आजकल प्रचलित झूठा ध्यान || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

16 min
43 reads
आजकल प्रचलित झूठा ध्यान || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: मैं अगर ध्यान की बात करूँ, उसका मतलब है कि मैं जो कर रहा हूँ, उसी में पूरी तरह डूब जाऊँ। जैसे मैं कुछ देख रहा हूँ तो पूरी तरह देख रहा हूँ, कुछ सुन रहा हूँ तो पूरी तरह सुन रहा हूँ, तो वहाँ पर मुझे आपकी वो दूसरी बात समझ नहीं आयी।

आचार्य प्रशांत: नहीं, यह धारणा तुमने कहीं से सुन ली है, कि देखो तो पूरे तरीक़े से देखो, सुनो तो पूरे तरीक़े से सुनो। यह बेकार की बातें हैं। यह सब यूँही सुनी-सुनायी चीज़ें हैं। तुमसे न उपनिषद् यह कहेंगे, न कबीर यह कहेंगे कि देखो तो पूरा देखो, सुनो तो पूरा सुनो। ये इस शताब्दी में यह जो नया-नया अध्यात्म विकसित हुआ है, उसमें यह सब बातें बतायी जाती हैं, ‘देखो तो पूरा देखो’।

क्या देख रहे हो? देख रहे हो बाहर सुअर का माँस, बढ़िया! और जीभ ललचाई जा रही है कि अभी मिल जाए और कह रहे हो, 'हमें तो गुरूजी बता गये हैं कि देखो तो पूरा देखो’। और देख रहे हो सामने से एक जा रही है कमनीय स्त्री। कह रहे हो, ‘हमें तो बताया गया है कि देखो तो पूरा देखो’।

और काम तो ज़्यादातर अंड-बंड ही करते हो, और नयी-नयी शिक्षा मिली है, ‘जो करो उसे पूरा करो'; तो गड्ढे में गिर रहे हो तो पूरा गिरो। सौ में से निन्यानवे काम तो मूर्खता के ही होते हैं; मूर्खता पूरी करो।

इस चक्कर में मत पड़ जाना कि जो कर रहे हैं उसको पूरा करें। सर्वप्रथम, 'कौन कर रहा है' — इस पर नज़र रखो क्योंकि कर्म तो कर्ता द्वारा निर्धारित होगा, और अहम् कर रहा है तो गड़बड़ ही करेगा। और अहम् कर रहा है तो पूरा क्या ख़ाक करेगा, वो ख़ुद ही अधूरा है। उसके हाथों आज तक क्या पूरा हुआ है?

‘कौन’ कर रहा है, इस पर ध्यान दो! पूरा करने के लिए, पूरा करने वाला भी तो होना चाहिए न। गाड़ी में टायर हैं–दो, दो पहिए कोई निकाल ले गया है। गाड़ी ही अधूरी है; इससे यात्रा पूरी करोगे क्या?

तो यह कहीं का अध्यात्म नहीं है कि जो कर रहे हो उसी में डूब जाओ; अहम् तो यह चाहता ही है। विषयासक्ति और क्या होती है? कभी देखना किसी मक्खी को, वो गुड़ में कैसी डूबी हुई होती है।

यही सिखा रहा है तुम्हें इस शताब्दी का अध्यात्म? हमारे गुरू तो बता गये हैं कि–

"माखी गुड़ में गड़ी रहे, पंख रही लिपटाए। हाथ मले और सिर धुनें, लालच बुरी बलाय।।"

~ कबीर साहब

“माखी गुड़ में गड़ी रहे” — पूरी डूब गयी है — “माखी गुड़ में गड़ी रहे, पंख रहे लिपटाए। हाथ मले और सर धुनें”… बोल दो! “लालच बुरी बलाय”। तुम जाकर बताना मक्खी को कि मक्खी जो कर, पूरा कर। मक्खी और करेगी क्या? उपनिषद् तो बाँचेगी नहीं, गुड़ पर ही जाकर बैठेगी। और चित्त यहाँ सबका मक्खी जैसा है। है कि नहीं, बोलो?

यह बाज़ारू शिक्षाएँ हैं, इनमें मत पड़ जाया करो।

प्र: यह कृष्णमूर्ति जी, जो निरंतर ध्यान की बात करते हैं‌, उसका क्या मतलब है?

आचार्य: वो शुद्ध ‘मैं’ है। उसको आत्मा कहते हैं। जिसका न आदि है, न अंत है। जो 'है', बस। कोई वस्तु नहीं है वो, कोई विचार नहीं है वो, कोई सिद्धांत नहीं है वो।

तुमने बीच में बात करी थी ध्यान की, अब वो भी थोड़ा समझ लो! ध्यान चीज़ क्या है, इसके बारे में स्पष्टता होनी चाहिए‌। अहम् जब मन से तादात्म्य कर ले, सिर्फ़ तब ध्यान शब्द ज़रा प्रासंगिक हो जाता है, अन्यथा नहीं।

ध्यान कोई बहुत ऊँची, बड़ी पवित्र बात नहीं है, ध्यान भी बस बीमारों के संदर्भ में उपयोग किया जाने वाला एक शब्द है। आपको शायद ताज्जुब होगा — जो बीमार नहीं, उसके लिए कोई ध्यान नहीं।

मन की वृत्ति क्या है? वो हमेशा क्या बनाता रहता है? लक्ष्य बनाता रहता है न? अभी यहाँ पहुँचना है, अब यह करना है, अब वो करना है, यह सब, वह सब। मन यही करता है न? ठीक? तो मन के पास हमेशा ध्येय होते हैं। जब अहम् मन से संयुक्त हो गया, तो अहम् के ध्येय भी मन के ध्येय हो गये।

और ज़्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं, मन से संयुक्त होते हैं। मन की उठा-पटक को वो अपनी उठा-पटक बना लेते हैं। तब उनसे कहा जाता है कि बेटा देखो, अब जब तुम मन से एकाकार हो ही गये हो, तो लक्ष्य तो तुम्हारे लिए अनिवार्य हो गये। क्योंकि मन की वृत्ति है — लक्ष्य बनाना। और ‘मैं’ किसके साथ जुड़ गया? ‘मैं’ किसके साथ जुड़ गया?

प्र: मन के साथ जुड़ गया।

आचार्य: मन के साथ जुड़ गया है, तो अब लक्ष्य तो बनेंगे। लक्ष्य माने ध्येय। लक्ष्य माने? ध्येय। ध्यान का मतलब होता है कि जब ध्येय बना ही रहे हो, तो ज़रा अच्छा-सा बना लो न!

ध्येय बनाना तो तुम्हारी मजबूरी हो गयी अब। क्यों हो गयी मजबूरी? क्योंकि तुम क्या हो गये हो अब? मन। और मन किसमें जीता है? मन लक्ष्यों में जीता है। तो लक्ष्य तो अब बनेंगे ज़िन्दगी में। चाट-पकौड़ी का लक्ष्य बनेगा, रुपये-पैसे का लक्ष्य बनेगा, कपड़े-लत्ते का लक्ष्य बनेगा, यहाँ पहुँचने का लक्ष्य बनेगा, वहाँ जाने का लक्ष्य बनेगा, यहाँ जीतने का लक्ष्य बनेगा, उसको हराने का लक्ष्य बनेगा। यह सब बनते हैं न लक्ष्य? दिनभर इन्हीं में जीते हैं न?

मन लक्ष्यों में जीता है, ध्येय में। मन से एकाकार अहम् के लिए उपचार की विधि है — ध्यान। कि जब तुम निशाना साध ही रहे हो, तो क्यों न किसी ऐसे पर साधो जो तुमको चैन दे देगा। यह ध्यान है।

जब तक मन से तुम संयुक्त हो, तब तक ध्यान की उपयोगिता है। और ध्यान माने किसी ऐसी जगह निशाना साधना, जो जगह तुमको मुक्ति ही दिला दे। अन्यथा अहम् का बस चले तो वो उन्हीं-उन्हीं जगहों पर जाएगा जहाँ वो क़ायम रह जाए। अहम् क़ायम है माने मुक्ति नहीं है। अहम् का होना ही बंधन है। ध्यान शिक्षा है। ध्यान का मतलब है — अपने हित के लिए अपने खिलाफ़ जाना। अहम् तो अब चाह रहा है कि किसी व्यर्थ जगह को ध्येय बना लूँ, पर किसी और की अनुकम्पा से अहम् को यह सीख मिल रही है कि बेटा, अगर अपना भला चाहता है, तो निशाना सही जगह को बना। यह ध्यान है।

आ रही है बात समझ में?

इसी को अटेंशन कहते हैं। और जो सही जगह होती है, वो बहुत बड़ी होती है। उसको निशाना बनाने का मतलब यह नहीं होता कि उसको जीत लाएँगे; उसको निशाना बनाने का मतलब होता है कि उसके दास हो जाएँगे।

एक लक्ष्य तो यह होता है कि मधुमक्खी के छत्ते को लक्ष्य बनाया है, अब फिर उसके बाद शहद पीने को मिलेगा, बड़ा मज़ा आएगा। ध्यान में जो लक्ष्य बनाया जाता है, वो होती है — शेर की गुफ़ा; मधुमक्खी का छत्ता नहीं।

अहम् आमतौर पर किसको लक्ष्य बनाना चाहता है? छत्ते को। कि शहद मिलेगा और कष्ट होगा भी तो थोड़ा-ही-बहुत होगा। और उस कष्ट के ख़िलाफ़ कुछ उपाय किया जा सकता है। कम्बल ओढ़कर के छत्ता फोड़ देंगे और फिर शहद बढ़िया!

ध्यान का मतलब होता है कि मधुमक्खी को नहीं, सिंह को निशाना बनाया है। अब घुस जाओ शेर की गुफ़ा में, कम्बल ओढ़कर घुस जाना, मन करे तो। कोई बात नहीं। ऐसे को निशाना बनाया है, जो तुम्हें मिटा ही देगा। आत्मघाती मिशन है ध्यान। इसीलिए उसका नाम है–अटेंशन , अटेंड (सेवा) करना।

अटेंड शब्द बड़ा सांकेतिक है, किसी के सामने झुक जाने को कहते हैं — अटेंड करना। किसी इतनी बड़ी चीज़ को लक्ष्य बना लिया, जिसके सामने हम बहुत छोटे हैं। ‘वो है बहुत बड़ा, जो हमें अब चाहिए’ — यह ध्यान है।

तुम ध्वनियों पर, रूपों पर, वस्तुओं पर मन को केंद्रित कर रहे हो, इसको ध्यान नहीं कहते। यह सब तो तुम्हारे खिलौने हैं, अपने ही खिलौनों पर मन को केंद्रित कर देने को ध्यान नहीं कहते। मधुमक्खी नहीं शेर, शेर की गुफ़ा से प्यार हो गया है — ये है ध्यान।

लक्ष्य बना लिया है, शेर की गुफ़ा में प्रवेश करना है। अब जो होगा, देखा जायेगा पर कुछ है, जो बड़ा प्यारा लगता है। कुछ है, जो बड़ा विराट लगता है। अपनी क्षुद्रता उसको समर्पित करने का जी चाहता है।

तो इसीलिए ध्यान कोई गतिविधि भी नहीं हो सकती कि बैठ गये ऐसे ही पालथी मारकर के और कह रहे हैं, ‘ध्यान लगा रहे हैं, ध्यान लगा रहे हैं’। ध्यान ज़िन्दगी है, भाई! लक्ष्य दिनभर चलते हैं न? दफ़्तर जाते हो किसकी पूर्ति के लिए? लक्ष्यों की पूर्ति के लिए। घर भी वापस आते हो किसकी पूर्ति के लिए? लक्ष्यों के लिए। लक्ष्य चौबीस घंटा चलता है न?

समझ में आ रही है बात?

तो ध्यान ज़िन्दगी है। ध्यान इतना बड़ा लक्ष्य है जो चौबीस घंटे चलेगा-ही-चलेगा। छोटे-मोटे लक्ष्य तो फिर भी हो सकता है एक-आध घंटे में निपट जाएँ; ध्यान तो महाध्येय है, उसको कैसे जल्दी से निपटा दोगे?

तो ध्यान का मतलब यह आलती-पालथी मारना और कोई मुद्रा धारण करना नहीं होता। ध्यान कोई प्रक्रिया नहीं होती, कोई क्रिया, कोई विधि नहीं होती; ध्यान समूची ज़िन्दगी होता है। ज़िन्दगी सौंप दी किसी को, कुछ मिल गया इतना बड़ा कि ज़िन्दगी उसपर न्यौछावर कर दी है — यह ध्यान है, अन्यथा ध्यान नहीं है।

देखो, एक बात को लेकर सबसे प्रार्थना है! अध्यात्म आकर्षित तो सभी को करता है क्योंकि बेचैनी सबको है। और सबको समझ में आता है कि कुछ ऐसा चाहिए जो आत्मज्ञान से ही मिलेगा, उस पार का कुछ समझने से ही मिलेगा। और उस पार का कुछ समझना हो, तो यह जो बाज़ारू साहित्य है, इसकी चपेट में आने से बचना।

तुम किसी आम बुक-स्टोर (पुस्तकालय) के अगर रिलीज़न एंड स्प्रिचुएलिटी सेक्शन (धर्म और अध्यात्म विभाग) में चले गये, तो वहाँ जो तुम्हें किताबें रखी मिलेंगी, उनमें से निन्यानवे प्रतिशत विषैली हैं, अति घातक हैं। बिक बहुत रही हैं, पर तुम मत फँस जाना।

पठनीय बहुत किताबें हैं, वो यहाँ (अपनी लाइब्रेरी की ओर इशारा करते हुए) पीछे लगी हुई हैं। विराट साहित्य अपने पीछे छोड़ गये हैं संत, तुम उसकी शरण लेना। एक-दो-चार नहीं, सैकड़ों में हैं उपनिषद्, तुम उनमें डूबना।

यह जो अभी नया-नया आध्यात्मिक विस्फोट हुआ है, इससे सतर्क रहो। बहुत किताबें आ रही हैं, अधिकांश उसमें से अंग्रेज़ी में हैं, पाश्चात्य लेखक हैं, कुछ नए-नवेले भारतीय भी हैं; उनका बहुत-बहुत कम ताल्लुक़ है संतों से।

जाओ कबीर साहब के साखी-ग्रंथ के पास। जाओ नानक साहब के आदि ग्रंथ के पास। ज्ञान के अभिलाषी हो तो जाओ ऋभु बाबा से मिल लो। अष्टावक्र बाबा से मिल लो। बहुत पाओगे, अघा जाओगे बिलकुल। हाँ, जो उनकी बात है, वो सीधी-सरल है। उसमें तुमको ध्यान की विधियाँ नहीं मिल जाएँगी, उसमें तुमको मसालेदार-ज़ायक़ेदार किस्से-कहानियाँ, लतीफ़े-चुटकुले नहीं मिल जाएँगे।

ऋभु बाबा की शक़्ल किसी ने देखी नहीं, और अष्टावक्र बाबा की काया — बताया जाता है कि बहुत आकर्षक नहीं थी। और हम हैं काया के दीवाने, तो फँस जाते हैं आसानी से। हमारी आँखों को मसाला चाहिए, मन को मसाला चाहिए। और सीडीज़ हैं, यूट्यूब है; वो मसाला परोसने के लिए तैयार हैं। ऐसे में किसको भाती है किसी कबीर की सीधी-सच्ची-सरल बात?

समसामयिक आध्यात्मिकता में एक बात बड़ी विचित्र है — मूल ग्रंथों के प्रति कोई सम्मान ही नहीं है, उनका कोई ज़िक्र ही नहीं है। जहाँ से भी तुम अपनी यह सब परिभाषाएँ उठाकर लाये थे, उनको तुमने कभी सुना है कि वो महावीर वाणी का उल्लेख भी करते हों? पचास बातें होंगी इधर की, उधर की; दत्तात्रेय का नाम ही नहीं लेंगे। अवधूत उपनिषद्, अवधूत गीता का नाम ही नहीं लेंगे, बिलकुल दबा जाएँगे। अष्टावक्र का नाम ही नहीं लेंगे, क्योंकि उनका नाम अगर ले दिया, तो बात बिलकुल खुल जाएगी कि तुम्हारी सारी शिक्षा झूठी है, बिलकुल बाज़ारू है, बेच रहे हो बस।

देने वाले बहुत दे गये हैं। उन्होंने जो भेंट दी है, उसका सम्मान करो और प्रेमपूर्वक ग्रहण करो।

और एक बात और समझना! सत्य की एक पहचान होती है — नित्यता। होती है न? नित्यता माने? काल उसको मिटा नहीं पाता। मिटा भी नहीं पाता और मलिन भी नहीं कर पाता। उसको ही कहते हैं न — ‘सत्य’? किसी कृष्ण की बात आज भी प्रासंगिक है न? तो इससे कुछ तो पता चलता है न उस बात की गुणवत्ता के बारे में? बोलो, हाँ या न?

और क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि आज से सौ, दो-सौ, छह-सौ, हज़ार साल बाद श्रीकृष्ण की गीता अप्रासंगिक हो जाएगी? ऐसा होने वाला है क्या? तो फिर समझो तो सही न कि उस वक्तव्य में कुछ दम है, उसका सम्मान करो। सबसे पहले उसके पास जाओ।

ख़ुसरो, फ़रीद, रूमी, बुल्लेशाह इनके श्लोकों पर, इनकी काफ़ियों पर, तुम आज भी प्रेम गीत रचते हो न? माने इनकी बातें समयातीत हैं। हैं न? इनमें से किसी को चार-सौ साल हुए हैं और किसी को हज़ार साल होने को आ रहे हैं। किसी की बात हज़ार साल चल गयी, बात में कुछ तो दम होगा। सोचो तो सही! अब इसी कसौटी पर कस लेना — ‘नित्यता’ है कसौटी का नाम।

यह आजकल का जो आध्यात्मिक साहित्य तुम पढ़ रहे हो, तुम्हें लग रहा है हज़ार साल चलने वाला है? जिन लोगों को सुने पड़े हो, तुम्हें लग रहा है उनकी बातें सौ साल भी चलने वाली हैं? नहीं। सिर्फ़ अपने जीवनकाल में धंधा कर रहे हैं, बाज़ार चला रहे हैं, दुकान चला रहे हैं। और प्रयोजन भी इतना ही है कि जब तक हम जी रहे हैं, दुकान चलती रहे। जिस दिन वो ख़त्म हुए, उस दिन तुम मुझे बताना कि उनके बाद क्या बचा उनका?

कबीर साहब के बाद कबीर साहब का सबकुछ बचा रहा कि नहीं बचा रहा, बताओ? इसीलिए कबीर साहब अमर हैं। क्योंकि कबीर की देह की मृत्यु हुई भी, तो भी कबीर साहब का कुछ नहीं मिटा। कबीर साहब तो अपना सबकुछ छोड़ गये और वो अमर हैं। बोलो?

अभी जिनकी किताबें तुम पढ़ रहे हो, वो जिस दिन मरेंगे, उसके बाद उनका कुछ भी बचेगा? अभी तो भरपूर आयोजन है, और उस पूरे आयोजन के केंद्र में उनकी देह है। बहुत विशाल जनसमूह है, वो जनसमूह देह के आगे बैठा है; शिक्षाओं के आगे नहीं बैठा। शिक्षाएँ तो कुछ छोड़कर ही नहीं जा रहे, बात तो ऐसी कुछ है ही नहीं जो कालातीत हो।

बहुत मुश्किल है देखो, कि अध्यात्म में कुछ नया हो जाएगा। तो अभी भी अगर कोई नयी बात सामने आया करे, तो ज़रा चौकन्ने हो जाया करो। मैं तो यह जानता हूँ, कि इतना होशियार कोई नहीं है कि कोई ऐसी नयी बात बता दे, जो न कबीर को सूझी थी, न कृष्ण को सूझी थी, न अष्टावक्र को सूझी थी; पर नए-नवेले गुरूदेव को सूझ गयी है। यह नहीं होने वाला।

ऐसी कोई बात होने ही नहीं वाली है जो कबीर साहब बताने से चूक गये हों, और अभी-अभी उतरे हों कोई भी देवाधिराज, उन्होंने बता दी हो। नहीं।

इतना विराट साहित्य है कबीर साहब का, कि मानव जीवन का कोई पक्ष उनकी तेज़ निगाह से बचा नहीं है। कोई बात अगर बोलने लायक़ होती, तो कबीर साहब ने बोल दी होती।

और अब अगर कोई नयी बात पाओ, जो कबीर साहब ने नहीं बोली है, तो समझ लेना कि वो बात नहीं है, घोटाला है। वो बात ऐसी है जो करनी नहीं चाहिए, पर करी जा रही है। करने लायक़ होती तो पहले बहुत थे, वो कर गये होते। और पहले के एक-दो नहीं हैं, पहले की अध्यात्म की हज़ारों साल की परम्परा है। तुम आज कौनसी विलक्षण नयी बुद्धि लेकर आ गये, जो तीन-हज़ार साल तक लोगों को नहीं सूझ रही थी, और तुम्हें सूझ रही है?

यह जो नए-नए जुमले हैं, इनसे बचना। ‘वर्तमान में जियो।’ ‘वो करो जो तुम्हारा दिल चाहता है।’ और क्या-क्या चल रहा है?

प्र: 'अपनेआप से प्रेम करो।'

आचार्य: ‘अपनेआप से प्रेम करो’, और ‘जो भी तुम चाहते हो तुम्हें मिलेगा, आसान है’।

बचना भाई! मामला आसान होता तो कबीर साहब बता गये होते कि आसान है। उन्होंने तो यह कहा है कि–

"हँस-हँस कंत न पाईया, जिन पाया तिन रोय। हंसी खेल पिया बिन, कौन सुहागन होय।।"

~ कबीर साहब

“हँस-हँस कंत न पाईया, जिन पाया तिन रोये।” तो उन्होंने कहा, ‘आसान नहीं है’। अब अगर कोई तुम्हारे सामने खड़ा होकर बोल रहा है – ‘आसान है’, तो समझ जाना कि यह डकैत ही है। आसान है नहीं; फँसान है, फँसे।

संतों ने बार-बार क्या समझाया है? कि जीवनभर साधना करो। उसके बाद भी अगर उस प्रभु के, हरि के क्षण-भर को भी दर्शन हो जाएँ, तो अपनेआप को सौभाग्यशाली जानना। ठीक? किसी ने कहा कि आसान है, हो जाएगा? पर अहम् यही चाहता है, कि उसे बताया जाए कि जो चाहते हो वो मिलेगा, बस हो जाएगा, स्टे मोटिवेटेड (अभिप्रेरित बने रहो)। बचना!

कोई बता रहा है — फ़लाने पहाड़ पर चढ़कर बैठ जाओ। कोई बोल रहा है — फ़लाने कुंड में नहा लो। कोई कह रहा है — हमारा रुद्राक्ष पहन लो। इतनी बड़ी परंपरा रही ज्ञानियों की, संतों की, किसने तुमसे कहा कि रुद्राक्ष पहनकर तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी, बताना ज़रा?

और आज अगर कोई तुम्हारे सामने रुद्राक्ष की दुकान लेकर आ जाए और बोले, ‘हमारी दुकान से खरीदना, रुद्राक्ष पहनोगे काम हो जाएगा’। तो भ्रमित कर रहा है कि नहीं?

दो-तिहाई सवाल तो साधकों के और प्रश्नकर्ताओं के जो आते हैं, वो ऐसे ही आते हैं कि उन्होंने भ्रामक शिक्षाओं पर चल-चल कर मामला बिगाड़ लिया होता है। और फिर आते हैं, कहते हैं कि अभी यह हालत है, क्या करना है?

पहले तो बड़ा श्रम लगता है, उनको यह आश्वस्त करने में कि बेटा, जिन बातों को तुम आध्यात्मिक वक्तव्य कह रहे हो, वो आध्यात्मिक हैं ही नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories