमें दिक्कत आ रही है। शायद नेटफ्लिक्स वाले शर्तें रख रहे हैं। उन्होंने मानने से मना कर दिया, वो आ ही नहीं पा रही है। तुम बना लो जो बना सकते हो, हम तुम्हें सामने आने ही नहीं देंगे। तुम लिख लो जितनी अच्छी किताब लिख सकते हो, हम किताबें छपने नहीं देंगे। छप भी गयीं तो जो बड़े-बड़े बुक स्टोर्स हैं, उस पर हम तुम्हारी किताबें आने ही नहीं देंगे। अपने तरीके से अगर अपनी किताबों का प्रचार कर सकते हो तो कर लो। और अगर तुम अपने तरीके से भी कर लेते हो अपनी किताब का प्रचार, तो हम तुम्हारी किताब को प्रतिबन्धित कर देंगे और जिसके घर में पायी गयी किताब, उसको जेल में डाल देंगे।

ये कुछ नहीं है, बस इतना पता चल रहा है समाज वालों कि चाहते तो तुम भी वही सबकुछ थे, पर तुम्हारी हिम्मत नहीं थी पाने की। इन्होंने पा लिया तो तुमने इन पर जितने तरीके के ज़ुल्म हो सकते थे, किये। ईर्ष्या के ज़ुल्म हैं ये सब। ईर्ष्या उठती है न? प्रेम आपका, पाया किसी और ने। होती है न? तुम्हें किसी ने रोका था? तुम भी हिम्मत दिखा लेते। ‘वीर भोग गया वसुन्धरा।’ तुम भी थोड़ी वीरता दिखा लेते, तुम्हें भी मिल जाता। यही वेदान्त है — वेदान्त, विद्रोह, वीरता।

वेदान्त वीरों के लिए है। कह रहे थे न थोड़ी देर पहले, खिलाड़ियों के लिए है, पदाड़ियों के लिए नहीं है। और समाज क्या है? पदाड़ियों का अड्डा। इनमें अपनेआप कोई दम नहीं होता, पर ये इतने सारे हैं जैसे दस लाख मक्खियाँ एक हाथी पर टूट पड़ें। हाथी मारा जाएगा। कोई उसकी सूँड में घुस जाएगी, पाँच-सात सौ उसकी आँखें फोड़ देंगी, उसके कान में घुस जाएँगे। हाथी भी कुछ नहीं कर सकता। दस-बीस हज़ार मच्छर मिलकर शेर पर भारी पड़ जाएँगे।

वेदान्त का मतलब समझ रहे हो न? वेदान्त का मतलब है, ‘तुम मुझे जो कुछ भी बता रहे हो, मैं उसको अपनी पहचान मानने से इनकार करता हूँ। जाओ मरो!’ वेदान्त माने झुका हुआ सिर नहीं होता। वेदान्त माने तना हुआ सिर, भिंचे हुए जबड़े और बँधी हुई मुट्ठी। ये वेदान्त है (मुट्ठी बाँधकर दिखाते हुए)। और जब सिर तना होता है और मुट्ठी बँधी होती है, ऐसे (मुट्ठी बाँधकर दिखाते हुए) तो उसमें से सुन्दरतम कला आविर्भूत होती है।

सौन्दर्य साहस के बिना सम्भव नहीं है। आप सबसे ज़्यादा सुन्दर तब दिखते हो जब आप दैहिकता और सांसारिकता को चुनौती दे रहे होते हो, तब आपका चेहरा होता है देखने लायक। लोहा तो लोहा होता है न। कभी हज़ार डिग्री पर तपता हुआ लोहा देखा है? क्या उसमें खूबसूरती आती है, लालिमा आती है। नहीं तो लोहे का एक टुकड़ा, कोई दम है उसमें? खूबसूरत वो तब दिखता है जब तप कर अंगार हो गया होता है। समझ रहे हैं बात को? कुछ यहाँ (चेहरे की ओर संकेत) मल लेने से नहीं हो जाते सुन्दर। न बाल कटा लेने से, न कुछ और काजल लगा लेने से।

जब किसी बहुत सुन्दर, ऊँची, प्यारी चीज़ के लिए जान लड़ा रहे होते हो, और चेहरा दहक रहा होता है तब सुन्दर दिखते हो। जब शरीर, समाज, संयोग, ये सब आप पर हावी होने को आतुर होते हैं और आप कह रहे होते हो, ‘नहीं!’ तो वो जो ‘न’ की गर्जना होती है न, वो सौन्दर्य है। और गर्जना ज़रूरी नहीं है गले से हो। मूक गर्जना भी हो सकती है। ‘न’ की मूक गर्जना को कहते हैं ध्यान। ‘सबकुछ मुझे विचलित करने को तैयार है, मैं विचलित नहीं होऊँगा।’ इसको ध्यान बोलते हैं। ये ‘न’ की मूक गर्जना है।

ये ज़िन्दगी चाहे छोटी हो, चाहे कष्टों में बीती हो, सबको कहा करता हूँ, ‘पढ़ो।’ बहुत सुन्दर लिखा है इरविन स्टोन ने इस पर। उन्हीं की दूसरी किताब है ‘एगनी ऐंड द एक्स्टेसी’, वो भी पढ़िएगा। मैं खुशकिस्मत था कि कम उम्र में ही मिल पाया ऐसे लोगों से जो जानने लायक हैं। इनसे एक बार मिल लो, फिर आम ज़िन्दगी जी नहीं जाती। मन ही नहीं करता फिर जिसको हम कहते हैं ‘कॉमन लाइफ़’, ‘नॉर्मल लाइफ़’, उसको छुओ भी। उसमें रहने का, उसमें जीने का तो छोड़ दो, उसको दूर से भी छूने का मन नहीं करता। हमारी आम ज़िन्दगी हमारे आम घरों से विन्सेंट पैदा होंगे क्या? क्या छुएँ उसको! आम घरों को आप जानते नहीं हैं क्या होता है वहाँ पर? वहाँ से महानता उपजेगी क्या?

किसी भी आम घर का माहौल कैसा होता है? वहाँ मुद्दे क्या होते हैं? जो बच्चे उन घरों के हैं, वो महान निकलेंगे उन मुद्दों से उपजे हुए बच्चे, उन मुद्दों से उठे हुए बच्चे? सुबह उठे हैं तो लड़ रहे हैं कि टीवी में चैनल कौनसा देखना हैं, और चैनल में भी ये नहीं कि कोई बहुत भारी देखना है। एक को सड़े हुए एंकरों की तस्वीरें देखनी हैं समाचार में, और दूसरा बोल रहा है, ‘नहीं, मुझे मनोरंजन सुनना है या कि कोई अन्धविश्वासी बाबा आ रहा है उसका प्रवचन सुनना है सुबह-सुबह।’ मियाँ-बीवी लड़ रहे हैं। ये है घर। इस घर से ग्रेटनेस (महानता) पैदा होगी क्या?

एक बार ग्रेट्स के साथ रह लो फिर ये सब जो मीडियोक्रिटी होती है, औसत दर्ज़े की ज़िन्दगी, इसको बस दूर से ही सलाम है फिर। इसको देख सकते हो। अतिथि की तरह कभी-कभी इसमें जा सकते हो, पर फिर इसमें जी नहीं सकते। तो मैं कह रहा हूँ, ‘मैं खुशकिस्मत था।’ मुझे ये सब लोग बहुत आज से पैंतीस साल पहले ही मिल गये। अब तो मैं इनकी बात बहुत सहजता से कर पाता हूँ। जब पहले-पहल मैं टीनेजर था, जब इनको पढ़ रहा हूँ; तो पढ़ता था और मैं (सोचता था) कि ऐसा भी होना सम्भव है। ऐसे भी जिया जा सकता है? तो इनसे मुझे एक तरह की इम्युनिटी मिल गयी, ये मेरा प्रतिरक्षा तंत्र बन गये बिलकुल। ये मेरी नसों में आ गये। उसके बाद जो समाज का वायरस है, उसके प्रति मैं इम्यून हो गया।

कह रहा हूँ, ‘ये (पेंटिंग की तरफ़ संकेत करते हैं) मेरा डिफेंस (रक्षा) है। अब मुझे तुम अपना शिकार नहीं बना सकते।’ मेरे भीतर ये दौड़ रहे हैं अब। मैं बात यहाँ पर इनकी नहीं कर रहा हूँ, इनके जैसे बहुत सारे। इसलिए कहा करता हूँ, किताबें पढ़ो, ऊँचे-से-ऊँचे लोगों की संगति करो। फिर ये जो रोज़मर्रा की कॉमन लाइफ़ है, इसके प्रति वितृष्णा हो जाएगी, इसकी गन्ध से दूर रहोगे। इससे फिर एक ही रिश्ता रख पाओगे करुणा का कि काश! जो इस तरह के लोग हैं, इनमें से कुछ को मैं बचा पाऊँ।

फिर ये नहीं कहोगे कि ये जो नीचे के लोग हैं, सब ये कितना मज़ा मार रहे हैं और मुझे भी वो मज़ा करने को मिल जाए। उसके बाद बस यही कहोगे कि बेचारे बहुत दुख में हैं, काश! मैं इनको बचा पाता। काश! मैं इनको वो दिखा पाता जो इन्होंने (विन्सेंट की पेंटिंग की तरफ़ इशारा करते हैं) देखा। काश! काली रात में ये भी तारों को ऐसा देख पाते। काश! मैं इनको अपनी आँखें दे पाता। बस यही रिश्ता बचता है फिर। बहुत अच्छा रिश्ता है ये और कौनसा रिश्ता?

आम घर और आम समाज और आम सरकार, इन्हीं का शिकार हुए थे ये भी। और इन तीनों के पीछे है आम आदमी का आम मन। और आम आदमी को आम बनाए रखने में, उसको बिलकुल यहाँ तक (अपना गला पकड़ते हुए) मिट्टी में गाड़ देने में सबसे बड़ा योगदान होता है उसके घर का। हमारे घर नहीं हैं ये, ये पता नहीं क्या हैं ये! चिडियाघर हैं ये। आपको लगेगा मैं अपमान कर रहा हूँ इसीलिए खुलकर बोल नहीं पाता।

नर्क कोई किसी दूसरी दुनिया का नाम थोड़े ही है। किसी आम घर में चले जाओ, वहाँ के लपड़े-झगड़े देख लो, वही नर्क है। और क्या होता है नर्क? मैं फिर पूछ रहा हूँ, इन घरों से महानता उपज सकती है क्या? जिस घर में छ: घंटे, आठ घंटे टीवी चलता हो, उस घर से मुझे बताओ महानता कैसे पैदा होगी? और सौन्दर्य कैसे पैदा होगा? और वीरता कैसे पैदा होगी?

माँ-बाप की बेमेल, बेजोड़ शादी करा दी गयी है, आयोजित विवाह और उन्होंने सन्तानें भी पैदा कर दी देह के जुनून में; और कैसे आती हैं? बाइप्रोडक्ट। क्या होना है ऐसे घरों का? बहुत ज़रूरी है इसलिए कि एक-एक घर में वेदान्त पहुँचे, उपनिषद् पहुँचे, गीता पहुँचे।

और कहते हैं न, ’पिक्चर स्पीक्स थाउज़ेंड वर्डस (चित्र हज़ारों शब्द बोल देते हैं)।’ जो बात कहने में शायद किसी ग्रन्थ को एक अध्याय लगे, वो बात एक पेंटिंग बोल देती है, एक नज़र में बोल देती है। पर हम भारत के लोग हैं, हमारे घरों में इनकी क्या जगह है? इनकी पेंटिंग लगी है किसी के घर में? हमारे घर में तो पेंटिंग भी लगती है कि अप्सरा नाच रही है। क्या करोगे उसे नचाकर? थक जाएगी। उसे पानी पिलाओ।

फिर लोगों को बड़ी समस्या आती है, कहते हैं, ‘ये हमारे घर तोड़ रहा है‘; मुझ पर इल्ज़ाम। तुमने अपना घर नर्क जैसा बना रखा हो, तो जैसा चल रहा है वैसे ही चलने दें? और उसको कुछ भी सुधारने की कोशिश करो, तो तुम चीखने लगते हो कि तुम्हारा घर तोड़ा जा रहा है।

‘ये हमारी बेटियों को, बीवियों को, बहुओं को भड़का रहा है।’ तुम उनके ऊपर चढ़कर बैठे हो, जानवर की तरह उनका शोषण कर रहे हो संस्कारों के नाम पर, परम्परा के नाम पर। थोड़ा मैं उनको इंसान की तरह देख लेता हूँ, दो-चार बातें मैं उनसे चेतना की कर देता हूँ, तो तुम बोलते हो कि मैं उनको भड़का रहा हूँ, तुम्हारा घर तोड़ रहा हूँ; जैसे कि तुम्हारे घर बड़ी कोई शान्त, सुन्दर, स्वच्छ, मन्दिर जैसी जगहें हों।

थोड़ी भी ईमानदारी होगी तो तुम्हें पता होगा कि तुम्हारे घर हैं कैसे। गन्दी जगहें! छी! अज्ञान के, लालच के, वासना के, फरेब के अड्डे। दहेज लेकर तो तुम शादियाँ करते हो, उनसे तुम्हारा घर शुरू होता है। पाँच करोड़ लड़कियाँ हैं जो आबादी से गायब हैं, वो इन्हीं घरों में भ्रूण हत्याओं का शिकार होती हैं। और तुम कह रहे हो, ‘हमारा घर तोड़ रहा है।’ यही वो घर हैं जिनसे संस्था में जो काम करने आ गये हैं ये बच्चे मेरे, इनको आता है, ‘नहीं, नहीं, कुछ भी और कर ले, बेरोज़गार रह ले, घर वापस आ जा बस।‘ और हर महीने एकाध-दो को घर वापस खींच भी लिया जाता है, कभी ललचाकर, कभी डराकर।

‘बेरोज़गार रहना बेहतर है, कुछ मत कर। यहाँ आ जा। यहाँ काम करेगी न तो तेरी शादी नहीं होगी।‘ लड़के वाले आये थे, उनको पता चल गया तू काम कहाँ करती है, भाग गये।‘ बोले, ‘आचार्य जी के साथ काम करती है कलेशी होगी, बहुत बोलती होगी। हमें गाय चाहिए। ये घर में आकर के बात करेगी, बोलेगी।’ अभी हुआ है। ये तर्क दिया गया, बोले, ‘तू नौकरी वगैरह छोड़ दे संस्था की। तू घर आजा। हमने तेरे लिए लड़का देखा था। वो आये, सबकुछ सेट हो गया था, फिर उनको पता चल गया। और जैसे ही वो देखे कि यहाँ (संस्था में) काम करती है, एकदम उचककर खड़े हो गये, बोले, ‘बाप रे बाप! ये खतरनाक आदमी, इसके साथ काम करती है। भागो! ये तो आएगी घर में तो क्रान्ति मचाएगी।‘

ये घर हैं। ऐसों का दुश्मन (पेंटिंग की ओर इशारा करते हुए), घर की बात क्यों कर रहा हूँ, क्योंकि ऐसों का दुश्मन सबसे ज़्यादा हमारा आम परिवार ही होता है। ये सुनने में अजीब बात लगेगी पर विचार करिएगा। सौन्दर्य से और सत्य से सबसे ज़्यादा जिसको तकलीफ़ होती है, वो है आम परिवारी। कभी-कभी मुझे लगता है, मुझे अपराधियों के प्रति फिर भी शायद थोड़ी नरमी हो पर जो आम परिवारी होता है, ये अपराधियों से भी गया-गुज़रा होता है, क्योंकि ये बहुत बड़े-बड़े अपराधों का खुद कारण होता है।

पता करो कि अपराधी कहाँ से आते हैं तो पता चलेगा कि अपराधों के पीछे क्या है, द नॉर्मल लाइफ़ (आम जीवन)। रिश्वत के पैसे से नया सोफ़ा तुम घर में लेकर आते हो, फिर तुम चाहते हो, तुम्हारे घर आकर मैं उस सोफ़े पर बैठूँ और तुम कहते हो, ‘मेरा ये घर थोड़े ही है, स्वर्गदीप।’ ऐसे-ऐसे घरों के नाम रखते हो। ‘आनन्द-कुटीर’! और भीतर जूते उछल रहे हैं, चप्पलें उछल रही हैं, कड़ाही फोड़ी जा रही है और बाहर लिख रखा है ‘आनन्द-कुटीर’।

तुम्हें शौक है खुद को बेवकूफ़ बनाने का, बनाओ, मैं थोड़े ही बनूँगा — न ऐसे लोग बने कभी। बदले में तुमने उन्हें यातनाएँ दीं, मार डाला, पागल-खाने में डाल दिया। कोई बात नहीं, जितना जिये मस्त जिये। रात में जो खाना बनता है और जो छौंक लगती है, उसकी जो गन्ध उठती है न आम घर में, वो भी बेईमानी की गन्ध होती है।

घर में कोई रिश्तेदार आ गया उससे, ‘हें-हें-हें! कृत्रिम चेहरे, झूठे मुखौटे। और इसको हम क्या बोलते हैं? दुनियादारी, सांसारिकता। ‘देखो, थोड़ा तो तुम्हें व्यवहार सीखना पड़ेगा।‘ नहीं सीखना? कोई फ़ालतू आदमी आएगा, मैं दरवाज़ा बन्द कर लूँगा। नहीं करनी बात! नहीं करनी! (एक छोटी बच्ची से पूछते हुए) सही बोला? (छोटी बच्ची ‘हाँ’ में सिर हिलाती है) ये देखो! (श्रोतागण हँसते हैं)

अरे! हँसने भर की बात नहीं है। इन्हीं पर भरोसा है मुझे, और यही आगे लेकर जाएँगे। कभी चले जाओ कहीं पर जहाँ पर फैमिली गेट टुगेदर (परिवार का एकत्र होना) हो रहा हो। दो-तीन भाई, उनकी पत्नियाँ, परिवार सब इकट्ठा हुए हों — जाकर बैठता हूँ न कैफ़े में, रेस्तराँ में कहीं बैठा हूँ तो मैं लिख रहा हूँ; वहाँ बैठ गये हैं। तो दो-तीन टेबलें जुड़वा देंगे और आठ-दस वहाँ बैठ जाएँगे। लड़कियाँ जो अठारह-बीस साल की होंगी, एकदम पतली-पतली होंगी और माँएँ जो चालीस साल की होंगी, एकदम भैंस बराबर। वो माँएँ कभी उन लड़कियों जैसी थीं ताकि उनका ब्याह हो जाए, शादी होते ही इतनी मोटी हो गयीं। फिर मैं उनके पतियों को देखता हूँ। वो भैंस हैं तो तुम क्या? तुम भैंसवाले।

सब खोखली हँसी हँस रहे हैं, ‘हा-हा-हा! चलो, एक और मँगा लो बटर चिकन।‘ झूठे चुटकुले। थोड़ी देर तक आप इन बातों के मज़े ले सकते हो। उसके बाद एक वियरीनेस (उकताहट) आने लगती है। मैं अपनी मेज़ बदल लेता हूँ, दूर चला जाता हूँ। मैं कहता हूँ, ‘इनको देखूँगा भी तो घिन लगती है, उल्टी आती है — झूठे, घिनौने, खोखले लोग।’ असलियत नाम की कोई चीज़ नहीं, एक-दूसरे को झूठ खिला रहे हैं और खा रहे हैं। जैसे कि दस इकट्ठा हो गये हों और दसों पादें और सूँघें, और यही उनका उत्सव है पदाड़ियों का।

और हमारे गेट-टुगेदर्स क्या होते हैं? (श्रोतागण हँसते हैं) और जो ऐसा न हो, उसको पागल कर दो। पागल न हो आदमी तो क्या हो जाए? चारों तरफ़ यही-यही हैं मक्खी-मच्छर की तरह छाये हुए। जहाँ जाओ इनकी शक्लें। और इनको सुधारने की कोशिश करो तो ये काट खाते हैं। इनसे कुछ बात करो तो ये डर जाते हैं। आत्मविश्वास भरपूर होता है।

अंकल-आंटी चले आ रहे होंगे। उन्होंने कुर्ता डाल रखा होगा, उसमें दो मटके बराबर इतनी तोंद निकली हुई है और उनके कुर्ते के नीचे छुपी हुई है। आंटी की साड़ी में से पूरा बाहर आ चुका है मामला (श्रोतागण हँसते हैं)। और पाँच पैकेट इधर और सात इधर लटका रखे हैं। और खुश हुए जा रहे हैं कि आज ये खरीद लिया, आज ये...।

वो तो अब आप लोगों ने मेरे ऊपर इज़्ज़त का बोझ और वज़न डाल दिया है, नहीं तो मैं पहले जैसा होता पन्द्रह-अठारह साल का तो एक लम्बी लकड़ी लेकर के...(श्रोतागण हँसते हैं)। भीतर से मैं अभी भी वैसा ही हूँ, मुझे मौका मिले तो मैं यही करूँगा। पर अब ‘आचार्य जी, आचार्य जी’ करके मुझे ज़बरदस्ती गम्भीर बना देते हो।

सोचो, दो ऐसे डेढ़-डेढ़ सौ किलो के चले आ रहे हैं। भाई, मैं इसी बात से परेशान हूँ। मेरा कुल मिलाकर के दस किलो वज़न ज़्यादा है, लेकिन मैं उसको ही लेकर सोचता रहता हूँ कि क्या करूँ। ये डेढ़-सौ किलो में कैसे जी लेते हैं? और चले आ रहे हैं दोनों खुश बहुत हैं। इतना खाया है और बाकी पैक कराया है। सबकुछ खरीदने के बाद आखिरी पैकेट उस माल का होता है जो खा नहीं पाये, उसको लेकर जा रहे हैं कि अभी और खाएँगे।

भोगो-भोगो-भोगो! वो जो होता है न मेटल डिटेक्टर जिसमें से घुसना होता है, एक आंटी उसमें घुस ही नहीं पा रही थीं। उसको टेढ़ा करके, धक्का देकर निकाला गया। इनके घरों से महानता पैदा होगी? यहाँ से कलाकार निकलेंगे, यहाँ से ज्ञानी निकलेंगे, विद्वान निकलेंगे, वैज्ञानिक निकलेंगे? यहाँ से कौन निकलेगा? यही वो लोग हैं जिन्होंने कोविड के समय पर थालियाँ बजायी थीं, एक-एक घर में बजी थीं। फिर वही संयम रख गया था मैं, नहीं तो उधर दूर-दूर तक जहाँ है वहाँ कोई घर नहीं — एक था वहाँ बज रही थी। मैंने कहा, ‘थप्पड़ मारकर आऊँगा इसको।‘ ये वैज्ञानिक निकलेंगे? इन घरों से वैज्ञानिकता आगे बढ़ेगी जिन घरों में थालियाँ बजायी जाती हैं? फिर इन्हें बता दो कि तुम कुछ नहीं हो, बस अन्धविश्वास के मरीज़ हो और डरे-सहमे हो, तो इनको तकलीफ़ हो जाती है।

Starry, starry night Paint your palette blue and gray Look out on a summer's day With eyes that know the darkness in my soul Shadows on the hills Sketch the trees and the daffodils Catch the breeze and the winter chills In colors on the snowy, linen land Now, I understand what you tried to say to me And how you suffered for your sanity And how you tried to set them free They would not listen, they did not know how Perhaps they'll listen now Starry, starry night Flaming flowers that brightly blaze Swirling clouds in violet haze Reflect in Vincent's eyes of china blue Colors changing hue Morning fields of amber grain Weathered faces lined in pain Are soothed beneath the artist's loving hand Now, I understand, what you tried to say to me How you suffered for your sanity How you tried to set them free They would not listen, they did not know how Perhaps they'll listen now For they could not love you But still your love was true And when no hope was left inside On that starry, starry night You took your life as lovers often do But I could have told you, Vincent This world was never meant for one As beautiful as you Starry, starry night Portraits hung in empty halls Frameless heads on nameless walls With eyes that watch the world and can't forget Like the strangers that you've met The ragged men in ragged clothes The silver thorn of bloody rose Lie crushed and broken on the virgin snow Now, I think I know what you tried to say to me How you suffered for your sanity How you tried to set them free They would not listen, they're not listening still Perhaps they never will

YouTube Link: https://youtu.be/cOW-VRJr0uc?si=malbkSxWxRHezkv3

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles